जायसी ग्रंथावली
अर्थात
पद्मावत,अखरावट और आाखिरी कलाम
संपादक
रामचद्र शुक्ल
नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी
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१५वां संस्करण : सं० २०३१, २१०० प्र०
मूल्य : २५.० ०
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-मुद्रक
शंभुनाथ वाजपेयी
नागरी मुद्रण,वाराणसी
वक्तव्य
(प्रथम संस्करण)
'पदमावत' हिदी के सर्वोत्तम प्रबंधकाव्यों में है। ठेठ अवधी भाषा के माधुर्य और भावों की गंभीरता की दृष्टि से यह काव्य निराला है। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि इसके पठनपाठन का मार्ग कठिनाइयों के कारण अब तक बंद सा रहा। एक तो इसकी भाषा पुरानी और ठेठ अवधी, दूसरे भाव भी गूढ़, अतः किसी शुद्ध अच्छे संस्करण के बिना इसके अध्ययन का प्रयास कोई कर भी कैसे सकता था? पर इसका अध्ययन हिंदी साहित्य की जानकारी के लिये कितना आवश्यक है, यह इसी से अनुमान किया जा सकता है कि इसी के ढाँचे पर ३४ वर्ष पीछे गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने लोकप्रसिद्ध ग्रंथ 'रामचरितमानस' की रचना की। यही अवधी भाषा और चौपाई दोहे का क्रम दोनों में है, जो आाख्यानकाव्यों के लिये हिंदी में संभवतः पहले से चला आता रहा हो। कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका प्रयोग जायसी और तुलसी को छोड़ और किसी कवि ने नहीं किया है। तुलसी की भाषा के स्वरूप को पूर्णतया समझने के लिये जायसी की भाषा का अध्ययन आवश्यक है।
इस ग्रंथ के चार संस्करण मेरे देखने में आए हैं—एक नवलकिशोर प्रेस का, दूमरा पं॰ रामजसन मिश्र संपादित काशी के चंद्रप्रभा प्रेस का, तीसरा कानपुर के किसी पुराने प्रेम का फारसी अक्षरों में और म॰ म॰ पं॰ सुधाकर द्विवेदी और डाक्टर ग्रियर्सन संपादित एशियाटिक सोसाइटी का, जो पूरा नहीं, तृतीयांश मात्र है।
इनमें से प्रथम दो संस्करण तो किसी काम के नहीं। एक चौपाई का भी पाठ शुद्ध नहीं, शब्द बिना इस विचार के रखे हुए हैं कि उनका कुछ अर्थ भी हो सकता है या नहीं। कानपुरवाले उर्दू संस्करण को कुछ लोगों ने अच्छा बताया। पर देखने पर वह भी इसी श्रेणी का निकला। उसमें विशेषता केवल इतनी ही है कि चौपाइयों के नीचे अर्थभी दिया हुआ दिखाई पड़ता है। पर यह अर्थ भी अटकलपच्चू है; किसी मुंशी या मौलवी साहब ने प्रसंग के अनुसार अंदाज से ही लगाया है, शब्दार्थ की ओर ध्यान देकर नहीं। कुछ नमूने देखिए-
- (१) 'जाएउ नागमती नगसेनहि। ऊँच भाग, ऊँचै दिन रैनहि।'
इसका साफ अर्थ यह है कि नागमती ने नागसेन को उत्पन्न किया, उसका भाग्य ऊँचा था और दिन रात ऊँचा ही होता गया। इसके स्थान पर यह विलक्षण अर्थ किया गया है।—
'फिर नागमती अपनी सहलियों को हमराह लेकर बहुत बलंद मकान में बलंदीए बख्त से रहने लगी'। इसी प्रकार 'कवलसेन पदमावती जाएउ' का अर्थ लिखा गया है ‘और पद्मावत मिस्ल कवल के थी, अपने मकान में गई”. बस दो नमूने और देखिए—
- (२) फेरत नैन चेरि सौ -छूटी। भइ कूटन कुटनी तस कूटी'।
इसका ठीक अर्थ यह है कि पद्मावती के दृष्टि फेरते ही सौ दासियाँ छूटीं और उस कुटनी को खूब मारा। पर ‘चेरि’ को ‘चीर' सभझकर इसका यह अर्थ किया गया है—
‘अगर बह आंखें फेर के देखे तो तेरा लह्ँगा खुल पड़े और जैसी कुटनी है, वैसा ही तुझको कूटे'।
- (३) ‘गढ़ सौंपा बादल कहँ, गए टिकठि बसि देव'।
ठीक अर्थ-चित्तौरगढ़ बादल को सौंपा गौर टिकठी या अरथी पर बसकर राजा (परलोक) गए।
कानपुर की प्रति में इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है—'किलअ बादल को सौंपा गया और बासदेव सिधारे"। बस इन्हीं नमूनों से अर्थ का अर्थ करनेवाले का अंदाज कर लीजिए।
अब रहा चौथा, सुधाकर जी गौर डाक्टर ग्रिर्सन साहब वाला भढ़कीला संस्करण। इसमें सुधाकर जी की बड़ी लंबी-चौड़ी टीकाटिप्पणी लगी हुई है; पर दुर्भाग्य से या सौभाग्य से ‘पदमावतके' तृतीयांश तक ही यह संस्करण पहुंचा। इसकी तड़क भडक का तो कहना ही क्या है! शब्दार्थ, टीका और इधर उधर के किस्सों और कहानियों से इसका डीलडौल बहुत बड़ा हो गया है। पर टिप्पणियाँ अधिकतर अशुद्ध ऑोर टीका स्थान स्थान पर भ्रमपूर्ण है। सुधाकर जी में एक गुण यह सुना जाता है कि यदि कोई उनके पास कोई कविता अर्थ पूछने के लिये ले जाता तो वह विमुख नहीं लौटता था वे खींच तानकर कुछ न कुछ अर्थ लगा ही देते थे। बस इसी गुण से इस टीका में भी काम लिया गया है। शव्दार्थ में कहीं यह नहीं स्वीकार किया गया है कि इस शब्द से टीकाकार परिचित नहीं। सब शब्दों का। कुछ न कुछ अर्थ मौजूद है, चाहे वह अर्थ ठीक हो,या न हो। शब्दार्थ के कुछ नमूने देखिए-
१) ताईं = तिन्हें (कीन्ह खंभ दुई जग के ताईं)। (२) आछहि = अच्छा (बिरिछ जो आछहि चंदन पासा) । (३) अँबरउर = आम्रराज, अच्छे जाति का आम या अमरावती। (४) सारउ = सारा, दूर्वा, दूव (सारिउ सुआ जो रहचह करहीं)। (५) खड़वानी = गडुवा, झारी। (६) अहूठ = अनुत्थ, न उठने योग्य / (७) कनक कचोरी = कनिक या आटे की कचौड़ी। (८) करसी = कर्षित की, खिचवाई (सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तेहि आस)।
कहीं कहीं अर्थ ठीक बैठाने के लिये पाठ भी विकृत कर दिया गया है, जैसे, 'करहु चिरहटा पंखिन्ह लावा' का 'कतहु छरहटा पेखन्ह लावा' कर दिया गया है। और 'छरहटा' का अर्थ किया गया है ‘क्षार लगानेवाले’ नकल करनेवाले'। जहाँ 'गथ' शब्द आया है (जिसे हिंदी कविता का साधारण ज्ञान रखनेवाले भी जानते हैं) वहाँ 'गंठि' कर दिया गया है। इसी प्रकार 'अरकाना' (अरकाने दौलत अर्थात् सरदार या उमरा) का 'अरगाना' करके अलग होना अर्य किया गया है।
स्थान स्थान पर शब्दों को व्युत्पत्ति भी दी हुई मिलती है जिसका न दिया जाना ही अच्छा था। उदाहरण के लिये दो शब्द काफी हैं—
पउनारि—पयोनाली, कमल की डंडी।' अहुठ—अनुत्थ, न उटने योग्य।
'पौनार' शब्द की ठीक व्युत्पत्ति इस प्रकार है—सं० पद्य। नाल = प्रा० पउम् + नाल = हिं० एउनाड़ या पौनार। इसी प्रकार अहुट = सं० अर्धचतुर्थ' प्रा० अज्मुट्ठ, अहट्ठ = हिं० अहुठ (साढ़े तीन, 'हूंठा' शब्द इसी से बना है)।
शब्दार्थों से ही टीका का अनुमान भी किया जा सकता है, फिर भी मनोरंजन के लिये कुछ पद्यों की टीका नीचे दी जाती है।—
- (१) अहुटहाथ तन सरवर, हिया कवल तेहि माझ।'
सुधाकरी अर्थ—राजा कहता है कि (मेरा) हाथ तो अहठ अर्थात् शक्ति के लग जाने से सामर्थ्यहीन होकर बेकाम हो गया और (मेरा) तनु सरोवर है जिसके हृदय मध्य अर्थात् बीच में कमल अर्थात पद्मावतो बसी हुई हैं।
ठीक अर्थ—साढ़े तीन हाथ का शरीररूपी सरोवर है जिसके मध्य में हृदयरूपी कमल है।
- (२) हिया थार कुव कंचन लारू। कनक कचोरि उठे जनु चारू।
सुधाकरी अर्थ—हृदय थार में कुच कंचन का लड्डू है। (अथवा) जानों बल करके कनिक (आट) की कचौरी उटती है अर्थात् फूल रही है (चक्राकार उटते हए स्तन कराही में फूलती हुई बदामी रंगकी कचौरी से जान पड़ते हैं)।
ठीक अर्थ—मानो सोने के सुंदर कटोरे उठ हुए (औंध) हैं।
- (३) धानुक आप, बेझ जग कीन्हा।
'बेझ' का अर्थ जात न होने के कारण नापने 'बोक' पाठ कर दिया और इस प्रकार टीका कर दी—
सुधाकारी अर्थ—आप धानुक अर्थात् अहेरी होकर जग (के प्राणी) के बोझ कर लिया अर्थात जगत के प्राणियों को धनु और कटाक्षबाग से मारकर उन प्राणियों का बोझा अर्थात ढेर कर दिया।
ठीक अर्थ—आप धनुर्धर हैं और सारे जगत को वेध्य या लक्ष्य किया है।
- (४) नैहर चाह न पाउब जहाँ।
सुधाकरी अर्थ—जहाँ हम लोग नैहर (जाने) की इच्छा (तक) न करने पावेंगी। ('पाउब' के स्थान पर 'पाउबि' पाठ रखा गया है, शायद स्त्रीलिंग के
[१] एक शब्द 'अध्युष्ट' भी मिलता है। पर वह केवल प्राकृत 'अज्द्र' की व्युत्पत्ति के लिये गढ़ा हुआ जान पड़ता है। विचार से। पर अवधी में उत्तमपुरुष बहुवचन में स्त्री॰ पुं॰ दोनों में एक ही रूप रहता है)।
ठीक अर्थ—जहाँ नैहर (मायके) की खबर तक हम न पाएँगी।
(५) चलौं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ। सुधाकरी अर्थ—सब हवा ऐसी या पवित्र हाथ में फूलों की डालियाँ ले लेकर चलीं।
ठीक अर्थ—सब पौनी (इनाम आदि पानेवाली) प्रजा—नाइन, बारिन आादि—फूलों की डालियाँ लेकर साथ चलीं।
इसी प्रकार की भूलों से टीका भरी हुई है। टीका का नाम रखा गया है 'सुधाकर-चंद्रिका'। पर यह चंद्रिका है कि घोर अंधकार? अच्छा हुआ कि एशियाटिक सोसाइटी ने थोड़ा सा निकालकर ही छोड़ दिया।
सारांश यह कि इस प्राचीन मनोहर ग्रंथ का कोई अच्छा संस्करण अब तक न था और हिंदी प्रेमियों की रुचि अपने साहित्य के सम्यक् अध्ययन की ओर दिन दिन बढ़ रही थी। आठ नौ वर्ष हुए, काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने अपनी 'मनोरंजन, पुस्तकमाला' के लिये मुझसे 'पदमावत' का एक संक्षिप्त संस्करण शब्दार्थ और टिप्पणी सहित तैयार करने के लिये कहा था। मैंने आधे के लगभग ग्रंथ तैयार भी किया था। पर पीछे यह निश्चय हुआा कि जायसी के दोनों ग्रंथ पूरे पूरे निकाले जायँ। अतः 'पदमावत' की वह अधूरी तैयार की हुई कापी बहुत दिनों तक पड़ी रही।
इधर जब विश्वविद्यालयों में हिंदी का प्रवेश हुआ और हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य भी परीक्षा के वैकल्पिक विषयों में रखा गया, तब तो जायसी का एक शुद्ध उत्तम संस्करण निकालना अनिवार्य हो गया क्योंकि बी॰ ए॰ और एम॰ ए॰ दोनों की परीक्षाओं में पदमावत रखी गई। पढ़ाई प्रारंभ हो चुकी थी और पुस्तक के बिना हर्ज़ हो रहा था; इससे यह निश्चय किया गया कि समग्र ग्रंथ एकबारगी निकालने में देर होगी; अतः उसके छह छह फार्म के खंड करके निकाले जायँ जिससे छात्रों का काम भी चलता रहे। कार्तिक, संवत् १९८० से इन खंडों का निकलना प्रारंभ हो गया। चार खंडों में 'पदमावत' और 'अखरावट' दोनों पुस्तकें समाप्त हुईं।
'पदमावत' की चार छपी प्रतियों के प्रतिरिक्त मेरे पास कैथी लिपि में लिखी एक हस्तलिखित प्रति भी थी जिससे पाठ के निश्चय करने में कुछ सहायता मिली। पाठ के संबंध में यह कह देना आावश्यक है कि वह अवधी व्याकरण ऑौर उच्चारण तथा भाषाविकास के अनुसार रखा गया है। एशियाटिक सोसायटी की प्रति में 'ए' और 'औ' इन अक्षरों का व्यवहार नहीं हुआ है; इनके स्थान पर 'अइ' और 'अउ' प्रयुक्त हुए है। इस विधान में प्राकृत की पुरानी पद्धति का अनुसरण चाहे हो, पर उच्चारण की उस आगे बढ़ी हुई अवस्था का पता नहीं लगता जिसे हमारी भाषा, जायसी और तुलसी के समय में, प्राप्त कर चुकी थी। उस समय चलती भाषा में 'अइ' और 'अउ' के 'अ' और 'इ' तथा 'अ' और 'उ' के पृथक् पृथक् स्फुट उच्चारण नहीं रह गए थे, दोनों स्वर मिलकर 'ए' और 'औ' के समान उच्चरित होने लग थे। प्राकृत के 'दैत्यादिष्वउ' और 'पौरादिष्वउ' नियम सब दिन के लिये स्थायी नहीं हो सकते थे। प्राकृत और अपभ्रंश अवस्था पार करने पर उलटी गंगा वही। प्राकृत के 'अइ' और 'अउ' के स्थान पर 'ए' और 'औ' उच्चारण में आए—जैसे प्राकृत और अपभ्रंश रूप 'चलइ', 'पट्ट', 'कइसे', 'चउक्कोर' इत्यादि हमारी भाषा में पाकर 'चलै', 'पैट', 'वैसे', 'चौकोन' इस प्रकार वोले जाने लगे। यदि कहिए कि इनका उच्चारण आजकल तो ऐसा होता है पर जायसी बहुत पुराने हैं, संभवतः उस समय इनका उच्चारण प्राकृत के अनुसार ही होता रहा हो, तो इसका उत्तर यह है कि अभी तुलसीदास जी के थोडे ही दिनों पीछे को लिखी 'मानस' की कुछ पुरानी प्रतियाँ मौजद हैं जिनमें बराबर 'कैसे', 'जैसे', 'तैसे', 'कै', 'करै', 'चौथे', 'करौं', 'श्रावौं' इत्यादि अवध की चलती भाषा के रूप पाए जाते हैं। जायसी और तुलसी ने चलती भाषा में रचना की है. प्राकृत के समान व्याकरण के अनुसार गड़ी हुई भाषा में नहीं। यह दूसरी बात है कि प्राचीन रूपों का व्यवहार परंपरा के विचार से उन्होंने बहुत जगह किया है, पर भाषा उनकी प्रचलित भाषा ही है।
डाक्टर ग्रियर्सन ने 'करइ', 'चलइ', आदि रूपों को ही कविप्रयक्त सिद्ध करने के लिये 'करई', 'धावई' आदि चरण के अंत में आनेवाले रूपों का प्रमाण दिया है। पर 'चलै', 'गनै' आदि रूप भी चरण के अंत में बरवर पाए हैं, जैसे—
- (क) इहै बहुत जौ बोहित पाबौं।—जायसी।
- (ख) रघबीर बल गर्वित विभीषतु घाल नहि ताकहँ गर्ने।—तुलसी।
चरणांत में ही नहीं, वर्णवृत्तों के बीच में भी ये चलते रूप बराबर दिखाए जा सकते हैं जैसे—
एक एक को न सँभार। करै तात भ्रात पुकार।—तुलसी।
जब एक ही कवि को रचना में नए और पुराने दोनों रूपों का प्रयोग मिलता है, तब यह निश्चित है कि नए रूप का प्रचार कवि के समय में हो गया था और पुराने रूप का प्रयोग या तो उसने छंद की आवश्यकता वश किया है अथवा परंपरापालन के लिये।
हाँ, 'ए' और 'नौ' के संबंध में ध्यान रखने की बात यह है कि इनके 'पूरबी' और 'पच्छिमी' दो प्रकार के उच्चारण होते हैं। पुरको उच्चारण संस्कृत के समान 'अइ' और 'उ' से मिलता जलता और पच्छिमो उच्चारण 'अय' और 'अव' से मिलता जुलता होता है। अवधो भाषा में शब्द के आदि के 'ए' और 'ओ' का अधिकतर पूरवी तथा अंत में पड़नेवाले 'ए' 'औ' का उच्चारण पच्छिमी दंग पर होता है।
'हि' विभक्ति का प्रयोग प्राचीन पद्धति के अनुसार जायसी में सब कारकों के लिये मिलेगा। पर कर्ता कारक में केवल सकर्मक भूतकालिक क्रिया के सर्वनाम कर्ता में तथा आकारांत संज्ञा कर्ता में मिलता है। इन दोनों स्थलों में मैंने प्रायः वैकल्पिक रूप 'इ' (जो 'हि' का ही विकार है) रखा है, जैसे केइ, जेइ, तेइ, राजै, सूए, गौरै, (किसने ,जिसने, उसने, राजा ने, सूए ने, गौरा ने)। इसी 'हि' विभक्ति का ही दूसरा रूप 'ह' है जो सर्वनामों के अंतिम वर्ण के साथ संयुक्त होकर प्रायः सब कारकों में आया है। अतः जहाँ कहीं 'हम्ह', 'तुम्ह', 'तिन्ह' या 'उन्ह' हो वहाँ यह समझना चाहिए कि यह सर्वनाम कर्ता के अतिरिक्त किसी और कारक में है—जैसे, हम्म, हमको, हमसे, हमारा, हममें, हमपर। संबंधवाचक सर्वनाम के लिये 'जो' रखा गया है तथा यदि या जब के अर्थ में अव्यय रूप 'जौ'।
प्रत्येक पृष्ठ में असाधारण या कठिन शब्दों, वाक्यों और कहीं चरणों के अर्थ फुटनोट में बराबर दिए गए हैं जिससे पाठकों को बहुत सुबीता होगा। इसके अतिरिक्त 'मलिक मुहम्मद जायसी' पर एक विस्तृत निबंध भी ग्रंथारंभ के पहले लगा दिया गया है जिसमें कवि की विशेषताओं के अन्वेषण औौर गुणदोषों के विवेचन का प्रयत्न अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार किया है।
अपने वक्तव्य में 'पदमावत' के संस्करणों का मैंने जो उल्लेख किया है, वह केवल कार्य की कठिनता का अनुमान कराने के लिये। कभी कभी किसी चौपाई का पाठ और अर्थ निश्चित करने में कई दिनों का समय लग गया है। झंझट का एक बड़ा कारण यह भी था कि जायसी के ग्रंथ बहुतों ने फारसी लिपि में उतारे। फिर उन्हें सामने रखकर बहुत सी प्रतियाँ हिंदी अक्षरों में तैयार हुईं। इससे एक ही शब्द को किसी ने एक रूप में पढ़ा, किसी ने दूसरे रूप में। अतः मुझे बहुत स्थलों पर इस प्रक्रिया से काम लेना पड़ा है कि अमुक शब्द फारसी अक्षरों में लिख जाने पर कितने प्रकार से पढ़ा जा सकता है। काव्यभाषा के प्राचीन स्वरूप पर भी पूरा ध्यान रखना पड़ा है। जायसी की रचना में भिन्न भिन्न तत्वसिद्धांतों के आभास को समझने के लिये दूर तक दृष्टि दौड़ाने की आवश्यकता थी। इतनी बड़ी बड़ी कठिनाइयों को बिना धोखा खाए पार करना मेरे ऐसे अल्पज्ञ और आलसी के लिये असंभव ही समझिए। अतः न जाने कितनी भूलें मुझसे इस कार्य में हुई होंगी, जिनके संबंध में सिवाय इसके कि मैं क्षमा माँगूँ और उदार पाठक क्षमा करें, और हो ही क्या सकता है?
कृष्ण जन्माष्टमी | रामचंद्र शुक्ल |
संवत् १९८१ |
वक्तव्य
(द्वितीय संस्करण)
प्रथम संस्करण में इधर उधर जो कुछ अशुद्धियाँ या भूलें रह गई थीं वे इस संस्करण में, जहाँ तक हो सका है, दूर कर दी गई हैं। इसके अतिरिक्त जायसी के 'मत और सिद्धांत' तथा 'रहस्यवाद' के अंतर्गत भी कुछ बातें बढ़ाई गई हैं जिनसे, आशा है, सूफ़ी भक्तिमार्ग और भारतीय भक्तिमार्ग का स्वरूपभेद समझने में कुछ अधिक सहायता पहुँचेगी। इधर मेरे प्रिय शिष्य पं° चंद्रबली पांडेय एम° ए°, जो हिंदी के सूफ़ी कवियों के संबंध में अनुसंधान कर रहे हैं, जायस गए और मलिक मुहम्मद की कुछ बातों का पता लगा लाए। उनकी खोज के अनुसार 'जायसी का जीवनवृत्त' भी नए रूप में दिया गया है जिसके लिये उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मैं आवश्यक समझता हूँ।
इस ग्रंथावली के प्रथम संस्करण में जायसी के दो ग्रंथ—'पदमावत' और 'अखरावट' संग्रहीत थे। उनका एक और ग्रंथ 'आखिरी कलाम' फारसी लिपि में बहुत पुराना छपा हुआ हाल में मिला। यह ग्रंथ भी इस संस्करण में सम्मिलित कर लिया गया है। कोई और दूसरी प्रति न मिलने के कारण इसका ठीक ठीक पाठ निश्चित करने में बड़ी कठिनता पड़ी है। एक तो इसकी भाषा 'पदमावत' और 'अखरावट' की अपेक्षा अधिक ठेठ और बोलचाल की अवधी, दूसरे फारसी अक्षरों में लिखी हुई। बड़े परिश्रम से किसी प्रकार मैंने इस का पाठ ठीक किया है, फिर भी इधर उधर कुछ भूलें रह जाने की आशंका से मैं मुक्त नहीं हूँ।
जायसी के और दो ग्रंथों की अपेक्षा इसकी रचना बहुत निम्न कोटि की है। इसमें इसलाम की मजहबी किताबों के अनुसार कयामत के दिनों का लंबा चौड़ा वर्णन है। किस प्रकार जल प्रलय होगा, सूर्य बहुत निकट आकर पृथ्वी को तपाएगा। सारे जीव जंतु और फरिश्ते भी अपना जीवन समाप्त करेंगे, ईश्वर न्याय करने बैठेगा और अपने अपराधों के कारण सारे प्राणी थरथर काँपेंगे, इन्हीं सब बातों का ब्योरा इस छोटी सी पुस्तक में है। जायसी ने दिखाया है कि ईसा, मूसा आदि और सब पैगंबरों को तो आप आपकी पड़ी रहेगी, वे अपने अपने आसनों पर रक्षित स्थान में चुपचाप बैठे रहेंगे, पर परम दयालु हजरत मुहम्मद साहब अपने अनुयायियों के उद्धार के लिये उस शरीर को जलानेवाली धूप में इधर उधर व्याकुल घूमते दिखाई देंगे, एक क्षण के लिये भी कहीं छाया में न बैठेंगे। सबसे अधिक ध्यान देने की बात इमाम हसन हुसैन के प्रति जायसी की सहनुभूति है। उन्होंने लिखा है कि जब तक हसन हुसैन को अन्यायपूर्वक मारनेवाले और कष्ट देनेवाले घोर यंत्रणापूर्ण नरक में न डाल दिए जायँगे तब तक अल्लाह का कोप शांत न होगा। अंत में मुहम्मद साहब और उनके अनुयायी किस प्रकार स्वर्ग की अप्सराओं से विवाह करके नाना प्रकार के सुख भोगेंगे यही दिखाकर पुस्तक समाप्त की गई है।
चैत्र पूर्णिमा | रामचंद्र शुक्ल |
संवत १९९२ |
भूमिका | |||
---|---|---|---|
पृष्ठ | |||
मलिक मुहम्मद जायसी | … | … | १-२ |
प्रेम गाथा की परंपरा | … | … | २-४ |
जायसी का जीवनवृत्त | … | … | ४-१० |
पद्मावत की कथा | … | … | १०-१६ |
ऐतिहासिक आधार | … | … | १६-२० |
पद्मावत की प्रेमपद्धति | … | … | २०-२७ |
वियोग पक्ष | … | … | २७-३८ |
संयोग शृंगार | … | … | ३८-४२ |
ईश्वरोन्मुख प्रेम | … | … | ४२-४९ |
प्रेम तत्व | … | … | ५०-५२ |
प्रबंध कल्पना | … | … | ५२-५५ |
संबंध निर्वाह | … | … | ५६-६० |
कवि द्वारा वस्तुवर्णन | … | … | ६०-७२ |
पात्र द्वारा भावव्यंजना | … | … | ७२-८० |
अलंकार | … | … | ८०-९३ |
स्वभावचित्रण | … | … | ९३-१०३ |
मत और सिद्धांत | … | … | १०३-१२१ |
जायसी का रहस्यवाद | … | … | १२२-१२९ |
सूक्तियाँ | … | … | १२९-१३२ |
फुटकल प्रसंग | … | … | १३२-१३४ |
जायसी की जानकारी | … | … | १३४-१४३ |
जायसी की भाषा | … | … | १४४-१५९ |
संक्षिप्त समीक्षा | … | … | १५९-१६२ |
पदमावत | |||
१. स्तुति खंड | … | … | १-८ |
२. सिंहलदीप वर्णन खंड | … | … | ९-१६ |
३. जन्म खंड | … | … | १७-१९ |
४. मानसरोदक खंड | … | … | २०-२२ |
४४. राजा बादशाह मेल खंड | … | … | २०७-२१० |
४५. बादशाह भोज खंड | … | … | २११-२१५ |
४६. चित्तौरगढ़ वर्णन खंड | … | … | २१६-२२४ |
४७. रत्नसेन बंधन खंड | … | … | २२५-२२७ |
४८. पद्मावती नागमती विलाप खंड | … | … | २२८-२२९ |
४९. देवपाल दूती खंड | … | … | २३०-२३६ |
५०. बादशाह दूती खंड | … | … | २३७-२४० |
५१. पद्मावती, गोरा बादल संवाद खंड | … | … | २४१-२४३ |
५२. गोरा बादल युद्धयात्रा खंड | … | … | २४४-२४६ |
५३. गोरा बादल युद्ध खंड | … | … | २४७-२५३ |
५४. बंधन मोक्ष; पद्मावती मिलन खंड | … | … | २५४-२५६ |
५५. रत्नसेन देवपाल युद्ध खंड | … | … | २५७ |
५६. राजा रत्नसेन बैकुंठवास खंड | … | … | २५८ |
५७. पद्मावती नागमती सती खंड | … | … | २५९-२६० |
५८. उपसंहार | … | … | २६१-२६२ |
अखरावट | |||
---|---|---|---|
अखरावट | … | … | २६३-२९३ |
आखिरी कलाम | |||
आखिरी कलाम | … | … | २९४-३१३ |
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