जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४५. बादशाह भोज खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २११ से – २१५ तक

 

(४५) बादशाह भोज खंड

छागर मेढ़ा बड़ औ छोटे। धरि धरि माने जहँ लगि मोटे।
हरिन, रोझ, लगना बन बसे। चीतर गोइन, झाँख औ ससे॥
तीतर, बटई, लवा न बाँचे। सारस, कूज, पुछार जो नाचे॥
धरे परेवा पंडुक हेरी। खेहा, गुड़रू और बगेरी॥
हारिल, चरग, चाह बँदि परे। बन कुक्कुट, जल कुक्कुट धरे॥
चकई चकवा और पिदारे। नकटा, लेदी, सोन सलारे॥
मोट बड़े सो टोइ टोइ धरे। ऊबर दूबर खुरुक न, चरे॥

कंठ परी जब छूरी, रकत ढुरा होइ आँसु।
कित आपन तन पोखा, भखा परावा माँसु ? ॥ १ ॥

 

धरे माछ पढ़िना औ रोह। धीमर मारत करै न छोहू॥
सिधरी, सौरि, धरी जल गाढ़े। टेंगर टोइ टोइ सब काढ़े॥
सींगी भाकुर बिनि सब धरी। पथरी बहुत बाँब बनगरी॥
मारे चरख औ चाल्ह पियासी। जल तजि कहाँ जाहिं जलवासी?॥
मन होइ मीन चरा सुख चारा। परा जाल को दुख निरुवारा?॥
माँटी खाय मच्छ नहि बाँचे। बाँचहिं काह भोग सूख राँचे?॥
मारै कहँ सब अस कै पाले। को उबार तेहि सरवर घाले?॥

एहि दुख काँटहि सारि कै, रकत न राखा देह।
पंथ भुलाइ आइ जल बाझे, झूठे जगत सनेह ॥ २ ॥

 

देखत गोहूँ कर हिय फाटा। आने तहाँ होव जहँ आटा॥
तब पीसे जब पहिले धोए। कपरछानि माँड़े, भल पोए॥
चढ़ी कराही, पावहिं पूरी। मुखमहँ परत होहि सो चूरी॥
जानहुँ तपत सेत औ उजरी। नैनू चाहि अधिक वै कोंवरी॥
मुख मेलत खन जाहिं बिलाई। सहस सवाद सो पाव जो खाई॥
लुचुई पोइ पोइ घिउ मेई। पाछे छानि खाँड़ रस मेई॥
पूरि सोहारी कर घिउ चूआ। छुअत बिलाइ, डरन्ह को छूआ?॥

कहि न जाहिं मिठाई, कहत मीठ सुठि बात।
खात आघात न कोई, हियरा जात सेरात॥ ३ ॥

 

चढ़े जो चाउर वरनि न जाहीं। बरन बरन सब सुगँध बसाहीं।
रायभोग औ काजर रानी। झिनवा, रुदवा, दाउदखानी॥
बासमती, कजरी, रतनारी। मधुकर, ढेला, झीनासारी॥
घिउकाँदौ औ कुँवरबिलासू। रामबास आवै अति बासू॥
लौंगचूर लाची अति बाँके। सोनखरीका कपुरा पाके॥
कोरहन, बड़हन, जड़हन मिला। औ संसारतिलक खँड़बिला॥
धनिया देवल और अजाना। कहँ लगि बरनौं जावत धाना॥

सोधे सहस बरन, अस, सुगँध बासना छूटि।
मधुकर पुहुप जो बन रहे, आइ परे सब टूटि॥ ४ ॥

 

निरमल माँसु अनूप बघारा। तेहि के अब बरनौं परकारा॥
कटुवा, बटुवा मिला सुबासू। सीझा अनबन भाँति गरासू॥
बहुतै सोधे घिउ महँ तरे। कस्तूरी केसर सौं भरे॥
सेंधा लोन परा सब हाँड़ी। काटी कंदमूर कै आँड़ी॥
सोआ सौंफ उतारे घना। तिन्ह तें अधिक आव बासना॥
पानि उतारहिं ताकहिं ताका। घीउ परेह माहि सब पाका॥
औ लीन्हें माँसुन्ह के खंडा। लागे चुरै सो बड़ बड़ हंडा॥

छागर बहुत समूची, धरी सरागन्ह भूँजि।
जो अस जैवन जैंवे, उठै सिंघ अस गूँजि ॥ ५ ॥

 

भूंजि समोसा घिउ महँ काढ़े। लौंग मरिच जिन्ह भीतर ठाढ़े॥
ओर माँसु जो अनबन बाँटा। भए फर फूल, आम औ भाँटा॥
नारँग, दारिउँ, तुरँज, जँभीरा। औ हिंदवाना, बालमखीरा॥
कटहर बढ़हर तेउ सँवारे। नरियर, दाख, खजूर छोहारे॥
औ जावत जो खजहजा होहीं। जो जेहि बरन सवाद सो ओहीं॥
सिरका भेइ काढ़ि जनु आने। कवँल जो कीन्ह रहे बिगसाने॥
कीन्ह मसेवरा, सीझि रसोई। जो किछु सबै माँसु सौं होई॥

बारी आइ पुकारेसि, लीन्ह सबै करि छूँछ।
सब रस लीन्ह रसोई, को अब मोकहँ पूँछ॥ ६ ॥

 

काटे माछ मेलि दधि धोए। औ पखारि बहु बार निचोए॥
करुए तेल कीन्ह बसवारू। मेथी कर तब दीन्ह बघारू॥
जुगुति जुगुति सब माँछ बघारे। आम चोरि तिन्ह माँझ उतारे॥
ओ परेह तिन्ह चुटपुट राखा। सो रस सुरस पाव जो चाखा॥
भाँति भाँति सब खाँड़र तरे। अंडा तरि तरि बेहर धरे॥
घीउ टाँक महँ सोंध सेरावा। लौंग मरिच तेहि ऊपर नावा॥
कुहुँकुहुँ परा कपूर बसावा। नख तें बघारि कीन्ह अरदावा॥

घिरित परेह रहा तस, हाथ पहुँच लगि बूड़।
बिरिध खाइ नव जोबन, सौ तिरिया सौं ऊड़ ॥७॥

 

भाँति भाँति सीझीं तरकारी। कहउ भाँति कोहँड़न कै फारी॥
बने आनि लौआ परबती। रयता कीन्ह काटि रति रती॥
चूक लाइ कै रोधे भाँटा। अरुई कहँ भल अरहन बाटा॥

तोरई चिचिड़ा, डेंड़सी तरी। जीर धुँगार झार सब भरी॥
परवर कुँदरू में भूँजे ठाढ़े। बहुतै घिउ महँ चुरमुर काढ़े॥
करुई काढ़ि करैला काटे। आदी मेलि तरे कै खाटे॥
रींधे ठाढ़ सेब के फारा। छौंकि साग पुनि सोंध उतारा॥

सीझीं , सब तरकारी, भा जेंवन सब ऊँच।
दहुँ का रुचि साह कह, केहि पर दिस्टि पहुँच॥ ८ ॥

 

घिउ कराह भरि, बेगर धरा। भाँति भाँति के पाकहिं बरा॥
एक त आदी मरिच सौं पीठा। दूसर दूध खाँड़ सौं मीठा॥
भई मुँगौछी मरिचैं परी। कीन्ह मुँगरी औ बहु बरी॥
भई मेथौरी, सिरका परा। सोंठि नाइ कै खरसा धरा॥
माठा महि महियाउर नावा। भीज बरा नैनू जनु खावा॥
खंडै कीन्ह आमचुर परा। लौंग लायची सौं खड़बरा॥
कढ़ी सँवारी और फुलौरी। औ खड़वानी लाइ बरौरी॥

रिकवच कीन्हि नाइ कै, हींग मरिच औ आद।
एक खंड जौ खाई तौ, पावै सहस सवाद॥९॥

 

तहरी पाकि, लौंग औ गरी। परी चिरौंजी औ खरहरी॥
घिउ मह भूँजि पकाए पेठा। औ अमृत गरंब भरे मेटा॥
चुंबक लोहँड़ा औटा खोवा। भा हलुवा घिउ गरत निचोवा॥
सिखरन सोंध छनाई गाढ़ी। जामी दूध दही कै साढ़ी॥
दूध दही कै मुरडा बाँधे। और सँधाने अनबन साधे॥
भइ जो मिठाई कही न जाई। मुख मेलत खन जाइ बिलाई॥
मोतीचूर, छाल औ ठोरी। माठ, पिराकैं और बुँदौरी॥

फेरी पापर भूँजे, भा अनेक परकार।
भइ जाउरि पछियाउरि, सीझी सब जेवनार॥ १० ॥

 

जत परकार रसोइ बखानी। तत सब भई पानि सौं सानी॥
पानी मूल परिख जौ कोई। पानी बिना सवाद न होई॥
अमृत पान सह अमृत आना। पानी सौं घट रहै पराना॥
पानी दूध औ पानी घीऊ। पानि घटैं, घट रहै न जीऊ॥
पानी माँझ समानी जोती। पानिहि उपजै मानिक मोती॥
पानिहि सौं सब निरमल कला। पानी छुए होइ निरमला॥
सो पानी मन गरब न करई। सीस नाइ खाले पग धरई॥

मुहमद नीर गंभीर जो भरे सो मिले समुंद।
भरै ते भारी होइ रहे, छूछें बाजहिं दुंद ॥ ११ ॥