जायसी ग्रंथावली/पदमावत/५७. पद्मावती नागमती सती खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २५९ से – २६० तक

 

(५७) पद्मावती नागमती सती खंड

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी। चली साथ पिउ के होइ जोरी॥
सूरुज छपा, रैनि होइ गई। पूनी ससि अमावस भई॥
छोरे केस, मोति लर छूटीं। जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥
सेंदुर परा जो सीस उघारा। आगि लागि चह जग अंधियारा॥
यही दिवस हौं चाहति नाहा। चलौं साय, पिउ! देइ गलबाहाँ॥
सारस पंखि न जियै निनारे। हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे॥
नेवछाबरि कै तन छहरावौं। छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं॥
दीपक प्रीति पतंग जेउँ, जनम निबाह करेउँ।
नेवछाबरि चहुँ पास होइ, कंठ लागि जिउ देउँ॥ १ ॥
नागमती पदमावति रानी। दुवौ महा सत सती बखानी॥
दुनौ सवति चढ़ि खाट बईठी। औ सिवलोक परा तिन्ह दीठि॥
बैठौ कोई राज औ पाटा। अंत सबै बैठे पुनि खाटा॥
चंदन अगर काठ सर साजा। औ गति देइ चले लेइ राजा॥
बाजन बाजहिं होइ अगूता। दुवौ कंत जेइ चाहहिं सूता॥
एक जो बाजा भएउ बियाहू। अब दूसरे होइ और निबाहू॥
जियत जो जरै कंत के आसा। मुए रहसि बैठे एक पासा॥
आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़।
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़॥ २ ॥
सर रचि दान पुन्नि बहु कीन्हा। सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा॥
एक जो भॉवरि भईं बियाही। अब दूसरे होइ गोहन जाहीं॥
जियत, कंत! तुम हम्ह गर लाई। मुए कंठ नहिं छोड़हिं, साई! ॥
औ जो गाँठि, कंत! तुम्ह जोरी। आदि अंत लहि जाइ न छोरी॥


(१) अगि लागि...अँधियार = काले बालों के बीच लाल सिंदूर मानों यह सूचित करता था कि अँधेरे संसार में अब आग लगा चाहती है (पद्मावती के सती होने का आभास मिलता है) । छहरावौं = छितराऊँ। (२) महा सत = सत्य में। तिन्ह दींठि परा = उन्हें दिखाई पड़ा। बैठौ = चाहे बैठे। खाटा = अर्थी, टिकठी। अगूता होइ = आगे होकर। सूता चहहिं = सोना चाहती है। बाजा = बाजे से। ओर निबाहु = अंत का निर्बाह। रहसि = प्रसन्न होकर। बूड़ = डूबा। हम्ह = हमें, हमारे लिये! जूड़ = ठंढी।

(३) सर = चिता। गोहन = साय। हम्ह गर लाई = हमें गले लगाया।

अंत लहि = अंत तक। आछहि = है। आथी = सार, पूँजी, अस्तित्व।

यह जग काह जो अछहि न आथी। हम तुम, नाह! दुहूँ जग साथी॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई। पौढ़ीं दुवौ कंत गर लाई॥
लागी कंठ आगि देइ होरी। छार भईं जरि, अंग न मोरी॥
रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भउ रतनार।
जो रे उवा, सो अथवा, रहा न कोइ संसार॥ ३ ॥
वै सहगवन भईं जब जाई। बादसाह गढ़ छेंका आई॥
तौ लगि सो अवसर होइ बीता। भए अलोप राम औ सीता॥
आइ साह जौ ना अखारा। होइगा राति दिवस उजियारा॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी। दीन्ह उड़ाइ, पिरथिमी झूठी॥
सगरिउ कटक उठाई माटी। पुल बाँधा जहँ जहँ गढ़ घाटी॥
जौ लहि ऊपर छार न परै। तौ लहि यह तिस्ना नहि मरै॥
भा धावा, भइ जूझ असूझा। बादल आइ एँवरि पर जूझा॥
जौहर भइ सब इस्तरी, पुरुष भए संग्राम।
बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम॥ ४ ॥















अछहि न आथी = जो स्थिर या सारवान नहीं है। रतनार = लाल, प्रेम मय या आभापूर्ण। (४) सहगवन भईं = पति के साथ सहगमन किया; सती हुई। तौ लगि...बीता = तब तक वहाँ सब कुछ हो चुका था। अखारा = अखाड़े या सभा में, दरबार में। गढ़ घाटी = गढ़ की खाई। पुल बाँधा...घाटी = सती स्त्रियों की एक एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि उससे जगह जगह खाईं पट गई और पुल सा बँध गया। जौ लहि = जब तक। तिस्ना = तृष्णा। जौहर भइँ = राजपूत प्रथा के अनुसार जल मरीं। संग्राम भए = खेत रह, लड़कर मरे। चितउर भा इसलाम = चित्तौरगढ़ में भी मुसलमानी अमलदारी हो गई।