जायसी ग्रंथावली/भूमिका/कवि द्वारा वस्तुवर्णन
कवि द्वारा वस्तुवर्णन
वस्तु-वर्णन-कौशल से कवि लोग इतिवृत्तात्मक अंशों को भी सरस बना सकते हैं। इस बात में हम संस्कृत के कवियों को अत्यंत निपुण पाते हैं। भाषा के कवियों में वह निपुणता नहीं पाई जाती। मार्ग चलने का ही एक छोटा सा उदाहरण लीजिए। राम किष्किंधा की ओर जा रहे हैं। तुलसीदास जी इसका कथन इतिवृत्त के रूप में इस प्रकार करते हैं—
आगे चले बहुरि रघुराया। ऋष्यमूक पर्वत नियराया॥
किसी पर्वत की ओर जाते समय दूर से उसका दृश्य कैसा जान पड़ता है, फिर ज्यों ज्यों उसके पास पहुँचते हैं त्यों त्यों उस दृश्य में किस प्रकार अंतर पड़ता जाता है, पहाड़ी मार्ग के आस पास का दृश्य कैसा हुआ करता है, यह सब ब्योरा उक्त कथन में या उसके आगे कुछ भी नहीं है। वहीं रघुवंश के द्वितीय सर्ग में दिलीप, उनकी पत्नी और नंदिनी गाय के 'मार्ग चलने का दृश्य' देखिए। आसपास की प्राकृतिक परिस्थिति का कैसा सूक्ष्म बिंबग्रहण कराता हुआ कवि चला है। चलने में मार्ग के स्वरूप को ही देखिए कवि ने कैसा प्रत्यक्ष किया है—
तस्या खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्त्तनीया।
मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्॥
'गाय के पीछे पीछे पगडंडी पर सुदक्षिरणा चली' इतना ही तो इतिवृत्त है, पर 'जिसकी धूल पर नंदिनी के खुर के चिह्न पड़ते चलते हैं यह विशेषण वाक्य देकर कवि ने उस मार्ग का चित्र भी खड़ा कर दिया है। वस्तुओं की ऐसी संश्लिष्ट योजना द्वारा बिंबग्रहण कराने का—वस्तुओं का अलग अलग नाम लेकर अर्थग्रहण मात्र कराने का नहीं—प्रयत्न हिंदी कवियों में बहुत ही कम दिखाई पड़ता है। अतः जायसी में भी हम इसका आभास बहुत कम पाते हैं। इन्होंने जहाँ जहाँ वस्तुवर्णन किया है वहाँ वहाँ भाषाकवियों की पृथक् पृथक् वस्तुपरिगणनवाली शैली ही पर अधिकतर किया है। अतः ये वर्णन परंपरायुक्त ही कहे जा सकते हैं। केवल वस्तुपरिगणन में नवीनता कहाँ तक आ सकती है? ऋतु का वर्णन होगा तो उस ऋतु में फलने फूलनेवाले पेड़ पौधों और दिखाई पड़नेवाले पक्षियों के नाम होंगे, वन का वर्णन होगा तो कुछ इने गिने जंगली पेड़ों के नाम आ जायँगे, नगर या हाट का वर्णन होगा तो बाग बगीचों, मकानों और दुकानों का उल्लेख होगा। नवीनता की संभावना तो कवि के निज परीक्षण द्वारा प्रत्यक्ष की हुई वस्तुओं और व्यापारों की संश्लिष्ट योजना में ही हो सकती है। सामग्री नई नहीं होती, उसकी योजना नए रूप में होती है।
ऊपर लिखी बात का ध्यान रखते हुए भी यह मानना पड़ता है कि वस्तुवर्णन के लिये जायसी ने घटनाचक्र के बीच उपयुक्त स्थलों को चुना है और उनका विस्तृत वर्णन अधिकतर भाषाकवियों की पद्धति पर होते हुए भी बहुत ही भावपूर्ण है। अब संक्षेप में कुछ मुख्य स्थलों का उल्लेख किया जाता है जिन्हें वर्णनविस्तार के लिये जायसी ने चुना है।
सिंहलद्वीप वर्णन—इसमें बगीचों, सरोवरों, कुओं, बावलियों, पक्षियों, नगर, हाट, गढ़, राजद्वार और हाथी घोड़ों का वर्णन है। अमराई की शीतलता और सघनता का अंदाज इस वर्णन से कीजिए— घन अमराउ लाग चहुँ पासा। उठा भूमि हुँत लागि अकासा॥ तरिवर सबै मलयगिरि लाई। भइ जग छाँह, रैनि होइ आई॥ मलय समीर सोहावनि छाँहा। जेठ जाड़ लागे तेहि माहाँ॥ ओही छाँह रैनि होइ आवै। हरियर सबै प्रकास देखावै॥ पथिक जो पहुँचै सहिके घामू। दुख बिसरे, सुख होइ बिसरामू॥
इतना कहते कहते कवि का ध्यान ईश्वर के सामीप्य की भावना की ओर चला जाता है और वह उस अमर धाम की ओर, जहाँ पहुँचने पर भवताप से निवृत्ति हो जाती है, इस प्रकार संकेत करता है—
जेइ पाई वह छाँह अनूपा। फिरि नहि आइ सहै यह धूपा॥
कवि की यही पारमार्थिक प्रवृत्ति उसे हेतुत्प्रेक्षा की ओर ले जाती है। ऐसा जान पड़ता है, मानो उसी अमराई की छाया से ही संसार में रात होती है और आकाश हरा (प्राचीन दृष्टि हरे और नीले में इतना भेद नहीं करती थी) दिखाई देता है।
जैसा पहले कहा जा चुका है, जिन दृश्यों का माधुर्य भारतीय हृदय पर चिरकाल से अंकित चला आ रहा है उन्हें चुनने की सहृदयता जायसी का एक विशेष गुण है। भारत के शृंगारप्रिय हृदयों में 'पनिघट का दृश्य' एक विशेष स्थान रखता है। बूढ़े केशवदास ने पनिघट ही पर बैठे बैठे अपने सफेद बालों को कोसा था। सिंहल के पनिघट का वर्णन जायसी इस प्रकार करते हैं—
पानि भरै आवहिं पनिहारी। रूप सुरूप पदमिनी नारी॥
पदुम गंध तिन्ह अंग बसाहीं। भँवर लागि तिन्ह संग फिराहीं॥
लंक सिंघिनी, सारँग नैनी। हंस गामिनी, कोकिल बैनी॥
आवहिं झुंड सो पाँतिहि पाँती। गवन सोहाइ सो भाँतिहि भाँती॥
कनक कलस, मुख चंद दिपाहीं। रहस केलि सन आवहिं जाहीं॥
जा सहुँ वै हेरहिं चख नारी। बाँक नैन जनु हनहि कटारी॥
केस मेघावर सिर ता पाईं। चमकहिं दसन बीजु कै नाई॥
पद्मावती का अलौकिक रूप ही सारी आख्यायिका का आधार है। अतः कवि इन पनिहारियों के रूप की झलक दिखाकर पद्मावती के रूप के प्रति पहले ही से इस प्रकार उत्कंठा उत्पन्न करता है—
माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप।
जेहिके अस पनिहारी सो रानी केहि रूप?
बाजार के वर्णन में 'हिंदू हाट' की अच्छी झलक मिल जाती है—
कनक हाट सब कुहुँकुहुँ लीपी। बैठ माहजन सिंघलदीपी॥
सोन रूप भल भएउ पसारा। धवल सिरी पोतहि घर बारा॥
जिस प्रकार नगर हाट के वर्णन से सुखसमृद्धि टपकती है उसी प्रकार गढ़ और राजद्वार के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन से प्रताप और आतंक—
निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू। नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी। सहस सहस तहँ बैठे पाजी॥
फिरहिं पाँच कोटवार सुभौंरी। काँपै पाँव चपत वह पौरी॥
जलक्रीड़ा वर्णन—सिंहलद्वीपवर्णन के उपरांत सखियों सहित पद्मावती की जलक्रीड़ा का वर्णन है (दे° मानसरोदक खंड) । यद्यपि जायसी ने इस प्रकरण की योजना कौमार अवस्था के स्वाभाविक उल्लास और मायके की स्वच्छंदता की व्यंजना के लिये की है, पर सरोवर के जल में घुसी हुई कुमारियों का मनोहर दृश्य भी दिखाया है और जल में उनके केशों के लहराने आदि का चित्रण भी किया है—
धरी तीर सब कंचुकि सारी। सरवर मँह पैठीं सब नारी॥
पाइ नीर जानहु सब बेली। हुलसहिं करहिं काम कै केली॥
करिल केस बिसहर बिस भरे। लहरेँ लेहिं कवँल मुख धरे॥
नवल बसंत सँवारी करी। भई प्रगट जानहु रस भरी॥
सरवर नहिं समाइ संसारा। चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा॥
उल्लास के अनुरूप क्रिया जायसी ने इस खेल में दिखाई है—
सँवरिहि साँवरि गोरिहि गोरी। आपनि आपनि लीन्हि सो जोरी॥
सिंहलद्वीप यात्रावर्णन—वस्तुवर्णन की जो पद्धति जायसी की कही गई है उसे ध्यान में रखते हुए मार्गवर्णन जैसा चाहिए वैसे की आशा नहीं की जा सकती। चित्तौर से कलिंग तक जाने में मार्ग में न जाने कितने वन, पर्वत, नदी, निर्झर, ग्राम, नगर तथा भिन्न भिन्न आकृति प्रकृति के मनुष्य इत्यादि पड़ेंगे पर जायसी ने उनका चित्रण करने की आवश्यकता नहीं समझी। केवल इतना ही कहकर वे छुट्टी पा गए—
है आगे परबत कै बाटा। विषम पहार अगम सुठि घाटा॥
बिच बिच नदी खोह औ नारा। ठाँवहि ठाँव बैठ बटपारा॥
प्राकृतिक दृश्यों के साथ जायसी के हृदय का वैसा मेल नहीं जान पड़ता। मनुष्यों के शारीरिक सुख दुःख से, उनके आराम और तकलीफ से, उनका जहाँ तक संबंध होता है वहीं तक उनकी ओर उनका ध्यान जाता है। और अमराइयों का वर्णन वे जो करते हैं सो केवल उनकी सघन शीतल छाया के विचार से। वन का जो वे वर्णन करते हैं वह कुश कंटकों के विचार से, कष्ट और भय के विचार से—
करहु दीठि थिर होइ बटाऊ। आगे देखि धरहु भुइँ पाऊ॥
जो रे उबट होइ परे भुलाने। गए मारि, पथ चलै न जाने॥
पायँन पहिरि लेहु सब पौंरी। काँट धँसै न गड़े अँकरौरी॥
परे आई वन परबत माहाँ। दंडाकरन बीझ बन गाहाँ॥
सघन ढाक बन चहुँदिसि फूला। बहु दुख पाव उहाँ कर भूला॥
झाँखर जहाँ सो छाँड़हु पंथा। हिलगि मकोय न फारहु कंथा॥
फारसी की शायरी में जंगल और बयावान का वर्णन केवल कष्ट या विपत्ति के प्रसंग में आता है। वहाँ जिस प्रकार चमन आनंदोत्सव का सूचक है उसी प्रकार कोह या बयावान विपत्ति का। संस्कृत साहित्य का जायसी को परिचय न था। वे वन, पर्वत आदि के अनुरंजनकारी स्वरूप के चित्रण की पद्धति पाते तो कहाँ पाते? उनकी प्रतिभा इस प्रकार की न थी कि किसी नई पद्धति की उद्भावना करके उसपर चल खड़ी होती।
समुद्रवर्णन—हिंदी के कवियों में केवल जायसी ने समुद्र का वर्णन किया है, पर पुराणों के 'सात समुद्र' के अनुकरण के कारण समुद्र का प्रकृत वर्णन वैसा होने नहीं पाया। क्षीर, दधि और सुरा के कारण समुद्र के प्राकृतिक स्वरूप का अच्छा प्रत्यक्षीकरण न हो सका। आरंभ में समुद्र का जो सामान्य वर्णन है उसके कुछ पद्य अवश्य समुद्र की महत्ता और भीषणता का चित्र खड़ा करते हैं, जैसे—
समुद अपार सरग जनु लागा। सरग न घाल गनै बैरागा॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा। चढ़ै सरग औ परै पतारा॥
विशेष समुद्रों में से केवल 'किलकिला समुद्र' का वर्णन अत्यंत स्वाभाविक तथा वैसे महत्वजन्य आश्चर्य और भय का संचार करनेवाला है जैसा समुद्र के वर्णन द्वारा होना चाहिए--
भा किलकिल अस उठे हिलोरा। जनु अकास टूटै चहुँ ओरा।।
उठहि लहरि परबत कै नाई। फिरि पावहिं जोजन सौ ताई।।
धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा। सकल समुद जानहु भा ठाढ़ा।।
नीर होइ तर ऊपर सोई। माथे रभ समुद्र जस होई।।
यदि इस प्रकार के वर्णन का विस्तार और अधिक होता तो क्या अच्छा होता! 'समुद्र अपार सरग जनु लागा' इस वाक्य में विस्तार का बहुत ही सुंदर प्रत्यक्षीकरण हुआ है। जहाँ तक दृष्टि जाती है वहाँ तक समुद्र ही फैला हुआ और क्षितिज से लगा हुआ दिखाई पड़ता है। दृश्य रूप में विस्तार का यह कथन अत्यंत काव्योचित है। अँगरेजी के कवि गोल्डस्मिथ ने भी अपने 'श्रांत पथिक' (ट्रैवेलर) नामक काव्य में विस्तार का प्रत्यक्षीकरण-'ए वेयरी वास्ट इक्स्पैडिंग टु द स्काईज' (आकाश तक फैला हुया मैदान) कहकर किया है। 'परबत कै नाई' इस साम्य द्वारा भी लहरों की ऊँचाई की जो भावना उत्पन्न की गई वह काव्यपद्धति के बहुत ही अनुकूल है। इसके स्थान पर यदि कहा गया होता कि लहरें बीस पचीस हाथ ऊंची उठती हैं तो माप शायद ठीक होती पर जो प्रभाव कवि उत्पन्न किया चाहता था वह उत्पन्न न होता। इसी से काव्य के वर्णनों में संख्या या परिमाण का उल्लेख नहीं होता और जहाँ होता भी है वहाँ उसका लाक्षणिक अर्थ ही लिया जाता है जैसे "फिरि पावहि जोजन सौ ताई" में। काव्य के वाक्य श्रोता की ठीक मान निर्धारित करनेवाली या सिद्धांत निरूपित करनेवाली निश्चयात्मिका बद्धि को संबोधन करके नहीं कहे जाते।
समुद्र के जीव जंतुओं का जो काल्पनिक और अत्युक्त वर्णन जायसी ने किया है उससे सूचित होता है कि उन्होंने किस्से कहानियों में सुनी सूनाई बातें ही लिखी हैं, अपने अनुभव की नहीं। उन्होंने शायद समुद्र देखा भी न रहा हो।
सात समुद्रों के जो नाम जायसी ने लिखे हैं उनमें से प्रथम पाँच तो पुराणानकूल हैं, पर अंतिम दो किलकिला और मानसर--भिन्न हैं। पुराणों के अनुसार सात समुद्रों के नाम हैं क्षार (खारे पानी का), जल (मीठे पानी का), क्षीर, दधि, घृत, सुरा और मधु। इनमें से जायसी ने घृत और मधु को छोड़ दिया है। सिंहलद्वीप के पास 'मानसर' की कल्पना वैसी ही है जैसी कैलास में इद्र और अप्सराओं की।
विवाहवर्णन--इसमें आनंदोत्सव और ओज का वर्णन है। सजावट आदि का चित्रण अच्छा है। इसमें राजा के ऐश्वर्य और प्रजा के उल्लास का आभास मिलता है--
रचि रचि मानिक माँड़व छावा। औ भुइँ रात बिछाव बिछावा।।
चंदन खाँभ रचे बहु भाँती। मानिक दिया बरहिं दिन राती।।
साजा राजा, बाजन बाजे। मदन सहाय दुवौ दर गाजे॥
औ राता सोने रथ साजा। भए बरात गोहने सब राजा॥
घर घर बंदन रचे दुवारा| जावत नगर गीत झनकारा॥
हाट बाट सब सिंघल, जहँ देखहुँ तहँ रात।
धनि रानी पदमावती, जेहिकै ऐसि बरात॥
बरात निकलने के समय अटारियों पर दूल्हा देखने की उत्कंठा से भरी स्त्रियों का जमावड़ा भारतवर्ष का एक बहुत पुराना दृश्य है। ऐसे दृश्यों को रखना जायसी नहीं भूलते, यह पहले कहा जा चुका है। पद्मावती अपनी सखियों को लेकर बर देखने की उत्कंठा से कोठे पर चढ़ती है—
पद्मावति धौराहर चढ़ी। दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा। इन्ह महँ सो जोगी कहँ अहा?॥
सखियाँ उँगली से दिखाती हैं कि वह देखो—
जस रवि, देखु, उठै परभाता। उठा छत्र तस बीच बराता॥
ओहि माँझ भा दूलह सोई। और बरात संग सब कोई॥
इस कथन में कवि ने निपुणता यह दिखाई है कि सखी उस बरात के बीच पहले सबसे अधिक लक्षित होनेवाली वस्तु छत्र की ओर संकेत करती है; फिर कहती है कि उसके नीचे वह जोगी दूल्हा बना बैठा है।
भोज के वर्णन में व्यंजनों और पकावानों की नामावली है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम सीता के विवाह का जितना विस्तृत वर्णन किया है उतना विस्तृत वर्णन जायसी का नहीं है। गोस्वामी जी का रामचरितमानस लोकपक्षप्रधान काव्य है और जायसी के 'पद्मावत' में व्यक्तिगत प्रेमसाधना का पक्ष प्रधान है। अतः 'पदमावत' में लोकव्यवहार का जो इतना चित्रण मिलता है उसी को बहुत समझना चाहिए। जैसा पहले कह आए हैं, इश्क की मसनवियों के समान यह लोकपक्षशून्य नहीं है।
युद्ध-यात्रा-वर्णन—सेना की चढ़ाई का वर्णन बड़ी धूमधाम का है। ग्रंथारंभ में शेरशाह की सेना के प्रसंग की चौपाइयाँ ही देखिए, कितनी प्रभावपूर्ण हैं—
हय गय सेन चलै जग पूरी। परबत टूटि मिलहिं होइ धूरी॥
रेनु रैनि होइ रविहिं गरासा। मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा॥
भुइँ उड़ि अंतरिक्ख मृदमंडा| खंड खंड धरती बरम्हंडा॥
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा। बासुकि जाइ पतारहिं चाँपा॥
मेरु धसमसै, समुद्र सुखाई। बनखँड टूटि खेह मिलि जाई॥
अगिलन्ह कहँ पानी लेइ बाँटा। पलिछन्ह कहँ नहिं काँदौ आँटा॥
इसी ढंग का चित्तौर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का बड़ा विस्तृत वर्णन है—
बादसाह हठि कीन्ह पयाना। इंद्र भंडार डोल भय माना॥
नब्बे लाख सवार जो चढ़ा। जो देखा सो सोने मढ़ा॥
बीस सहस घुम्मरहिं निसाना। गलगंजहि फेरहिं असमाना॥
बैरख ढाल गगन गा छाई। चला कटक धरती न समाई॥
सहस पाँति गज मत्त चलावा। घुसत कास धँसत भुंइँ आवा॥
बिरिछ उपारि पेड़ि स्यों लेहीं। मस्तक भारि तोरि मुख देहीं॥
कोउ काहू न सँभारे, होत आव डर चाप।
धरति आपु कहँ काँप, सरग आपु कहँ काँप॥
आवै डोलत सरग पतारू। काँपै धरति, न अँगवै भारू॥
टूटहिं परबत मेरु पहारा। होइ होइ चूरि उड़हिं होइ छारा॥
सत खंड धरती भई षट खंडा। ऊपर अस्ट भए बरह्मंडा॥
गगन छपान खेह तस छाई। सूरज छपा, रैनि होइ आई॥
दिनहिं राति अस परी अचाका। भा रवि अस्त, चंद रथ हाँका॥
मँदिरन्ह जगत दीप परगसे। पंथी चलत बसेरहि बसे॥
दिन के पंखि चरत उड़ि भागे। निसि के निसरि चरै सब लागे॥
कैसे घोर सृष्टिविप्लव का दृश्य जायसी ने सामने रखा है! मानव व्यापारों की व्यापकता और शक्तिमत्ता का प्रभाव वर्णन करने में जायसी को पूरी सफलता हुई है। मनुष्य की शक्ति तो देखिए! उसकी एक गति में सारी सृष्टि में खलबली पड़ गई है। पृथ्वी और प्रकाश दोनों हिल रहे हैं। एक के सात के छ ही खंड रहते दिखाई देते हैं और दूसरे के सात के आठ हुए जाते हैं। दिन की रात हो रही है। जिस जायसी ने विशुद्ध प्रेममार्ग में मनुष्य की मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति का साक्षात्कार किया—सच्चे प्रेमी की वियोगाग्नि की लपट को लोकलोकांतर में पहुँचाया—उन्होंने यहाँ उसकी भौतिक शक्ति का प्रसार दिखाया है।
इस वर्णन में बिंबग्रहण कराने के हेतु चित्रण का प्रयत्न भी पाया जाता है। इसमें कई व्यापारों की संश्लिष्ट योजना कई स्थलों पर दिखाई देती है। जैसे, हाथी पेड़ों को पेड़ी सहित उखाड़ लेते हैं, और फिर मस्तक झाड़ते हुए उन्हें तोड़कर मुँह में डाल लेते हैं। इस रूप में वर्णन न होकर यदि एक स्थान पर यह कहा जाता कि हाथी पेड़ उखाड़ लेते हैं, फिर कहीं कहा जाता कि वे मस्तक झाड़ते हैं और आगे चलकर यह कहा जाता कि वे डालियाँ मुँह में डाल लेते हैं तो यह संकेतरूप में (अर्थग्रहण मात्र कराने के लिये, चित्त में प्रतिबिंब उपस्थित करने के लिये नहीं) कथन मात्र होता, चित्रण न होता। इसी प्रकार पहाड़ टूटते हैं, टूटकर चूर चूर होते हैं और फिर धूल होकर ऊपर छा जाते हैं। इस पंक्ति में भी व्यापारों की शृंखला एक में गुथी हुई है। ये वर्णन संस्कृत चित्रणप्रणाली पर हैं। जिन व्यापारों या वस्तुओं में जायसी के हृदय की वृत्ति पूर्णतया लीन हुई है उनका ऐसा चित्रण मानों आपसे आप हो गया है।
इसके आगे राजा रत्नसेन के घोड़ों, हथियारों और उनकी सजावट आदि का अच्छे विस्तार के साथ वर्णन है। सब बातों की दृष्टि से यह युद्ध यात्रा-वर्णन सर्वांगपूर्ण कहा जा सकता है।
युद्धवर्णन—घमासान युद्ध वर्णन करने का भी जायसी ने अच्छा आयोजन किया है। शस्त्रों की चमक और झनकार, हाथियों की रेलपेल, सिर और धड़ का गिरना आदि सब कुछ है—
हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं। जनु परबत परबत सौं बाजहिं॥
कोउ गयंद न टारे टरहीं। टूटहिं दाँत, सूँड़ गिरि परहीं॥
बाजहिं खड़ग, उठै दर आगी। भुइँ जरि चहै सरग कहँ लागी॥
चमकहिं बीजु होइ उँजियारा। जेहि सिर परै होइ दुइ फारा॥
बरसहिं सेल बान, होइ काँदों। जस बरसे सावन औ भादों॥
लपटहिं कोपि परहिं तरवारी। औ गोला ओला जस भारी॥
जूझे बीर लखौं कहँ ताईं। ले अछरी कैलास सिधाई॥
अंतिम पंक्ति में वीरों के प्रति जो संमान का भाव प्रकट किया है वह हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की महत्वभावना के अनुकूल है। रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त शूरवीरों का स्वागत जैसे हिंदुओं के स्वर्ग में अप्सराएँ करती हैं वैसे ही मुसलमानों के बहिश्त में भी। लोकसंगत आदर्श के प्रति यही पूज्य बुद्धि जायसी को कबीर आदि व्यक्तिपक्ष ही तक दृष्टि ले जानेवाले साधकों से अलग करती है।
भारतीय कविपरंपरा युद्ध की भीषणता के बीच गीध, गीदड़ आदि के रूप में कुछ वीभत्स दृश्य भी लाया करती है। जायसी ने भी इस परंपरा का अनुसरण किया है—
आनँद ब्याह करहिं मँसखावा। अब भख जनम जनम कहँ पावा॥
चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा। बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा॥
गिद्ध चील सब मंडप छावहिं। काग कलोल करहिं औ गावहिं॥
बादशाह भोजन वर्णन—जैसा पहले कह आए हैं, इसमें अनेक युक्तियों से बनाए हुए व्यंजनों, पकवानों, तरकारियों और मिठाइयों इत्यादि की बड़ी लंबी सूची है—इतनी लंबी कि पढ़नेवाले का जी ऊब जाता है। यह भद्दी परंपरा जायसी के पहले से चली आ रही थी। सूरदास जी ने भी इसका अनुसरण किया है।
चित्तौरगढ़ वर्णन—यह भी उसी ढंग का है जिस ढंग का सिंहलगढ़ का वर्णन है। इसमें भी सात पौरें हैं, पर नव द्वारवाली कल्पना नहीं आई है क्योंकि कवि को यहाँ किसी अप्रस्तुत अर्थ का समावेश नहीं करना था। चित्तौर बहुत दिनों तक हिंदुओं के बल, प्रताप और वैभव का केंद्र रहा। सारी हिंदू जाति उसे संमान और गौरव की दृष्टि से देखती रही। चित्तौर के नाम के साथ हिंदूपन का भाव लगा हुआ था। यह नाम हिंदुओं के मर्म को स्पर्श करनेवाला है। भारतेंदु के इस वाक्य में हिंदू हृदय की कैसी वेदना भरी है—
हाय चितौर! निलज तू भारी। अजहुँ खरो भारतहि मझारी॥
उसी प्रिय भूमि के संबंध में जायसी क्षत्रिय राजाओं के मुँह से कहलाते हैं—
चितउर हिंदुन कर अस्थाना। सत्रु तुरुक हठि कीन्ह पयाना॥
है चितउर हिंदुन कै माता। गाढ़ परे तजि जाइ न नाता॥
सातौ पँवरी कनक केवारा। सातहु पर बाजहिं घरियारा॥
खँड खँड साज पलँग औ पीढ़ी। मानहुँ इंद्रलोक कै सीढ़ी॥
चंदन बिरिछ सुहाई छाहाँ। अमृत कुंड भरे तेहि माहाँ॥
फरे खजहजा दारिउँ दाखा। जो ओहि पंथ जाइ सो चाखा॥
कनक छत्र सिंहासन साजा। पैठत पँवरि मिला लेइ राजा॥
चढ़ा साह, गढ़ चितउर देखा। सब संसार पाँय तर लेखा॥
देखा साह, गगन गढ़, इंद्रलोक कर साज।
कहिय राज फुर ताकर, करै सरग अस राज॥
षट्ऋतु बारह मास वर्णन—उद्दीपन की दृष्टि से तो इनपर विचार 'विप्रलंभ शृंगार' और 'संयोग शृंगार' के अंतर्गत हो चुका है। वहाँ इनके नाना दृश्यों का जो आनंददायक या दुःखद स्वरूप दिखाया गया है वह किसी अन्य (आलंबन रत्नसेन) के प्रति प्रतिष्ठित रति भाव के कारण है। उद्दीपन में वर्णन दृश्यों के स्वतंत्र प्रभाव की दृष्टि से नहीं होता। पर यहाँ उन दृश्यों का विचार हमें इस दृष्टि से करना है कि उनका मनुष्य मात्र की रागात्मिका वृत्ति के आलंबन के रूप में चित्रण कहाँ तक और कैसा हुआ है। ऐसे दृश्यों में स्वतः एक प्रकार का आकर्षण होता है, यह बात तो सहृदय मात्र स्वीकार करेंगे। इसी आकर्षण के कारण प्राचीन कवियों ने प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का सूक्ष्म निरीक्षण करके तथा उनके संश्लिष्ट ब्योरों को संश्लिष्ट रूप में ही रखकर दृश्यों का मनोहर चित्रण किया है। पर जैसा पहले कह आए हैं, जायसी के ये वर्णन उद्दीपन की दृष्टि से हैं जिसमें वस्तुओं और व्यापारों की झलक मात्र—जो नामोल्लेख मात्र से भी मिल सकती है—काफी समझी जाती है। पर बहुत ही प्यारे शब्दों में दिखाई हुई यह झलक है बहुत मनोहर। कुछ उदाहरण 'विप्रलंभ शृंगार' के अंतर्गत दिए जा चुके हैं, कुछ और लीजिए—
अद्रा लाग, लागि भुइँ लेई। मोहि बिनु पिउ को आदर देई?॥
सावन बरस मेह अति पानी। भरनि भरी, हौं विरह झुरानी॥
भा परगास काँस वन फूले। कंत न फिरे विदेसहि भूले॥
कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल, हौं बिरहै जारी॥
टप टप बूँद परहिं औ ओला। बिरह पवन होइ मारै झोला॥
तरिवर झरहिं, झरहिं बन ढाखा। भई अनंत फूलि फरि साखा॥
बौरे आम फरै अब लागे। अबहुँ आउ घर, कंत सभागे॥
यह झलक बारहमासे में हमें मिलती है। षट्ऋतु के वर्णन में सुख संभोग का ही उल्लेख अधिक है, प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का बहुत कम। दोनों का वर्णन यद्यपि उद्दीपन की दृष्टि से है, दोनों में यद्यपि प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की अलग अलग झलक भर दिखाई गई, पर एक आध जगह कवि का निरीक्षण भी अत्यंत सूक्ष्म और सुंदर है, जैसे—
चमक बीजु, बरसै जल सोना। दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
इसमें बिजली का चमकना और उसकी चमक में बूंदों का सुवर्ण के समान झलकता इन दो व्यापारों को एक साथ योजना दृश्य पर कुछ देर ठहरी हुई दृष्टि सूचित करती है। यही बात वैसाख के इस रूपकवर्णन में भी है—
सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइ कै विहराई॥
बिहरत हिया करहु, पिउ! टेका। दीठि दवँगरा, मेरवहु एका॥
तालों का पानी जब सूखने लगता है तब पानी सूखे हुए स्थान में बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे खाने कटे दिखाई पड़ते हैं। वर्षा के आरंभ की झड़ी (दवंगरा) जब पड़ती है तब वे दरारें फिर मिल जाती हैं। विदीर्ण होते हुए हृदय को सूखता हुआ सरोवर और प्रिय के दृष्टिपात को 'दवँगरा' बनाकर कवि ने प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण का बहुत ही अच्छा परिचय दिया है। इसके अतिरिक्त दो प्रस्तुत (वैसाख का वर्णन है, इससे सूखते हुए सरोवर का वर्णन प्रस्तुत है, नागमती वियोगिनी है। इससे विदीर्ण होते हृदय का वर्णन भी प्रस्तुत ही है) वस्तुओं के बीच सादृश्य की भावना भी अत्यंत माधुर्यपूर्ण और स्वाभाविक है! मैं तो समझता हूँ इसके जोड़ की सुंदरता और स्वाभाविक उक्ति हिंदी काव्यों में बहुत ढूँढ़ने पर कहीं मिले तो मिले।
बारहमासे के संबंध में यह जिज्ञासा हो सकती है कि कवि ने वर्णन का आरंभ आषाढ़ से क्यों किया है, चैत से क्यों नहीं किया। बात यह है कि राजा रत्नसेन ने गंगादशहरे को चित्तौर से प्रस्थान किया था जैसा कि इस चौपाई से प्रकट है—
दसवँ दावँ कै गा जो दसहरा। पलटा सोइ नाव लेइ महरा॥
यह वचन नागमती ने उस समय कहा है जब राजा रत्नसेन सिंहल से लौटकर चित्तौर के पास पहुँचा है। इसका अभिप्राय यह है कि जो केवट दशहरे के दिन मेरी दशम दशा (मरण) करके गया था, जान पड़ता है कि वह नाव लेकर आ रहा है। दसहरे के पाँच छ दिन पीछे ही आषाढ़ लगता है इससे कवि ने नागमती की वियोगदशा का आरंभ आषाढ़ से किया है।
रूपसौंदर्य वर्णन—जैसा कि पहले कह आए हैं, रूपसौंदर्य ही सारी आाख्यायिका का आधार है अतः पद्मावती के रूप का बहुत ही विस्तृत वर्णन तोते के मुँह से जायसी ने कराया है। यह वर्णन यद्यपि परंपराभुक्त ही है, अधिकतर परंपरा से चले आते हुए उपमानों के आधार पर ही है, पर कवि की भोली भाली और प्यारी भाषा के बल से श्रोता के हृदय को सौंदर्य की अपरिमित भावना से भर देता है। सृष्टि के जिन जिन पदार्थों में सौंदर्य की झलक है, पद्मावती की रूपराशि की योजना के लिये कवि ने मानों सबको एकत्र कर दिया। जिस प्रकार कमल, चंद्र, हंस आदि अनेक पदार्थों का सौंदर्य लेकर तिलोत्तमा का रूप संघटित हुआ था, उसी प्रकार कवि ने मानो पद्मावती का रूपविधान किया है। पद्मावती का सौंदर्य अपरिमेय है, अलौकिक है और दिव्य है। उसके वर्णन मात्र से, उसकी भावना मात्र से, राजा रत्नसेन बेसुध हो जाता है। उसकी दृष्टि संसार के सारे पदार्थों से फिर जाती है, उसका हृदय उसी रूपसागर में मग्न हो जाता है। वह जोगी होकर निकल पड़ता है।
पद्मावती के रूप का वर्णन दो स्थानों पर है। एक स्थान पर हीरामन सूआ चित्तौर में राजा रत्नसेन के सामने करता है; दूसरे स्थान पर राघव चेतन दिल्ली में बादशाह अलाउद्दीन के सामने। दोनों स्थानों पर वर्णन नखशिख की प्रणाली पर और सादृश्यमूलक है अतः उसका विचार अलंकारों के अंतर्गत करना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। यहाँ पर केवल उन दो चार स्थलों का उल्लेख किया जाता है जहाँ सौंदर्य के सृष्टिव्यापी प्रभाव की लोकोत्तर कल्पना पाई जाती है, जैसे—
सरवर तीर पदमिनी आई। खोपा छोरि केस मुकलाई॥
ओनई घटा, परी जग छाहाँ।
बेनी छोरि झार जौ बारा। सरग पतार होइ अँधियारा॥
केशों की दीर्घता, सघनता और श्यामता के वर्णन के लिये सादृश्य पर जोर न देकर कवि ने उनके प्रभाव की उद्भावना की है। इस छाया और अंधकार में माधुर्य और शीतलता है, भीषणता नहीं।
पद्मावती के पुतली फेरने से उत्पन्न इस रस-समुद्र-प्रवाह को तो देखिए—
जग डोलै डोलत नैनाहाँ। उलटि अड़ार जाहिं पल माहाँ॥
जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा। अस वै भँवर चक्र कै जोरा॥
पवन झकोरहिं देहि हिलोरा। सरग लाइ भुँईं लाइ बहोरा॥
उसके मंद मृदु हास के प्रभाव से देखिए कैसी शुभ्र उज्वल शोभा कितने रूप धारण करके सरोवर के बीच विकीर्ण हो रही है—
बिगसा कुमुद देखि ससि रेखा। भइ तहँ ओप जहाँ जो देखा॥
पावा रूप, रूप जस चहा। ससिमुख सहुँ दरपन होइ रहा॥
नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन ज्योति नग हीर॥
पद्मावती के हँसते ही चंद्रकिरण सी आभा फूटी इससे सरोवर के कुमुद खिल उठे। यहीं तक नहीं, उसके चंद्रमुख के सामने वह सारा सरोवर दर्पण सा हो उठा अर्थात् उसमें जो जो सुंदर वस्तुएँ दिखाई पड़ती थीं वे सब मानो उसी के अंगों की छाया थीं। सरोवर में चारों ओर जो कमल दिखाई पड़ रहे थे वे उसके नेत्रों के प्रतिबिंब थे; जल जो इतना स्वच्छ दिखाई पड़ रहा था वह उसके स्वच्छ निर्मल शरीर के प्रतिबिंब के कारण। उसके हास की शुभ्र कांति की छाया वे हंस थे जो इधर उधर दिखाई पड़ते थे और उस सरोवर में (जिसे जायसी ने एक झील या छोटा समुद्र माना है) जो हीरे थे वे उसके दशनों की उज्वल दीप्ति से उत्पन्न हो गए थे। पद्मावती का रूपवर्णन करते करते फिर अनंत सौंदर्य सत्ता की ओर कवि की दृष्टि जा पड़ी है। जिसकी भावना संसार के सारे रूपों को भेदती हुई उस मूल सौंदर्यसत्ता का कुछ आभास पा चुकी है। वह सृष्टि के सारे सुंदर पदार्थों में उसी का प्रतिबिंब देखता है।
इसी प्रकार उस 'पारस रूप' का आभास—जिसके छायास्पर्श से यह जगत् रूपवान् है—जायसी ने उस स्थल पर भी दिया है जहाँ अलाउद्दीन ने दर्पण में पद्मावती के स्मित आनन का प्रतिबिंब देखा है—
बिहँसि झरोखे आइ सरेखी। निरखि साह दरपन महँ देखी॥
होतहिं दरस, परस भा लोना। धरती सरग भएउ सब सोना॥
उसकी एक जरा सी झलक मिलते ही सारा जगत् सौंदर्यमय हो गया, जैसे पारस मणि के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। उस 'पारस रूप दरस' के प्रभाव से शाह बेसुध हो जाता है और उस दर्पण को एक सरोवर के रूप में देखता है।
'नखसिख खंड' में भी दाँतों का वर्णन करते करते कवि की भावना उस अनंत ज्योति की ओर बढ़ती जान पड़ती है—
जेहि दिन दसन जोति निरमई। बहुतै जोति जोति ओहि भई॥
रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥
इसी रहस्यमय परोक्षाभास के कारण जायसी की अत्युक्तियाँ उतनी नहीं खटकतीं जितनी शृंगाररस के उद्भट पद्यों की वे उक्तियाँ जो ऊहा अथवा नाप-जोख द्वारा निर्धारित की जाती हैं। 'शरीर की निर्मलता' और 'जल की स्वच्छता' के बीच जो बिंब-प्रतिबिंब-संबंध जायसी ने देखा है वह हृदय को कितना प्यारा जान पड़ता है। इसके सामने बिहारी की वह स्वच्छता जिसमें भूषण 'दोहरे, तिहरे, चौहरे' जान पड़ते हैं, कितनी अस्वाभाविक और कृत्रिम लगती है। शरीर के ऊपर दर्पण के गुण का यह आरोप भद्दा लगता है। यह बात नहीं है कि उपमान के चाहे जिस गुण का आरोप हम उपमेय में करें, वह मनोहर ही होगा।
कवियों की प्रथा के अनुसार पद्मावती की सुकुमारता का भी अत्युक्तिपूर्ण वर्णन जायसी ने किया है। उसकी शय्या पर फूल की पंखड़ियाँ चुन चुनकर बिछाई जाती हैं। यदि कहीं समूचा फूल रह जाए तो रात भर नींद न आए—
पखुरी काढ़हि फूलन्ह सेंती। सोई डासहिं सौंर सपेती॥
फूल समूचै रहै जो पावा। ब्याकुल होइ, नींद नहिं आवा॥
बिहारी इससे भी बढ़ गए हैं। उन्होंने अपनी नायिका के सारे शरीर को फोड़ा बना डाला है। वह तो 'झिझकति हिये गुलाब के झवाँ झवाँवत पाय'। जायसी ने भी इस प्रकार की भद्दी अत्युक्तियाँ की हैं, जैसे—
नस पानन्ह कै काढ़हि हेरी। अधर न गड़े फाँस ओहि केरी॥
मकरि के तार ताहि कर चीरू। सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू॥
सुकुमारता की ऐसी अत्युक्तियाँ अस्वाभाविकता के कारण, केवल ऊहा द्वारा मात्रा या परिमाण के आधिक्य की व्यंजना के कारण, कोई रमणीय चित्र सामने नहीं लातीं। प्राचीन कवियों के 'शिरीषपुष्पाधिकसौकुमार्य' का जो प्रभाव हृदय पर पड़ता है वह इस खरोंट और छालेवाले सौकुमार्य का नहीं। कहीं कहीं गुण की अवस्थिति मात्र का दृश्य जितना मनोरम होता है उतना उस गुण के कारण उत्पन्न दशांतर का चित्र नहीं। जैसे, नायिका के ओठ की ललाई का वर्णन करते करते यदि कोई 'तद्गुण' अलंकार की झोंक में यह कह डाले कि जब वह नायिका पीने के लिये पानी औंठों से लगाती है तब वह खून हो जाता है तो यह दृश्य कभी रुचिकर नहीं लग सकता। ईंगुर, बिंबा आदि सामने रखकर उस लाली को मनोहर भावना उत्पन्न कर देना ही काफी समझना चाहिए। उस लाली के कारण क्या क्या बातें पैदा हो सकती हैं, इसका हिसाब किताब बैठाना जरूरी नहीं। इसी प्रकार की विस्तारपूर्ण अत्युक्ति ग्रीवा की कोमलता और स्वच्छता के इस वर्णन में भी है--
पुनि तेहि ठाँव परीं तिनि रेखा। घुट जो पीक लीक सब देखा॥
इस वर्णन से तो चिड़ियों के अंडे से तुरंत फूटकर निकले हुए बच्चे का चित्र सामने आता है। वस्तु या गुण का परिमाण अत्यंत अधिक बढ़ाने से ही सर्वत्र सरसता नहीं पाती। इस प्रकार की वस्तुव्यंग्य उक्तियों की भरमार उस काल से आरंभ हुई जबसे 'ध्वनि' का आग्रह बहुत बढ़ा, और सब प्रकार की व्यंजनाएँ उत्तम काव्य समझी जाने लगीं। पर वस्तुव्यंजनाएँ ऊहा द्वारा ही की और समझी जाती हैं; सहृदयता से उनका नित्य संबंध नहीं होता।
वस्तुवर्णन का संक्षेप में इतना दिग्दर्शन कराके हम यह कह देना आवश्यक समझते हैं कि जिन जिन वस्तुओं का विस्तृत वर्णन हुआ है उन सबको हम 'आलंबन' मानते हैं। जो वस्तुएँ किसी पात्र के ग्रालंबन के रूप में नहीं आतीं उन्हें कवि और श्रोता प्रालंबन समझना चाहिए। कवि ही आश्रय बनकर श्रोता या पाठक के प्रति उनका प्रत्यक्षीकरण करता है। उनके प्रत्यक्षीकरण में कवि की भी वृत्ति रमती है और श्रोता या पाठक की भी। वन, सरोवर, नगर, प्रदेश, उत्सव, सजावट, युद्ध, यात्रा, इत्यादि सब वस्तुएँ और व्यापार मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति के सामान्य आलंबन हैं। अतः इनके वर्णनों को भी हम रसात्मक वर्णन मानते हैं। ग्रालंबन मात्र के वर्णन में भी रसात्मकता माननी पड़ेगी। 'नखशिख' की पुस्तकों में शृंगार रस के ग्रालंबन का ही वर्णन होता है और वे काव्य की पुस्तकें मानी जाती हैं। जिन वस्तुओं का कवि विस्तृत चित्रण करता है उनमें से कुछ शोभा, सौंदर्य या चिरसाहचर्य के कारण मनुष्य के रतिभाव का ग्रालंबन होती हैं; कुछ भव्यता, विशालता, दीर्घता आदि के कारण उसके आश्चर्य का; कुछ घिनौने रूप के कारण जुगुप्सा का, इत्यादि। यदि बलभद्र कृत 'नखशिख' और गुलाम नबी कृत 'अंगदर्पण' रसात्मक काव्य हैं तो कालिदास कृत हिमालयवर्णन और भूप्रदेशवर्णन भी।