जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४६. चित्तौरगढ़ वर्णन खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २१६ से – २२४ तक

 

(४६) चित्तौरगढ़ वर्णन खंड

जेवाँ साह जो भएउ बिहाना। गढ़ देखै गवना सुलताना॥
कँवल सहाय सूर सँग लीन्हा। राघव चेतन आगे कीन्हा॥
ततखन आइ बिवाँन पहूँचा। मन तें अधिक, गगन में ऊँचा॥
उघरी पावँरी चला, सुलतानू। जानहु चला गगन कहँ भानू॥
पवँरी सात, सात खँड बाँके। सातौ खंड गाढ़ दुइ नाके॥
आजे पवँरि मुख भा निरमरा। जौ सुलतान आइ पग धरा॥
जनहुँ उरेह काटि सब काढ़ी। चित्र क मूरति बिनवहिं ठाढ़ी॥

लाखन बैठ पवँरिया, जिन्ह तें नवहि करोरि।
तिन्ह सब पवँरि उधारे, ठाढ़ भए कर जोरि॥ १ ॥

 

सातौं पवँरी कनक केवारा। सातौं पर बाजहिं घरियारा॥
सात रंग तिन्ह सातौं पवँरी। तब तिन्ह चढ़ै परैं नव भँवरी॥
खंड खंड साज पलँग औ पीढ़ी। जानहुँ इंद्रलोक कै सीढ़ी॥
चंदन बिरिछ सोह तहँ छाहाँ। अमृत कुंड भरे तेहि माहाँ॥
फरे खजहजा दारिउँ दाखा। जो ओहि पंथ जाइ सो चाखा॥
कनक छत्र सिंघासन साजा। पैठत पँवरि मिला लेइ राजा॥
बादशाह चढ़ि चितउर देखा। सब संसार पाँव तर लेखा॥

देखा साह गगन गढ़, इंद्रलोक कर साज।
कहिय राज फुर ताकर, सरग करै अस राज ॥ २ ॥

 

चढ़ि गढ़ ऊपर संगति देखी। इद्रसभा सो जानि बिसेखी॥
ताल तलावा सरवर भरे। औ अँबराब चहूँ दिसि फरे॥
कुआँ बावरी भाँतिहि भाँती। मठ मंडप साजै चहुँ पाँती॥
राय रंक घर घर सुख चाऊ। कनक मँदिर नग दीन्ह जड़ाऊ॥
निसि दिन बाजहिं मादर तूरा। रहस कूद सब भरे सेंदूरा॥
रतन पदारथ नग जो बखाने। घूरन्ह माँह देख छहराने॥
मँदिर मँदिर फुलवारी बारी। बार बार बहु चित्र सँवारी॥

पाँसासारि कुँवर सब खेलहि, गीतन्ह स्त्रवन ओनाहिं।
चैन चाव तस देखा, जनु गढ़ छेंका नाहि ॥ ३ ॥

 

देखत साह कीन्ह तहँ फेरा। जहँ मंदिर पदमावति केरा॥
कनक सँवारि नगन्ह सब जरा। गगन चंद जनु नखतन्ह भरा॥
सरवर चहुँ दिसि पुरइन फूली। देखत वारि रहा मन भूली॥
कुँवरि सहसदस बार अगोरे। दुहुँ दिसि पवँरि ठाढ़ि कर जोरे॥
सारदूल दुहुँ दिसि गढ़ि काढ़े। गलगाजहिं जानहुँ ते ठाढ़े॥
जावत कहिए चित्र कटाऊ। तावत पँवरिन्ह बने जड़ाऊ॥

साह मँदिर अस देखा, जनु कैलास अनूप।
जाकर अस धौराहर, सो रानी केहि रूप॥ ४ ॥

 

नाँघत पँवर गए खँड साता। सतएँ भूमि बिछावन राता॥
आँगन साह ठाढ़ भा आई। मँदिर छाह अति सीतल पाई॥
चहूँ पास फुलवारी बारी। माँझ सिंहासन धरा सँवारी॥
जनु बसंत फूला सब सोने। फल औ फूल बिगति अति लोने॥
जहाँ जो ठाँव दिस्टि महँ आवा। दरपन भाव दरस देखरावा॥
तहाँ पाट राखा सुलतानी। बैठ साह, मन जहाँ सो रानी॥
कवँल सुभाय सूर सौं हँसा। सूर क मन चाँदहि पहँ बसा॥

सो पै जाने नयन रस, हिरदय प्रेम अँकूर।
चंद जो बसै चकोर चित, नयनहि आव न सूर ॥ ५ ॥

 

रानी धौराहर उपराहीं। करै दिस्टि नहिं तहाँ तराहीं॥
सखी सरेखीं साथ बईठी। तपै सूर, ससि आव न दीठी॥
राजा सेव करै कर जोरे। आजु साह घर आवा मोरे॥
नट नाटक, पातुरि औ बाजा। आइ अखाड़ माँह सब साजा॥
पेम क लुबुध बहिर औ अंधा। नाच कूद जानहुँ सब धंधा॥
जानहुँ काठ नचावै कोई। जो नाचत सो प्रगट न होई॥
परगट कह राजा सौं बाता। गुपुत प्रेम पदमावति राता॥

गीत नाद अस घंधा, दहक बिरह कै आँच।
मन कै डोरी लाग तहँ, जहँ सो गहि गुन खाँच ॥ ६ ॥

 

गोरा बादल राजा पाहाँ। रावत दुवौ दुवौ जनु बाहाँ॥
माइ स्त्रवन राजा के लागे। मूसि न जाहिं पुरुष जो जागे॥
बाचा परखि तुरुक हम बूझा। परगट मेर गुपुत छल सूझा॥
तुम नहीं करौ तुरुक सौं मेरू। छल पै करहि अंत कै फेरू॥
बैरी कठिन कुटिल जस काँटा। सो मकोय रह राखै आँटा॥
सत्रु कोट को आइ अगोटी। मीठी खाँड़ जेवाएहु, रोटी॥
हम तेहि ओछ क पावा घातू। मूल गए सँग न रहै पातू॥

यह सो कृस्न बलिराज जस, कीन्ह चहै छर बाँध।
हम्ह बिचार अस आवै, मेर न दीजिय काँध ॥ ७ ॥

 

सुनि राजहि यह बात न भाई। जहाँ मेर तहँ नहिं अधमाई॥
मंदहि भल जो करै भल सोई। अंतहि भला भले कर होई॥
सत्रु जो विष देइ चाहै मारा। दीजिय लोन जानि विष हारा॥
विष दीन्हें विसहर होइ खाई। लोन दिए होइ लोन बिलाई॥
मारे खड़ग खड़ग कर लेई। मारे लोन नाइ सिर देई॥
कौरव बिष जो पंडवन्ह दीन्हा। अंतहि दाँव पंडवन्ह लाना॥
जो छल करै ओहि छल बाजा। जैसे सिंघ मँजूसा साजा[]

राजै लोन सुनावा, लाग दुहुन जस लोन।
आए कोहाइ मँदिर कहँ, सिंघ छान अब गोन॥८॥

 

राजा कै सोरह सै दासी। तिन्ह महँ चुनि काढ़ी चौरासी॥
बरन बरन सारी पहिराई। निकसि मँदिर तें सेवा आई॥
जनु निसरीं सब बीरबहूटी। रायमुनी पींजर हुँत छूटी॥
सबै परथमै जोबन सोहैं। नयन बान औ सारँग भौहैं॥
मारहिं धनुक फेरि सर ओही। पनिघट घाट धनुक जिति मोही॥
काम कटाछ हनहिं चित हरनी। एक एक तें आगरि बरनी॥
जानहुँ इंद्रलोक तें काढ़ी। पाँतिहि पाँति भई सब ठाढ़ी॥

साह पूछ राघव पहँ, ए सब अछरी आहिं॥
तुइ जो पदमिनि बरनी, कहु सो कौन इन माहि॥ ९ ॥

 

दीरघ आउ, भूमिपति भारी। इन महँ नाहिं पदमिनि नारी॥
यह फुलवारि सो ओहि के दासी। कहँ केतकी भँवर जहँ वासी॥
वह तो पदारथ, यह सब मोती। कहँ ओहि दीप पतँग जेहि जोती॥
ए सब तरई सेव कराहीं। कहँ वह ससि देखत छपि जाहीं॥
जौ लगि सूर के दिस्टि अकासू। तौ लगि ससि न करै परगासू॥
सुनि कै साह दिस्टि तर नावा। हम पाहुन, यह मँदिर परावा॥
पाहुन ऊपर हेरै नाहीं। हना राहु अर्जुन परछाहीं॥

तपै बीज जस धरती, सूख विरह के घाम।
कब सुदिस्टि सो बरिसै, तन तरिवर हो जाम॥ १० ॥

 

सेव करैं दासी चहुँ पासा। अछरी मनहुँ इंद्र कविलासा॥
कोउ परात कोउ लोटा लाई। साह सभा सब हाथ धोवाई॥
कोई आगे पनवार बिछावहिं। कोई जेंवन लेइ लेइ आवहिं॥
माँड़े कोइ जाहिं धरि जूरी। कोई भात परोसहिं पूरी॥

कोई लेइ लेई आवहिं थारा। कोइ परसहिं छप्पन परकारा॥
पहिरि जो चीर परोसै आवहिं। दूसरि और बरन देखरावहिं॥
बरन बरन पहिरे हर फेरा। आव झुंड जस अछरिन्ह केरा॥

पुनि सँधान बहु आनहिं, परसहिं बूकहिं बूक।
करहिं सँवार गोसाईं, जहाँ परे किछु चूक॥ ११ ॥

 

जानहु नखत करहिं सब सेवा। बिनु ससि सूरहिं भाव न ज़ेवा॥
बह परकार फिरहिं हर फेरे। हेरा बहुत न पावा हेरे॥
परीं असूझ सबै तरकारी। लोनी बिना लोन सब खारी॥
मच्छ छुवै आवहिं गड़ि काटा। जहाँ कवँल तहँ हाथ न आँटा॥
मन लागेउ तेहि कवँल के डंडी। भावै नाहिं एक कनउंडी॥
सो जेंवन नहिं जाकर भूखा। तेहि बिन लाग जनहुँ सब सूखा॥
अनभावत चाखै बैरागा। पंचामृत जानहुँ, विष लागा॥

बैठि सिंघासन गूँजै, सिंघ चरे नहिं घास।
जौ लगि मिरिग न पावै, भोजन करै उपास॥ १२ ॥

 

पानि लिए दासी चहुँ ओरा। अमृत मानहुँ भरे कचोरा॥
पानी देहि कपूर के बासा। सो नहि पियै दरस कर प्यासा॥
दरसन पानि देइ तो जीऔं। बिनु रसना नयनहिं सौ पीऔं॥
पपिहा बूँद सेवातिनी अघा। कौन काज जौ बरिसै मघा? ॥
पुनि लोटा कोपर लेइ आई। कै निरास अब हाथ धोवाई॥
हाथ जो धोवै विरह करोरा। सँवरि सँवरि मन हाथ मरोरा॥
विधि मिलाव जासौं मन लागा। जोरहि तूरि प्रेम कर तागा॥

हाथ धोइ जब बैठा, लीन्ह ऊबि कै साँस।
सँवरा सोइ गोसाईं, देइ निरासहि आस॥ १३ ॥

 

भइ जेवनार फिरा खँड़वानी। फिरा करगजा कुहकुह पानी॥
नग अमोल जो थारहि भरे। राजै सेव आनि कै धरे॥
बिनती कीन्ह घालि गिउ पागा। ए जगसूर! सीउ मोहिं लागा॥
ऐगुन भरा काँप यह जीऊ। जहाँ भानु तहँ रहै न सीऊ॥
चारिउ खंड भानु अस तपा। जेहि के दिस्टि रैनि मसि छपा॥
औ भानु हि अस निरमल कला। दरस जो पावे सो निरमला ॥
कवल भानुहिं देखे पै हँसा। औ भा तेहु चाहि परगसा॥

रतन साम हौं रैनि मसि, ए रबि! तिमिर सँघार।
करु सो कृपा दिस्टि अब, दिवस देहि उजियार॥ १४ ॥

 

सुनि बिनती बिहँसा सुलतानू। सहसौ करा दिपा जस भानू॥
ए राजा! तुइ साँच जुड़ावा। भइ सुदिस्टि अब, सीउ छुड़ावा॥
भानु क सेवा जो कर जीऊ। तेहि मसि कहाँ, कहाँ तेहि सीऊ॥
खाहु देस आपन करि सेवा। और देउँ माँडौ तोहि, देवा!॥
लीक पखान पुरुष कर बोला। धुव सुमेरु ऊपर नहिं डोला॥
फेरि पसार दीन्ह नग सूरू। लाभ देखाइ लीन्ह चह मूरू॥
हँसि हँसि बोलै, टेकै काँधा। प्रीति भुलाइ चहै छल बाँधा॥

माया बोल बहुत कै साह पान हँसि दीन्ह।
पहिले रतन हाथ कै, चहै पदारथ लीन्ह॥ १५ ॥

 

माया मोह बिबस भा राजा। साह खेल सतरँज कर साजा॥
राजा! है जौ लगि सिर घामू। हम तुम घरिक करहिं बिसरामू॥
दरपन साह भीति तह लावा। देखौ जबहिं झरोखे आवा॥
खेलहिं दुऔ साह औ राजा। साह क रुख दरपन रह साजा॥
प्रेम क लुबुध पियादे पाऊँ। ताकै सौंह चले कर ठाऊं॥

घोड़ा देइ फरजीबँद लावा। जेहि मोहरा रुख चहै सो पावा॥
राजा पील देइ शह माँगा। शह देइ चाह मरै रथ खाँगा॥

पीलहि पील देखावा भए दुऔ चौदात।
राजा चहै बुर्द भा, शाह चहै शह मात ॥ १६ ॥

 

सूर देख जौ तरई दासी। जहँ ससि तहाँ जाइ परगासी॥
सुना जो हम दिल्ली सुलतानू। देखा आजु तपै जस भानू॥
ऊँच छत्र जाकर जग माहाँ। जग जो छाँह सब ओहि कै छाहाँ॥
बैठि सिंघासन गरबहिं गूँजा। एक छत्र चारिउ खँड भूँजा॥
निरखि न जाइ सौंह ओहि पाँहीं। सबै नवहि करि दिस्टि तराहीं॥
मनि माथे, ओहि रूप न दूजा। सब रुपवंत करहिं ओहि पूजा॥
हम अस कसा कसौटी आरस। तहूँ देखु कस कंचन, पारस॥

बादसाह दिल्ली कर, कित चितउर महँ आव।
देखि लेहु पदमावति! जेहि न रहै पछिताव॥ १७ ॥

 

बिगसै कुमुद कहे ससि ठाऊँ। बिगसै कवँल सुने रवि नाऊँ॥
भइ निसि, ससि चौराहर चढ़ी। सोरह कला जैस विधि गढ़ी॥
बिहँसि भरोखे आइ सरेखी। निरखि साह दरपन महँ देखी॥
होतहि दरस परस भा लोना। धरती सरग भएउ सब सोना॥
रुख मँगन रुख ता सहुँ भएउ। भा शह मात, खेल मिट गएउ॥
राजा भेद न जानै झाँपा। भा बिसँभार, पवन बिनु काँपा॥
राघव कहा कि लागि सँवारी। लेइ पौंढ़ावहिं सेज सँवारी॥

रैनि बीति गइ, भोर भा, उठा सूर तब जागि।
जो देखै ससि शाहीं, रही करा चित लागि॥ १८ ॥

 

भोजन-प्रेम सो जान जो जेवा। भँवरहिं रुचै बास-रस-केवा॥
दरस देखा जाइ ससि छपी। उठा भानु जस जोगी तपी॥
राघव चेति साह पहँ गएउ। सूरज देखि कवँल बिसमयऊ॥
छत्रपती मन कीन्ह सो पहुँचा। छत्र तुम्हार जगत पर ऊँचा॥
पाट तुम्हार देवतन्ह पीठी। सरग पतार रहै दिन दीठी॥
छोह ते पलुहहिं उकठे रूखा। कोह तें महि सायर राब सूखा॥
सकल जगततुम्ह नावै माथा। सब कर जियन तुम्हारे हाथा॥

दिनहिं नयन लाएहु तुम, रैनि भाहु तहिं जाग।
कस निचिंत अस सोएहु, काह बिलँव अस लाग?॥ १९ ॥

 

देखि एक कौतुक हौं रहा। रहा अँतरपट, पे नहिं अहा।
सरवर देख एक मैं सोई। रहा पानि, पै पान न होई॥
सरग आइ धरती महँ छावा। रहा धरति, पै धरत न आवा॥
तिन्हँ मुहँ पुनि एक मंदिर ऊँचा। करन्ह अहा, पर कर न पहूँचा॥
तेहि मंडप मूरति मैं देखी। बिनु तन, बिनु जिऊ जाइ विसैखी॥
पूरन चंद होई जनु तपी। पारस रूप दरस देइ छपी॥
अब जहँ चतुरदसी जिउ तहाँ। भानु अमावस पावा कहाँ?॥

बिगसा कँवल सरग निति, जनहुँ लौकि गइ बीजु।
ओहि राहु भा भानुहि, राघव मनहिं पतीजू॥ २० ॥

 

अति विचित्र देखा सो ठाढ़ी। चित कै चित्र, लीन्ह जिउ काढ़ी॥
सिंघ लंक, कुंभस्थल जोरू। आँकुस नाग, महाउत मोरू॥
तेहि ऊपर भा कँवल बिगासू। फिरि अलि लीन्ह पुहुप मधु बासू॥
दुइ खंजन बिच बैठेउ सूझा। दुइज क चाँद धनुक लेइ ऊआ॥
मिरिग देखाइ गवन फिरि किया। ससि भा नाग, सूर भा दिया॥
सुठि ऊँचे देखत वह उचका। दिस्टि पहुँचि, कर पहुँचि न सका॥
पहुँच बिहून दिस्टि कित भई?। गति न सका, देखत वह गई॥

राघव! हेरत जिउ गएउ, कित आछत जो असाध॥
यह तन राख पाँख कै सकै न, केहि अपराध?॥ २१ ॥

 

राघव सुनत सीस भुइँ धरा। जुग जुग राज भानु कै करा॥
उहे कला, वह रूप बिसेखी। निसचै तुम्ह पदमावति देखी॥
केहरि लंक, कुंभस्थल हिया। गीउ मयूर, अलक बेधिया॥
कँवल बदन औ बास सरीरू। खंजन नयन, नासिका कीरू॥
भौंह धनुक, ससि दुइज लिलाटू। सब रानिन्ह ऊपर ओहि पाटू॥
सोई मिरिग देखाइ जो गएऊ। बेनी नाग, दिया चित भएऊ॥
दरपन महँ देखी परछाहीं। सो मूरति, भीतर जिउ नाहीं ॥

सबै सिंगार बनी धनि, अब सोई मति कीज।
अलक जौ लटके अधर पर सो गहि कै रस लीज॥ २२ ॥

 

  1. एक ब्राह्मण देवता ने दया करके एक शेर को पिंजड़े से निकाल दिया। शेर उन्हें खाने दौड़ा। ब्राह्मण ने कहा, भलाई के बदले में बुराई नहीं करनी चाहिए। शेर कहने लगा, अपना भक्ष्य नहीं छोड़ना चाहिए। अंत में गीदड़ पंच हुआ। उसने कहा तुम दोनों जिस दशा में थे उसी दशा में थोड़ी देर के लिये फिर हो जाओ तो मैं मामला समझूँ। शेर फिर पिंजड़े में चला गया। गीदड़ ने इशारा किया और ब्राह्मण ने पिंजड़े का द्वार फिर बंद कर दिया।