जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१. स्तुति खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १ से – ८ तक

 

पदमावत

(१) स्तुतिखंड

सुमिरौं आदि एक करतारू। जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू॥
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू। कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा। कीन्हेसि बहुतै, रंग उरेहा॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू। कीन्हेसि बरन बरन औतारू॥
कीन्सेसि दिन, दिनचर, ससि, राती। कीन्हेसि नखत, तराइन पाँती॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा। कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहि माँहा॥
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा। कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा॥

कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि।
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि॥१॥

कीन्हेसि सात समुंद अपारा। कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा॥
कीन्हेसि नदी, नार औ झरना। कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना॥
कीन्हेसि सीप, मोति जेहि भरे। कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे॥
कीन्हेसि वनखँड औ जरि मूरी। कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं। कीन्हेसि पंखि उड़हि जहँ चहईं॥
कीन्हेसि बरन सेत औ स्यामा। कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भोगू। कीन्हेसि बहु ओपद, बहु रोगू॥

निमिख न लाग करत ओहि, सबै कीन्ह पल एक।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक॥२॥

कीन्हेसि अगर कसतुरी वेना। कीन्हेसि भीमसेन ओ चीना॥
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा। कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा॥
कीन्हेसि अमृत, जियै जो पाए। कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए॥
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी। कीन्हेसि करू बेल बहु फरी॥
कीन्हेसि मधु लावै लै साखी। कीन्हेसि भौंर पखि औ पाँखी॥
कीन्हेसि लोवा इंदुर चाँटी। कीन्हेसि बहुत रहहिं खनिमाटी॥
कीन्हेसि राकस भूत परेता। कीन्हेसि भोकस देव दएत॥


(१) ऊरेहा = चित्रकारी। सीऊ = शीत। कीन्हेसि···कैलासु = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की (कुरान की आयत)। कैलास = स्वर्ग, बिहिश्त। इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है। (२) खिखिंद = किष्किंधा। निरमरे = निर्मल। साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है। आरन = अरण्य।

(२) बाज = बिना (सं॰ वर्ज्य)। जैसे, दीन दुख दारिद दलै को कृपा-

बारिधि बाज?—तुलसी। (३) बेना = खत। भीमसेन, चीना = कपूर

कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि।
भुगुति दिहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि॥३॥

कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बड़ाई। कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहि पाई॥
कीन्हसि राजा भूंजहि राजू। कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई। कीन्हेसि लोभ, अघाई न कोई॥
कीन्हेसि जियन, सदा सब चहा। कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा है॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू। कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोई धनी। कीन्हे सँपति विपति पुनि घनी॥

कीन्हेसि कोइ निभरोसी, कीन्हेसि को बरियार।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छर॥४॥

धनपति उहै जेहिक संसारू। सबैं देइ निति, घट न भंडारू॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा। सब कहँ भुगुति रात दिन बाँटा॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं। मित्र सत्रु कोई बिसरै नाहीं॥
पंखि पतंग न बिसरे कोई। परगट गुपुत जहाँ लगि होई॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई। सबै खवाइ, आप नहिं खाई॥
ताकर उहैं जो खाना पियना। सब कह देइ भुगुति औ जियना॥
सबै आासहर ताकर आसा। वह न काहु के आस निरासा॥

जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह।
और जो दीन्ह जगत महें सो सब ताकर दीन्ह॥५॥

आदि एक बरनौं सोइ राजा। आदि न अंत राज जेहि छाजा॥
सदा सरबदा राज करेई। औ जेहिं चहै राज तेहि देई॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहि छावा। दूसर नाहिं जो सरवरि पावा॥
परबत ढाह देख सब लोगू। चाँटहि करै हस्ति सरि-जोगू॥
वज्रहिं तिनकहिं मारि उड़ाई। तिनहि वज्र करि देइ बड़ाई॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई। करें सोइ जो चित्त न होई॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा। काहू बहुत भूख दुख मारा॥

सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर।
एक साजै औ भाँजै, चहै सँवारै फेर॥६॥


के भेद। लोबा = लोमड़ी। इंदुर = चूहा। चाँटी = चींटी। भोकस = दानव। सहस अठारह = अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलामी किताबों के अनुसार)। (४) भूंजहिं = भोगते हैं। बरियार = बलवान। (५) उपाई = उत्पन की। आासहर = निराशा।

(६) भाँजे = भंजन करता है, नष्ट करता है।

अलख अरूप अवरन परन सो कर्ता। वह सब सों, सब ओहि सो बर्ता॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपि। धरमी चीन्ह न चीन्है पापी॥
ना हि पूत न पिता न माता। ना ओहि कुटुँब न कोइ सँग नाता॥
जना न काहु, न कोई ओहि जना। जहँ लगि सब ताकर सिरजना॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई। वह नहिं कीन्ह काहु कर होई॥
हुत पहिले अरु अब है सोई। पुनि सो रहै रहै हैहिं कोई॥
और जो होइ सो बाउर अंधा। दिन दुइ चारि मरै करि धंधा॥

जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह॥७॥

एहि विधि चीन्हहु कर गियानू। जस पुरान महँ लिखा बखानू॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं। कर नाहीं, पर कै सबाईं॥
जीभ नाहिं पै सब किछु बोला। तन नाहीं, सब ठाहर डोला॥
स्रवन नाहिं पै सब किछु सुना| हिया नाहिं पै सब किछु गुना॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा। कौन भाँति अस जाइ बिसेखा॥
है नाहीं कोई ताकर रूपा। ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊ। रूप रेख बिनु निरमल नाऊ॥

ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि॥८॥

और जो दीन्हेसि रतन अमोला। ताकर मरम न जानै भोला॥
दीन्हेसि रसना औ रस भोगू। दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू॥
दीन्हेसि जग देखन कहूँ नैना। दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना॥
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ। दीन्हेसि कर पल्लौ बर बाँहा॥
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं। सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं॥
जोवन मरम जान पै बूढ़ा। मिला न तरुनापा जग ढूँढ़ा॥
दुख कर मरम न जानै राजा। दुखी जान जापर दुख बाजा॥

काया मरम जान पै रोगी, भोगी रहैं निचिंत।
सब कर मरम गोसाई (जान) जो घट घट रहै निंत॥९॥

अति कपार करता कर करना। बरनि न कोई पावै बरना॥
सात सरग जौ कागद करई। धरती समुद दुहुँ मसि भरई॥
जावत जग साखा बनढाखा। जावत केस रोंव पँखि पाँखा॥
जावत खेह रेह दुनियाई। मेघबूँद औ गगन तराई॥
सब लिखनी कै लिखु संसारा। लिखि न जाइ गति समुद अपारा॥
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा। अबहुँ समुद्र महँ बूँद न घटा॥
ऐस जानि मत गरब न होई। गरब करे मन बाउर सोई॥


(७) सिरजना = रचना। (८) बेहरा अलग (बिहरना फटना)। (९)

बाजा = पड़ा है। (१०) खेह = धूल, मिट्टी। रेह = राख, क्षार।

बड़ गुनवंत गोसाईं, कहै सँवारै वेग।
औ अस गुनी सँवारै, जो गुन करै अनेग॥१०॥

कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा। नाम मुहम्मद पूनौ-करा॥
प्रथम जोति विधि ताकर साजी। औ तेहि प्रीति सिहिटि उपराजी॥
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा। भा निरमल जग, मारग चीन्हा॥
जौ न होत पुरुष उजारा। सूझि न परत पंथ अँधियारा॥
दुसरे ठाँवँ दैव वै लिखे। भए धरमी जे पाढ़त सिखे॥
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ। ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाऊँ॥
जगत बसीठ दई ओहि कीन्हा। दुइ जग तरा नावँ जहि लीन्हा॥

गुन अवगुन विधि पूछब, होइहि लेख औ जोख।
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख॥११॥

चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ। जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ॥
अबाबकर सिद्दीक सयाने। पहिले सिदिक दीन वइ आने॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए। भा जग अदल दीन जो आए॥
पुनि उसमान पँडित बड़ गुनी। लिखा कुरान जो आायत सुनी॥.
चौथे अली सिंह बरियारू। सौहँ न कोऊ रहा जुझारू॥
चारिउ एक मतै, एक बाना। एक पंथ औ एक सँधाना॥
बचन एक जो सुना वइ साँचा। भा परवान दुहूँ जग बाँचा॥

जो पुरान विधि पटवा सोई पढ़त गरंथ।
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ॥१२॥

सेरसाहि देहली सुलतानू। चारिउ खंड तपै जस भानू॥
ओही छाज छात औ पाटा। सब राजै भुइँ धरा लिलाटा॥
जाति सूर औ खाँड़े सूरा। औ बुधिवंत सबै गुन पूरा॥
सूर नवांए नवखँड वई। सातउ दीप दुनी सब नई॥
तहँ लगि राज खड़ग करि लीन्हा। इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा॥
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी। जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी॥
औ अति गरू भूमिपति भारी। टेकि भूमि सब सिहिटि सँभारी॥


दुनियाई = दुनिया में। बाउर = बावला। अनेग = अनेक। (११) पूनौ

करा = पूर्णिमा की कला। प्रथम उपराजी = कुरान में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती। जगत्-बसीठ = संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला, पैगंबर। लेख जोख = कर्मों का हिसाब। दुसरे ठाँव... वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा दिया। पाढ़त = पढ़त, मंत्र, आयत। (१२) सिदिक = सच्चा। दीन = धर्म, मत। बाना = रीति, ढंग। संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य। (१३) छात = छत्र। पाट = सिंहासन

दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज।
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज॥१३॥

बरनौं सूर भूमिपति राजा। भूमि न भार सहै जेहि साजा॥
हय गय सेन चलै जग पूरी। परवत टूटि उड़हि होइ धूरी॥
रेनु, रैनि होइ रविहिं गरासा। मानुख पंखि लेहिं फिर बासा॥
भुईं उड़ि अंतरिक्ख मृतमंडा। खंड खंड धरती बरह्मंडा॥
डोले गगन, इंद्र डरि काँपा। बासुकि जाइ पतारहिं चाँपा॥
मेरु धसमसै, समद सुखाई। बन खँड टूटि खेह मिलि जाई॥
अगिलहिं कह पानी लेई बाँटा। पछिलहिं कहँ नहिं काँदों आटा॥

जो गढ़ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर।
जब वह चढ़ै भूमिपति सेर साहिजग सूर॥१४॥

अदल कहीं पुहुमी जस होई। चाँटा चलत न दुखवै कोई॥
नौसेरवाँ जो आदिल कहा। साहि अदल सरि सोउ न अहा॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाईं। भई अहा सगरो दुनियाई॥
परी नाथ कोई छुवै न पारा। मारग मानुष सोन उछारा॥
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा। दूनौ पानि पियहिं एक घाटा॥
नीर खीर छानै दरबारा। दूध पानि सब करै निनारा॥
धरम नियाव चलै, सत भाखा। दूबर बली एक सम राखा॥

सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ।
गंग जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ॥१५॥

पुनि रुपवंत बखानों काहा। जावत जगत सबै मुख चाहा॥
ससि चौदसि जो दई सँवारा। ताहू चाहि रूप उँजियारा॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा। जग जुहार कै देत असीसा॥
जैस भानु जग ऊपर तपा। सबै रूप ओहि आगे छपा॥
अस भा सूर पुरुष निरमरा। सूर चाहिं दस आगर करा॥
सौंह दीठि कै हेरि न जाई। जेहि देखा सो रहा सिर नाई॥
रूप सवाई दिन दिन चढ़ा। विधि सुरूप जग ऊार गढ़ा॥


सूर = शेरशाह सूर जाति का पठान था। जुलकरन = जलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि जिसका अर्थ लोग भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। कोई दो सींगवाला अर्थ करते हैं और कहते हैं कि फेंक में सिकंदर यूनानी (यवन) प्रथा के अनुसार दो सींगवाली टोपी पहनता था, पूर्व और पश्चिम दोनों

कोनों को जीतनेवाला, कोई बीस वर्ष राज्य करने वाला और कोई दो उच्च ग्रहों से युक्त अर्थात भाग्यवान् अर्थ करते हैं। (१४) काँदी कदँभ, कीचड़। (१५) अहा था। भई अहा वाह वाह हुई। नाथ = नाक में पहनने की नथ। पारा सकता है। निनार अलग अलग (निर्णय)। (१६) मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर = अग्र, बढ़कर। चाहि = अपेक्षाकृत

रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढ़ि।
मेदिनि दरस लोभानी, असतुति विनवै ठाढ़ि॥१६॥

पुनि दातार दई जग कीन्हा। अस जग दान न काहू दीन्हा॥
बलि बिक्रम दानी बड़ कहे। हातिम करन तियागी अहे॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ। समुद सुमेर भंडारी दोऊ॥
दान डाँक बाजै दरबारा। कीरति गई समुंदर पारा॥
कंचन परसि सूर जग भयऊ। दारिद भागि दिसंतर गयऊ॥
जो कोई जाइ एक बर माँगा। जनम न भा पुनि भूखा नागा॥
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा। दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा॥

ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान।
ना आस भय न होइहि, ना कोई देइ अस दान॥१७॥

सैयद असरफ पीर पियारा। जेहि मोहि पंथ दीन्ह उँजियारा॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया। उठी जोति भा निरमल हीया॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा। भा अंजोर, सब जाना बूझा॥
खार समुद्र पाप मोर मेला। बोहित-धरम कै चेला॥
उन्ह मोर कर बूड़त कै गहा। पायों तीर घाट जो अहा॥
जाकहँ ऐस होड़ कंधारा। तुरत वेगि सो पावै पारा॥
दस्तगीर गाढ़ कै साथी, वह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी॥

जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद।
वै मखदूम जगत के, हों ओहि घर कै बाँद॥१८॥

ओहि घर रतन एक निरमरा। हाजी सेख सवै भरा गुन भरा॥
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे। पंथ देइ कहँ दैव सँवारे॥
सेख मुहम्मद पून्यो करा। सेख कमाल जगत निरमरा॥
दुऔ अचल धुव डोलहिं नाही। मेरु खिखिंद तिन्हहुँ उपराहीं॥
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं। कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं॥
दुहूँ खंभ टेके सब मही। दुहुँ के भार सिहिटि थिर रही॥
जेहि दरसे औ परसे पाया। पाप हरा, निरमल भइ काया॥

मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सँग मुरसिद पीर।
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर II१९॥


(बढ़कर)। करा = कला। ससि चौदसि = पूर्णिमा (मुसलमान प्रथम चंद्र-दर्शन अर्थात् द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उनकी चौदहवीं तिथि पड़ती है।)

(१७) डाँक = डका। सौंह न दीहा = सामना न किया। (१८) लेसा = जलाया। कंधार = कर्णधार, केवट। हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया। अँजोर = उजाला। खिखिंद = किष्किंधा पर्वत। (१९) खेवक = खेने वाला, मल्लाह।

गुरु मोहदी खेवक मैं सेवा। चलै उताइल जहिं कर खेवा॥
अगुवा भएउ सेख बुरहानू। पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू। दीन दुनी रोसन सुरखुरू॥
सैयद मुहमद कै वै चेला। सिद्ध-पुरुष-संगम जेहि खेला॥
दानियाल गुरु पंथ लखाए। हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए॥
भए प्रसन्न आहि हजरत ख्वाजे। लिये मेरइ जहँ सैयद राजे॥
आहि सेवा मैं पाई करनी। उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी॥

वै सुगुरू, हौं चेला, नित विनबौं भा चेर।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर॥२०॥

एक नयन कवि मुहमद गुनी। सोइ बिमोहा जेहि कवि सुनी॥
चाँद जैस जग विधि औतारा। दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ। उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ॥
जौ लहि अंबहि डाभ न होई। तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा। तौ अति भयउ असूझ अपारा॥
जौ सुमेरु तिरसूल विनासा। भा कंचन गिरि, लाग अकासा॥

एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ।
सब रुपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ॥२१॥

चारि मीत कवि मुहमद पाए। जोरि मिताई सिर पहुँचाए॥
यूसुफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी। पहिले भेद-बात वै जानी॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ। खांड़े-दान उभै निति बाहाँ॥
मियाँ सलोने सिंघ बरियारू। बीर खेत रन खड़ग जुझारू॥
सेख बड़े, बड़ सिद्ध बखाना। किए आदेस सिद्ध बड़ माना॥
चारिउ चतुरदसा गुन पढ़े। औ सजोग गोसाईं गढ़े॥
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा। चंदन होड़ वेधि तेहि बासा॥

मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त।
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त॥२२॥

जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू॥
औ बिनती पंडितन सन भजा। टूट सँवारहु नेवरहू सजा॥
हौं पंडितन केर पछलगा। किछु कहि चला तबल देइ डगा॥
हिय भँडार नग अहै जो पूँजी। खोली जीभ तारु कै कूँजी॥
रतन पदारथ बोल जो बोला। सुरस प्रेम मधु भरा अमोला॥


(२०) खेवा = नाव का बोझ। सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले। उताइल = जल्दी। मेरइ लिये = मिला लिया।सैयद राजे = सैयद राज हामिदशाह। उन्ह हुत = उनके द्वारा (प्रा॰ हिंतो)। (२१) नयनाहाँ = नयन से, आँख से। डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप। चोपी। (२२) मतिमाहाँ = मतिमान्। उभै = उठती है। जुझारू = योद्धा। चतुर-दसा गुन = चौदह विद्याएँ।

जेहि के बोल बिरह कै धाया। कहँ तेहि भूख कहाँ तेहि माया?
फेरे भेंख रहै भा तपा। धरि लपेटा मानिक छपा॥

मुहमद कवि जौ विरह भा ना तन रकत न माँसू।
जइ मुख देखा तेइ हँसा, सुनि तेहि आयउ आँसु॥२३॥

सन नव से सत्ताइस अहा। कथा आरंभ बैन कवि कहा॥
सिंघलदीप पदमिनी रानी। रतनसेन चितउर गढ़ आनी॥
अलउदीन देहली सुलतान। राघौ चेतन कीन्ह बखानू॥
सुना साहि गढ़ छेंका आई। हिंदू तुरुकन्ह भई लराई॥
आदि अंत जस गाथा अहै। लिखि भाखा चौपाई कहै॥
कवि बियास कँवला रस पूरी। दूरि सो नियर, नियर सो दूरी॥
नियरे दूर, फूल जस काँटा। दूरि जो नियरे, जस गुड़ चाँटा॥

भँवर आइ बनखँड सन लेइ कंबल कै बास।
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास॥२४॥





(२३) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल। डगा = डुगी बजाने की लकड़ी। तारु = (क) तालू। (ख) ताला कुंजी = कुंजी। फेरे भेष = वेष बदलते हुए। तपा = तपस्वी (२४) आछै =है। जैसे—कह कबीर कटु अछिलो न जहिया।