जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२१. राजा रत्नसेन सती खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ७६ से – ७८ तक

 

(२१) राजा रत्नसेन सती खंड

कै बसंत पदमावति गई। राजहि तब बसंत सुधि भई॥
जो जागा न बसंत न बारी। ना वह खेल, न खेलनहारी॥
ना वह ओहि कर रूप सुहाई। गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई॥
फूल झरे, सूखी फुलवारी। दीठि परी उकठी सब बारी॥
केइ यह बसंत बसंत उजारा? । गा सो चाँद, अथवा लेइ तारा॥
अब तेहि बिनु जग भा अंधकूपा। वह सुख छाँह,जरौं दुख धूपा॥
बिरह दवा को जरत सिरावा? । को पीतम सौं करै गेरावा? ॥
हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछोव।
हाथ मोंजि सिर धुनि कै रोवै जो निचिंत अस सोव॥ १ ॥
जस बिछोह जल मीन दुहेला। जल हुँत काढ़ि अगिनि मँह मेला॥
चंदन आँक दाग हिय परे। बुझहिं न ते आखर परजरे॥
जनु सर आगि होइ हिय लागे। सब तन दागि सिंघ बन दागे॥
जरहिं मिरिग बनखँड तेहि ज्वाला। औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला॥
कित ते आँक लिखे जौं सोवा। मकु आँकन्ह तेई करत बिछोवा।।
जैस दुसंतहि साकुंतला। मधवानलहि कामकंदला॥
भा बिछोह जस नलहि दमावति। मैना मूँदि छपी पदमावति॥
आइ बसंत जो छपि रहा होइ फूलन्ह के भेस।
केहि बिधि पावौं भौंर होइ, कौन गुरू उपदेस॥ २ ॥
रोवै रतनमाल जनु चूरा। जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा॥
कहाँ बसंत औ कोकिल बैना। कहाँ कुसुम अति बेधा नेैना॥
कहाँ सो मूरति परो जो डीठी। काढ़ि लिहेसि जिउ हिये पईठी॥


(१) उकठी = सूखकर ऐंठी हुई। अथवा = अस्त हुआ। खेवरा = खौरा हुआ, चित्रित किया या लगाया हुआ। (२) हुँत = से। परजरे = जलते रहे। सर आगि = अग्निबाण। सब...दागे = मानों उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और वन में आग लगा करती है। कितते आँक सोवा = जब सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए; दूसरे पक्ष में जब जीव अज्ञान दशा में गर्भ में रहता है तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है। दमावति = दमयंती।

कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा? । जौं सुबसंत करीलहि काहा? ॥
पात बिछोह रूख जो फूला। सो महुआ रोवै अस भूला॥
टपकैं महुअ आँसु तस परहीं। होइ महुआ बसंत ज्यों झरहीं॥
मोर बसंत सो पदमिनि बारी। जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी॥
पावा नवल बसंत पुनि बहु आरति बहु चोप।
ऐस न जाना अंत ही पात झरहिं, होइ कोप॥ ३ ॥
अरे मलिछ बिसवासी देवा। कित मैं आइ कीन्ह तोरि सेवा॥
आपनि नाव चढ़ै जो देई। सो तौ पार उतारै खेई॥
सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा। सुआ क सेंवर तू भा मोरा॥
पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा। सो ऐसे बूड़ै मझधारा॥
पाहन सेवा कहाँ पसीजा? । जनम न ओद होइ जो भीजा॥
बाउर सोइ जो पाहन पूजा। सकत को भार लेइ सिर दूजा॥
काहे नहिं जिय सोइ निरासा। मुए जियत मन जाकरि आसा॥
सिंघ तरेंदा जेइ गहा पार भए तेहि साथ।
ते पै बूडे़ बाउरे भेड़ पूँछि जिन्ह हाथ॥ ४ ॥
देव कहा सुनु, बउरे राजा। देवहि अगुमन मारा गाजा॥
जौं पहिलेहि अपने सिर परई। सो का काहुक धरहरि करई[]
पदमावति राजा कै बारी। आइ सखिन्ह सह बदन उघारी॥
जैस चाँद गोहने सब तारा। परेउँ भुलाइ देखि उजियारा॥
चमकहिं दसन बीजु कै नाई। नैन चक्र जमकात भवाँई॥
हौं तेहि दीप पतँग होइ परा। जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धरा॥
बहुरि न जानौं दहुँ का भई। दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई॥
अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस।
रोगिया की को चालै, बैदहि जहाँ उपास? ॥ ५ ॥
आनहिं. दोस देहुँ का काहू। संगी कया, मया नहिं ताहू॥
हता पियारा मीत बिछोई। साथ न लाग आपु गै सोई॥
का मैं कीन्ह जो काया पोषी। दूषन मोहिं, आप निरदोषी॥
फागु बसंत खेलि गइ गोरी। मोहि तन लाइ बिरह कै होरी॥


(३) कहाँ सो देस...लाहा? = बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील के वन में बसंत के जाने ही से क्या? आरति = दुःख। चोप = चाह। (४)ओद = गोला, आर्द्र। तरेंरा = तैरनेवाला काठ, बेड़ा। (५) गाजा = गाज, वज्र। धरहरि = धर पकड़, बचाव। गोहने = साथ या सेवा में। अपसई = गायब हो गई। निसाँसी = बेदम। को चालै = कौन चलावे।

अब अस कहाँ छार सिर मेलौं? छार जो होहुँ फाग तब खेलों॥
कित तप कोन्ह छाँड़ि कै राजू। गएउ अहार न भा सिध काजू॥
पाएउ नहिं होइ जोगी जती। अब सर चढौं जरौं जस, सती॥

आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत।
अब तन होरी घालि कै, जारि करों भसमंत॥६॥

ककनू पंखि जैस सर साजा। तस सर साजि जरा चह राजा॥
सकल देवता आइ तुलाने। दहुँ का होइ देव असथाने॥
विरह अगिति बज़्रागि असूभा। जरै सूर न बुभाए वूभा॥
तेहि के जरत जो उठे बजागी। तीनउँ लोक जरै तेहि लागी॥
अवहि की घरी सो चिनगी छूटै। जरहि पहार पहन सब फूटै॥
देवता सबे भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं॥
धरती सरग होइ सब ताता। है कोई एहि राख बिधाता॥

मुहमद चिनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ।
धनि बिरही औ धनि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ॥७॥

हनुवँत बीर लंक जेइ जारी ।परवत उहै अहा रखवारी॥
बेठि तहाँ होइ लंका ताका। छठ मास देइ उठि हाँका॥
तेहि क॑ आगि उहोौ पुनि जरा। लंका छाड़ि पलंका परा॥
जाइ तहाँ वै कहा संदेस। पारती औ जहाँ महेसू॥
जोगी आहि बियोगी कोई। तुम्हरे मंडप आागि तेइ बोई॥
जरा लंगूर सु राता उहाँ। निकसि जो भागि भएउँ करमूहाँ॥
तेहि वज्रागि जरै हों लागा। बजरंग जरतहि उठि भागा॥

रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहै आव।
गए पहार सब औटि कै, को राख गहि पाव?॥८॥


 

(६) हता = था, आया था। सर-"चिता। (७) ककनू (फा० ककनुस) एक पक्षी जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि आय पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे आग लग जाती है और वह जल जाता है। पहन = पाषाणा, पत्थर। पलंका = पलंग, चारपाई अथवा लंका के भी आगे पलंका नामक कल्पित द्वीप॥

  1. कुछ प्रतियों में यह पाठ है — ‘जबहिं आगि अपने सिर लागी। आन
    बुझावै कहाँ सो आगी।'