जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३२. रत्‍नसेन बिदाई खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १४४ से – १४९ तक

 

(३२) रत्नसेन विदाई खंड

रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ नहिं मोरी॥
सहस जीभ जौ होहिं, गोसाईं । कहि न जाइ अस्तुति जहँ ताई॥
काँच रहा तुम कंचन कीन्हा । तब भा रतन जोति तुम दीन्हा॥
गंग जो निरमल नीर कुलीना। नार मिले जल होइ मलीना॥
पानि समुद्र मिला होइ सोती । पाप हरा, निरमल भा मोती।
तस ही अहा पलीनी कला । मिला पाइ तुम्ह, भा निरमला।
तुम्ह मन अावा सिंघरपुरी । तुम्ह तैं चढ़ा राज औ कुरी॥

सात समुद तुम राजा, सरि न पाव कोइ खाट । .
सबै आइ सिर नावहिं, जहँ तुम साजा पाट॥१॥

अब विनती एक करौं, गोसाईं। तौ लगि कया जीउ जब ताईं॥
पावा आजु हमार परेवा । पाती यानि दीन्ह मोहि देवा!
राज काज औ भुइँ उपराहीं। सत्र भाइ सन कोई नाहीं॥
आपन आपन करहि सो लीका । एकहि मारि एक चह टीका॥
भए अमावस नखतन्ह राजू । हम्ह के चंद चलावहु आजू॥
राज हमार जहाँ चलि आवा। लिखि पठइनि अब होइ परावा॥
उहाँ नियर दिल्ली सुलतानू । होइ जो भोर उठै जिमि भानू॥

रहह अमर महि गगन लगि तुम महि लेइ हम्ह पाउ॥
सीस हमार तहाँ निति जहाँ तुम्हारा पाउ॥२॥


राजसभा पुनि उठी सवारी। 'अन , बिनती राखिय पति भारी॥
भाइन्ह माहँ होइ जिनि फूटी। घर के भेद लंक अस टूटी॥
विरवा लाइ न सूखै दीजै। पावै पानि दिस्टि सो कीजै॥
पानि रखा तुम दीपक लेसी। पै न रहै पाहन परदेसी॥
जाकर राज जहाँ चलि आवा । उहै देस पै ताकहँ भावा।
हम तुम नैन घालि कै राखे। ऐसि भाख एहि जीभ न भाखें।


(१) कुरी= कुल, कुलीनता। खाट = खटाता है, ठहरता है। सरि न पाव...खाट-बराबरी करने में कोई नहीं ठहर सकता। (२) देवा-हे देव ! उपराहीं = ऊपर । लीका करहि =अपना सिक्का जमाते हैं। लीका = थाप । हम्ह कै चाँद...अाजू = उन नक्षत्रों के बीच चंद्रमा (उनका स्वामी बनाकर हमें भेजिए । भोर- (क) प्रभात, (ख) भला हवा, असावधान । महि लइ... प्राउ = पृथ्वी पर हमारी प्रायु लेकर। (३) राजसभा = रत्नसेन के साथियों की सभा । सवारी- सब । अनु - हाँ, यही बात है। फटी = फट । दीपक लेसी = पद्मावती ऐसा दीपक प्रज्वलित करके । पाहुन = अतिथि।

दिवस देहु सह कुसल सिघावहिं । दोरघ अाइ होइ, पुनि श्रावहिं॥

सबहिं विचार परा अस, भा गवने कर साज ।।
सिद्धि गनेस मनावहि, विधि पुरवहु सब काज॥३॥

बिनय करै पदमावति बारी। 'हौं पिउ ! जैसी कुंद नेवारी॥
मोहि असि कहाँ सो मालति बेली। कदम सेवती चंप चमेली॥
हौ सिंगारहार जस तागा। पहप कली अस हिरदय लागा॥
हौं सो बसंत करौं निति पूजा। कुसुम गुलाल सुदरसन कूजा॥
बकुचन बिनवौं रोस न मोही । सुनु, बकाउ तजि चाहु न जूही।
नागेसर जो है मन तोरे । पूजि न सकै बोल सरि मोरे।
होइ सदबरग लीन्ह मैं सरना । आगे करु जो, कंत! तोहि करना।

केत बारि समुझावै, भँवर न काँट' बेध ।
कहै मरौं पै चितउर, जज्ञ करौं असुमेध॥४॥

गवनचार पदमावति सूना । उठा धसकि जिउ ौ सिर धूना॥
गहबर नैन आए भरि आँसू । छाँड़ब यह सिंघल कबिलासू॥
छाँडिउँ नैहर, चलिउँ बिछोई। एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई।
छाँडिउ अापन सखी सहेली। दुरि गवन, तजि चलिउँ अकेली।
जहाँ न रहन भएउ बिन चाल । होतहि कस न तहाँ भा काल।
नैहर पाइ काह सुख देखा ? जनु होइगा सपने कर लेखा॥
 राखत बारि सो पिता निछोहा । कित वियाहि अस दीन्ह बिछोहा॥

हिये आइ दुख बाजा, जिउ जानह गा छेकि ।
मन तेवान कै रोवै, हर मंदिर कर टेकि॥५॥

पुनि पदमावति सखी बोलाई । सुनि के गवन मिलै सब आई॥
मिलहु, सखी ! हम तहवाँ जाहीं। जहाँ जाइ पुनि पाउब नाहीं।
सात समुद्र पार वह देसा। कित रे मिलन, कित पाव सँदेसा॥
अगम पंथ परदेस सिधारी । न जनों कुसल कि बिथा हमारी॥
पितं न छोह कीन्ह हिय माहाँ । तहँ को हमहिं राख गहि बाहाँ?

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(४) मालति = अर्थात् नागमती। कदम सेवती = (क) चरणसेवा करती है, (ख) कदंब और सफेद गुलाब । हौ सिंगारहार...तागा = हार के बीच पडे हए डोरे के समान तम हो। पहप कली...लागा-कला के हृदय के भीतर इस प्रकार पैठे हुए हो । बकुचन = (क) बद्धांजलि, जुड़ा हुआ हाथ; (ख) गच्छा । बकाउ-बकावलो। नागसेर = (क) नागमती, (ख) एक फूल । बोल = एक झाडो जो अरब, शाम की ओर होतो ओर है। केत बारि= (क) केतकी रूपवाला, (ख) कितना हो वह स्त्री। (५) धसकि उठा = दहल उठा । गहबर - गीले । होतहि...काल = जन्म लेते ही क्यों न मर गई । बाजा = पड़ा । तेवान = सोच, चिता। हर मंदिर = प्रत्येक घर में । (६) बिथा = दुःख । गिउ मेला = गले पड़ा।

हम तुम मिलि एकै संग खेला। अंत बिछोह आनि गिउ मेला॥
तुम्ह अस हित संघती पियारी। जियत जीउ नहिं करौं निनारी॥
कंत चराई का करौं, आयसु जाइ न मेटि।
पुनि हम मिलहिं कि ना मिलहि, लेहु सहेली भेंटि॥ ६ ॥
धनि रोवत रोवहि सब सखी! हम तुम्ह देखि आपु कहँ झँखी॥
तुम्ह ऐसी जौ रहै न पाई। पुनि हम का जो आहि पराई॥
आदि अंत जो पिता हमारा। ओहू न यह दिन हिये बिचारा॥
छोह न कीन्ह निछोही ओहू। का इन्ह दोष लाग एक गोहूँ॥
मकु गोहूँ कर हिया चिराना। पै सो पिता न हिये छोहाना॥
औ हम देखा सखी सरेखा। एहि नैहर पाहुन के लेखा॥
तब तेइ नैहर नाहीं चाहा। जौ ससुरारि होइ अति लाहा॥
चालन कहँ हम अवतरीं, चलन सिखा नहिं जाय।
अब सो चलन चलावै, को राखै गहि पाय? ॥ ७ ॥
तुम बारी पिउ दुहुँ जग राजा। गरब किरोध ओहि पै छाजा॥
सब फर फूल ओहि के साखा। चहै सो तुरै, चाहै राखा॥
आयसु लिहे रहिहु निति हाथा। सेवा करिहु लाइ भुइँ माथा॥
बर पीपर सिर ऊभ जो चीन्हा। पाकरि तिन्हहि छीन कर दीन्हा॥
बौरि जो पौढ़ि सीस भुइँ लावा। बड़ फल सुफल ओहि जग पावा॥
आम जो परि कै नवै तराहीं। फल अमृत भा सब उपराहीं॥
सोइ पियारी पियहि पिरीती। रहै जो आयसु सेवा जीती॥
पत्रा काढ़ि गवन दिन देखहि, कौन दिवस दहुँ चाल।
दिसासूल चक जोगिनि सौंह न चलिए, काल॥ ८ ॥
अदित सूक पच्छिउँ दिसि राहू। बीफै दखिन लंकदिसि दाहू॥
सोम सनीचर पुरुब न चालू। मंगल बुद्ध उत्तर दिसि कालू॥
अवसि चला चाहै जो कोई। ओषद कहौं, रोग नहिं हाई॥
मंगल चलत मेल मुख धनिया। चलत सोम देखै दरपनिया॥
सूकहि चलत मेल मुख राई। बीफै चलै दखिन गुड़ खाई॥
अदित तँबोल मेलि मख मंडै। बायबिरंग सनीचर खंडै॥


(७) झँखी = झीखी, पछताई। का हम्ह दोष...गोहूँ = हम लोगों को एक गेहूँ के कारण क्या ऐसा दोष लगा (मुसलमानों के अनुसार जिस पौधे के फल को खुदा ने मना करने पर भी हौवा ने आदम को खिलाया था वह गेहूं था। इसी निषिद्ध फल के कारण खुदा ने हौवा को शाप दिया और दोनों का बहिश्त से निकाल दिया)।

चिराना = बीच से चिर गया। छोहाना = दया की। सरेखा = चतुर। (८) तूरै = तोड़े। ऊभ = ऊँचा, उठा हआ। बौरि = लता। पौढ़ि = लेटकर। तराहा = नीचे। सेवा जीता = सेवा में सबसे जीती हुई अर्थात बढ़कर रहे। (९) अदित = आदित्यवार। सूक = शुक्र। खंडै = चबाय।

बुद्धहि दही चलहु चरि भोजन। ओषद इहै, और नहिं खोजन॥
अब सुनु चक्र जोगिनी, ते पुनि थिर न रहाहिँ।
तीसौ दिवस चंद्रमा आठौ दिसा फिराहिं॥ ९ ॥
बारह ओनइस चारि सताइस। जोगिनि पच्छिउँ दिसा गनाइस॥
नौ सोरह चौबिस औ एका। दक्खिन पुरुब कोन तेइ टेका॥
तीन इगारह छबिस अठारहु। जोगिनि दक्खिन दिसा बिचारहु॥
दुइ पचीस सत्रह औ दसा। दक्खिन पछिउँ कोन बिच बसा॥
तेइस तीस आठ पंद्रहा। जोगिनि होहि पुरुब सामुहा॥
चौदह बाइस ओनतिस साता। जोगिनि उत्तर दिसि कहँ जाता॥
बीस अठाइस तेरह पाँचा। उत्तर पछिउँ कोन तेइ नाचा॥
एकइस औ छ जोगिनि उत्तर पुरुब के कोन।
यह गनि चक्र जोगिनि बाँचु जौ चह सिध होन॥ १० ॥
परिवा, नवमी पुरुब न भाएँ। दूइज दसमी उतर अदाएँ॥
तीज एकादसि अगनिउ मारै। चौथि, दुवादसि नैऋत वारै॥
पाँचइँ तेरसि दखिन रमेसरी। छठि चौदसि पच्छिउँ परमेसरी॥
सतमी पूनिउँ बायब आछी। अठइँ अमावस ईसन लाछी॥
तिथि नछत्र पुनि बार कहीजै। सुदिन साथ प्रस्थान धरीजै॥
सगुन दुघरिया लगन साधना। भद्रा औ दिकसूल बाँचना॥
चक्र जोगिनी गनै जो जाने। पर बर जोति लच्छि घर आनै॥
सुख समाधि आनंद घर, कीन्ह पयाना पीउ।
थरथराइ तन काँपे, धरकि धरकि उठ जीउ॥ ११ ॥
मेष, सिंह, धन पूरुब बसै। बिरिख, मकर कन्या जम दिसै॥
मिथुन तुला औ कुंभ पछाहाँ। करक, मीन, बिरछिक उतराहाँ॥
गवन करै कहँ उंगरै कोई। सनमुख सोम लाभ बहु होई।
दहिन चंद्रमा सुख सरबदा। बाएँ चंद त दुख आपदा॥
अदित होइ उत्तर कहँ कालू। सोम काल बायब नहिं चालू॥
भौम काल पच्छिउँ, बुध निऋता। गुरु दक्खिन औ सुक अगनइता॥
पूरुब काल सनीचर बसै। पीठि काल देइ चलै त हँसे॥


(१०) दसा = दस। सामुहा = सामने। बाँचु = तू बच। (११) न भाए = नहीं अच्छा है। अदाएँ = बाम, बुरा। अगनिउ = आग्नेय दिसा। मारै = घातक है। बारै = बचावे। रमेसरी = लक्ष्मी। परमेसरी = देवी। बायब = बायब्य। ईसन = ईशानकोण। लाछी = लक्ष्मी। सगुन दूघरिया = दुघरिया मुहूर्त जो हीरा के अनुसार निकाला जाता है और जिसमें दिन का विचार नहीं किया जाता, रात दिन को दो दो घड़ियों में विभक्त करके राशि के अनुसार शुभाशुभ का विचार किया जाता है? (१३) बिरछिक = वृश्चिक राशि। उगरै निकले।

अगनइता = आग्नेय दिशा।

धन नक्षत्र औ चंद्रमा औ तारा बल सोइ।
समय एक दिन गवनै लछमी केतिक होइ॥ १२ ॥
पहिले चाँद पुरुब दिसि तारा। दूजे बसै इसान बिचारा॥
तीजे उतर औ चौथे बायब। पचएँ पच्छिउँ दिसा गनाइब॥
छठएँ नैऋत, दक्खिन सतएँ। बसै जाइ अगनिउँ सो अठएँ॥
नवएँ चंद सो पृथिवी बासा। दसएँ चंद जो रहै अकासा॥
ग्यारहें चंद पुरुब फिरि आई। बहु कलेस सौं दिवस बिहाई॥.
असुनी, भरनि, रेवती भली। मृगसिर, मूल, पुनरबसु बली॥
पुष्य, ज्येष्ठा, हस्त, अनुराधा। जो सुख चाहै पूजै साधा॥
तिथि, नछत्र औ बार एक, अस्ट सात खँड भाग।
आदि अंत बुध सो एहि, दुख सुख अंकम लाग॥ १३ ॥
परिवा, छट्टि, एकादसि नंदा। दुइज, सत्तमी, द्वादसि मंदा॥
तीज, अस्टमी, तेरसि जया। चौथि चतुरदसि नवमी खया॥
पूरन पूनिउँ, दसमी, पाँचे। सुकै नंदै, बुध भये नाचै॥
अदित सौं हस्त नखत सिधि लहिए। बीफै पुष्य सत्रवन ससि कहिए॥
भरनि रेवती बुध अनुराधा। भए अमावस रोहिनि साधा॥
राहु चंद्र भू संपति आये। चंद गहन तब लाग सजाये॥
सनि रिक्ता कुज अज्ञा लीजै। सिद्धि जोग गुरु परिवा कीजै॥
छठे नछत्र होइ रवि, ओहि अमावस होइ।
बीचहि परिवा जौ मिलै सुरुज गहन तब होइ॥ १४ ॥
'चलहु चलहु’ भा पिउ कर चालू। घरी न देख लेत जिउ कालू॥
समदि लोग पुनि चढ़ी बिवाना। जेहि दिन डरी सो आइ तुलाना॥
रोवहिं मात पिता औ भाई। कोउ न टेक जौ कंत चलाई॥
रोवहिं सब नैहर सिंघला॥ लेइ बजाइ कै राजा चला॥
तजा राज रावन का केहू? छाँड़ा लंक विभीषन लेहू॥
भरी सखी सब भेंटत फेरा। अंत कंत सौं भयेउ गुरेरा॥
कोउ काहू कर नाहिं निआना। मया मोह बाँधा अरुझाना॥
कंचन कया सो रानी, रहा न तोला माँसु।
कंत कसौटी घालि कै, चूरा गढ़ै कि हाँसु॥ १५ ॥


(१४) नंदा = आनंददायिनी, शुभ। मंदा = अशुभ। जया = विजय देनेवाली। खया = क्षय करनेवाली। सनि रिकता = शनि रिक्ता, शनिवार रिक्ता तिथि या खाली दिन। (१५) समदि = बिदा के समय मिलकर (समदन बिदाई, जैसे पितृ-समदन-अमावस्या)। आइ तुलाना = आ पहुँचा। टेक = पकड़ता है। का केहु = और कोई क्या है? गुरेरा = देखा देखी, साक्षात्कार। निआना = निदान, अंत में। चूरा = कड़ा। हाँसु = हँसली नाम का गले का गहना।

जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ। चला साथ गुन अवगुन दोऊ॥
औ सँग चला गवन सब साजा। उहै देइ अस पारे राजा॥
डोली सहस चली सँग चेरी। सब पदमिनी सिंघल केरी॥
भले पटोर जराव सँवारे। लाख चारि एक भरे पेटारे॥
रतन पदारथ मानिक मोती। काढ़ि भँडार दीन्ह रथ जोती॥
परखि सो रतन पारखिन्ह कहा। एक एक दीप एक एक लहा॥
सहसन पाँति तुरय कै चली। औ सौ पाँति हस्ति सिंघली॥

लिखनी लागि जौ लेखै, कहै न पार जोरि।
अरब, खरब दस, नील, संख औ अरबुद पदुम करोरि॥१६॥

देखि दरब राजा गरवाना। दिस्टि माहँ कोइ और न आना॥
जो मैं होहुँ समुद के पारा। कों है मोहि सरिस संसारा॥
दरब तें गरब, लोभ विष मूरी। दत्त न रहै, सत्त होइ दूरी॥
दत्त सत्त हैं दूनौ भाई। दत्त न रहै, सत्त पै जाई॥
जहाँ लोभ तहँ पाप सँघाती। सँचि कै मरै आति के थाती॥
सिद्ध जो दरब आगि के थापा। कोई जार, जारि कोई तापा॥
काहू चाँद, काहु भा राहू। काहू अमृत, विष भा काहू॥

तस भुलान मन राजा, लोभ पाप अँधकूप।
आइ समुद्र ठाढ़ भां, कै दानी कर रूप॥१७॥


 

एक एक दीप लहा = एक एक रत्न का मोल एक एक द्वीप था। (१७) दत्त = दान। सत्त = सत्य। सँचि कै = संचित करके। सिद्धि जो थापा = जो सिद्ध हैं वे द्रव्य को अग्नि ठहराते हैं। थापा = थापते हैं, ठहराते हैं। दानी = दान लेनेवाला, भिक्षुक। क॑ दानी कर रूप = मंगन का रूप धरकर।