जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२६. रत्‍नसेन पद्मावती विवाह खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १०५ से – ११० तक

 

(२६) रत्नसेन पदमावती विवाह खंड

लगन धरा औ रचा बियाहु। सिंघल नेवत फिरा सब काहू॥
बाजन बाजे कोटि पचासा। भा अनंद सगरौं कैलासा॥
जेहि दिन कहँ निति देव मनाया। सोइ दिसव पदमावति पावा॥
चाँद सूरुज मनि माथे भागू। औ गाँवहि सब नखत सोहागू॥
रचि रचि मानिक माँड़व छावा। औ भुइँ रात बिछाव निछावा॥
चंदन खाँभ रचे बहु भाँती। मानिक दिया बरहिं दिन राती॥
घर घर बंदन रचे दुवारा। जावत नगर गीत झनकारा॥
हाट बाट सब सिंघल, जहँ देखहु तहँ रात।
धनि रानी पदमावति, जेहिकै ऐसि बरात॥ १ ॥
रतनसेन कहँ कापड़ आए। हीरा मोति पदारथ लाए॥
कुँवर सहस दस आइ सभागे। बिनय करहिं राजा सँग लागे॥
जाहि लागि तन साधेहु जोगू। लेहु राज औ मानहु भोगू॥
मंजन करहु, भभूत उतारहु। करि अस्नान चित्न सब सारहु॥
काढ़हु मुद्रा फटिक अभाऊ। पहिरहु कुंडल कनक जराऊ॥
छोरहु जटा, फुलायल लेहू। झारहु केस, मकुट सिर देहू॥
काढ़हु कंथा चिरकुट लावा। पहिरहु राता दंगल सोहावा॥
पाँवरि तजहु, देहु पग,पौरि जो बाँक तुखार।
बाँधि मौर, सिर छत्र देइ, वेगि होहु असवार॥ २ ॥
साजा राजा, बाजन बाजे। मदन सहाय दुवो दर गाजै॥
औ राता सोने रथ साजा। भए बरात गोहने सब राजा॥
बाजत गाजत भा असवारा। सब सिंघल नइ कीन्ह जोहारा॥
चहुँ दिसि मसियर नखत तराईं। सूरुज चढ़ा चाँद के ताई॥
सब दिन तपे जैस हिय माहाँ। तैसि राति पाई सुख छाहाँ॥
ऊपर रात छत्र तस छावा। इंद्रलोक सब देखै आवा॥
आजु इंद्र अछरी सौं मिला। सब कबिलास होहि सोहिला॥
धरती सरग चहूँ दिसि, पूरि रहे मसियार।
बाजत आवै मंदिर जहँ, होइ मंगलाचार॥ ३ ॥


(१) सोहागू = सौभाग्य या विवाह के गीत। रात = लाल। बिछाव = बिछावन। बंदन = बंदनवार। (२) लाए = लगाए हुए। चित्न सारहु = चंदन केसर की खौर बनाओ। अभाउ = न भानेवाले, न सोहनेवाले। फुला- यल = फूलेल। दगल = दगला, ढीला अँगरखा। पाँवरि = खड़ाऊँ। (३) दर = दल। गोहने साथ में । नइ झुककर। मसियर = मशाल। सोहिला =

सोहला या सोहर नाम के गीत। मसियार = मशाल।

पदमावति धौराहर चढ़ी। दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा। इन्ह महँ सो जोगी को अहा? ॥
केइ सो जोग लै ओर निबाहा। भएउ सूर, चढ़ि चाँद बियाहा॥
कौन सिद्ध सो ऐस अकेला। जेइ सिर लाइ पेम सों खेला? ॥
का सौं पिता बात अस हारी। उतर न दीन्ह, दीन्ह तेहि बारी॥[]
का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा। जेइ जयमार जीति रन लीन्हा॥
धन्नि पुरुष अस नवै न नाए। औ सुपुरुष होइ देस पराए॥
को बरिबंड बीर अस, मोहिं देखै कर चाव।
पुनि जाइहि जनवासहि, सखि! मोहिं वेगि देखाव॥ ४ ॥
सखी देखावहिं चमकै बाहू। तू जस चाँद, सुरज तोर नाहू॥
छया न रहै सूर परगासू। देखि कँवल मन होइ बिगासू॥
ऊ उजियार जगत उपराहीं। जग उजियार, सो तेहि परछाहीं॥
जस रवि, देखु, उठै परभाता। उठा छत्र तस बीच बराता॥
ओही माँझ भा दूलह सोई। और बरात संग सब कोई॥
सहसौ कला रूप विधि गढ़ा। सोने के रथ आवै चढ़ा॥
मनि माथे, दरसन उजियारा। सौंह निरखि नहिं जाइ निहारा॥
रुपवंत जस दरपन, धनि तू जाकर कंत।
चाहिय जैस मनोहर, मिला सो मनभावंत॥ ५ ॥
देखा चाँद सूर जस साजा। अस्टौ भाव मदन जनु गाजा॥
हुलसे नैन दरस मद माते। हुलसे अधर रंग रस राते॥
हुलसा बदन ओप रवि पाई। हुलसि हिया कंचुकि न समाई॥
हुलसे कुच कसनी बँद टूटे। हुलसी भुजा, वलय कर फूटे॥
हुलसी लंक कि रावन राजू। राम लखन दर साजहिं आजू॥
आजु चाँद घर आवा सूरू। आजु सिंगार होइ सब चूरू॥
आजु कटक जोरा है कामू। आजु बिरह सौं होइ संग्रामू॥
अंग अंग सब हुलसे, कोइ कतहूँ न समाइ।
ठावहिं ठाँव बिमोही, गइ मुरछा तनु आइ॥ ६ ॥
सखी सँभारि पियावहिं पानी। राजकुँवरि काहे कँभिलानी॥
हम तौ तोहि देखावा पीऊ। तू मुरझानि, कैस भा जोउ॥
सुनहु सखी सब कहहिं बियाहू। मोह कहँ भएउ चाँद कर राहू॥


(४) जेहि कहँ ससि गढ़ीं = जिसके लिये चंद्रमा (पद्मावती) बनाई गई। जयमार = जयमाल। (५) नाहु = नाथ, पति। निरखि = गड़ाकर। (६) गाजा = गरजा। अस्टौ भाव = आठों भावों से, पाठांतर — 'सहसौ भाव'। कसनी = अँगिया। लंक = कटि और लंका। रावन = (१) रमण करनेवाला,

(२) रावण। झँखी = झीखकर, पछताकर।

तुम जानहु आवै पिउ साजा। यह सब सिर पर धम धम बाजा॥
जेते बराती औ असवारा। आए सबै चलावनहारा॥
सो आगम हौं देखति झँखी। रहन न आपन देखौं, सखी! ॥
होइ बियाह पुनि होइहि गवना। गवनब तहाँ बहुरि नहिं अवना॥
अब यह मिलन कहाँ होइ? परा बिछोहा टूटि।
तैसि गाँठि पिउ जोरब जनम न होइहि छूटि॥ ७ ॥
आइ बजावति बैठि बराता। पान, फूल, सेंदुर सब राता॥
जहँ सोने कर चित्तर सारी। लेइ बरात सब तहाँ उतारी॥
माँझ सिंघासन पाट सवारा। दुलह आनि तहाँ बैसारा॥
कनक खंभ लागें चहुँ पाँती। मानिक दिया बरहिं दिन राती॥
भएउ अचल ध्रुव जोगेि पखेरू। फूलि बैठि थिर जैस सुमेरू॥
आजु दैउ हौं कीन्ह सभागा। जत दुख कीन्ह नेग सब लागा॥
आजु सूर ससि के घर आवा। ससि सूरहि जनु होइ मेरावा॥
आजु इंद्र होइ आएउँ सजि बरात कबिलास।
आजु मिली मोहि अपछरा, पूजी मन के आस॥ ८ ॥
होइ लाग जेवनार पसारा। कनकपत्र पसरे पनवारा॥
सोन थार मनि मानिक जरे। राय रंक के आगे धरे॥
रतन जड़ाऊ खोरा खोरी। जन जन आगे दस दस जोरी॥
गडुवन हीर पदारथ लागे। देखि बिमोहे पुरष सभागे॥
जानहु नखत करहिं उजियारा। छपि गए दीपक औ मसियारा॥
गइ मिलि चाँद सुरुज कै करा। भा उदोत तैसे निरमरा॥
जेहि मानुष कहँ जोति न होती। तेहि भइ जोति देखि वह जोती।
पाँति पाँति सब बैठे, भाँति भाँति जेवनार ।
कनकपत्र दोनन्ह तर, कनकपत्र पनवार॥ ९ ॥
पहिले भात परोसे आना। जनहुँ सुबास कपूर बसाना॥
झालर माँड़े आए पोई। देखत उजर पाग जस धोई॥
लुचुई और सोहारी धरी। एक तौ ताती औ सुठि कोंवरी॥
खँडरा बचका औ डुभकौरी। बरी एकोतर सौ, कोहँड़ौरी॥


(८) चित्तर सारी = चित्रशाला। जोगि पखेरू = पक्षी के समान एक स्थान पर जमकर न रहनेवाला योगी। फूलि = आनंद से प्रफुल्ल होकर। नेग लागा = (मुहा०) सार्थक हुआा, सफल हुआ, होने लगा। (९) पनवार = पत्तल। खोरा = कटारा। मसियार = मशाल। करा = कला। (१०) झालर = एक प्रकार का पकवान, झलरा। माँड़े = एक प्रकार की चपाती। पाग = पागड़ी। लुचुई = मैदे की महीन पूरी। सोहारी = पूरी। कोंवरी = मुलायम। खँडरा = फेंटे हुए बेसन के भाप पर चौखूटे टुकड़े जो रसे या दही में भिगोए जाते हैं; कतरा रसाज। बचका = बेसन और मैदे को एक में फेंटकर जलेवे के समान टपका घी में छानते हैं, फिर दूध में भिगोकर रख देते हैं। एकोतर सौ =

एकोत्तर शत, एक सौ एक। कोहँड़ौरी = पेठे की बरी।

पुनि सँधाने आए बसाँधे। दूध दही के मुरंडा बाँधे॥
औ छप्पन परकार जो जाए। नहिं अस देख, न कबहूँ खाए॥
पुनि जाउरि पछियाउर आई। घिरित खाँड़ कै बनी मिठाई॥
जेंवत अधिक सुबासित, मुँह महँ परत बिलाइ।
सहस स्वाद सो पावै, एक कौर जो खाइ॥ १० ॥
जेंवन आवा, बीन न बाजा। बिनु बाजन नहिं जेंवै राजा॥
सब कुँवरन्ह पुनि खैंचा हाथू। ठाकुर जेंव तौ जेंवै साथू॥
बिनय करहिं पंडित विद्वाना। काहे नहिं जेवहिं जजमाना? ॥
यह कबिलास इंद्र कर बासू। जहाँ न अन्न न माछरि माँसू॥
पान फूल आसी सब कोई। तुम्ह कारन यह कीन्ह रसोई॥
भूख, तौ जनु अमृत है सुखा। धूप, तौ सीअर नीबी रूखा॥
नींद, तौ भुइँ जनु सेज सपेती। छाँटहूँ का चतुराई एती? ॥
कौन काज तेहि कारन, बिकल भएउ जजमान॥
होइ रजायसु सोई, बेगि देहि हम आन॥ ११ ॥
तुम पंडित जानहु सब भेदू। पहिले नाद भएउ तब बेदू॥
आदि पिता जो विधि अवतारा। नाद संग जिउ ज्ञान सँचारा॥
सो तुम बरजि नीक का कीन्हा। जेंवन संग भोग बिधि दीन्हा॥
नैन, रसन, नासिक, दुइ स्त्रवना। इन चारहु सँग जेंवै अवना॥
जेंवन देखा नैन सिराने। जोभहिं स्वाद भुगुति रस जाने॥
नासिक सबैं बासना पाई। स्त्रवनहिं काह करत पहुनाई? ॥
तेहि कर होइ नाद सौं पोखा। तव चारिहु कर होइ सँतोखा॥
औ सो सुनहिं सबद एक, जाहि परा किछु सूझि।
पंडित! नाद सुनै कहँ, बरजेहु तुम का बूझि॥ १२ ॥
राजा! उतर सुनहु सब सोई। महि डोलै जौ बेद न होई॥
नाद, वेद, मद, पैड़ जो चारी। काया महँ ते, लेहु बिचारी॥
नाद, हिये मद उपनै काया। जहँ मद तहाँ पैड़ नहिं छाया॥
होइ उनमद जूझा सो करै। जो न बेद आँकुस सिर धरै॥
जोगी होइ नाद सो सुना। जेहि सुनि काय जरै चौगुना॥
कथा जो परम तंत मन लावा। धूम माति, सुनि और न भावा॥


सँधाने = अचार। बसाँधे = सुगंधित। मुरंड = भुने गेहूँ और गुड़ के लड्डू, यहाँ लड्डू। जाउरि = खीर। पछियाउरि = एक प्रकार की सिखरन या शरबत।

(११) भूख...सूखा = यदि भूख तो रूखा सूखा मानो अमृत है। नाद = शब्बनब्रह्म, अनाहत नाद। (१२) सिरान = ठंढे हुए। पोखा = पोषण। (१३) मद = प्रेममद। पैंड़ = ईश्वर की ओर ले जानेवाला मार्ग, मोक्ष का मार्ग। (बौद्धों का चौथा सत्य 'मार्ग' है। उन्हीं के यहाँ से वज्रयान योगियों के

बीच होता हुआ शायद यह सूफियों तक पहुँचता है।) उनमद = उन्मत्त।

गए जो धरमपंथ होइ राजा। तिनकर पुनि जो सुनै तो छाजा॥
जस मद पिए घूम कोइ, नाद सुनै पै घूम।
तेहितें बरजे नीक है, चढ़े रहसि कै दुम॥ १३ ॥
भइ जेवनार, फिरा खँड़वानी। फिरा अरगजा कुँहकुँह पानी॥
फिरा पान, बहुरा सब कोई। राग बियाहचार सब होई॥
माँड़ौ सोन क गगन सँवारा। बँदनवार लाग सब बारा॥
साजा पाटा छत्न कै छाँहा। रतन चौक पूरा तेहि माहाँ॥
कंचन कलस नीर भरि धरा। इंद्र पास आनी अपछरा॥
गाँठि दुलह दुलहिन कै जोरी। दुऔ जगत जो जाइ न छोरी॥
बॆद पढैं पंडित तेहि ठाऊँ। कन्या तुला राशि लेइ नाऊँ॥
चाँद सुरुज दुऔ निरमल, दुऔ सँजोग अनूप।
सुरुज चाँद सौं भूला, चाँद सुरुज के रूप॥ १४ ॥
दुऔ नाँव लै गावहिं बारा। करहिं सो पदमिनि मंगलचारा॥
चाँद के हाथ दीन्ह जयमाला। चाँद आनि सूरज गिउ घाला॥
सूरुज लीन्ह चाँद पहिराई। हार नखत तरइन्ह स्यों दीन्हा॥
पुनि धनि भरि अंजुलि जल लीन्हा। जोबन जनम कंत कह दीन्हा॥
कंत लीन्ह, दीन्हा धनि हाथा। जोरी गँठि दुऔ एक साथा॥
फिरहिं दुऔ सत फेर, घुटै कै। सातहु फेर गाँठि सो एकै॥
भइ भाँवरि, नेवछावरि, राज चार सब कीन्ह।
दायज कहौं कहाँ लगि? लिखि न जाइ जत दीन्ह॥ १५ ॥
रतनसेन जब दायज पावा। गंध्रबसेन आइ सिर नावा॥
मानुस चित्त आनु किछ कोई। करैं गोसाईं सोइ पै होई॥
अब तुम्ह सिंघलदीप गोसाईं। हम सेवक अहहीं सेवकाई॥
जस तुम्हार चितउरगढ़ देसू। तस तुम्ह इहाँ हमार नरेसू॥
जंबूदीप दूरी का काजू? । सिंघलदीप करहु अब राजू॥
रतनसेन बिनवा कर जोरी। अस्तुति जोग जीभ कहँ मोरी॥
तुम्ह गोसाई जेइ छार छुड़ाई। कै मानुस अब दीन्हि बड़ाई॥
जौ तुम्ह दीन्ह तौ पावा जिवन जनम सुखभोग।
नातरु खेह पायँ कै, हौं जोगी केहि जोग॥ १६ ॥


तिनकर पुनि...छाजा = राजधर्म में रत जो राजा हो गए हैं उनका पुण्य तू सुने तो शोभा देता है। चढ़े...दुम = मद चढ़ने पर उमंग में आकर झूमने लगता है। (१४) खँड़वानी = शरबत। (१५) हार नखत...सो ताई = हार क्या पाया मानो चंद्रमा के साथ तारों को भी पाया। त्यों = साथ। घुटै कै गाँठ को दृढ़ करके, आन गाँठि घुटि जाय त्यों मान गाँठि छुटि जाय। — बिहारी ।

(१६) आनु = लाए। नातरु = नहीं तो।

धौराहर पर दीन्हा बासू। सात खंड जहवाँ कबिलासू।
सखी सहस दस सेवा पाई। जनहुँ चाँद सँग नखत तराई॥
होइ मंडल ससि के चहुँ पासा। ससि सूरहि लेइ चढ़ी अकासा॥
चलु सूरुज दिन अथवै जहाँ। ससि निरमल तू पावसि तहाँ॥
गंध्रबसेन धौरहर कीन्हा। दीन्ह न राजहि, जोगिहि दीन्हा॥
मिलीं जाइ ससि के चहुँ पाहाँ। सूर न चाँपैं पावै छाँहा॥
अब जोगी गुरु पावा सोई। उतरा जोग, भसम गा धोई॥
सात खंड धौराहर, सात रंग नग लाग।
देखत गा कबिलासहि, दिस्टि पाप सब भाग॥ १७ ॥
सात खंड सातौ कबिलासा। का बरनौं जग ऊपर बासा॥
हीरा ईंट कपूर गिलावा। मलयागिरि चंदन सब लावा॥
चूना कीन्ह औटि जगमोती। मोतिहु चाहि अधिक तेहि जोती॥
बिसुकरमै सो हाथ सँवारा । सात खंड सातहि चौपारा॥
अति निरमल नहिं जाइ बिसेखा। जस दरपन महँ दरसन देखा॥
भुइँ गच जानहुँ, समुद हिलोरा। कनकखंभ जनु रचा हिंडोरा॥
रतन पदारथ होइ उजियारा। भूले दीपक औ मसियारा॥
तहँ अछरी पदमावति, रतनसेन के पास॥
सातौ सरग हाथ जनु, औ सातौ कबिलास॥ १८ ॥
पुनि तहँ रतनसेन पगु धारा। जहाँ नौ रतन सेज सँवारा॥
पुतरी गढ़ि गढ़ि खंभन काढ़ी। जनु सजीव सेवा सब ठाढ़ी॥
काहू हाथ चंदन के खोरी। कोई सेंदुर, कोइ गहें सिंधोरी॥
कोइ कुहँकुहँ केसर लिहे रहै। लावै अंग रहसि जनु चहै॥
कोई लिहे कुमकुमा चोवा। धनि कब चहै, ठाढ़ि मुख जोवा॥
कोई बीरा, कोइ लीन्हे बीरी। कोई परिमल अति सुगँध समीरी॥
काहु हाथ कस्तूरी मेदू। कोइ किछू लिहे, लागु तस भेदू॥
पाँतिहि पाँति चहूँ दिसि सब सोंधे कै होट।
माँझ रचा इंद्रासन, पदमावती कहँ पाट॥ १९ ॥






(१७) चहुँ पाहाँ = चारो ओर। चाँपै पावै = दबाने पाता है। (१८) गिलावा = गारा। गच = फर्श। भूले = खो से गए। मसियार = मशाल। अछरी = अप्सरा। (१९) खोरी = कटोरी। सिंधोरी = काठ की सुंदर डिबिया जिसमें स्त्रियाँ इँगुर या सिंदुर रखती हैं। बीरी = दाँत रँगने का मंजन। परिमल = पुष्पगंध, इत्र। सुगंध समीरी = सुगंध वायुवाला। सोंधे = गंधद्रव्य।

  1. १. पाठांतर — कासौं पिता बैन अस दीन्हा। महादेव जेहि किरपा कीन्हा।