जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२०. वसंत खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ७० से – ७५ तक

 

 

(२०) बसंत खंड

दैउ दैउ कै सो ऋतु गँवाई। सिरी पंचमी पहुँची आई॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ। खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ॥
पदमावति सब सखी हँकारी। जावत सिंघलदीप कै बारी॥
आजु बसंत नवल ऋतुराजा। पंचमि होइ, जगत सब साजा॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा। सीस परासहि सेंदुर दीन्हा॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा। भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा॥
पियर पात दुख भरे निपाते। सुख पल्‍लव उपने होई राते॥
अवधि आइ सो पूजी जो हींछा मत कीन्ह।
चलहु देवगढ़ गोहने, चहहु सो पूजा दीन्ह॥१॥
फिरी आन ऋतु बाजन बाजे। औं सिंगार बारिन्ह सब साजे॥
कवँल कली पदमावती रानी। होइ मालति जानौं बिगसानी॥
तारामँडल पहिरि भल चोला। भरे सीस सब नखत अमोला॥
सखी कुमोद सहस दस संगा। सबै सुगंध चढ़ाए अंगा॥
सब राजा रायन्ह कै बारी। बरन बरन पहिरे सब सारी॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती। पान, फूल, सेंदुर सब राती॥
कराह किलोल सुरंग रँगीली। औ चोवा चंदन सब गीली॥
चहूँ दिसि रही सो बासना फुलवारी अस फूलि।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि॥२॥
भै आहा पदमावति चली। छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा। बाम्हनि ठाँव सहस अँग मोरा॥
अगरवारि गज गौन करेई। बैसिनि पावँ संसगति देई॥
चेंदेलिन ठमकहिं पगु भारा। चली चोहानि, होइ झनकारा॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती। औ कलवारि पेम मधु माती॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा। कयथिनि चलीं समाइ न आँगा॥
पटइनि पहिरि सुरंग तन चोला। औं बरइनि मुख खात तमोला॥

 

(१) दैउ दैउ कै = किसी किसी प्रकार से, आसरा देखते देखते। हँकारी = बुलाया। बारी = कुमारियाँ। गोहने = साथ में, सेवा में। (२) आन = राजा की आज्ञा, डौंडी। होइ मालति = श्वेत हास द्वारा मालती के समान होकर। तारा मँडल = एक वस्त्र का नाम, चाँदतारा। कुमोद = कुमुदिनी। (३) आहा = वाह वाह, धन्य धन्य। छत्तिस कुरि = क्षत्रियों के छत्तीसों कुलों की। बैसिनि = बैस क्षत्रियों की स्त्रियाँ। बानिनि = बनियाइन। पउनि = पानेवाली, आश्रित, पौनी परजा।

चलीं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ।
विस्वनाथ के पूजा, पदमावति के साथ॥३॥

कवँल सहाय चलीं फुलवारों। फर फूलन सब करहिं धमारी॥
आयु आपु महँ करहि जोहारू। यह बसंत सब कर तिवहारू॥
चहै भनोरा भूमक होई। फर औ फूल लिएउ सब कोई॥
फागू खेलि पुनि दाहब होरी। सैतव खेह, उड़ाउब भोरी॥
आजु साज पुनि दिवस न पूजा। खेलि बसंत लेहु कै पूजा॥
भा आयसु पदमावति केरा। बहुरि न आइ करव हम फेरा॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी। पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी॥

पुनि रे चलबव घर आपने, पूजि विसेसर देव।
जेहि काहुहि होइ खेलना, आज, खेलि हँसि लेव॥४॥

काह गही आँव कै डारा। काहू जाँबु बिरह अति भारा॥
कोइ नारँग कोइ भाड़ चिरौंजी। कोइ कटहर, बड़हर, कोइ न्योजी॥
कोइ दारिउँ कोइ दाख औ खीरी। कोइ सदाफर, तुरँज जँभीरी॥
कोइ जायफर, लौंग, सुपारी। कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी॥
कोइ विजौंर, करौंदा जूरी। कोइ अमिली, कोइ महुञ्न, खजूरी॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा। कोइ अँवरा, कोइ राय करोंदा॥
काहु गही केरा के घोरी। काहू हाथ परी निवकौरी॥

काहू पाई नीयरे, कोड गए किछ दूरि।
काहू खेल भएउ बिष, काहू अमृत मूरि॥५॥

पुनि बीनहि सब फूल सहेली। खोजहिं आस पास सब बेली॥
कोइ केवड़ा, कोइ चंद नेवारी। कोइ केतकि मालति फुलवारी॥
कोइ सदवरग, कुंद, कोइ करता। कोइ चमेलि, नागेसर बरना॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी। कोई छूपमंजरी गौरी॥
कोइ सिगारहार तेहि पाँहा। कोइ सेवती, कदम के छाहाँ॥
कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली। कोइ अजान वीरो तर भूली॥

(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो आँट॥
(कोइ) हार चीर अरूभाना, जहाँ छुवै तहँ कॉट॥६॥


डार = डला। (४) धमारि = होलो को क्रीड़ा। जोहार = प्रणाम आदि। मनोरा भूमक = एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रियाँ झुंड बाँधकर गाती हैं; इसके प्रत्येक पद में 'मनोरा झूमक' हो यह वाक्य आता है। सैंतब = समेट कर इकट्ठा करेंगी। (५) जाँवु...झारा = जानुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी दिखाई देती हैं। न्योजी = चिलगोंजा। खीरी = खिरनी। गुवा गुवाक, दक्खिनी सुपारी। (६) कूजा कुब्जक, सफेद जंगलों गूलाब। गौरी = श्वेत मल्लिका। अजानबीरो = एक बड़ा पेड़ जिसके संबंध में कहा जाता है कि उसके नीचे जाने से आदमी को सुध बुध भूल जाती है।

फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई। झुंड बाँधि के पंचम गाई॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी। मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी॥
सिंगि, संख, डफ बाजन बाजे। बंसी, महुअर सुर सँग साजे॥
और कहिय जो बाजन भले। भाँति भाँति सब बाजत चले॥
रथहिं चढ़ी सब रूप सोहाई। लेइ बसंत मठ मँडप सिधाई॥
नवल बसंत, नवल सब बारी। सेंदुर बुक्का होइ धमारी॥
खिनहिं चलहिं, खिन चाँचरि होई। नाच कूद भूला सब कोई॥
सेंदुर खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात।
राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात॥ ७ ॥
एहि बिधि खेलति सिंघलरानी। महादेव मढ़ जाइ तुलानी॥
सकल देवता देखै लागे। दिस्टि पाप सब ततछन भागे॥
एइ कबिलास इंद्र कै अछरी। की कहुँ तें आईं परमेसरी॥
कोई कहै पदमिनी आई। कोइ कहै ससि नखत तराईं॥
कोइ कहै फूली फुलवारी। फूल ऐसि देखहु सब बारी॥
एक सुरूप औ सुंदरि सारि। जानहु दिया सकल महि बारी॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै। जानहु मिरिग दियारहि मोहै॥
कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु पाँच।
कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप॥ ८ ॥
पदमावति गै देव दुबारा। भीतर मँडप कीन्ह पैसारा॥
देवहि संसै भा जिउ केरा। भागौं केहि दिसि मंडप घेरा॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा। तिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा॥
फल फूलन्ह सब मंडप भरावा। चंदन अगर देव नहवावा॥
लेइ सेंदूर आगे भै खरी। परसि देव पुनि पायन्ह परी॥
'और सहेली सबै बियाहीं। मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा। गुनि निरगुनि दाता तुम देवा॥
बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि।
जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढ़ावहुँ आनि॥ ९ ॥
हींछि हींछि बिनवा जस बानी। पुनि कर जोरि ठाढ़ि भड़ रानी॥
उतरु को देइ, देव मरि गएउ। सबद अकूत मँडप महँ भएउ॥
काटि पवारा जैस परेवा। सोएउ ईस, और को देवा॥


(७) पंचम = पंचम स्वर में। मादर = मर्दल एक प्रकार का मृदंग। (८) जाइ तुलानी = जा पहुँची। दियारा = लुक जो गीले कछारों में दिखाई पड़ता है; अथवा मृगतृष्णा।

चाँप = चंपा, चंपे की महक भौरा नहीं सह सकता। (९) एक...दूजा = दो बार प्रणाम किया। (१०) हींछि= इच्छा करके। अकूत = परोक्ष, आाकाश

भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा। विष भइ पूरि काल भा गोझा॥
जो देखै जनु बिसहर डसा। देखि चरित पदमावति हँसा॥
भल हम आइ मनावा देवा। गा जनु सोइ, को मानै सेवा? ॥
को हींछा पूरै, दुख खोवा। जेहि मानै आए सोइ सेवा॥
जेहि धरि सखी उठावहिं सीस विकल नहिं डोल।
धर कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल॥ १० ॥
ततखन एक सखी बिहँसानी। कौतुक आइ न देखहु रानी॥
पुरुब द्वार मढ़ जोगी छाए। न जानौं कौन देस तें आए॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला। सिद्ध होइ निसरे सब चेला॥
उन्ह महँ एक गुरू जो कहावा। जनु गुड़ देइ काहू बौरावा॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता। दसएँ लछन कहै एक बाता॥
जानौं आहि गोपिचंद जोगी। की सो आहि भरथरी बियोगी॥
वै पिंगला गए कजरी आरन। ए सिंघल आए केहि कारन? ॥
यह मूरति, यह मुद्रा, हम न देख अवधूत।
जानौं होहिं न जोगी, कोइ राजा कर पूत॥ ११ ॥
सुनि सो बात रानी रथ चढ़ी। कहँ अस जोगी देखौं मढ़ी॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा। जोगिन्ह आहि अपछरन्ह घेरा॥
नयन चकोर पेमपद भरे। भइ सुदिस्टि जोगी सहुँ ढरे॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा। नैन रापि नैनहिं जिउ दीन्हा॥
जेहि मद चढ़ा परा तेहि पाले। सुधि न रही ओहि एक पियाले॥
परा माति गोरख कर चेला। जिउ तन छाँड़ि सरग कहँ खेला॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागी। मरतिहुँ बार उहै धुनि लागी॥
जेहि धंधा जाकर मन लागै, सपनेहु सूझ सो धंध।
तेहि कारन तपसी तप साधहिं, करहिं पेम मन बंध॥ १२ ॥
पदमावति जस सुना बखानू। सहस करा देखेसि तस भानू॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा। अधिकौ सूत, सीर तन लागा॥
तब चंदन आखर हिय लिखे। भीख लेइ तुइ जोग न सिखे॥


वाणी। ओझा = उपाध्याय, पुजारी (प्रा० उवज्झाओ)। पूरि = पूरी। गोझा = एक पकवान, पिराक। खोवा = खोव, खोवे। धर = शरीर। (११) तंत = तत्व। दसएँ लछन = योगियों के बत्तीस लक्षणों में दसवाँ लक्षण 'सत्य' है। पिंगला = पिंगला नाड़ी साधने के लिये अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण। कजरी आरन = कदली वन। (१२) कचोर = कटोरा। जोगी सहुँ = जोगी के सामने, जोगी की ओर। नैन रोपि...दीन्हा = आँखों में ही पद्मावती के नेत्रों के मद को लेकर बेसुध हो गया। (१३) मकु = कदाचित्। सूत = सोया। सीर = शीतल,ठंढा (प्रा० सोयड,सीयर)। आाखर = अक्षर।

घरी आइ तब गा तूँ सोई। कैसे भुगुति परापति होई॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता। आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही। इहै ठाँव हौं बारति रही॥
परगट होहुँ त होइ अस भंगू। जगत दिया कर होइ पतंगू॥
जा सहुँ हौं चख हेरौं सोई ठाँव जिउ देइ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ? ॥ १३ ॥
कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका। परबत छाड़ि सिंघलगढ़ ताका॥
बलि भए सबै देवता बली। हत्यारिन हत्या लेइ चली॥
को अस हितू मुए गह बाहीं। जौं पै जिउ अपने घट नाहीं॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई। बिनु जिउ कोइ न आपन होई॥
भाइ बंधु औ मीत पियारा। बिनु जिउ घरी न राखै पारा॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा। छार मिलावै सो हित पूरा॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा। को उठि बैठि गरब सौं गाजा॥
परी कया भुइँ लोटै, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ।
को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीउ॥ १४ ॥
पदमावति सो मँदिर पईठी। हँसत सिंघासन जाइ बईठी॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी। भा बिहान कह सखी हँकारी॥
देव पूजि जस आइउँ काली। सपन एक निसि देखिउँ, आली॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा। औ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा। चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा॥
दिन औ राति भए जनु एका। राम आइ रावन गढ़ छेंका॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधा। अरजुन बान राहु गा बेधा॥
जनहुँ लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कछु सपन बिचारि॥ १५ ॥
सखी सो बोली सपन बिचारू। काल्हि जो गइहु देव के बारू॥
पूजि मनाइहु बहुतै भाँती। परसन आइ भए तुम्ह राती॥
सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी। अस वर दैउ मेरावै, आनी॥
पच्छिउँ खँड कर राजा कोई। सो आवा बर तुम्ह कहँ होई॥



ठाँव = अवसर मौका। बारति रही = बचाती रही। भगूं = रंग में भंग, उप- द्रव। (१४) ताका = उस ओर बढ़ा। मरि भा = मर गया, मर चुका। बलि भोउँ = बलि और भोम कहलानेवाले। बाज बिना, बगैर, छोड़कर। (१५) बिहार = बिहार या सैर को। मेरावा = मिलन। निखेधा = वह ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है। राहु = रोहू मछली। राहु गा बेधा = मत्स्यबेध हुआ।

किछ पुनि जूक लागि तुम रामा। रावन सौं होइहि सँगरामा॥
चाँद सुरुज सौं होइ वियाहू| वारि विधंसब बेधब राहू॥
जस ऊषा कहूँ अनिरुध मिला। मेटि न जाइ लिखा पुरबिला॥
सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ, पान फूल रस भोग।
आजू काल्हि भा चाहे, अस सपने क सँजोग॥१६॥


 

(१६) जूझ...रामा = हे बाला! तुम्हारे लिये राम कुछ लड़ेंगे (राम = रत्नसेन, रावण = गंधर्वसेन)। बारि विधंसव = संभोग के समय शृंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत। बगीचा। पुरबिला = पूर्व जन्म का। संजोग फल या व्यवस्था।