जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३३. देशयात्रा खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १५० से – १५३ तक

 

(३३) देशयात्रा खंड

बोहित भरे, चला लेइ रानी। दान माँगि सत देखै दानी॥
लोभ न कीजै, दीजै दानू। दान पुन्नि तें होइ कल्यानू॥
दरब दान देवै बिधि कहा। दान मोख होइ, दुःख न रहा॥
दान आहि सब दरब क जूरू। दान लाभ होइ, बाँचै मूरू॥
दान करै रच्छा मँझ नीरा। दान खेइ के लावै तीरा॥
दान करन दै दुइ जग तरा। रावन सँचा, अगिनि महँ जरा॥
दान मेरु बड़ि लागि अकासा। सैति कुबेर मुए तेहि पासा॥
चालिस अंस दरब जहँ, एक अंस तहँ मोर।
नाहि त जरै कि बूड़ै, की निसि मूसहिं चोर॥ १ ॥
सुनि सो दान राजै रिस मानी। केइ बौराएसि बौरे दानी॥
सोई पुरुष दरब जेइ सैती। दरबहिं तैं सुन बातैं एती॥
दरब तें गरब करै जे चाहा। दरब तें धरती सरग बेसाहा॥
दरब तें हाथ आव कबिलासू। दरब तें अछरी छाँड़ न पासू॥
दरब तें निरगुन होइ गुनवंता। दरब तें कुबुज होइ रूपवंता॥
दरब रहै भुइँ दिपै लिलारा। अस मन दरब देइ को पारा? ॥
दरब तें धरम करम औ राजा। दरब तें सुद्ध बुद्धि, बल गाजा॥
कह समुद, रे लोभी! बैरी दरब, न झाँपु।
भएउ न काहू आपन, मूँद पेटारी साँपु॥ २ ॥
आधे समुद ते आए नाहीं। उठी बाउ आँधी उतराहीं॥
लहरैं उठीं समुद उलथाना। भूला पंथ, सरग नियराना॥
अदिन आइ जौ पहुँचै काऊ। पाहन उड़ै बहै सो बाऊ॥
बोहित चले जो चितउर ताके। भए कुपंथ, लंक दिसि हाव॥
जो लेइ भार निबाहि न पारा। सो का गरब करै कंधारा? ॥
दरब भार सँग काहु न उठा। जेइ सैंता ताही सौं रुठा॥
गहे पखान पंखि नहि उड़ै। ‘मोर मोर’ जो करै सो बुड़ै॥


(१) जूरू = जोड़ना। सँचा = संचित किया। दान = दान से। सैंति = सहेजकर, संचित करके। (२) सैति = संचित किया। एती = इतनी। बेसाहा = खरीदते हैं। कुबुज = कुबड़ा। दरब रहे...लिलारा = द्रव्य धरती में गड़ा रहता है और चमकता है माथा ( असंगति का यह उदाहरण इस कहावत के रूप में भी प्रसिद्ध है, ‘गाड़ा है भँडार; बरत है लिलार')। देइ को पारा

= कौन दे सकता है। मूँद = मूँदा हुआ, बंद। (३) उतराहीं = उत्तर की हवा। अदिन = बुरा दिन। काऊ = कभी। मनहिं = मन में।

दरब जो जानहिं आपना, भूलहिं गरब मनाहिं।
जौ रे उठाइ न लेइ सके, बोरि चले जल माहिं॥ ३ ॥
केवट एक बिभीषन केरा। आव मच्छ कर करत अहेरा॥
लंका कर राकस अति कारा। आवै चला होइ अँधियारा॥
पाँच मूड़, दस बाहीं ताही। दहि भा सावँ लंक जब दाही॥
धुआँ उठै मुख साँस सँघाता। निकसै आगि कहै जो बाता॥
फेंकरे मूँड़ चँवर जनु लाए:। निकसि दाँत मुँह बाहर आए॥
देह रीछ, कै रीछ डेराई। देखत दिस्टि धाइ जनु खाई॥
राते नैन नियर जौ आवा। देखि भयावन सब डर खावा॥
धरती पायँ सरग सिर, जनहु सहस्राब्राहु।
चाँद सूर और नखत महँ, अस देखा जस राहु॥ ४ ॥
बोहित बहे; न मानहिं खेवा। राजहिं देखि हँसा मन देवा॥
बहुतै दिनहिं बार भइ दूजी। अजगर केरि आइ भुख पूजी॥
यह पदमिनी विभीषन पावा। जानहु आजु अजोध्या छावा॥
जानहु रावन पाई सीता। लंका बसी राम कहँ जीता॥
मच्छ देखि जैसे बग आवा। टोइ टोइ भुइँ पावँ उठावा॥
आइ नियर होइ कीन्ह जोहारू। पूछा खेम कुसल बेवहारू॥
जो विस्वासघात कर देवा। बड़ बिसवास करै कै सेवा॥
कहाँ, मीत! तुम भूलेहु, औ आएहु केहि घाट?
हौं तुम्हार अस सेवक, लाइ देउँ तेहि बाट॥ ५ ॥
गाढ़ परे जिउ बाउर होई। जो भलि बात कहै भल सोई॥
राजै राकस नियर बोलावा। आगे कीन्ह, पंथ जनु पावा॥
करि बिस्वास राकसहि बोला। बोहित फेरु, जाइ नहिं डोला॥
तू खेवक खेवकन्ह उपराहीं। बोहित तीर लाउ गहि बाहीं॥
तोहिं ते तीर घाट जौ पावौं। नौगिरिही तोड़र पहिरावौं॥
कुंडल स्त्रवन देउँ पहिराई। महरा कै सौंपौं महराई॥
तस मैं तोरि पुरावौं आसा। रकसाई के रहै न बासा॥
राजै बीरा दीन्हा, नहि जाना बिसवास।
बग अपने भख कारन होइ मच्छ कर दास॥ ६ ॥


(४) संघाता = संग। फेंकरे = नंगे, बिना टोपी या पगड़ी के (अवधी)। चँवर जनु लाए = चँवर के से खड़े बाल लगाए हुए। चाँद, सुर, नखत = पद्मावती, राजा और सखियाँ। (५) देवा = देव, राक्षस (फारसी)। बग = बगला। लाइ देउँ तोंहि बाट = तुझे रास्ते पर लगा दूँ।

(६) नौगिरिही = कलाई में पहनने का, स्त्रियों का, एक गहना जो बहुत से दानों को गूँथकर बनाया जाता है। तोड़र = तोड़ा, कलाई में पहनने का गहना। महरा = मल्लाहों का सरदार। रकसाई = राक्षसपन। बासा = गंध।

बिसवास = विश्वासघात।

राकस कहा गोसाइँ बिनाती। भल सेवक राकस कै जाती॥
जहिया लंक दही श्रीरामा। सेव न छाँड़ा दहि भा सामा॥
अबहूँ सेव करौं सँग लागे। मनुष भुलाइ होंउँ तेहि आगे॥
सेतुबंध जहँ राघव बाँधा। तहँवा चढ़ौं भार लेइ काँधा॥
पै अब तुरत दान किछु पावौं। तुरत खेइ ओहि बाँध चढ़ावौं॥
तुरत जो दान पानि हँसि दीजै। थोरे दान बहुत पुनि लीजै॥
सेव कराइ जौ दीजौ दानू। दान नाहिं, सेवा कर मानू॥
दिया बुझा, सत ना रहा, हुत निरमल जेहि रूप।
आँधी बोहित उड़ाइ कै, लाइ कीन्ह अँधकूप॥ ७ ॥
जहाँ समुद मझधार मँड़ारू। फिरै पानि पातार दुआरू॥
फिरि फिरि पानि ठाँव ओहि मरै। फेरि न निकसै जो तहँ परै॥
ओही ठांव महिरावन पुरी। हलका तर जमकातर छुरी॥
ओही ठाँव महिरावन मारा। परे हाड़ जनु खरे पहारा॥
परी रीढ़ जो तेहि कै पीठी। सेतुबंध अस आवै दीठी॥
राकस आइ तहाँ के जुरे। बोहित भँवर चक्र महँ परे॥
फिरे लगै बोहित तस आई। जस कोहाँर धरि चाक फिराई॥
राजै कहा, रे राकस! जानि बूझि बौरासि।
सेतुबंध यह देखै;कस न तहाँ लेइ जासि? ॥ ८ ॥
'सेतबंध' सुनि राकस हँसा। जानहु सरग टूटि भुइँ खसा॥
को बाउर? बाउर तुम देखा। जो बाउर, भख लागि सरेखा॥
पाँखी जो बाउर घर मोटी। जीभ बढ़ाइ भखै सब चाँटी॥
बाउर तुम जो भखै कहँ आने। तबहिं न समझे, पंथ भुलाने॥
महिरावन कै रीढ़ जो परी। कहहु सो सेतबंध, बुधि छरी॥
यह तो आहि महिरावन पुरी। जहवाँ सरग नियर घर दुरी॥
अब पछिताहु दरब जस जोरा। करहु सरग चढ़ि हाथ मरोरा॥
जो रे जियत महिरावन लेत जगत कर भार।
सो मरि हाड़ न लेइगा, अस होइ परा पहार॥ ९ ॥
बोहित भँवहिं भँवै सब पानी। नाचहिं राकस आस तुलानी॥
बूड़हिं हस्ती, घोर मानवा। चहुँ दिसि आइ जुरे मँसखवा॥


(७) जहिया = जब। पानि = हाथ से। हुत = था। जेहि = जिससे। (८) मँड़ारू = दह, गड्ढा। हलका = हिलोर, लहर। तर = नीचे। बौरासि = बावला होता है तू।

(९) जो बाउर...सरेखा = पागल भी अपना भक्ष्य ढूँढ़ने के लिये चतुर होता है। पाँखी = फतिंगा। घरमाटी = मिट्टी के घर में। छरी = छली गई, भ्रांत हुई। (१०) भवँहि = चक्कर खाते हैं। आस तुलानी = आशा जाती रही। मानवा = मनुष्य।

ततखन राज पंखि एक आवा। सिखर टूट जस डसन डोलावा॥
परा दिस्टि वह राकस खोटा। ताकेसि जैस हस्ति बड़ मोटा॥
आइ ओहि राकस पर टूटा। गहि लेइ उड़ा, भँवर जल छूटा॥
बोहित टूक टूक सब भए। एहु न जाना कहूँ चलि गए॥
भए राजा रानी दुइ पाटा। दूनौं बहे, चले दुई बाटा॥
काया जीउ मिलाइ कै, मारि किए दुइ खंड।
तन रोवै धरती परा, जीउ चला वरम्हंड॥१०॥


 

डहन = डैना, पर।