जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४४. राजा बादशाह मेल खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २०७ से – २१० तक

 

(४४) राजा बादशाह मेल खंड

सुना साह अरदासैं पढ़ीं। चिंता आन आनि चित चढ़ी॥
तौ अगमन मन चीतै कोई। जौ आपन चीता किछु होई॥
मन झूठा, जिउ हाथ पराए। चिंता एक हिए दुइ ठाएँ॥
गढ़ सौं अरुभि, जाई तब छूटै। होइ मेराव, कि सो गढ़ टूटै॥
पाहन कर रिपु पाहन हीरा। बेधौं रतन पान देइ बीरा॥
सुरजा सेंति कहा यह भेऊ। पलटि जाहु अब मानहु सेऊ॥
कह तोहि सौं पदमिनि नहिं लेऊँ। चूरा कीन्ह छाँड़ि गढ़ देऊँ॥

आपन देस खाहु सब, औ चंदेरी लेहु।
समुद जो समदन कीन्ह तेहिं, ते पाँचौं नग देहु ॥ १ ॥

 

सुरजा पलटि सिंघ चढ़ि गाजा। अज्ञा जाइ कहीं जहँ राजा।
अबहूँ हिये समुझ रे, राजा। बादशाह सौ जूझ न छाजा॥
जेहि कै देहरी पृथिवी सेई। चहै तौ मारै औ जिउ लेई॥
पिंजर माहँ तोहि कीन्ह परेवा। गढ़पति सोइ बाँच कै सेवा॥
जौ लगि जीभ अहै मख तोरे। सँवरि उघेलु बिनय कर जारे॥
पुनि जौ जीभ पकरि जिब लेई। को खौलै, को बोले देई ॥ ? ॥
आगे जस हमीर मैमंता। जौ तस करसि तोरे भा अता॥

देख! काल्हि गढ़ टूटै, राज ओहि कर होइ।
कर सेवा सिर नाइ कै, घर न घालु बुधि खोइ ॥ २ ॥

 

सरजा! जो हमीर अस ताका। ओर निबाहि बाँधि गा साका॥
हौ सकबंधी ओहि अस नाहीं। हौं सो भोज बिक्रम उपराही॥

बरिस साठ लगि साँठि न खाँगा। पानि पहार चुवैं बिनु माँगा॥
तेहि ऊपर जौ पै गढ़ टूटा। सत सकबंघी केर न छूटा॥
सोरह लाख कुँवर हैं मोरे। परहिं पतंग जस दीप अँजौरे॥
जहिं दिन चाँचरि चाहौं जोरी। समदौं फागु, लाइ कै होरी॥
जौ निसि बीच, डरै नहिं कोई। देखु तौ काल्हि काह दहुँ होई[]

अबहीं जौहर साजि कै, कीन्ह चहौं उजियार।
होरी खेलौं रन कठिन, कोई समेटै छार ॥ ३ ॥

 

अनु राजा सो जरै निशाना। बादशाह कै सेव न माना॥
बहुतन्ह अस गढ़ कीन्ह सजवना। अंत भई लंका जस रवना॥
जेहि दिन वह छेंकै गढ़ घाटी। होइ अन्न ओही दिन माटी॥
तू जानसि जल चुवै पहारू। सो रोवै मन सँवरि सँघारू॥
सूतह सूत सँवरि गढ़ रोवा। कस होईहि जो होइहि ढोवा॥
सँवरि पहार सो ढारै आँसू। पै तोहि सूझ न आपन नासू॥
आजु काल्हि चाहै गढ टूटा। अबहुँ मानु जौ चाहसि छूटा॥

हैं जो पाँच नग तो पहँ लेइ पाँचो कहँ भेंट।
मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धरि मेट ॥ ४ ॥

 

अनु सरजा को मेटै पारा। बादसाह बड़ अहै तुम्हारा॥
ऐगुन मेटि सकै पुनि सोई। औ जो कीन्ह चहै सो होई॥
नग पाँचौं देइ देउँ भंडारा। इसकंदर सौं बाँचै दारा॥
जौ यह वचन त माथे मोरे। सेवा करौं ठाढ़ कर जोरे॥
पे बिनु सपथ न अस मन माना। सपथ बोल बाचा परवाना॥
खंभ जो गरुअ लीन्ह जग भारू। तेहि क बोल नहिं टरै पहारू॥
नाब जो माँझ भार हुँत गीवा। सरजै कहा मंद वह जीवा॥

सरजै सपथ कीन्ह छल बैनहि मीठै मीठ।
राजा कर मन माना, माना तुरत बसीठ॥ ५ ॥

 

हंस कनक पींजर हुँत आना। औ अमृत नग परस पखाना॥
औ सोनहार सोन के डाँड़ी। सारदूल रूप के काँड़ी॥
सो बसीठ सरजा लेइ आवा। बादसाह कहूँ आनि मेवारा॥
ए जगसूर भूमि उजियारे। बिनती करहिं काग मसि कारे॥
बड़ परताप तोर जग तपा। नवौ खंड तोहि को नहिं छपा॥
कोह छोह दूनौ तोहि पाहाँ। मारसि धूप, जियावसि छाहाँ॥
जो मन सूर चाँद सौं रूसा। गहन गरासा, परा मँजूसा॥

भोर होइ जौ लागै उठहिं रोर कै काग।
मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर अभाग॥६॥

 

करि बिनती अज्ञा अस पाई। "कागहु कै मसि आपुहि लाई॥
पहिलेहि धनुष नवै जब लागै। काग न टिकै, देखि सर भागै॥
अबहू ते सर सौहैं होहीं। देखैं धनुक चलहिं फिर त्योंहीं॥
तिन्ह कागन्ह कै कौन बसीठी। जो मुख फेरी चलहिं देइ पीठी॥
जो सर सौंह होहि संग्रामा। कित बग होहिं सेत वै सामा? ॥
करै न आपन ऊजर केसा। फिरि फिरि कहै परार सँदेसा॥
काग नाग ए दूनौ बाँके। अपने चलत साम वै आँके॥

'कैसेहु जाड़ न मेटा भएउ साम तिन्ह अंग।
सहस बार जौ धोवा तबहुँ न गा वह रंग ॥ ७ ॥

 

"अब सेवा जो आइ जोहारे। अबहुँ देखु सेत की कारे॥
कहौं जाइ जौ साँच, न डरना। जहवाँ सरन नाहिं तहँ, मरना॥
काल्हि आव गढ़ ऊपर भानू। जो रे धनुक, सौंह होइ बानू'॥
पान बसीठ मया करि पावा। लीन्ह पान, राजा पहँ आवा॥
जस हम भेंट कीन्ह गा कोहू। सेवा माँझ प्रीति औ छोहू॥
काल्हि साह गढ़ देखै मावाँ। सेवा करहु जैस मन भावा॥
गुन सौं चले जो बोहित बोझा। जहँवाँ धनुक बान तहँ सोझा॥

भा आयसु अस राजधर, बेगि दै करहु रसोइ।
ऐस सुरस रस मेरवहु, जेहि सौं प्रीति रस होइ ॥ ८ ॥

 

  1. पाठांतर = 'देइकै घरनि जो राखै जीऊ। सो कस आपुहि कहि सक पीऊ॥'