जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२५. रत्नसेन सूली खंड
(२५) रत्नसेन सूली खंड
बाँधि तपा आने जहँ सूरी। जुरे आइ सब सिंघलपूरी॥
पहिले गुरुहि देइ कहँ आना। देखि रूप सब कोइ पछिताना॥
लोग कहहिं यह होइ न जोगी। राजकुँवर कोइ अहै बियोगी॥
काहुहि लागि भएउ है तपा। हिये सो माल, करहु मुख जपा॥
जस मारै कहँ बाजा तूरू। सूरी देखि हँसा मंसूरू॥
चमके दसन भएउ उजियारा:। जो जहँ तहाँ बीजु अस मारा॥
जोगी केर करहु पै खोजू। मकु यह होइ न राजा भोजू॥
सब पूछहिं, कहु जोगी! जाति जनम औ नाँव।
जहाँ ठाँव रोवै कर हँसा सो कहु केहि भाव॥ १ ॥
का पूछहु अब जाति हमारी। हम जोगी औ तपा भिखारी॥
जोगिहि कौन जाति, हो राजा। गारि न कोह, मारि नहिं लाजा॥
निजल भिखारि लाज जेइ खोई। तेहि के खोज परै जिनि कोई॥
जाकर जीउ मरै पर बसा। सूरी देखि सो कस नहिं हँसा? ॥
आजु नेह सौं होइ निबेरा। आजु पुहुमि तजि गगन बसेरा॥
आजु कया पीजर बँदि टूटा। आजुहिं प्रान परेवा छूटा॥
आजु नेह सौं होइ निनारा। आजु प्रेम सँग चला पियारा॥
आजु अवधि सिर पहुँची, किए जाहु मुख रात।
बेगि होहु मोहिं मारहु, जिनि चालहु यह बात॥ २ ॥
कहेन्हि सँवरु जेहि चाहसि सँवरा। हम तोहि करहिं केत कर भँवरा॥
कहेसि ओहि सँवरौं हरि फेरा। मुए जियत आहौं जेहि केरा॥
औ सँवरौं पदमावति रामा। यह जिउ नेवछावरि जेहि नामा॥
रकत क बूंद कया जस अहही। 'पदमावति पदमावति' कहही॥
रहै त बूँद बूँद महँ टाऊँ। परै त सोई लेइ लेइ नाऊँ॥
रोंव रोंव तन तासौं ओधा। सूतहि सूत वेधि जिउ सोधा॥
हाड़हि हाड़ सबद सो होई। नस नस माँह उठै धुनि सोई॥
(१) करहु मुख = हाथ से भी और मुख से भी। जस = जैसे ही। (२) अवधि सिर पहुँची = अवधि किनारे पहुँची अर्थात् पूरी हुई। बेगि होहु = जल्दी करो। (३) करहिं...भौंरा = हम तुम्हें अब सूली से ऐसा ही छेदेंगे जैसा केतकी के काँटे भौंरे का शरीर छेदते हैं। हरि = प्रत्येक। आहौं = हूँ| ओधा = लगा, उलझा (सं० आबद्ध); जैसे, सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे।
निज निज काज, पाय सिख ओंधे॥ — तुलसी। गूद = गूदा। हान = हानि। जागा विरह तहाँ का, गूद माँसु के हान? ।
हौं पुनि साँचा होइ रहा ओहि के रूप समान॥ ३ ॥
जोगिहि जबहिं गाढ़ अस परा। महादेव कर शासन टरा॥
वै हँसि पारबती सौं कहा। जानहुँ सूर गहन अस गहा॥
आजु चढ़े गढ़ ऊपर तपा। राजै गहा सूर तब छपा॥
जग देखै गा कौतुक आजू। कीन्ह तपा मारै कहँ साजू॥
पारबती सुनि पाँयन्ह परी। चलि, महेस! देखैं एहि घरी॥
भेस भाँट भाँटिनि कर कीन्हा। औ हनुवंत वीर सँग लीन्हा॥
आए गुपुत होइ देखन लागी। वह मूरति कस सती सभागी॥
कटक असूझ देखि कै, राजा गरब करेइ।
दैउ क दसा न देखै, दहुँ का कहँ जय देइ॥ ४ ॥
आसन लेइ रहा होइ तपा। ‘पदमावति पदमावति' जपा॥
मन समाधि तासौं धुनि लागी। जेहि दरसन कारन बैरागी॥
रहा समाइ रूप औ नाऊँ। और न सूझ बार जहँ जाऊँ॥
औ महेस कहँ करौं अदेसू। जेइ यह पंथ दीन्ह उपदेसू॥
पारबती पुनि सत्य सराहा। औ फिर मुख महेस कर चाहा॥
हिय महेस जौं, कहै महेसी। कित सिर नावहिं ए परदेसी? ॥
मरतहु लीन्ह तुम्हारहि नाऊँ। तुम्ह चित किए रहे एहि ठाऊँ॥
मारत ही परदेसी, राखि लेहु एहि बीर।
कोइ काहु कर नाहीं जो होइ चलै न तीर॥ ५ ॥
लेइ सँदेस सुअटा गा तहाँ। सूरी देहिं रतन कहँ जहाँ॥
देखि रतन हीरामन रोवा। राजा जिउ लोगन्ह हठि खोवा॥
देखि रुदन हीरामन केरा। रोवहिं सब, राजा मुख हेरा॥
माँगहिं सब बिधिना सौं रोई। कै उपकार छोड़ावै कोई॥
कहि सँदेस सब बिपति सुनाई। बिकल बहुत, किछु कहा न जाई॥
काढ़ि प्रान बैठी लेई हाथा। मरै तौ मरौं, जिऔं एक साथा॥
सुनि सँदेस राजा तब हँसा। प्रान प्रान घट घट महँ बसा॥
सूअटा भाँट दसौंधी भए जिउ पर एक ठाँव।
चलि सो जाइ अब देख तहँ जहँ बैठा रह राव॥ ६ ॥
समान = समाया हुआ। (४) गाढ़ = संकट। देखन लागी = देखने के लिये। (५) करौं अदेसू = आदेश करता हूँ, प्रणाम करता हूं। चाहा = ताका। महेसी = पार्वती। हिय महेस...परदेसी = पार्वती कहती हैं कि जब महेश इनके हृदय में हैं परदेसी क्यों किसी सामने तीर झुकाएँ। तीर होइ चलै = साथ दे, पास जाकर सहायता करे। (६) हेरा = हेर, ताकते हैं ।
दसौंधी भाँटों की एक जाति। जिउ पर भए = प्राण देने पर उद्यत हुए। राजा रहा दिस्टि के औंधी। रहि न सका तब भाँट दसौंधी॥
कहेसि मेलि के हाथ कटारी। पुरुष न आछै बैठ पेटारी॥
कान्ह कोपि जब मारा कंसू। तब जाना पूरुष कै बंसू॥
गंध्रबसेन जहाँ रिस बाढ़ा। जाइ भाँट आगे भा ठाढ़ा॥
बोला गंध्रबसेन रिसाई। कस जोगी कस भाँट असाई॥
ठाढ़ देख सब राजा राऊ। बाएँ हाथ दीन्ह बरम्हाऊ॥
जोगी पानि, आगि तू राजा। आगिहि पानि जूझ नहिं छाजा॥
आगि बुझाइ पानि सौं, जूझ न, राजा! बूझु।
लीन्हें खप्पर बार तोहिं, भिक्षा देहि, न जूझु॥ ७ ॥
जोगि न होई, आहि सो भोजू। जानहु भेद करहु सो खोजू॥
भारत ओइ जूझ जौ ओधा। होंहि सहाय आइ सब जोधा॥
महादेव रनघंट बजावा। सुनि कै सबद बरम्हा चलि धावा॥
फनपति फन पतार सौं काढ़ा। अस्टौ कुरी नाग भए ठाढ़ा॥
छप्पन कोटि बसंदर बरा। सवा लाख परबत फरहरा॥
चढ़े अत्र लै कृस्न मुरारी। इंद्रलोक सब लाग गोहारी॥
तैंतिस कोटि देवता साजा। औ छानबे मेघदल गाजा॥
नवौ नाथ चलि आवहिं, औ चौरासी सिद्ध।
आजु महाभारत चले, गगन गरुड़ औ गिद्ध॥ ८ ॥
भइ अज्ञा को भाँट अभाऊ। बाएँ हाथ देइ बरम्हाऊ॥
को जोगी अस नगरी मोरी। जो देइ सेंधि चढैं गढ़ चोरी॥
इंद्र डरै निति नावै माथा। जानत कृस्न सेस जेइ नाथा॥
बरम्हा डरै चतुरमुख जासू। औ पातार बलि बासू॥
मही हलै औ चलै सुमेरू। चाँद सूर औ गगन कुबेरू॥
मेघ डरै बिजुरी जेहि दीठी। कूरुम डरै धरति जेहि पीठी॥
चहौं आजु माँगौं धरि केसा। और को कीट पतंग नरेसा? ॥
बोला भाँट, नरेस सुनु! गरब न छाजा जीउ।
कुंभकरन कै खोपरी, बूड़त बाँचा भीउँ॥ ९ ॥
रावन गरब बिरोधा रामू। ओही गरब भएउ संग्रामू॥
तस रावन अस को बरिबंडा। जेहि दस सीस,बीस, भुजदंडा॥
(७) राजा = गंधर्वसेन। औंधी = नीची। असाई = अताई (?) बेढंगा। (८) भारत = महाभारत का सा युद्ध। ओधा = ठाना, नाँधा। अस्टी कुरी = अष्टकुल नाग। बसंदर = वैश्वानर, अग्नि। फरहरा = फड़क उठे। अत्र = अस्त्र। लाग गोहारी = सहायता के लिये दौड़ा। नवौ नाथ = गोरखपंथियों के नौ नाथ। चौरासी सिद्ध = बौद्ध वज्रयान योगियों के चौरासी सिद्ध। (९) अभाऊ = आदर भाव न जाननेवाला, अशिष्ट, बेअदब। बरम्हाऊ = बरम्हव, आशीर्वाद। बासू = बासुकि। माँगौं धरि केसा = बाल पकड़कर
बुला मँगाऊँ। (१०) बरिबंड = बलवंत, बली। सूरूज जेहिकै तपै रसोई। नितिहिं बसंदर धोती धोई॥
सूक सुमंता, ससि मसिआरा। पौन करै निति बार बोहारा॥
जमहिं लाइकै पाटी बाँधा। रहा न दूसर सपने काँधा॥
जो अस वज्र टरै नहिं टारा। सोउ मुवा दुइ तपसी मारा॥
नाती पूत कोटि दस अहा। रोवनहार न कोई रहा॥
ओछ जानि कै काहुहि, जिनि कोई गरब करेइ।
ओछे पर जो दैउ है, जीति पत्र तेइ देइ॥ १० ॥
अब जो भाँट उहाँ हुत आगे। बिनै उठा राजहि रिस लागे॥
भाँट अहै संकर कै कला। राजा सहुँ राखै अरगला॥
भाँट मीचु पै आपु न दीसा। ता कहँ कौन करै अस रीसा? ॥
भएउ रजायसु गंध्रबसेनी। काहे मीचु के चढै नसेनी? ॥
कहा आनि बानी अस पढै? । करसि न बुद्धि भेंट जेहि करे॥
जाति भाँट कित औगुन लावसि। बाएँ हाथ राज बरम्हावसि॥
भाँट नाँव का मारौ जीवा? । अबहूँ बोल नाइ कै गीवा॥
तू रे भाँट, ए जोगी, तोहि एहि काहे क संग? ।
काह छरे अस पावा, काह भएउ चितभंग॥ ११ ॥
जौं सत पूछसि गँध्रब राजा। सत पै कहौं परै नहिं गाजा॥
भाँटहि काह मीचु सौं डरना। हाथ कटार, पेट हनि मरना॥
जंबूदीप चित्तउर देसा। चित्नसेन बड़ तहाँ नरेसा॥
रतनसेन यह ताकर बेटा। कुल चौहान जाइ नहिं मेटा॥
खाँड़ै अचल सुमेरु पहारा॥ टरै न जौं लागै संसारा॥
दान सुमेरु देत नहिं खाँगा। जो ओहि माँग न औरहि माँगा॥
दाहिन हाथ उठाएउँ ताही। और को अस बरम्हावौं जाही? ॥
नाँव महापातर मोहिं, तेहिक भिखारी ढीठ।
जौं खरि बात कहे रिस लागै, कहै बसीठ॥ १२ ॥
ततखन पुनि महेस मन लाजा। भाँट करा होइ बिनवा राजा॥
गंध्रबसेन! तू राजा महा। हौं महेस मूरति, सुनु कहा॥
तपै = पकाता (था)। सूक = शुक्र। सुमंता = मंत्री। मसिआरा = मसियार, मशालची। बार = द्वार। बोहारा करै = झाड़ देता था। सपने काँधा = जिसे उसने स्वप्न में कुछ समझा। काँधा = माना, स्वीकार किया। ओछ = छोटा। (११) सहुँ = सामने। अरगला = (सं ० अर्गल) रोक, टेक, अड़। नसेनी = सीढ़ी। भेंट जेहि कढ़ै = जिससे इनाम निकले। बरम्हावसि = आशीर्वाद देता है। काह छरे अस पावा = ऐसा छल करने से तू क्या पाता है? चितभंग = विक्षेप। (१२) परे नहिं गाजा = चाहे बज्र ही न पड़े। महापातर = महापात्र (पहले भाँटों की पदवी होती थी)। (१३) भाँट करा =
भाँट के समान, भाँट की कला धारण करके। जो पै बात होइ भलि आगे। कहा चहिय, का भा रिस लागे॥
राजकुँवर यह, होहि न जोगी। सुनि पदमावति भएउ बियोगी॥
जंबूदीप राजघर बेटा। जो है लिखा सो जाइ न मेटा॥
तुम्हरहि सुआ जाइ ओहि आना। औ जेहि कर, बर कै तेइ माना॥
पुनि यह बात सुनी सिव लोका। करसि बियाह धरम है तोका॥
माँगै भीख खपर लेइ, मुए न छाँड़ै बार।
बूझहु, कनक कचोरी भीखि देहु, नहिं मार॥ १३ ॥
ओहट होहु रे भाँट भिखारी। का तू मोहिं देहि असि गारी।
को मोहिं जोग जगत होइ पारा। जा सहुँ हेरौं जाइ पतारा॥
जोगी जती आव जो कोई। सुनतहिं त्रासमान भा सोई॥
भीखि लेहिं फिरि माँगहिं आगे। ए सब रैनि रहे गढ़ लागे॥
जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा। नाहिं बेधि सूरी जिउ लीन्हा॥
जेहि अस साध होइ जिउ खोवा। सो पतंग दीपक तस रोवा॥
सुर, नर, मुनि सब गंध्रब देवा। तेहि को गनै? करहिं निति सेवा॥
मोसौं को सरवरि करै? सुनु, रे झूठे भाँट।
छार होइ जौ चालौं, निज हस्तिन कर ठाट॥ १४ ॥
जोगी घिरि मेले सब पाछे। उरए माल आए रन काछे॥
मंत्रिन्ह कहा, सुनहु हो राजा। देखहु अब जोगिन्ह कर काजा॥
हम जो कहा तुम्ह करहु न जूझू। होत आव दर जगत असूझू॥
खिन इक महँ झुरमुट होइ बीता। दर महँ चढ़ि जो रहै सो जीता॥
कै धीरज राजा तब कोपा। अंगद आइ पाँव रन रोपा॥
हस्ति पाँच जो अगमन धाए । तिन्ह अंगद धरि सूँड़ फिराए॥
दीन्ह उड़ाइ सरग कहँ गए । लौटि न फिरे, तहँहिं के भए॥
देखत रहे अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न आय।
जोगिन्ह कर अस जूझब, भूमि न लागत पाय॥ १५ ॥
कहहिं बात, जोगी अब आए। खिनक माहँ चाहत हैं भाए॥
जौ लहि धावहिं अस कै खेलहु। हस्तिन केर जूह सब पेलहु॥
जस गज पेलि होहिं रन आगे। तस बगमेल करहु सँग लागे॥
(१४) ओहट = ओट, हट परे। (१५) मेले = जुटे। उरए = उत्साह या घाव से भरे (उराव = उत्साह, हौसला)। माल = मल्ल, पहलवान| दर = दल। झुरमुट = अँधेरा। होइ बीता = हुआ चाहता है। चढ़ि जोर है = जो अग्रसर होकर बढ़ता है। अगमन = आगे। अचंभौ = अद्भुत व्यापार। (१६) अस कै = इस प्रकार। जूह = यूथ। जस = जैसे ही। तस = तैसे ही। बगमेल =
सवारों की पंक्ति। अगसरी = अग्रसर, आगे। हस्ति क जूह आय अगसारी। हनुवँत तबै लँगूर पसारी॥
जैसे सेन बीच रन आई। सबै लपेटि लंगूर चलाई॥
बहुतक टूटि भए नौ खंडा। बहुतक जाइ परे बरम्हंडा॥
बहुतक भँवत सोह अँतरीखा। रहे जो लाख भए ते लीखा॥
बहुतक परे समुद महँ, परत न पावा खोज।
जहाँ गरब तहँ पीरा, जहाँ हँसी तहँ रोज॥ १६ ॥
पुनि आगे का देखै राजा। ईसर केर घंट रन बाजा॥
सुना संख जो बिस्नू पूरा। आगे हनुवँत केर लँगूरा॥
लीन्हे फिरहिं लोक बरम्हंडा। सरग पतार लाइ मृदमंडा॥
बलि, बासुकि औ इंद्र नरिंदू। राहु,नखत, सूरुज औ चंदू॥
जावत दानव राच्छस पुरे। आठौं बज्र आइ रन जुरे॥
जेहि कर गरब करत हुत राजा। सो सब फिरि बैरी हुइ साजा॥
जहवाँ महादेव रन खड़ा। सीस नाइ नृप पायँन्ह परा॥
केहि कारन रिस कीजिये? हौं सेवक औ चेर॥
जेहि चाहिए तेहि दीजिय, बारि गोसाई केर॥ १७ ॥
पुनि महेस अब कीन्ह बसीटी। पहिले करुइ, सोइ अब मीठी॥
तूं गंध्रब राजा जग पूजा। गुन चौदह,सिख देइ को दूजा॥
हीरामन जो तुम्हार परेवा। गा चितउर औ कीन्हेसि सेवा॥
तेहि बोलाइ पूछहु वह देसू। दहुँ जोगी, की तहाँ नरेसू॥
हमरे कहत न जौं तुम्ह मानहु। जो वह कहै सोइ परवानहु॥
जहाँ बारि, बर आवा ओका। करहिं बियाह धरम बड़ ताका॥
जो पहिले मन मानि न काँधै। परख रतन गाँठि तब बाँधे॥
रतन छपाए ना छपै, पारिख होइ सो परीख।
घालि कसौटी दीजिए कनक कचोरी भीख॥ १८ ॥
राजै सब हीरामन सुना। गएउ रोस, हिरदय महँ गुना॥
अज्ञा भई बोलावहु सोई। पंडित हुँते धोख नहिं होई॥
एकहि कहत सहस्त्रक धाए। हीरामनहिं लेइ आए॥
खोला आगे आनि मँजूसा। मिला निकसि बहु दिनकर रूसा॥
अस्तुति करत मिला बहु भाँँती। राजै सुना हिये भइ साँती॥
जानहुँ जरत आगि जल परा। होइ फुलवार रहस हिय भरा॥
भँवत = चक्कर खाते हए। अँतरीख = अंतरिक्ष, आकाश। लीखा = लिख्या, एक मान जो पोस्ते के दाने के बराबर माना जाता है। खोज = पता, निशान। रोज = रोदन, रोना। (१७) ईसर = महादेव। मृतमंडा = धूल से छा गया। फिरि = बिमुख होकर। बारि = कन्या। (१८) बसीठी = दूत कर्म। पहिले करुइ = जो पहले कड़वी थी। परवानहु प्रमाण मानो। काँधै = अँगीकार करता है, स्वीकार करता है। परीख = परखता है। (१९) रूसा = रुष्ट।
साँती = शांति। फुलवार = प्रफुल्ल। रहस = आनंद। राजै पुनि पूछी हँसि बाता। कस तन पियर,भएउ मुख राता॥
चतुर बेद तुम पंडित, पढ़ै शास्त्र औ बेद।
कहा चढ़ाएहु जोगिन्ह, आइ कीन्ह गढ़ भेद॥ १९ ॥
हीरामन रसना रस खोला। दै असीस, कह अस्तुति बोला॥
इंद्रराज राजेसर महा। सुनि होइ रिस, कछु जाइ न कहा॥
पै जो बात होइ भलि आगे। सेवक निडर कहै रिस लागे॥
सुवा सुफल अमृत पै खोजा। होहु न राजा विक्रम भोजा॥
हौं सेवक, तुम आदि गोसाई। सेवा करौं जिऔं जब ताईं॥
जेई जिउ दीन्ह देखावा देसू। सो पै जिउ महँ बसे,नरेसू! ॥
जो ओहि सँवरै 'एकै तुही'। सोई पंखि जगत रतमुहीं॥
नैन बैन ओ सरबन सब ही तोर प्रसाद।
सेवा मोरि इहै निति बोलौं आसिरवाद॥ २० ॥
जो अस सेवक जेइ तप कसा। तेहि क जीभ पै अमृत बसा॥
तेहि सेवक के करमहिं दोषू। सेवा करत करै पति रोषू॥
औ जेहि दोष निदोषहि लागा। सेवक डरा जीउ लेइ भागा॥
जो पंछी कहवाँ थिर रहना। ताकै जहाँ जाइ भए डहना॥
सप्त दीप फिर देखेउँ, राजा। जंबूदीप जाइ तब बाजा॥
तब चितउर गढ़ देखेउँ ऊँचा। ऊँच राज सरि तोहि पहुँचा॥
रतनसेन यह तहाँ नरेसु। एहि आनेउँ जोगी के भेसू॥
सुआ सुफल लेउ आएउँ, तेहि गुन मुख रात।
कया पीत सो तेहि डर सँवरौं विक्रम बात॥ २१ ॥
पहिले भएउ भाँट सत भाखी। पुनि बोला हीरामन साखी॥
राजहि भा निसचय, मन माना। बाँधा रतन छोरि कै आना॥
कुल पूछा चौहान कुलीना। रतन न बाँधे होइ मलीना॥
(२०) होहु न...भोजा = तुम विक्रम के समान भूल न करो। (कहानी प्रसिद्ध है कि एक सूए ने राजा विक्रम को दो अमृतफल यह कहकर दिए कि जो यह फल खायगा वह बुड्ढे से जवान हो जायगा। राजा ने फल रख छोड़े। संयोग से एक फल में साँप के दाँत लग गए। वही फल परोक्षा के लिये एक कुत्ते को खिलाया गया और वह मर गया। राजा ने क्रुद्ध होकर सूए को मरवा डाला और बचे हुए दूसरे फल को बगीचे में फेंकवा दिया। उस फल को एक बुड्ढ़े माली ने उटाकर खा लिया और वह जवान हो गया। इसपर विक्रम बहुत पछताया)। रतमुहीं = लाल मुँहवाली। (२१) तप कसा = तप में शरीर को कसा। पति = स्वामी। निदोषहिं = बिना दोष के। बाजा = पहुँचा। सरि = बराबरी। सँवरौं विक्रम बात = विक्रम के समान जो राजा गंधर्वसेन है उसके कोप का स्मरण करता हूँ; ऊपर यह आया है कि 'होहु न राजा विक्रम भोजा'। (२२) साखी =
साक्षी। हीरा दसन पान रँग पाके। बिहँसत सबै बीजु बर ताके॥
मुद्रा स्त्रवन विनय सौं चापा। राजपना उघरा सब झाँपा॥
आना काटर एक तुखारू। कहा सो फेरौ, भा असवारू॥
फेरा तुरय, छतीसौ कुरी। सवै सराहा सिंघलपुरी॥
कुँवर बतीसौ लच्छना, सहस किरिन जस भान।
काह कसौटी कसिए? कंचन बारह बान॥ २२ ॥
देखि कुँवर बर कंचन जोगू। 'अस्ति अस्ति' बोला सब लोगू॥
मिला सो बंस अंस उजियारा। भा बरोक तब तिलक सँवारा॥
अनिरुध कहँ जो लिखा जयमारा। को मेटै? बानासुर हारा॥
आजु मिली अनिरुध कहँ ऊखा। देव अनंद, दैत सिर दुखा॥
सरग सूर, भुइँ सरवर केवा। बनखंड भँवर होइ रसलेवा॥
पच्छिउँ कर बर पुरुब क बारी। जोरी लिखी न होइ निनारी॥
मानुष साज लाख मन साजा। होइ सोई जो बिधि उपराजा॥
गए जो बाजन बाजत, जिन्ह मारन रन माहिं।
फिर बाजन तेइ बाजे, मंगलचरि उनाहिं॥ २३ ॥
बोल गोसाईं कर मैं माना। काह सो जुगुति उतर कहैं आना॥
माना बोल, हरष जिउ बाढ़ा। औ बरोक भा, टीका काढ़ा॥
दूवौ मिले, मनावा भला। सुपुरुष आपु आपु कहँ चला॥
लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू। जो तप करै सो पावै भोगू॥
वह मन चित जो एकै अहा। मारै लीन्ह न दूसर कहा॥
जो अस कोई जिउ पर छेवा। देवता आइ करहिं निति सेवा॥
दिन दस जीवन जो दुःख देखा। भा जुग जुग सुख, जाइ न लेखा॥
रतनसेन सँग बरनौ, पदमावति क बियाह।
मंदिर बेगि सँवारा, मादर तूर उछाह॥ २४ ॥
मुद्रा स्त्रवन...चाँपा = विनयपूर्वक कान की मुद्र को पकड़ा। चाँपा = दबाया, थामा। झाँपा = ढका हुआ। काटर = कट्टर। तुखारू = घोड़ा। तुरय = घोड़ा। छत्तीसौ कुरी = छत्तीसों कुल के क्षत्रिय। (२३) 'अस्ति अस्ति'= हाँ हाँ, वाह वाह! बरोक = बरच्छा, फल— दान। जयमारा = जयमाल। केवा = कमल (सं० कुव)। उनाहिं = उन्हीं के (मंगलाचार के लिये)। (२४) काह सो जुगुति...आना = दूसरे उत्तर के लिये क्या युक्ति है? लीन्ह उतारि...जोगू = रत्नसेन जिसके लिये ऐसा योग साध रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया। मारै लीन्ह = मार ही डाला चाहते थे (अवधी)। न दूसर कहा = पर दूसरी बात मुंह से न निकली। छेवा = (दु:ख) झेला, डाला (स० क्षेपण) अथवा खेला।