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दिसम्बर की निर्वाचित पुस्तक
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सप्ताह की पुस्तक
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पुरातत्त्व प्रसंग महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित ऐतिहासिक कृति है जिसका प्रकाशन सन् १९२९ ई॰ में झाँसी के साहित्य भवन, चिरगाँव द्वारा किया गया था।


"भारत जिस गति या दुर्गति को इस समय, नहीं, बहुत पहले ही से, प्राप्त हो रहा है, उसका कारण दैव दुर्विपाक नहीं। कारण तो स्वयमेव भारत ही की अकर्म्मण्यता है। जिस भारत ने समुद्र पार दूरवर्ती देशों और टापुओं तक में अपने उपनिवेश स्थापित किये, जिसने दुर्ल्लन्घ्य पर्वतों और पार्वत्य उपत्यकाओं का लंघन करके अन्य देशों पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराई और जिसने कितने ही असभ्य और अर्द्ध-सभ्य देशों को शिक्षा और सभ्यता सिखाई, वही भारत आज औरों का मुखापेक्षी हो रहा है। जिस भारत के जहाज महासागरों को पार करके अपने वाणिज्य की वस्तुओं से दूसरे देशों को पाटते रहते थे वही भारत आज सुई और दियासलाई तक के लिए विदेशों का मुहताज हो रहा है।..."(पूरा पढ़ें)


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पूर्ण पुस्तक
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भारतवर्ष का इतिहास ई॰ मार्सडेन और लाला सीताराम द्वारा लिखित पुस्तक है, जिसमें भारत का भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास का संक्षिप्त वर्णन है। इसका प्रकाशन "मैकमिलन एण्ड कम्पनी लिमिटेड", (कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, लण्डन) द्वारा १९१९ ई॰ में किया गया।

"भारतवर्ष एक बहुत बड़ा देश है। यह एशिया के दक्षिण त्रिभुज के आकार समुद्र में घुसा हुआ है। इसकी उत्तर की भुजापर बड़े ऊंचे पहाड़ों की श्रेणी हिमालय के नाम से प्रसिद्ध है और इसके पूर्व और पश्चिम समुद्र लहरें मारता है।
हिमालय दो शब्दों से बना है, हिम बरफ़ और आलय घर, बरफ़ का घर। यह पृथ्वी भर में सब से ऊंचा पहाड़ है और इस देश को एशिया के और देशों से अलग करने को एक बड़ी भीत सा उठा हुआ है। हिमालय की चोटियां सदा बरफ़ से ढकी रहती हैं। ठंढक भी ऊपर ऐसी है कि वहां न जीव जन्तु रह सकते हैं न पेड़ उग सकते हैं।" ...(पूरा पढ़ें)


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सहकार्य

रचनाकार
रचनाकार

अनुपम मिश्र (1948 — 19 दिसम्बर 2016), लेखक, पत्रकार और पर्यावरणविद् थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ :

  1. राजस्थान की रजत बूँदें (1995)
  2. आज भी खरे हैं तालाब (2004)
  3. साफ़ माथे का समाज (2006)

आज का पाठ

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खड़ी बोली पद्य की तीन धाराएँ रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास का एक अंश है जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९४१ ई॰ में किया गया।

"निराला जी की रचना का क्षेत्र तो पहले से ही कुछ विस्तृत रहा। उन्होंने जिस प्रकार 'तुम' और 'मैं' में उस रहस्यमय 'नाद वेद आकार सार' का गान किया, 'जूही की कली' और 'शेफालिका' में उन्मद प्रणय-चेष्टाओं के पुष्प-चित्र खड़े किए उसी प्रकार 'जागरण वीणा' बजाई, इस जगत् के बीच विधवा की विधुर और करुण मूर्ति खड़ी की और इधर आकर इलाहाबाद के पथ पर एक पत्थर तोड़ती दीन स्त्री के माथे पर श्रम-सीकर दिखाए। सारांश यह कि अब शैली के वैलक्षण्य द्वारा प्रतिक्रिया-प्रदर्शन का वेग कम हो जाने से अर्थभूमि के रमणीय प्रसार के चिह्न भी छायावादी कहे जाने वाले कवियों की रचनाओं में दिखाई पड़ रहे हैं।..."(पूरा पढ़ें)

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