जायसी ग्रंथावली/भूमिका/जायसी का जीवनवृत्त
जायसी का जीवनवृत्त
जायसी की एक छोटी सी पुस्तक 'आखिरी कलाम' के नाम से फारसी अक्षरों में छपी है। यह सन् ९३६ हिजरी में (सन् १५२८ ई° के लगभग) बाबर के समय में लिखी गई थी। इसमें बाबर बादशाह की प्रशंसा है। इस पुस्तक में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने जन्म के संबंध में लिखा है—
भा अवतार मोर नव सदी। तीस बरस ऊपर कवि बदी।
इन पंक्तियों का ठीक तात्पर्य नहीं खुलता। 'नव सदी' ही पाठ मानें तो जन्मकाल ९०० हिजरी (सन् १४९२ के लगभग) ठहरता है। दूसरी पंक्ति का अर्थ यही निकलेगा कि जन्म से ३० वर्ष पीछे जायसी अच्छी कविता करने लगे। जायसी का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है पदमावत जिसका निर्माणकाल कवि ने इस प्रकार दिया है—
सन नव से सत्ताइस अहा। कथा आरंभ बैन कवि कहा।
इसका अर्थ होता है कि पदमावत की कथा के प्रारंभिक वचन (अरंभ बैन) कवि ने सन् २७ हिजरी (सन् १५२० ई° के लगभग) में कहे थे। पर कथारंभ में कवि ने मसनवी की रूढि के अनुसार 'शाहे वक्त' शेरशाह की प्रशंसा की है जिसके शासन काल का आरंभ ९४७ हिजरी अर्थात् सन् १५४० ई° से हुआ था। इस दशा में यही संभव जान पड़ता है कि कवि ने कुछ थोड़े से पद्य तो १५२० ई° में ही बनाए थे, पर ग्रंथ को १९ या २० वर्ष पीछे शेरशाह के समय में पूरा किया। इसी से कवि ने भूतकालिक क्रिया 'अहा' ( = था) और 'कहा' का प्रयोग किया है[१]। जान पड़ता है कि 'पद्मावत' की कथा को लेकर थोड़े से पद्य जायसी ने रचे थे। उसके पीछे वे जायस छोड़कर बहुत दिनों तक इधर उधर रहे। अंत में जब वे जायस में पाकर रहने लगे तब उन्होंने इस ग्रंथ को उठाया और पूरा किया। इस बात का संकेत इन पंक्तियों में पाया जाता है--
जायस नगर धरम अस्थान्। तहाँ पाइ कवि कीन्ह बखानू।।
'तहाँ आइ' से पं० सुधाकर और डाक्टर ग्रियर्सन ने यह अनुमान किया था कि मलिक मुहम्मद किसी और जगह से पाकर जायस में बसे थे। पर यह ठोक नहीं। जायसवाले ऐसा नहीं कहते। उनके कथनानुसार मलिक मुहम्मद जायस ही के रहनेवाले थे। उनके घर का स्थान अब तक लोग वहाँ के कंवाने मुहल्ले में बताते हैं। 'पद्मावत' में कवि ने अपने चार दोस्तों के नाम लिए हैं--यूशुफ़ मलिक, सालार कादिम, सलोने मियाँ और बड़े शेख। ये चारों जायस हो के थे। सलोने मियाँ के संबंध में अब तक जायस में यह जनश्रुति चलो आती है कि वे बड़े बलवान थे और एक बार हाथी से लड़ गए थे। इन चारों में से दो एक के खानदान अब तक हैं। जायसी का वंश नहीं चला, पर उनके भाई के खानदान में एक साहब मौजद हैं जिनके पास वंशवृक्ष भी है। यह वंशवृक्ष कुछ गड़बड़ सा है।
जायसी कुरूप और काने थे। कुछ लोगों के अनुसार वे जन्म से ही ऐसे थे पर अधिकतर लोगों का कहना है कि शीतल या अर्धांग रोग से उनका शरीर विकृत हो गया था। अपने काने होने का उल्लेख, कवि ने आप ही इस प्रकार किया है-- 'एकनयन कवि मुहमद गुनो'। उनको दाहिनी आँख फूटी थी या बाईं, इसका उत्तर शायद इस दोहे से मिले--
मुहमद बाई दिसि तजा, एक सरवन एक आँखि।
इससे अनुमान होता है कि बाएँ कान से भी उन्हें कम सुनाई पड़ता था। जायस में प्रसिद्ध है कि वे एक बार शेरशाह के दरबार में गए। शेरशाह उनके भद्दे चेहरे को देख हँस पड़ा। उन्होंने अत्यंत शांत भाव से पूछा--'मोहि हससि, कि कोहरहि?' अर्थात् तू मुझपर हँसा या उस कुम्हार (गढ़नेवाले ईश्वर) पर? इसपर शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा माँगी। कुछ लोग कहते हैं कि वे शेरशाह के दरबार में नहीं गए थे; शेरशाह ही उनका नाम सुनकर उनके पास आया था।
मलिक मुहम्मद एक गृहस्थ किसान के रूप में ही जायस में रहते थे। वे प्रारंभ से बड़े ईश्वरभक्त और साधु प्रकृति के थे। उनका नियम था कि जब वे अपने खेतों में होते तब अपना खाना वहीं मँगा लिया करते थे। खाना वे अकेले कभी न खाते; जो आसपास दिखाई पड़ता उसके साथ बैठकर खाते थे। एक दिन उन्हें इधर उधर कोई न दिखाई पड़ा। बहुत देर तक आसरा देखते देखते अंत में एक कोढ़ी दिखाई पड़ा। जायसो ने बड़े आग्रह से उसे अपने साथ खाने का बिठाया और एक ही बरतन में उसके साथ भोजन करने लगे। उसके शरीर में कोड़ चू रहा था। कुछ थोड़ा सा मवाद भोजन में भी चू पड़ा। जायसी ने उस अंश को खाने के लिये उठाया पर उस कोड़ो ने हाय थान लिया और कहा, 'इसे मैं खाऊँगा, आप साफ हिस्सा खाइए' पर जायसी झट से उसे खा गए। इसके पोछे वह कोड़ी अदृश्य हो गया। इस घटना के उपरांत जायसी की मनोवृत्ति ईश्वर की ओर और भी अधिक हो गई। उक्त घटना की ओर संकेत लोग अखरावट के इस दोहे में बताते हैं--
बंदहि समद्र समान, यह अचरज कासौं कही।
जो हेरा सो हेरानद, मुहमद आपुहिं आपु महँ।।
कहते हैं कि जायसी के पुत्र थे, पर वे मकान के नीचे दबकर, या ऐसी ही किसी और दुर्घटना से मर गए। तब से जायसी संसार से और भी अधिक विरक्त हो गए और कुछ दिनों में घरबार छोड़कर इधर उधर फकीर हो कर घूमने लगे। वे अपने समय के एक सिद्ध फकीर माने जाते थे और चारों ओर उनका बड़ा मान था। अमेठी के राजा रामसिंह उनपर बड़ी श्रद्धा रखते थे। जीवन के अंतिम दिना में जायसी अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। कहते हैं कि उनका मृत्यु विचित्र ढंग से हुई। जब उनका अंतिम समय निकट आया तब उन्होंने अमेठी के राजा से कह दिया कि मैं किसी शिकारी की गोली खाकर मरूँगा। इसपर अमेठी के राजा ने पास पास के जंगलों में शिकार की मनाही कर दी। जिस जंगल में जायसी रहते थे उसमें एक दिन एक शिकरी को एक बड़ा भारी बाघ दिखाई पड़ा। उसने डरकर उसपर गोली छोड़ दी। पास जाकर देखा तो बाघ के स्थान पर जायसी मरे पड़े थे। कहते हैं कि जायसी कभी कभी योगबल से इस प्रकार के रूप धारण कर लिया करते थे।
काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी अपनी याददाश्त में मलिक मुहम्मद जायसी का मत्युकाल रज्जब हिजरी (सन् १५४२ ई०) दिया है। यह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता। इसे ठीक मानने पर जायसी दीर्घाय नहीं ठहरते। उनका परलोकवास ४६ वर्ष से भी कम की अवस्था में सिद्ध होता है, पर जायसी ने 'पदमावत' के उपसँहार में वृद्धावस्था का जो वर्णन किया है वह स्वतः अनुभूत सा जान पड़ता है।
जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान कोट से पौन मील के लगभग है। यह वर्तमान कोट जायसी के मरने के बहुत पीछे बना है। अमेठी के राजानों का पुराना कोट जायसी की कब्र से डेढ़ कोस की दूरी पर था। अतः यह प्रवाद कि अमेठी के राजा को जायसी की दुग्रा से पुत्र हुआ और उन्होंने अपने कोट के पास उनकी कब्र बनवाई, निराधार है।
मलिक मुहम्मद, निजामुद्दीन औलिया की शिष्यपरंपरा में थे। इस परंपरा की दो शाखाएँ हुईं--एक मानिकपुर, कालपी ग्रादि की, दूसरी जायस की। पहली शाखा के पीरों की परंपरा जायसी ने बहुत दूर तक दी है। पर जायसवाली शाखा की पूरी परंपरा उन्होंने नहीं दी है। अपने पीर या दीक्षागुरु सैयद अशरफ जहाँगीर तथा उनके पुत्र पौत्रों का ही उल्लेख किया है। सूफी लोग निजामुद्दीन औलिया की मानिकपुर कालपीवाली शिष्य-परंपरा इस प्रकार बतलाते हैं
निजामुद्दीन औलिया (मृत्यु सन् १३२५ ई°) | |||||||||||||||||||||||||
सिराजुद्दीन | |||||||||||||||||||||||||
शेख अलाउल हक | |||||||||||||||||||||||||
(जायस) | |||||||||||||||||||||||||
शेख कुतुब आलम (पंडोई के, सन् १४१५) | x | ||||||||||||||||||||||||
शेख हशमुद्दीन (मानिकपुर) | x | ||||||||||||||||||||||||
सैयद राजे हामिदशाह | x | ||||||||||||||||||||||||
शेख दानियाल | |||||||||||||||||||||||||
सैयद मुहम्मद | |||||||||||||||||||||||||
सैयद अशरफ जहाँगीर | |||||||||||||||||||||||||
शेख अलहदाद | |||||||||||||||||||||||||
शेख हाजी | |||||||||||||||||||||||||
शेख बुरहान (कालपी) | |||||||||||||||||||||||||
शेख मोहिदी (मुहीउद्दीन) | शेख मुहम्मद या मुबारक | शेख कमाल | |||||||||||||||||||||||
'पदमावत' और 'अखरावट' दोनों में जायसी ने मानिकपुर कालपीवाली गुरुपरंपरा का उल्लेख विस्तार से किया है, इससे डाक्टर ग्रियर्सन ने शेख मोहिदी को ही उनका दीक्षा गुरु माना है। गुरुवंदना से इस बात का ठीक ठीक निश्चय नहीं होता कि वे मानिकपुर के मुहीउद्दीन के मुरीद थे अथवा जायस के सैयद अशरफ के। पदमावत में दोनों पीरों का उल्लेख इस प्रकार है—
सैयद असरफ पीर पियारा। जेइ मोहिं पंथ दीन्ह उजियारा।
गुरु मोहिदी खेवक मैं सेवा। चलै उताइल जेहि कर खेवा।
अखरावट में इन दोनों की चर्चा इस प्रकार है—
कही सरीअत चिस्ती पीरू। उधरी असरफ औ जहँगीरू।
पा पाएउँ गुरु मोहिदी मीठा। मिला पंथ सो दरसन दीठा।
'आखिरी कलाम' में केवल सैयद अशरफ जहाँगीर का ही उल्लेख है। 'पीर' शब्द का प्रयोग भी जायसी ने सैयद अशरफ के नाम के पहले किया है और अपने को उनके घर का बंदा कहा है। इससे हमारा अनुमान है कि उनके दीक्षागुरु तो थे सैयद अशरफ पर पीछे से उन्होंने मुहीउद्दीन की भी सेवा करके उनसे बहुत कुछ ज्ञानोपदेश और शिक्षा प्राप्त की। जायसवाले तो सैयद अशरफ के पोते मबारकशाह बोदले को उनका पीर बताते हैं, पर यह ठीक नहीं जंचता।
सूफी मुसलमान फकीरों के सिवा कई संप्रदायों (जैसे, गोरखपंथी, रसायनी, वेदांती) के हिंदू साधुनों से भी उनका बहुत सत्संग रहा, जिनसे उन्होंने बहुत सी बातों की जानकारी प्राप्त की। हठयोग, वेदांत, रसायन आदि की बहुत सी बातों का सन्निवेश उनकी रचना में मिलता है। हठयोग में मानी हुई इला, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों की ही चर्चा उन्होंने नहीं की है बल्कि सुषुम्ना नाड़ी में मस्तिष्क नाभिचक्र (कुंडलिनी), हृत्कमल और दशमहार (ब्रह्मरंध्र) का भी बार बार उल्लेख किया है। योगी ब्रह्म की अनुभूति के लिये कुंडलिनी को जगाकर ब्रह्मद्वार तक पहुँचने का यत्न करता है। उसकी इस साधना में अनेक अंतराय (विघ्न) होते हैं। जायसी ने योग के इस निरूपण में अपने इसलाम की कथा का भी विचित्र मिश्रण किया है। अंतराय के स्थान पर उन्होंने शैतान को रखा है और उसे 'नारद' नाम दिया है। यही नारद दशमद्वार का पहरेदार है और काम, क्रोध आदि इसके सिपाही हैं। यही साधकों को बहकाया करता है (दे० अखरावट)। कवि ने नारद को झगड़ा लगानेवाला सुनकर ही शायद शैतान बनाया है। इसी प्रकार 'पदमावत' में रसायनियों की बहुत सी बातें आई हैं। 'जोड़ा करना' आदि उनके कुछ पारिभाषिक शब्द भी पाए जाते हैं। गोरखपंथियों की तो जायसी ने बहुत सी बातें रखी हैं। सिंहलद्वीप में पद्मिनी स्त्रियों का होना और योगियों का सिद्ध होने के लिये वहाँ जाना उन्हीं की कथाओं के अनुसार है। इन सब बातों से पता चलता है कि जायसी साधारण मुसलमान फकीरों के समान नहीं थे। वे सच्चे जिज्ञासु थे और हर एक मत के साधु महात्माओं से मिलते जुलते रहते थे और उनकी बातें सुना करते थे। सूफी तो वे थे ही।
इस उदार सारग्राहिणी प्रवृत्ति के साथ ही साथ उन्हें अपने इसलाम धर्म और पैगंबर पर भी पूरी आस्था थी, यद्यपि कवीरदास के समान उन्होंने भी उदारतापूर्वक ईश्वर तक पहुँचने के अनेक मार्गों का होना तत्वतः स्वीकार किया है।
विधिना के मारग हैं तेते। सरग नखत, तन रोवाँ जेते।।
पर इन असंख्य मार्गों के होते हुए भी मुहम्मद साहब के मार्ग पर अपनी श्रद्धा प्रकट की है।
तिन्ह महँ पंथ कहौं भल गाई। जेहि दूनौं जग छाज बड़ाई॥
सो बड़ पंथ मुहम्मद केरा। है निरमल कैलास बसेरा॥
जायसी बड़े भावुक भगवद्भक्त थे और अपने समय में बड़े ही सिद्ध पहुँचे हए फकीर माने जाते थे, पर कबीरदास के समान 'अपना एक 'निराला पंथ' निकालने का हौसला उन्होंने कभी न किया। जिस मिल्लत या समाज में उनका जन्म हया उसके प्रति अपने विशेष कर्तव्यों के पालन के साथ साथ वे सामान्य मनुष्यधर्म के सच्चे अनयायी थे। सच्चे भक्त का प्रधान गुण देन्य उनमें पूरा पूरा था। कबीरदास के समान उन्होंने अपने को सबसे अधिक पहुँचा हुआ कहीं नहीं कहा है। कबीर ने वो यहाँ तक कह डाला कि इस चादर को सुर, नर, मुनि सबने ओढ़कर मैली किया, 'पर मैंने 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया'। इस प्रकार की गर्वोक्तियों से जायसी बहुत दूर थे। उनके भगवत्प्रेमपूर्ण मानस में अहंकार के लिये कहीं जगह न थी। उनका औदार्य वह प्रच्छन्न औद्धत्य न था जो किसी धर्म के चिढ़ाने के काम में आ सके। उनकी वह उदारता ऐसीथा जिससे कट्टरपन को भी चोट नहीं पहुँच सकती थी। प्रत्येक प्रकार का महत्व स्वीकार करने की क्षमता उनमें थी। वीरता, ऐश्वर्य, रूप, गुण, शील सबके उत्कर्ष पर मुग्ध होनेवाला हृदय उन्हें प्राप्त था, तभी 'पद्मावत' ऐसा चरितकाव्य लिखने को उत्कंठा उन्हें हुई। अपने को सर्वज्ञ मानकर पंडितों और विद्वानों की निंदा और उपहास करने की प्रवृत्ति उनमें न थी। वे जो कुछ थोड़ा बहुत जानते थे उसे पंडितों का प्रसाद मानते थे--
हौं पंडितन्ह केर पछलगा। किछ कहि चला तबल देइ डगा॥
यद्यपि कबीरदास की और उनकी प्रवृत्ति में बहुत भेद था--कबीर विधि विरोधी थे और वे विधि पर आस्था रखनेवाले, कवीर लोकव्यवस्था का तिरस्कार करनेवाले थे और वे संमान करनेवाले--पर कबीर को वे बड़ा साधक मानते थे, जैसा कि इन चौपाइयों से प्रकट होता है--
ना--नारद तब रोइ पुकारा। एक जोलाहे सौं मैं हारा।
प्रेम तंतु निति ताना तनई। जप तप साधि सैकरा भरई॥
जायसी को सिद्ध योगी मानकर बहुत से लोग उनके शिष्य हुए। कहते हैं कि पद्मावत के कई अंशों को वे गाते फिरते थे और चेले लोग भी साथ साथ गाते चलते थे। परंपरा से प्रसिद्ध है कि एक चेला अमेठी (अवध) में जाकर उनका नागमती का बारहमासा गा गाकर घर घर भीख माँगा करता था। एक दिन अमेठी के राजा ने उस बारहमासे को सुना। उन्हें वह बहुत अच्छा लगा, विशेषतः उसका यह अंश--
कँवल जो बिगसा मानसर, विनु जल गयउ सुखाइ।
सूखि बेलि पुनि पलुहै, जो पिय सींचै आइ।
राजा इस पर मुग्ध हो गए। उन्होंने फकीर से पूछा, 'शाह जी! यह दोहा किसका बनाया है?' उस फकीर से मलिक मुहम्मद का नाम सुनकर राजा ने बड़े संमान और विनय के साथ उन्हें अपने यहाँ बुलवाया था।
'पदमावत' को पढ़ने से यह प्रकट हो जायगा कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और 'प्रेम की पीर' से भरा हना था। क्या लोकपक्ष में और क्या भगवत्पक्ष में, दोनों ओर उसकी गूढ़ता और गंभीरता विलक्षण दिखाई देती है। जायसी की 'पदमावत' बहुत प्रसिद्ध हुई। मुसलमानों के भक्त घरानों में इसका बहुत आदर है। यद्यपि उसको समझनेवाले अब बहुत कम है, पर वे उसे गूढ़ पोथी मानकर यत्न से रखते हैं। जायसी की एक और छोटी सी पुस्तक 'अखरावट' है जो मिरजापुर में एक वृद्ध मुसलमान के घर मिली थी। इसमें वर्णमाला के एक एक अक्षर को लेकर सिद्धांत संबंधी कुछ बातें कही गई हैं। तीसरी पुस्तक 'आखिरी कलाम' के नाम से फारसी अक्षरों में छपी है। यह भी दोहे चौपाइयों में है और बहुत छोटी है। इसमें मरणोपरांत जीव की दशा और कयामत के अंतिम न्याय आदि का वर्णन है। बस ये ही तीन पुस्तकें जायसी की मिली हैं। इनमें से जायसी की कीर्ति का आधार 'पदमावत' ही है। यह प्रबंध काव्य हिंदी में अपने ढंग का निराला है। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसका अनुवाद बंगभाषा में सन् १६५० ई० के आसपास अराकान में हुआ। जायसवाले इन तीन पुस्तकों के अतिरिक्त जायसी की दो और पुस्तकें बतलाते हैं--पोस्तीनामा' तथा 'नैनावत' नामकी प्रेमकहानी। 'पोस्तीनामा' के संबंध में उनका कहना है कि मुबारकशाह बोदले को लक्ष्य करके लिखी गई थी, जो चंडू पिया करते थे।
- ↑ पहले संस्करण में दिए हुए सन् को शेरशाह के समय में लाने के लिये, 'नव सै सैंतालिस' पाठ माना गया था। फारसी लिपि में सत्ताइस और सैंतालिस में भ्रम हो सकता है। पर 'पद्मावत' का एक पुराना बँगला अनुवाद है उसमें भी 'नव सै सत्ताइस' ही पाठ माना गया है—
शेख महमद जति जखन रचिल ग्रंथ संख्या सप्तविंश नवशत।
यह अनुवाद अराकान राज्य के वजीर मगन ठाकुर ने सन् १६५० ई° के पास आलो उजालो नामक एक कवि से कराया था।