जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१५. सात समुद्र खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ५६ से – ५९ तक

 

 

(१५) सात समुद्र खंड

सायर तरै हिये सत पूरा। जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा॥
तेइ सत बोहित कुरी चलाए। तेइ सत पवन पंख जनु लाए॥
सत साथी, सत कर संसारू। सत्त खेइ लेइ लावै पारू॥
सत्त ताक सब आगू पाछू। जहँ जहँ मगरमच्छ औ काछु॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा। चढ़ै सरग औ परै पतारा॥
डोलहिं बोहित लहरैं खाहीं। खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं॥
राजै सो सत हिरदै वाँघा। जेहि सत टेकि करै गिरि काँधा॥

खार समूद सो नाँघा, आए समुद जहूँ खीर॥
मिले समुद वै तसातौ, बेहर बेहर नीर॥१॥

खीर समुद का वरनौं नीरू। सेत सरूप, पियत जस खीरू॥
उलथहिं मानिक, मोती, हीरा। दरव देखि मन होइ न थीरा॥
मनुआ चाह दरब औ भोगू। पंथ भुलाइ बिनासै जोगू॥
जोगी होइ सो मनहिं सेंभारै। दरव हाथ कर समुद पवारै॥
दरब लेइ सोई जो राजा। जो जोगी तेहिके केहि काजा॥
पंथहि पंथ दरब रिपु होई। ठग, बटपार, चोर सेग सोई॥
पंथी सो जो दरब सौं रूसे। दरब समेटि बहुत अस मूसे॥

खीर मद सो नाँघा, आए समुद दधि माँह।
जो हैं नेह क बाउर, तिन्‍ह कहँ धूप न छाँह॥२॥

दधि समुद्र देखत तस दाधा। पेम क लुबुध दगध पै साधा॥
पेम जो दाधा धनि वह जीऊ। दधि जमाइ मथि काढ़े घीऊ॥
दधि एक बूंद जाम सब खीरू। काँजी बंद बिनसि होइ नीरू॥
साँस डाड़ि मन मथनी गाढ़ी। हिये चोट बिन फूट ते साढ़ी॥
जेहि जिउ पेम चंदन तेहि आगी। पेम बिहून फिरै डर भागी॥
पेम कै आगि जरै कोई। दुख तेहि कर न अँविरथा होई॥
जो जानै सत आपहु जारै। निसत हिये सत करै न पारै॥

दधि समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार?॥
भाव पानी सिर परै, भावै परै अँगार॥३॥


 

(१) सायर = सागर। कुरी = समूह। बेहर बेहर = अलग अलग। (२) मतुआ = मनुष्य या मन। पधारै = फेंके। रूसे = विरक्‍त हुए। मूसे = मूसे गए, ठगे नेए। (३) दगध साधा = दाह सहने का अभ्यास कर लेता है। दाधा = जला। डाँड़ि = डाँड़ी, डोरी। अँबरिथा = वृथा, निष्फल निसत = सत्यविहीन। भावै = चाहे।

आए उदधि समुद्र अपारा। धरती सरग जरै तेहि भारा॥
आगि जो उपनी ओहि समुंदा। लंका जरी ओहि एक बुंदा॥
विरह जो उपना ओहि तें गाढ़ा। खिन न बुझाइ जगत महें बाढ़ा॥
जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी। सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी॥
जग महँ कठिन खड़ग कै धारा। तेहि तें अधिक विरह के भारा॥
अगम पंथ जो ऐस न होई। साथ किए पावै सब कोई॥
तेहि समुद्र महँ राजा परा। जरा चहे पे रोव न जरा॥

तलफै तेल कराह जिमि इमि, तलफै सब नीर।
यह जो मलयगिरि प्रेम कर वेधा, समुद समीर॥४॥

सुरा समुद पुनि राजा आवा। महुआ मद छाता दिखरावा॥
जो तेहि पिये सो भाँवरि लेई। सीस फिरै, पथ पैगू न दई॥
पेम सुरा जेहि के हिय माहाँ। कित बैठे महुआ के छाहाँ॥
गुरू के पास दाख रस रसा। बैरी बबुर मारि मन कसा॥
बिरह के दगध कीन्ह तन भाठी। हाड़ जराइ दीन्ह सब काठी॥
नैन नीर सौं पोता किया। तस मद चुवा बरा जस दिया॥
बिरह सरागन्हि भुँजै माँसू। गिरि गिरि परै रकत के आँसू॥

मुहमद मद जो पेम कर, गए दीप तेहि साध।
सीस न देइ पतंग होइ, तौ लगि लहे न खाप॥५॥

पुनि किलकिला समुद महँ आए। गा धीरज, देखत डर खाए॥
भा किलकिल अस उठे हिलोरा। जनु अकास टूटै चहूँ ओरा॥
उठै लहरि परवत कै नाई। फिरि आवै जोजन सौं ताई॥
धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा। सकल समुद जानहुँ भा ठाढ़ा॥
नीर होइ तर ऊपर सोई। माथे रंभ समुद जस हाई॥
फिरत समद जोजन सौ ताका। जैसे भँवै कोहाँर क चाका॥
भै परलै नियराना जबहीं। मरै जो जब परलै तेहि तबहीं॥

गै औसान सबन्ह कर, देखि समुद कै बाढ़ि।
नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढ़ि॥६॥

 

(४) भार = ज्वाला, लपट। उपनी = उत्पन्न हुई। आगि कह डीठी = आग की क्या ध्यान में लाता है। सौंह = सामने। यह जो मलयगिरि = अर्थात्‌ राजा। (५) छाता = पानी पर फैला फूल पत्ती का गुच्छा। सीस फिरै = सिर घुमता है। मन कसा = मन वश में किया। काठी = इंधन। पोती = मिट्टी के लेप कर गाल कपड़े का पुचारा जो भवके से अर्क उतारने में बरतन के उपर दिया जाता हैं। सराग = सलाख, शलाका, सीख जिसमें गोदकर माँस भूनते हैं। खाध = खाद्य, भोग।

(६) धरती लेइ = धरती से लेकर। माथे = मथने से। रंभ = घोर शब्द। औसान = होश हवास।

हीरामन राजा सों बोला। एही समुद आए सत डोला॥
सिहलदीप जो नाहिं निबाहू। एही ठाँव साँकर सब काहू॥
एहि किलकिला समुद्र गँभीरू। जेहि गुन होइ सो पावे तीरू॥
इहे समुद्र पंथ मभधारा। खाँड़े के अश्ति धार निनारा॥
तीस सहस्न॒ कोस के पाटा। अस साँकर चलि सकै न चाटा॥
खाँड़े चाहि पैनि बहुताई। बार चाहि ताकर पतराई॥
एहीठाँव कहँँ गुरु सँग लीजिय। गुह सँग होइ वार तौ कीजिय॥

मरन जियन एहि पंथहि, एही आस निरास।
परा सो गरउ पतारहि, तरा सो गा कविलास॥७॥

राजे दीन्ह कटक कहूँ वीरा। सुपुरुष होहु, करहु मन धीरा॥
ठाकुर जेहिक सूर भा कोई। कटक सूर पुनि आपुहि होई॥
जौ लहि सती न जिउ सत बाँधा। तौ लहि देइ कहाँर न काँधा॥
पेम समुद महँ बाँधा वेरा। यह सब समुद बूँद जेहि केरा॥
ना हौं सरग क चाहों राजू। ना मोंहि नरक सेंति किछु काजू॥
चाहौं ओहि कर दरसन पावा। जेइ मोहिं आनि पेम पथ लावा॥
काठहिं काह गाढ़ का ढोला। बूड़ न समुद, मगर नहिं लीला॥

कान सप्रुद धँसि लीन्हेसि, भा पाछे सब कोइ।
कोइ काहू न सँभारे, आपनि आपनि होइ॥८॥

कोइ बोहित जस पौन उड़ाहीं। कोई चमकि बीज अस जाहीं॥
कोई जस भल धाव तुखारू। कोई जैस बैल गरियारू॥
कोइ जानहुँ हरुआ रथ हांका। कोई गरुअ भार बहु थाका॥
कोई रेंगहि जातहुँ चाँटी। कोई टूटि होहि तर माटी॥
कोई खाहिं पौन कर भोला। कोई करहिं पात अस डोला॥
कोई पराहिं भौंर जल माहाँ। फिरत रहहिं, कोइ देइ न बाहाँ॥
राजा कर भा अगमन खेंवा। खेवक आगे सुआ परेवा॥

कोइ दिन मिला सबेरे, कोइ आवा पछराति।
जाकर जस जस साजु हुत, सो उतरा तेहिं भाँति॥९॥

 

१. कुछ प्रतियों में इसके स्थान पर यह चौपाई है — एही पंथ सब कहेँ है जाना। होई दुसरै विसवास निदाना। मुसलमानी धर्म के अनुसार जो वैतरणी का पुल माना गया है उसको ओर लक्ष्य है। विश्वास के कारण यह दूसरा ही (अर्थात्‌ चौड़ा) हो जाता है।

(७) साँकर = कठिन स्थिति। साँकर = पकरा, तंग। (८) सेंति = सेंती, से। गाढ़ = कठित। ढीला = सुगम। कान = कर्ण, पतवार। (९) गरियारू = मट्ठर, सुस्त। हरुआ = हलका। थाका = थक गया। कोला = भझोंका, भकोरा। अगमन = आगे। पछराति = पिछली रात। हुत = था।

सतएँ समुद मानसर आए। मन जो कीन्ह साहस, सिधि पाए॥
देखि मानसर रूप सोहाबा। हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥
गा अँधियार, रैनि ससि छूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥
‘अस्ति अस्ति’ सब साथी बोले। अंध जो अहे नैन विधि खोले॥
कवँल विगस तब बिहँसी देहीं। भौंर दसन होइ के रस लेहीं॥
हँसहि हंस औ करहि किरीरा। चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा॥
जो अस आव साजि तप जोगू। पूजै आस, मान रस भोगू॥

भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ।
घुन जो हियाव न कै सका, भूर काठ तस खाइ॥१०॥


 

(१०) पुरइनि = कमल का पत्ता (सं० पुटकिनी, प्रा० पुड़इणी)। रैनिमसि = रात की स्याही। ‘अस्ति अस्ति’ = जिस सिंहलद्वीप के लियें इतना तप साधा वह वास्तव में है, अध्यात्मपक्ष में ‘ईश्वर या परलोक है।’ किरीरा = क्रीड़ा। मुकुताहल = मुक्ताफल। मनसा = मन में संकल्प किया। हियाव = जीवट, साहस।