जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४८. पद्मावती नागमती विलाप खंड
(४८) पद्मावती नागमती विलाप खंड
पदमावति बिनु कंत दुहेली। बिनु जल कँवल सूखि जस बेली॥
गाढ़ी प्रीति सो मोसौं लाए। दिल्ली कंत निचिंत होइ छाए॥
सो दिल्ली अस निवहुर देसू। कोइ न बहुरा कहै सँदेसू॥
जो गवनै सो तहाँ कर होई। जो आवै किछु जान न सोई॥
अगम पंथ पिव तहाँ सिधावा। जो रे गएउ सो बहुरि न आवा॥
कुवाँ धार जल जैस बिछोवा। डोल भरे नैनन्ह धनि रोवा॥
लेजुरि भई नाह बिनु तोही। कुवाँ परी, धरि काढ़सि मोहीं॥
नैन डोल भरि ढारे, हिये न आगि बुझाइ।
घरी घरी जिउ आवे, घरी घरी जिउ जाइ ॥ १ ॥
नीर गंभीर कहाँ, हो पिया। तुम्ह बिनु फाटै सरवर हीया॥
गएहु हेराइ, परेहु केहि हाथा?। चलत सरोवर लीन्ह न साथा॥
चरत जो पंखि केलि कै नीरा। नीर घटे कोइ आव न तीरा॥
कँवल सूख, पखुरी बेहरानी। गलि गलि कै मिलि छार हेरानी॥
बिरह रेत कंचन तन लावा। चून चून कै खेह भेरावा॥
कनक जो कन कन होइ बेहराई। पिय कहँ? छार समेटै आई॥
बिरह पवन वह छार सरीरू। छारहि आनि मेरावहु नीरू?॥
अबहुँ जियावहु कै मया, बिथुरी छार समेट।
नइ काया अवतार नव, होई तुम्हारे भेंट ॥ २ ॥
नैन सीप, मोती भरिं आँसू। टुटि टुटि परहिं करहिं तन नासू॥
पदिक पदारथ पदमिनि नारी। पिय बिनु भइ कौड़ी बर बारी॥
सँग लेइ गएउ रतन सब जोती। कंचन कया काँच कै पोती॥
बूड़ति हौं दुख दगध गँभीरा। तुम बिनु, कंत! लाव को तीरा?॥
हिये विरह होइ चढ़ा पहारू। चल जोबन सहि सकैं न भारू॥
जल महँ अगिनि सो जान विछूना। पाहन जरहिं, होहिं सब चूना॥
कौने जतन, कंत! तुम्ह पावौं। आजु आगि हौं जरत बुझावौं॥
कौन खंड हौं, कहाँ बँधे हौ नाह।
हेरे कतहुँ न पावौं, बसै तु हिरदय माहँ॥ ३ ॥
नागमतिहिं 'पिय पिय' रट लागी। निसि दिन तपै मच्छ जिमि आगी॥
भँवर, भुजंग कहाँ, हो पिया। हम ठेघा तुम कान न किया॥
भूलि न जाहि कँबल के पाहाँ। बाँधत बिलँब न लागै नाहा॥
कहाँ सो सूर पास हौं जाउँ। बाँधा भँवर छोरि कै लाऊँ॥
कहाँ जाउ को कहै सँदेसा। ? जाउँँ सो तह जोगिन के भेसा॥
फारि पटोरहि, पहिरौ कथा। जौ मोहिं कोउ देखावै पंथा॥
वह पथ पलकन्ह जाइ बोहारौं। सीस चरन कै तहाँ सिधारौं॥
को गुरु अगुवा होइ, सखि! मोहि लावै पथ माँह।
तन मन धन बलि बलि करौं, जो रे मिलावै नाह ॥ ४ ॥
कै कै कारन रोवै वाला। जनु टूटहिं मोतिन्ह कै माला॥
रोवति भई, न साँस सँभारा। नैन चुवहिं जस ओरति धारा॥
जाकर रतन परै पर हाथ। सो अनाथ किमि जीवै, नाथा! ॥
पाँच रतन ओहि रतनहि लागे। परै पर हाथ। बेगि आउ, पिय रतन सभागे!॥
रही न जोति नैन भए खोने। स्त्रवन न सुनौं, बैन तुम लोने॥
रसनहि रस नहिं एकौ भावा। नासिक और बास नहिं आवा॥
तचि तचि तुम्ह बिनु अँग मोहि लागे। पाँचो दगधि विरह अब जागे॥
विरह सो जारि भसम कै, चहै उड़ावा खेह।
आइ जो धनि पिय मेरवै, करि सो देइ नइ देह ॥ ५ ॥
पिय बिनु व्याकुल बिलपै नागा। बिरहा तपनि साम भए कागा॥
पवन पानि कहँ सीतल पीऊ? । जेहि देखे पलुहै पन जीऊ॥
कहँ सो बास मलयगिरि नाहा। जेहि कल परति देत गलबाहाँ॥
पदमिनि ठगिनि भई कित साथा। जेहि तें रतन परा पर हाथा॥
होइ बसंत आवहु पिय केसरि। देखे फिर फूलै नागेसरि॥
तुम्ह बिनु, नाह! रहै हिय तचा। अब नहिं बिरह गरुड़ सौं बचा॥
अब अँधियार परा, मसि लागी। तुम्ह बिनु कौन बुझावै आगी?॥
नैन, स्त्रवन, रस रसना सबै खीन भए नाह।
कौन सो दिन जेहि भेंटि कै, आइ करै सुख छाँह ॥ ६ ॥