जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२४. गंधर्वसेन मंत्री खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ९० से – ९६ तक

 

(२४) गंधर्वसेन मंत्री खंड

राजै सुनि जोगी गढ़ चढ़े। पूछै पास जो पंडित पढ़े॥
जोगी गढ़ जो सेंधि दै आवहि। बोलहु सबद सिद्धि जस पावहि॥
कहहिं बेद पढ़ि पंडित बेदी। जोगि भौंर जस मालति भेदी॥
जैसे चोर सेंधि सिर मेलहिं। तस ए दुवौ जीउ पर खेलहिं॥
पंथ न चलहिं वेद जस लिखा। सरग जाए सूरी चढ़ सिखा॥
चोर होइ सूरी पर मोखू। देइ जौ सूरि तिन्हहि नहिं दोखू॥
चोर पुकारि बेधि घर मूसा। खेलै राजभँडार मंजूसा॥
जस ए राजमँदिर महँ, दीन्ह रैनि कहँ सेंधि॥
तस छेंकहु पुनि इन्ह कहँ, मारहु सूरी बेधि॥ १ ॥
राँध जो मंत्री बोले सोई। ऐस जो चोर सिद्धि पै कोई॥
सिद्ध निसंक रैनि दिन भवँही। ताका जहाँ तहाँ अपसवहीं॥
सिद्ध निडर अस अपने जोवा। खड़ग देखि के नावहिं गोवा ॥
सिद्ध जाइ पै जिउबध जहाँ। औरहि मरन पंख अस कहाँ? ॥
चढ़ा जो कोपि गगन उपराहीं। थोरे साज मरै सो नाहीं॥
जंबुक जूझ चढै जौ राजा। सिंघ साज कै चढ़ै तो छाजा॥
सिद्ध अमर, काया जस पारा। छरहिं मरहिं बर जाइ न मारा॥
छर ही काज कृस्न कर, राजा चढ़ै रिसाइ।
सिद्धगिद्ध जिन्ह दिस्टि गगन पर; बिनुछर किछु न बसाइ॥ २ ॥
अबहीं करहु गुदर मिस साजू। चढ़हिं बजाइ जहाँ लगि राजू॥
होहिं सँजोबल कुँवर जो भोगी। सब दर छेंकि धरहिं अब जोगी।
चौबिस लाख छत्रपति साजे। छपन कोटि दर बाजन बाजे॥
बाइस सहस हस्ति सिंघली। सकल पहार सहित महि हली॥
जगत बराबर वै सब चाँपा। डरा इंद्र, बासुकि हिय काँपा॥
पदुम कोट रथ साजे आवहिं। गिरि होइ खेद गगन कहँ धावहिं॥
जनु भुइँचाल चलत महि परा। टूटी कमठ पीठि, हिय डरा॥


(१) सबद = व्यवस्था। सरग जाए = स्वर्ग जाना (अवधी)। सूरि सूली। (२) राँध = पास, समीप। भवँहीं = फिरते हैं। अपसवहीं = जाते हैं। मरनपंख = मृत्यु के जैसे चोंटों को जमते हैं। पारा = पारद। छरहिं = छल से, युक्ति से। बर = बल से। (३) गुदर = राजा के दरबार में हाजिरी, मोजरा; अथवा पाठांतर 'कदरमस' युद्ध। सँजोवल = सावधान। दर = दल, सेना। बराबर चाँपा = पैर से रौंद कर समतल कर दिया। । भुइँचाल =

भूचाल, भूकंप।

छत्रहिं सरग छाइगा, सूरूज गयज अलोपि।
दिनहिं राति अस देखिय, चढ़ा इंद्र अस कोपि॥ ३ ॥
देखि कटक औ मैमँत हाथी। बोले रतनसेन कर साथी॥
होत आव दल बहुत असूझा। अस जानिय किछू होइहि जूझा॥
राजा तू जोगी होइ खेला। एहीं दिवस कहँ हम भए चेला॥
जहाँ गाढ़ ठाकुर कहँ होई। संग न छाँड़ै सेवक सोई॥
जो हम मरन दिसव मन ताका। आजु आइ पूजी वह साका॥
बरु जिउ जाइ, जाइ नहिं बोला। राजा सत सुमेरु नहिं डोला॥
गुरू केर जौ आयसु पावहिं। सौंह होहिं औ चक्र चलावहिं॥
आजु करहिं रन भारत, सत बाचा देइ राखि।
सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरै पुनि साखि॥ ४ ॥
गुरू कहा चेला सिध होहू। पेम बार होइ करहु न कोहू॥
जाकहँ सीस नाइ कै दीजै। रंग न होइ ऊभ जौ कीजै॥
जेहि जिउ पेम पानि भा सोई। जेहि रँग मिलै ओहि रँग होई॥
जौ पै जाइ पेम सौं जूझा। कित तप मरहिं सिद्ध जो बूझा॥
एहि सेंति बहुरि जूझ नहिं करिए। खड़ग देखि पानी होइ ढरिए॥
पानिहि काह खड़ग कै धारा। लौटि पानि होइ सोइ जो मारा॥
पानी सेंति आगि का करई? जाइ बुझाइ जौ पानी परई॥
सीस दीन्ह मैं अगमन, पेम जानि सिर मेलि।
अब सो प्रीति निबाहौं, चलौं सिद्ध होइ खेलि॥ ५ ॥
राजै छेंकि धरे सब जोगी। दुख ऊपर दुख सहै बियोगी॥
ना जिउ धरक धरत होइ कोई। नाहीं मरन जियन डर होई ॥
नाग फाँस उन्ह मेला गीवा। हरख न बिसमौ एकौ जीवा॥
जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा। बिसरै नहिं जौ लहि तन साँसा॥
कर किंगरी तेहि तंतु बजावै। इहै गीत बैरागी गावै॥
भलेहि आनि गिउ मेली फाँसी। है न सोच हिय, रिस सब नासी॥
मैं गिउ फाँद ओहि दिन मेला। जेहि दिन पेम पंथ होइ खेला॥
परगट गुपुत सकल महँ पूरि रहा सो नाँव।
जहँ देखौं तहँ ओही, दूसर नहिं जहँ जावँ॥ ६ ॥


अलोपि गए = लुप्त हो गए। (४) साका = पूजी, समय पूरा हूआ। बोला = बचन, प्रतिज्ञा। (५) ऊभ = ऊँचा। एहि सेंति = इससे, इसलिये। पानिहि कहा...धारा = पानी में तलवार मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों बराबर हो जाता है। लौट...मारा = जो मरता है वही उलटा पानी (कोमल या नम्र) हो जाता है। धरक = धड़क। बिसमौ = विषाद

(अवध)। रिस सब नासी = क्रोध भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है।

जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा। कोटि अँतरपट बीचहि दीन्हा॥
जब चीन्हा तब और न कोई। तन मन जिउ जीवन सब सोई॥
हौं हौं करत धोख इतराहीं। जय भा सिद्ध कहाँ परछाहीं? ॥
मारै गुरू, कि गुरू जियावै। और को मार? मरै सब आवै॥
सूरी मेलु, हस्ति करु चूरू। हौं नहिं जानौं; जाने गूरू॥
गुरू हस्ति पर चढ़ा सो पेखा। जगत जो नास्ति, नास्ति पै देखा॥
अंध मीन जस जल महँ धावा। जल जीवन चल दिस्टि न आवा॥
गुरु मोरे मोरे हिये, दिए तुरंगम ठाठ।
भीतर करहिं डोलावै, बाहर नाचै काठ॥ ७ ॥
सो पदमावति गुरु हौं चेला। जोग तंत जेहि कारन खेला॥
तजि वह बार न जानौं दूजा। जेहि दिन मिलै, जातरा पूजा॥
जीउ काढ़ि भुइँ धरौं लिलाटा। ओहि कहँ देउँ हिये महँ पाटा; ॥
को मोहिं ओहि छुआवै पाया। नव अवतार, देइ नइ काया॥
जीउ चाहि जो अधिक पियारी। माँगै जीउ देउँ बलिहारी॥
माँगै सीस, देउँ सह गोवा। अधिक तरौं जौं मारै जीवा॥
अपने जिउ कर लोभ न मोहीं। पेम बार होइ माँगौं ओही॥
दरसन ओहि कर दिया जस, हौं सो भिखरि पतंग।
जो करवत सिर सारै, मरत न मोरौं अंग॥ ८ ॥
पदमावति कँवला ससि जोती। हँसैं फूल, रोवै सब मोती॥
बरजा पितै हँसी औ रोजू। लागे दूत, होइ निति खोजू॥
जबहिं सुरुज कहँ लागा राहू। तबहिं कँवल मन भएउ अगाहू॥
बिरह अगस्त जो बिसमौ उएऊ। सरवर हरष सूखि सब गएऊ॥
परगट ढारि सकै नहिं आँसू। घटि घटि माँसु गुपुत होइ नासू॥
जस दिन माँझ रैनि होइ आई। बिगसत कँवल गएउ मुरझाई॥
राता बदन गएउ होइ सेता। भँवत भँवर रहि गए अचेता॥
चित्त जो चिता कीन्ह धनि, रोवै रोवँ समेत।
सहस साल सहि, आहि भरि, मुरुछि परी, गा चेत॥ ९ ॥


(७) अहा = था। अँतरपट = परदा, व्यवधान। इतराहीं = इतराते हैं, गर्व करते हैं। करु चूरू = चूर करे, पीस डाले। पै = ही। जल जीवन... आवा = जल सा यह जीवन चंचल है, यह दिखाई नहीं देता है। ठाठ = रचना, ढाँचा। काठ = जड़ वस्तु, शरीर। (८) जातरा पूजा = यात्रा सफल हुई। पाटा = सिंहासन। करवत सिर सारै = सिर पर आरा चलावे। (९) रोजू = रोदन, रोना। खाजू चौकसी। अगस्त = एक नक्षत्र, जैसे, उदित अगस्त पंथ जल सोखा। बिसमौ = बिना समय के। भंवत भंवर...अचेता = डोलते हुए भौंरे

अर्थात् पुतलियाँ निश्चल हो गई।

पदमावति सँग सखी सयानी। गनत नखत सब रैनि बिहानी॥
जानहि मरम कँवल कर कोईं। देखि बिथा बिरहिन कै रोई॥
बिरहा कठिन काल कै कला। बिरह न सहै, काल बरु भला॥
काल काढ़ि जिउ लेइ सिधारा। बिरह काल मारे पर मारा॥
बिरह आगि पर मेले आगी। बिरह घाव पर घाव बजागी॥
बिरह बान पर बान पसारा। बिरह रोग पर रोग सँवारा॥
बिरह साल पर साल नवेला। बिरह काल पर काल दुहेला॥
तन रावन होइ सर चढ़, बिरह भयउ हनुवंत।
जारे ऊपर जारै चित मन करि भसमंत॥ १० ॥
कोइ कुमोद पसारहिं पाया। कोइ मलयागिरि छिरकहि काया॥
कोइ मुख सीतल नीर चुआवै। कोइ अंचल सौं पौन डोलावै॥
कोइ मुख अमृत आनि निचोवा। जनु बिष दीन्ह, अधिक धनि सोवा॥
जोवहिं साँस खिनहि खिन सखी। कब जिउ फिरै पौन पर पँखी।
बिरह काल होइ हिये पईठा। जीउ काढ़ि लै हाथ बईठा॥
खिनहिं मौन बाँधे, खिन खोला। गही जीभ मुख आव न बोला॥
खिनहिं बेझि कै बानन्ह मारा। कँपि कँपि नारि मरै बेकरारा॥
कैसेहु बिरह न छाँड़ै भा ससि गहन गरास।
नखत चहूँ दिसि रोवहिं, अंधर धरति अकास॥ ११ ॥
घरी चाहि इमि गहन गरासी। पुनि विधि हिये जोति परगासी॥
निसँस ऊमि भरि लीन्हेसि साँसा। भा अधार, जीवन कै आासा॥
बिनवहिं सखी, छूट ससि राहू। तुम्हरी जोति जोति सब काहू॥
तू ससि बदन जगत उजियारी। केइ हरि लीन्ह, कीन्ह अँधियारी? ॥
तु गजगामिनि गरब गहेली। अब कस आस छाँड़ तू बेली॥
तू हरिलंक हराए केहरि। अब कित हारि करति है हियहरि॥
तू कोकिल बैनी जग मोहा। केइ व्याधा होइ गहा निछोहा? ॥
कँवल कली तू पदमिनि! गइ निसि भयउ बिहान।
अबहूुँ, न संपुट खोलसि, जब रे उआ जग भानु॥ १२ ॥
भानु नावँ सुनि कँवल बिगासा। फिर कै भौंर लीन्ह मधु बासा॥
सरद चंद मुख जवहिं उघेली। खंजन नैन उठै करि केली॥
बिरह न बोल आव मुख ताई। मरि मरि बोल जीउ बरियाई॥


(१०) कोईं = कुमुदिनी, यहाँ सखियाँ। कला कै काल = काल के रूप। नवेला = नया । (११) पौनपर = पवन के परवाला अर्थात् वायु रूप। बेकरारा = बेचैन बेकरार। अंधर = अँधेरा। (१२) तू हरिलंक...केहरि = तूने सिंह से कटि छीनकर उसे हराया। हारि करति है = निराश होती है, हिम्मत हारती है। निछोहा = निष्ठुर। (१३) फिरि केै भौंर...मधु बासा = भौंरो ने फिर मधुवास लिया

अर्थात् काली पुतलियाँ खुलीं। बरियाई = जबरदस्ती।

दवै बिरह दारुन हिय काँपा। खोलि न जाइ बिरह दुख झाँपा॥
उदधि समुद जस तरँग देखावा। चख घूमहिं, मुख बात न आवा॥
यह सुनि लहरि लहरि पर धावा। भँवर परा, जिउ थाह न पावा॥
सखी आनि विष देहु तौ मरऊँ। जिउ न पियार, मरै का डरऊँ॥
खिनहिं उठै, खिन बूड़ै, अस हिय कँवल सँकेत।
हीरामनहिं बुलावहि, सखी! गहन जिउ लेत॥ १२ ॥
चेरी धाय सुनत खिन धाई। हीरामन लेइ आइँ बोलाई॥
जनहु बैद ओषद लेइ आवा। रोगिया रोग मरत जिउ पावा॥
सुनत असीस नैन धनि खोले। बिरह बैन कोकिल जिमि बोले॥
कँवलहि बिरह बिथा जस बाढ़ी। केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥
कित कँवलहि भा पेम अँकूरू। जो पै गहन लेहि दिन सूरू॥
पुरइनि छाँह कँवल कै करी। सकल बिथा सुनि अस तुम हरी॥
पुरुष गँभीर न बोलहिं काहू। जो बोलहि तौ और निबाहू॥
एतनै बोल कहत मुख, पुनि होइ गई अचेत।
पुनि को चेत सँभारै? उहै कहत मुख सेत॥ १४ ॥
और दगध का कहौं अपारा। सती सो जरै कठिन अस झारा॥
होइ हनुवंत पैठ है कोई। लंकादाहु लागु करै सोई॥
लंका बुझी आगि जौ लागी। यह न बुझाइ ऑाँच बज्रागी॥
जनहु अगिनि के उठहिं पहारा। औ सब लागहिं अंग अँगारा॥
कटेि कटि माँसु सराग पिरोवा। रकत कै आँसु माँसु सब रोवा॥
खिन एक बार माँसु अस भूजा। खिनहिं चबाई सिंघ अस गूँजा॥
एहि रे दगध हुँत उतिम मरीजै। दगध न सहिय जीउ बरु दीजै॥
जहँ लगि चंदन मलयगिरि औ सायर सब नीर।
सब मिलि आइ बुझावहिं, बुझै न आगि सरीर॥ १५ ॥
हीरामन जौ देखेसि नारी। प्रीति बेल उपनी हिय बारी॥
कहेसि कस न तुम्ह होहु दुहेली। अरुझी पेम जो पीतम बेली॥
प्रीति बेलि जिनि अरुझै कोई। अरुझे, मुए न छूटै सोई॥
प्रीति बेलि ऐसै तन डाढ़ा॥ पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥
प्रीति बेलि कै अमर को बोई? । दिन दिन बढ़ै, छीन नहिं होई॥
प्रीति बेलि सँग बिरह अपारा। सरग पतार जरै तेहि झारा॥
प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा। दूसर बेलि न सँचरै पावा॥


दबैं = दबाता है, पीसता है॥ झाँपा ढका हुआ। सँकेत = संकट। गहन = सूर्य रूप रत्नसेन का अदर्शन। (१४) अँकूरू = अंकुर। काहू = कभी। (१५) झारा = झार, ज्वाला। सराग = शलाका, सीख। गूंजा = गरजा। दगध = दाह। उतिम = उत्तम। (१६) दुहेली = दु:खी। पलुहत = पल्लवित

होते, पनपते हुए।

प्रीति बेलि अरुझै जब, तब सुछाँह सुख साख।
मिलै पिरीतम आइ कै, दाख बेलि रस चाख॥ १६ ॥
पदमावति उठि टेकै पाया। तुम्ह हुँत देखौं पीतम छाया॥
कहत लाज औ रहै न जीऊ। एक दिसि आगि दुसर दिसि पीऊ॥
सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना। गहनै गहा, कँवल कुँभिलाना॥
ओहट होइ मरौं तौ झूरी। यह सुठि मरौं जो नियर,न दूरी॥
घट महँ निकट, बिकट होइ मेरू। मिलहि न मिले, परा तस फेरू॥
तुम्ह सो मोर खेवक होइ मेरु। उतरौं पार तेही विधि सेवा॥
दमनहि नलहिं जो हंस मेरावा। तुम्ह हीरामन नाँव कहावा॥
मूरि सजीवन दूरि है, सालै सकती बानु।
प्रान मुकुत अब होत है, बेगि देखावह भानु॥ १७ ॥
हीरामन भुईं धरा लिलाटू। तुम्ह रानी जुग जुग सुखपाटू॥
जेहि के हाथ सजीवन मूरी। सो जानिय अब नाहीं दूरी॥
पिता तुम्हार राज कर भोगी। पूजै बिप्र मरावै जोगी॥
पौंरि पौंरि कोतवार जो बैठा। पेम क लुबुध सुरंग होइ पैठा॥
चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू। आवत बार धरा कै चोरू॥
अब लेइ गए देइ ओहि सूरी। तेहि सौं अगाह विथा तुम्ह पूरी॥
अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी। कया क रोग जानु पै रोगी॥
रूप तुम्हार जीउ कै (आपन) पिंड कमावा फेरि।
आपु हेराइ रहा, तेहि काल न पावैं हेरि॥ १८ ॥
हीरामन जो बात यह कही। सूर के गहन चाँद तब गही॥
सूर के दुख सौं ससि भइ दुखी। सो कित दुख मानै करमुखी? ॥
अब जौं जोगि मरै मोहि नेहा। मोहि ओहि साथ धरति गगनेहा॥
रहै त करौं जनम भरि सेवा। चलै त, यह जिउ साथ परेवा॥
कहेसि कि कौन करा है सोई। पर काया परवेस जो होई॥
पलटि सो पंथ कौन विधि खेला। चेला गुरू गुरू भा चेला॥
कौन खंड अस रहा लुकाई। आवै काल, हरि फिरि जाई॥
चेला सिद्धि सो पावै, गुरु सौं करै अछेद।
गूरू करै जो किरिपा, पावै चेला भेद॥ १९ ॥


(१७) तुम्ह हुँत = तुम्हारे द्वारा। ओहट = ओट में, दूर। मेरू = मेल मिलाप। मिलहिं न मिले = मिलने पर भी (पास होने पर भी) नहीं मिलता। दमन = दमयंती। मुकुत होत है = छूटता है। (१८) रूप तुम्हार जीउ...फेरि = तुम्हारे रूप (शरीर) में अपने जीव को करके (परकाय प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर प्राप्त किया। (१९) करमुखी = काले मुँहाली। गगनेहा = गगन में, स्वर्ग में। करा = कला । चेला सिद्धि सो

पावे...भेद = यह शुक का उत्तर है। अछेद = अभेद, भेद भाव का त्याग।

अनु रानी तुम गुरु, वह चेला। मोहि बूझहु कै सिद्ध नवेला॥
तुम्ह चेला कहँ परसन भई| दरसन देइ मँडप चलि गई॥
रूप गुरू कर चेलै डीठा। चित समाइ होइ चित्र पईठा॥
जीउँ काढ़ि लै तुम्ह अपसई। वह भा कया, जीव तुम्ह भई॥
कया जो लाग धूप औ सीऊ। कया न जान, जान पै जीऊ॥
भोग तुम्हार मिला ओहि जाई। जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँ आई॥
तुम ओहिके घट, वह तुम माहाँ। काल कहाँ पावै वह छाहाँ? ॥
अस वह जोगी अमर भा, परकाया परवेस।
आवै काल, गुरुहि तहँ, देखि सो करै अदेस॥ २० ॥
सुनि जोगी कै अमर जो करनी। नेवरी बिथा बिरह कै मरनी॥
कवँल करी होइ बिगसा जीऊ। जनु रवि देखि छूटि गा सीऊ॥
जो अस सिद्ध को मारै पारा? । निपुरुष तेइ जरै होइ छारा॥
कहौ जाइ अब मोर सँदेसू। तजौ जोग अब, होहु नरेसू॥
जिनि जानहु हौं तुम्ह सौं दूरी। नैनन माँझ गड़ी वह सूरी॥
तुम्ह परसेद घटे घट केरा। मोहिं घट जीव घटत नहिं बेरा॥
तुम्ह कहँ पाट हिये महँ साजा। अब तुम मोर दुहूँ जग राजा॥
जौं रे जियहिं मिलि गर रहहि, मरहिं तो एकै दोउ।
तुम्ह जिउ कहँ जिनि होइ किछु, मोहि जिउ होउ सो होउ॥ २१ ॥










(२०) अनु = फिर, आगे। मोहि बूझहु...नवेला = नया सिद्ध बनाकर उलटा मुझसे पूछती हो। अपसई = चल दो। सोऊ = शीत। अदेस करै = नमस्कार करता है; 'आदेश गुरु' यह प्रणाम साधुओं में प्रचलित है। (२१) नेवरी = निबटी, छूटी। निपुरुष = पुरुषार्थहीन। सूरी = शूली जो रत्नसेन को दी जानेवाली है। परसेद = प्रस्वेद, पसीना। घट = घटने पर। बेरा = बेर देर, विलंब।