जायसी ग्रंथावली/अखरावट
अखरावट
दोहा
गगन हुता नहिं महि हुती, हुते चंद नहिं सूर।
ऐसइ अंधकूप महँ रचा मुहम्मद नूर॥
सोरठा
साँई केरा नाव, हिया पूर, काया भरी।
मुहमद रहा न ठाँव, दूसर कोइ न समाइ अब॥
आदिहु ते जो आदि गोसाईं। जेइ सब खेल रचा दुनियाई॥
जस खेलेसि तस जाइ न कहा। चौदह भुवन पूरि सब रह॥
एक अकेल, न दूसर जाती। उपजे सहस अठारह भाँती॥
जौ वै आनि जोति निरमई। दीन्हेसि ज्ञान, समुझि मोहिं भई॥
औ उन्हे आनि बार मुख खोला। भइ मुख जीभ बोल मैं बोला॥
वै सब किछु, करता किछु नाहीं। जैसे चले मेघ परछाहीं॥
परगट गुपुत बेिचारि सो बूझा। सो तजि दूसर और न सूझा॥
दोहा
कहौं सो ज्ञान ककहरा, सब आखर महँ लेखि।
पंडित पढ़ अखरावटी, टूटा जोरेहु देखि॥
सोरठा
हुता जो सुन्न-म-सुन्न, नावँ ठावँ ना सुर सबद।
तहाँ पाप नहि पुन्न, मुहमद आपुहि आपु महँ॥ १ ॥
(१) हुता = था। अंधकूप = शून्य अंधकार। नूर = ज्योति, हदीस के अनुसार ईश्वर ने सबसे पहले महम्मद पैगंबर की ज्योतेिं उत्पन्न की। केरा = का। मुहम्मद रहा...अब = कवि मुहम्मद कहते हैं कि नाम ही तन मन में भर रहा है, अब दूसरी वस्तु के लिये हृदय में कहीं जगह ही नहीं है। दूसर जाती = दूसरी जिन्स नहीं थी, दूसरे प्रकार की कोई वस्तु नहीं थी। सहस अठारह भाँती = जैसे हमारे यहाँ चौरासी लाख योनियों की कल्पना है वैसे ही मुसलमानों के यहाँ अठारह हजार की। बार = बाल से (साधारण कल्पना है कि ईश्वर ने कुश या बाल से चीरकर मैह बनाया) । करता = जीव जो कर्म करता दिखाई पडता है। सुन्न-न-सुन्न = बिलकुल शून्य। मुहम्मद आपुहि आपु महँ = उस समय ईश्वर की कलाएँ ईश्वर में ही लीन थीं, सृष्टि रूप में
उनका विस्तार नहीं हुआ था। आपु अलख पहिले हुत जहाँ। नाँव न ठावँ न मूरति तहाँ॥
पूर पुरान, पाप नहिं पुन्नू। गुपुत तें गुपुत, सुन्न तें सुन्नू॥
अलख अकेल, सबद नहिं भाँती। सूरुज, चाँद, दिवस नहिं राती॥
आखर, सुर, नहिं बोल, अकारा। अकथ कथा का कहौं बिचारा॥
किछु कहिए तौ किछु नहिं आाखौं। पै किछु मुह किछु हिय महँ राखौं॥
बिना उरेह अरंभ बखाना। हुता आपु महँ आपु समाना॥
आस न, बास न, मानुष अंडा। भए चौखँड जो ऐस पखंडा॥
दोहा
सरग न, धरति न खंभमय, बरम्ह न बिसुन महेस।
बजर बीज बीरौ अस, ओहि। न रंग, न भेस॥
सोरठा
तब भा पुनि अंकूर, सिरजा दीपक निरमला॥
रचा मुहम्मद नूर, जगत रहा उजियार होइ॥ २ ॥
ऐस जो ठाकुर किय एक दाऊँ। पहिले रचा मुहम्मद नाऊँ॥
तेहि कै प्रति बीज अस जामा। भए दुइ बिरिछ सेत औ सामा॥
होतै बिरवा भए दुइ पाता। पिता सरग औ धरती माता॥
सूरुज, चाँद दिवस औ राती। एकहि दूसर भएउ सँघाती॥
चलि सो लिखनी भइ दुइ फारा। बिरिछ एक उपनी दुइ डारा॥
भेंटन्हि जाइ पुन्नि औ पापू। दुख औ सुख, आनँद संतापू॥
औ तब भए नरक बैकूंठू। भल औ मंद, साँच औ झूठू॥
दोहा
नूर मुहम्मद देखि तब भा हुलास मन सोइ।
पुनि इबलीस सँचारेउ, डरत रहै सब कोई॥
(२) पूर पुरान = पूर्ण पुराण पूरुष ही था। गुपुत तें...सुन्नू = गुप्त से भी गुप्त और शून्य से भी शून्य। सुर = स्वर। किछु कहिए...आखी = यदि मैं कुछ कहता हूँ, तो भी मानो उसके संबंध में कुछ नहीं कहता हूँ, क्योकि वह वर्णन के बाहर है। उरेह = रूपरेखा या चित्र। अंडा = पिंड, शरीर। चौखँड = चारों ओर। पखंडा = प्रपंच बिस्तार। खंभमय = खंभों सहित (पहाड़ पृथ्वी के खंभे हैं) । बरम्ह = ब्रह्मा। बजर बीज बीरौ अस = इस संसार रूपी वृक्ष का वज्र के समान स्थिर बीज मात्र था। (३) ऐसा जो ठाकुर...दाऊँ = उस प्रभु ने एक बार ऐसा किया। तेहि के...जामा = मुसलमानों के अनुसार मुहम्मद साहब की खातिर से ही दुनियाँ पैदा की गई। पिता सग...धरती माता = चित् पझ और अचित् (जड़) पक्ष। अँगरेज कवि मेरेडिथ ने स्वर्ग चौर पृथ्वी के विवाह को ऐसी ही कल्पना की है। चलि सों...दुई फारा = कलम का पेट चीरकर जब दो फालें की जाती हैं तब वह चलती है, इसी प्रकार जब आरंभ में दो विभाग (द्वंद्व) हुए तब सृष्टि का क्रम आगे चला। इबलीस = शैतान, जो बहकाकर लोगों को ईश्वर के विरुद्ध किया करता है। अखरावट २६५ हता जो एकदि सग, हां तुम्ह काहे बीरा ? ग्र व जिउ उठे तरंग, मुहमद कहा न जाइ कि ॥ जौ उतपति उपराजें चहा। ग्रापनि प्रभुता आयु सीं कहा ॥ रहा जो एक जल गुपुत समुंदा। बरसा सहस अठारह फंदा ॥ सोई ग्रंस घटे घट मेला। नौ सोड़ ब रन रन हो ड खेला ॥ ए ग्राg ऑो कहा गोसाईसिर नावह गरिड दुनियाई ग्राने पुल भांति बह फूले । बास बेधि कौतुक सब भूले जिथा जंतु सब प्रस्तुति भा सवे चीन्हा ॥ कीन्हा: संतोष मिलि तुम करता बड़ सिरजनहारा। हरता धरता सब संसारा है। भरा भंडार गुपुत तहूँजहाँ टर्बाह नहि धूप पुनि अनबन परक।र सीं, खेला परगट रूप । पर प्रम के झलपिट धनि मुख फ़ । सर्दू म: जो सिर सेंती खेल, मुहमद खेल सो प्रेम रस ॥ ४। एक चाक सव पिंडा चढ़ । भाँति भाँति के भर गढ़े । जवहीं जगत किए सब साजा। आादि चहेड ग्रादम उपराजा ॥ पहिलेइ रच चार अड़वायक। भए सब अट्वयन के नायक ॥ भई मायने चरिह के नाऊं । चारि वस्त मेरबह क ठा । तिन्ह के सवारा । पाँच भूत तेहि म्हें चारहु मंदिर पैसारा । आा श्रापु रुझी माया! एस न जाने दहें बेहि काया। ॥ महें नव द्वारा राख मझियारा। दसवें दि दे दिएड केवारा । उठ तरग ग्रा जो एकहि संग = जीव पहले ईश्वर से अलग नहीं था। वियोग के कारण मन में भाव उठते (४) उतपति = सृष्टि 'भता ने मट कहा = यह जो उत्पन्न की मानो अपनी प्रशंता अपने को ही प्रकट की (अयद यह ही विकास जगत् ईश्वर को शक्ति का है) । एफ जल अथ गुपुत सदा = आत्मतत्व था परमात्मा। बरसाद=नाना योनियों में प्रकट हुया। घटे घट = प्रत्येक घट या शहर में ! भए आयु । = श्राप ही जगत् के रूप में प्रकट हुा । धरता = धारण करनेवाला । ाँह नहि सुख दु:ख धूप या नहीं हैं अनबन 26 अनेक । भल = थपेडा, हिलोरा । साँ = सामने। सेती = से । (५) पिंडा = मिट्टी का लोदा जगे रतन यह बनाने लिये कुम्हार के पर रखा जाता है । भाँr=बरतन, के चाक शरीर यादम । = पैगंबरी या किताबी मतों के अनुसार नादि मनष्य। आढ़वायक : अढ़नेवाले , काम में लगानेवाले । चारि श्रढवायक = चार फरिश्ते। चारि वस्तु = चारो भूत । मंदिर = घर अर्थात् शरीर । पाँच भूत = वभूतात्मक इंदियाँ। पैसाराSघुसायाकाया । केहि = बिसकी यह कया है । झिथारा = बीच में । दसव = दसवाँद्वार, ब्रह्मरंध्र । २६६ अखरावट दोहा रकत मासि भरि, पूरि हियपांच भूत के संग। पए देस तेहि ऊपर, बाज रूप ऑों रंग । सोरठा रहट न दुइ महें बीजू, बालक जैसे गरभ महूँ । जग लेइ नाई , मुहमद रोएड बिछुरि के ॥ ५ ॥ उॐई कीन्हेउ पिंड उहा । मइ मंजूत मादम के देहा भझ ग्रायड यह जग भा दूजा । सब मिलि नबहूकरह एfह पूजा ॥ परगट सुना सबदसिर व। नारद कहें विवि गुपुत देखावा । तू सेवक है मोर निनारा । दसई पंवरि होर्सि रखवारा ॥ भेड़ प्रायमुजब वह सुनि पावा । उठा गरब के सी नवावा ॥ धरिमिहि धरि पापी जेइ कीन्हा । लाइ संग शादम के दोन्हा : उठि नारद जिउ माइ सेंवारा। आइ छींक, उठ दीन्ह केवारा ॥ . बाज आर विना, बगैर । रहउ न दुई‘कहें = आदम जबतक स्वर्ग में था । तबतक वह ईश्वर से भिन्न न था। वैसे ही था जैसे माता के गर्भ में बच्चा रहता है (६) उई = अत् स्वर्ग में भइ= संयुक्त वहीं । संजूतहुई, बनी। भइ = ईश्वर ने प्रायस कहा । जग दूजा में जगत् के अ यह भा ने संसार यह रूप ही दूसरा जगत् उत्पन्न हुया (जो ब्रह्मांड में ) । है वही मनुष्य पिंड में है सव मिलि नवह। = मुसलमानी धर्मपुस्तक में , ईवर आदम_ लिखा हैने को बनाकर फरिश्तों से सजदा करने (सिर नवाने) को कहा, सिजदा । पर शैतान ने न किया इससे वह स्वर्ग से निकाला गया ! विधि = ईश्वर न। सबने किया गुप्त = ठ ह का । मृपंवरि ग्रात्मा या गुप्त स्थान नौवे को इंडलिनो से लेकर अकमल से होती हुई ब्रह्मरंध्र तक चली गई है। दसई = सुषुम्ना नाड़ी नाभि के यही गत मार्ग य। द्वार है जिससे ब्रह्म तक वति पहुँचकर लोन हो सकती है । खैरिमिहिकीन्हा = जिस नारद ने मनुष्य को धर्म मार्ग से बहकाकर पापी कर दिया (यहाँ कवि ने योग के अंतराय या विध्न की कल्पना प्रौर शैतान को कल्पना का प्रभुत मिश्रण किया है । शैतान के लिये यहाँ नारद श द लाया गया है। । नारद पुराणों में भगवान के सबसे बड़े भक्त कह गए हैं । वे इधर उधर लगानेवाले माने जाते हैं। भत शैतान को । झडा भो । सामी ईश्वर का प्रतिद्वंद्वो मानते हैं, पर सृफो ईश्वर का प्रतिद्वंद्वो असंभव मानते हैं, वे शैतान को भझे ईश्वर का भक्त या से ही मानते हैं, जो ईश्वर के नादश से हो भक्तों और साधकों को कठिन परीक्षा किया करता है। द्वारा डो ईश्वर को सेवा करता है । वैष्णव भक्तिभाग में भी शत्रभाव से भजने- वह विरोध वाले स्वोकार किए गए । रावणकंस नादि को गणना ऐसे ही भक्तों में है) । हैं। अखरावट २६७४ आादम हवा कहें सृज़ा, लेइ घाला कबिलास । पुनि हेंवाँ है काढ़ा, नारद के बिसवास ॥ सोरा आादि किए आदेस, सुन्न हि दें अस्थूल भए । ग्रपु करै सब भेसमुहमद चादर ओोट जेकें : ६ ॥ का करतार चहिय श्रेस कीन्हा। ? आापन दोष मान सिर दीन्हा ॥ खाएनि गोटू कुमति भुलाने । परे आइ जग महँपटिताने ॥ छोडि जमाल जलालहि रोवा। कौन ठांव में दैछ बिछोवा ॥ आंधकृप सगर संसारू। कहाँ सो पुरुष, कहाँ मेहगारू ।॥ रैनि "छ मास तैति भरि लाई। रोई रोइ गाँसू नदी बहाई ॥ पुनि माया करता कहें भई । भा निसार, नि हटि गई । सूरज उएकंवल दल ले । दूवौ मिले पंथ कर भूले ॥ तिन्ह संतति उपराजा, भतिहि भाँति कुलीन । हिंदू तुरंत दुवौ भएअपने अपने दीन ॥ सोरठा बुंदहि समुद समानयह अचरज कासों कहीं ? जो हरा सो हेरानमुहमद आपुहि अपु महें ॥ ७ ॥ खा खलार जस है दुइ करा। उहै रूप आादम अवतरा दृह भाँति तस सिरजा काया। भए दुई हाथ, भए दुइ पाया । भए दुइ नयन "नवन दुइ भाँती। आए दुइ अधर, दसन दुइ पांती ।। कबिलास स्वर्ग । बिसवास विश्वासघात से (शैतान के बहकाने से ही श्रादम ने गह खा लिया जिसके खाने या निवेइ ईश्वर ने कर रखा था और स्वर्ग से निकाले गएँ) । अस्थूल = स्थूल । जेऊ = ज्यों, जिस प्रकार । (७) जमाल सौंदर्य और माधुर्य पक्ष । जलाल = शक्ति, प्रताप और ऐश्वर्य पक्ष। दुवों = आदम औौर हौवा। बंदहि समुद समान = एक बूगेंद में समुद्रसमाया हुआा है अर्थात् । मनुष्य पिंड के भीतर ही ब्रह और समस्त ब्रह्मांड है । (अपर कह गए हैं-- ‘युत समुंदा बरसा सह अठारह फंदा')। हेरा = (अपने भीतर ही) g हा। हरान ८ माप लापता गयाअनंत । हो , अर्थात् उसी सत्ता में बह मिल गया। (८) खेलार = खेलाड़ी, ईश्वर। दुड़ कर= दो कलाओं सहित अर्थात् पुरुष Tर उहै रूप‘‘अवतरा = उसी के अनरूप आदम प्रकृति दो पक्षों से युक्त । का अवतार हुआा। यदियों और ईसाइयों की धर्मपुस्तक में लिखा है कि ईश्वर ने प्रार्थीम को अपने अनुरूप रचा) । दुढ़ भ ति -“वाया = यही दो पक्षों की व्यवस्था शरीर की रचना में भी है । अखरावट माथ सरग, धर धरती भएऊ। मिलि तिन्ह जग दूसर हो गए। माटी माँ, रकत भा नीरू। नसें नदीहिय समुद गंभीरू ॥ रोढ़ सुमेह कीन्ह तेहि केरा । हाड़ पहार जुड़े चलें फेरा बार विरिशरोवाँ खर जामा। सूत सूत निसरे तन चामा ॥ दोहा सातौ दीप, नव पैंटैंड, ग्राट दिसा जो ग्राहि । जो बरम्ड सो पिंड है, हेरत अंत न जाहि ॥ सारठा ७ ७ यागि, बाउजलथूरि, चारि मेरइ भांडा गढ़ा । ग्रा४ रहा भरि मूरि, मुहमद नापुहि ग्राषु महें 1 ८ ॥ गा गौरहु ग्रब मुनहु गियानी। कहीं ग्यान संसार बखानी ॥ नासिक पुल सात पथ चला। तेहि कर भौंहें हैं दुड़ पला ॥ चाँद सूरज दूनी सुर चलहीं। सेत लिलार नखत झलमलहीं । गत दिन निसि सांवत माँझा । हरप भोर विसम्य होइ साँई ॥ सुख चैठ भुगुति श्री भोगू । दुख है नरक, जो उप रोगू ॥ बरखा रुदन, गरज प्रति कोईं। जुिरी “स ठिबंचल छोटू ॥ घरों पहर बेहर हर । नौ ऋतुबारह मास ॥ साँसा बोते ख्य दोहा जुग जुग बीते पलहि पलअवधि घटति निति जाइ। मीड नियर जब श्राव, जानलु परलय श्राइ ॥ सर। हि घर ठग हैं पाँच, नवौ बार चहुदिति फिरह । सो घर केहि मिस बाँचमुहमद जौ निसि जागिए । " ॥ मिलि तिन्ह ‘‘गए = इन दो पक्षों से मिलकर मानो दूसरा ब्रह्मांड हो गया (यहाँ से कवि ने पिंड औौर ब्रह्मांड की एकता का प्रतिपादन किया है ) । रीढ़ = पीठ की हड़ो, मेरुदंड । ने । = . खर त! जाहि जिसका। मेरई मिलाकर । (९) नासिक पुल की वैतरणी का पुल जोगें पापियों के लिये तो बान बराबर पतला हो -चला = नाक मानो पुले सरात' (मसलमानों हो जायगा और दोनदारों के लिये खासी चौड़ी सड़क) का रास्ता चला गया है । भौंहें हैं दुइ पला = भौहैं मानो उस पुल के दो पार्च हैं दाहिने पाश्र्व से शुण्यात्मा से हैं । र बाएँ पापी जाते सुर = श्वास का प्रवाह जो कभी बाएँ नथुने से चलता है, कभी दहिने (इसी को बायाँ सुर या दहिना सुर कहते हैं)। जागत दिन = शरीर की जाग्रत अवस्था को दिन समझो। हम भार शरीर में जब हर्ष का संचार होता। है तब समझो (इस , प्रभात प्रकार चंद्र सूर्य, रातदिन, ऋतुमासवर्षा, चमक, गरजघड़ी, पहर, युग इत्यादि सब शरीर के भीतर समझो)। बेहर = अलग अलग होते हैं । हर = प्रत्येक । पाँच ठग = काम, क्रोध इत्यादि । आखरावट २६९ घा घट जगत बराबर जाना। जेहि मह धरती सरग समाना ॥ माथ ऊँच मक्का बन टाऊँ। हिया मदीना नबी क नाऊँ ।। सरवनप्रावि, नाक, मुख चारी । चाहुि सेवक लेहु बिचारी भावे चारि फिलिस्ते जानते। भावें चार यार पहिचानहु ॥ भावे चारह मसिद कह। भाव चारि किताबें पढ़ऊ। भाव चारि*इ माम जजों आागे। भावै चारि खंभ ने लागे । भावे चारितु जुग मति पूरी। भावे ग्रागि, बाउ, जलभूरी ॥ दोहा नाभि कर्बल तर नारद, लिए पाँच कोटवार। नवो दुवार फिरे निति, दसई कर रजवार ॥ सोरठा पवनहु त मन चाँड़, मन त नासु उतावला । कतलुरै मेंड़ न , मुहमद बह बिस्तार सो 1१०। ना तस पाहर । नारद काय। चारा मेलि फाँद जग माया नाद, बेद श्री भूत संचारा। सब अरुझाई रहा संसारा ॥ ग्रा निपट निरमल होइ रहा। एकई बार जाइ नहि गहा । जस । चौदह खंड दुख तहवें पीरा ॥ तैस सरीरा। जहॉं है जौन देस मद सँवरे जहाँ । तौन देस सो जानहु तहँवा ॥ देखतु मन हिरदय बसि रहा। खन महें जाइ जहाँ कोई चहा। वन अत अंत मह डले । जब बोले तब घट मह बोलें । । (माथ = माथे को मक्का समझो और हृदय को १०) ऊच नाऊ मदीना जिसमें नत्री या पैगंबर का नाम सदा रहता है । फिरिस्ते = स्वर्ग के चार दृत-जिवरईल. मकाइलइसराफील, इजराईल । चारि यार = उमर, उसमान चार खलीफा । मरसिद = माशिद, पीर ' गुरु। चार किताबें ग्राद चार ग्रासमानी किताबेंतौरेौं, जबूर (दाउद के गीत), इंजीलकुरान् । धर्म के अधिष्ठाता ! भावे । इमाम : : जैसे, अली, हसन, हुसेन = चाहे नाभि क ल तर = वह स्थान जहाँ योगी कुंडलिनी मानते हैं । पाँच कोटवार = काम, क्रोध, नादि चौकीदार । = प्रचंडप्रवल। आासु = , चित्त, चड़ चेतन तत्व ॥ कतई मेंड: सो = चित असीम ग्रौर व्यापक (११) तस = ऐसा पाह = पहरेदार । फॉद है । = शब्द । वेद = । = फसा नाद ब्रह्म धमें पस्त। भत s तात्मक इंद्रियाँ । आाणु = ईश्वर। जहव दुखपीरा = जहाँ क्लेश है वह उनका अनुभव भी। सँव‘ = स्मरण करे । तौन देस.. तहँवा = वहाँ उसी स्थान में उस ईश्वर को समझो । खन महूँ जा चझा = में जहाँ सकता है । अंत = अंतस् मन एक क्षण चाहे पहुँच भोतर । सोवत अंतरांडोलै = स्वन की दशा में मन आाप अपने भीतर ही भोतर डोलता है (औौर संसार छानता हृा जान पड़ता है)। जब बोलें। बोले = स्व८न में जब वह बोलता है तब भीतर ही भीतर । " २७० दोहा तन तुरंग पर मनुशा, मन मस्तक पर प्रासु । सोई आासु बोलावई, अनहद बाजा पास ॥ देखह कौतुक नाइ, रूख सभाना बीज महूँ । आपुहि खोदि जमाइ, मुहमद सो फल चाखबई ॥११। चा चरित्र जी चाहल देखा। चूह बिधना के आलेखा ॥ पवन चाहूि मन बहुत उताइल । तेहि में परम आासु सुठि पाइल ॥ मन एक खंड न पहुचे पावे । आासु भवन न्नौदह फिरि श्रावै । भा जेहि ज्ञान हिये सो बू । जो धर ध्यान न मन तेहि रूकें ॥ पुतरी महें जो बिदि एक कारी। देर्श जगत सो पट बिस्तारी ॥ हरत दिस्टि उघरि तस ग्राई । निरखि सुन्न महें सुन्न समाई ॥ पेम समुंद सो अति अवगाहा। बड़े जगत न पावे थाहा ॥ दाहा। जबहि नींद चख श्रावे, उपजि उठे संसार । जागत ऐस न जाने, दह सो कौन भंडार ॥ सुन्न समुद चख माँहि, जल जैसी लहरें उठहै । उठि उठे मिटि मिटि जाहि, महमद खोज न पाइए I१२। छा छाया जस चंद लोए। ओोठई स मानि रहा करि गोस ॥ मनुमा = मन । अनहद बाजा = शब्दू, योग में अनाहत नाद । देखहु कौतुक चाखई = सारा संसारचूक्ष बीज रूपी ब्रह्म में ही व्यक्त भाव से निहित रहता और वही फल भी है बीज प्राप अपने को जमाता है और का भोक्ता आप ही होता है । (१२) अलेखा = विचित्र चाहि = अपेक्षा, व्यवस्था । बनिस्बत । उताइल = जल्दी चलनेवाला। । ग्रास = जीव, चेतन तत्व । पाइल' = तेज चलनेवाला (तेज चलनेवाले हाथी को 'पायल' कहते हैं) । तेरह तें परम—पाइल = उससे भी अधिक शीव्रगामी चित् तत्व है । मन तेहि । ने जिसका मन । रू* = उलाता है। विदि = माँख की पुतली के बीच का तिल । हेरत दिस्टिसमाई : = बात को देखकर ज्ञान होता कि इस कुछ है किस प्रकार एक बिंदी शन्य भीतर मान्य से उत्पन्न जगत् समाता है हयोग म। अनिमेष रूप से देर तक किसी बिंदु पर दष्टि जमाने की एक क्रिया भी है। जिसे नोटक कर्म कहते हैं) । चख = नेत्र । उपजि उठे संसार = स्वप्न की दशा में भीतर ही एक संसार खड़ा है जिससे इस बात मनुष्य के हो जाता (का संकेत मिलत। है कि श्रात्मतत्व के भीतर भी ब्रह्मांड है) । जगत भंडार = जागने पर मनुष्य यह नहीं जानता कि यह कौन सा ऐसा भांडार एस है जहाँ से इतनी वस्तुएँ निकलती चली जाती हैं । खोज = पता, निशान । (१३) छाया “प्रलोप्पू = इस संसार में जाकर चित् तत्व का यह बिंदु अदृश्य रहता है। आखरावट २७१ सोड चित्त स मनुवाँ जाएँ। मोहि मिलि कौतुक खले लागे । देखि पिंड कर ह बॉलो बोलें। अब मोहि बिनु कस नैन न खोले ? ॥ परमहंस तेहि ऊपर देई । सोsहं सोंs साँसे लेई ॥ तन सरायमन जानहु दीया। वासु तेलदम वाती कोआ t दीपक महें बिधि जोति सभानी ापुहि बई बाति निरबानी ॥ निघटे तेल भूरि भइ बाती। गा दीपक बु,ि अंधियरि राती। दोहा गा सो प्रान परेवा, के पीजर तन छ । मुए पंड कस फूले ? चेला गुरु सन पूछ । बि गरि गए सब नावें, हाथ पाँव मुंह सीस धर । तोर नाव केहि ठाँव, मृहमद सोइ बिचारिए 1१३। जा जानहु प्रस तन महें भद्र। जैसे रहै अंड महै मेद्र ॥ बिरिछ एक लागीं दुई डारा। एकहि तें नाना प्रकारा मातु के रकत पिता के बिंदु । उपने दुवाँ तुरुक ऑौ हिदू ।। रकत तें तन भए चौरंगा। बिंदु तें जिज पाँचवें संगा जस ए चारिउ धरति बिलाहीं । तस वे पाँच सरगति जाहीं । ओोई सों = बहाँ स्वर्ग से । मोठई माँ गोपू = स्वर्ग से चित्त् तत्व के बिंदु अर्थात् जीवात्मा को लाकर यहाँ छिपा रखा है । बोलै = चित्त जीव ताना या मारता में बह है । परमहंस = शुद्ध बह या श्रात्मा। = सो = ऊपर देई ऊपर से। (ह) हूँ । दम = साँस का आना जाना । विधि जोति = ईश्वर की ज्योति । बाति निरबानी निर्वाण या मोक्ष का मार्ग दिखलानेवाली बत्ती । निघट = घट जाने पर, चक जाने पर । नाव = नाम रूप । विगर गए 'घर = हाथ, पाँच इत्यादि जो अलग अलग नाम थे वे तो न रह गए। तोर नाच-विचरिए जब रूपात्मक कोई वस्तु नहीं रह गई तब तेरी वास्तव सा कहाँ है नोर , ”) जानह अस क्या हैइसका विचार कर । (१४भेस = शरीर के भीतर इसी प्रकार अनेक रूपात्मक सष्टि ह । मेद्र -- मेद, कलल जिससे अनेक अंग आादि बनते हैं । बिरिल एकांडरा = एक ही वह के दो पक्ष हैं--पुरुष और प्रकृति अथवा पितृपक्ष औौर मातृपक्ष ; सृष्टि के अारंभ में आकाश या स्वर्ग पितृपक्ष का पौर पृथ्व मापक्ष का अभिव्यक्त रूप हुआा । मातु के रकत बिंदु = माता के रेंज से नौर पिता के पुत्र बिंदु से सब मनुष्य उत्पन्न हुए (आात्मतत्व के जीवात्मानों के रूप में बिदुओं का आाना समुद्र स्वर्ग से पहले कह ) चौरंगा चार हढ । पाए हैं। = तत्वों से युक्त । = से जिउ पाचों संगा = ज्ञानेंद्रियों के नहित जीवात्मा (इंद्रियों से इंद्रियों के स्थूल अधिष्ठान न समझना चाहिए बल्कि संवेदन वृत्ति) । जस ए चारिज -जाहीं = मरने पर जैसे पृथ्वी, जलतेजवाय, प्रकृति के ये चारों तत्व पृथ्वी में मिल जाते हैं वैसे ही ज्ञान वृत्तियों के सहित जीवात्मा स्वर्ग में फिर जा मिलता है । अपनो २८ २७२ खरावट फूले पवन, पानि सब गरई । अगिनि जात्रि तन माटी करई ॥ जस वै सरग के मारग माहाँ । तस ए धरति देखि चित चाहा ॥ दोहा जस तन तस यह धरती, जस मन तेंस अकास । परमहंस तेहि मानस, सि : महें बास हैi सोरट तन दरपन कहें साजु, दरसन देखा जी चहै । मन सौं लीजिय माँजि, मुहमद निरमल होइ दिना 1१४। झा झॉखर तन मनु मन भूलें। काँटन्ह माँह पुल जर्न फ्लै देखतें 5 परमहंस के परहीं । नयन जति सो दिखैरति नाहीं । जगमग जल म: दीखत जैसे । नाहि मिला, नहि बेहरा तैसे ॥ जस दरपन महें दरसन देखा। हिय निरमल तेहि महें जग देखा है। तेहि सेंग लागा पाँचों लिया। कामकोह, तिम्ना, मदमाया ॥ चख महें नियर, निहारत दूरी। सब ट माँह रहा भरिपूरी । पवन न उड़ेन मी पानी। प्रगनि जएं जस निरमल बानी॥ ध म जस घीउ है, समद माहें जस मोति । नैन मींजि जT देखहु, चमकि उठे तस जोति ॥ सरटा। एकहि दृढ़ होड़, दु, सों राज न चलि सके । दोच में आापुहि खोखे, मुहमद ए होइ रद । १५ ना नगरी काया बिधि कीन्हा। लेड़ खोजा पावा, ने चीन्हा ॥ तन भोग औौ रोगू । संसार । मद जग भि पर सेंज गू रामपुरी औी कीन्ह कुकरमा। मौन लाइ सीधे प्रस्तर माँ ॥ फले = वायु से शव फूलता है जस तनकाम पवन । = शरीर वेनेसा ही स्थूल भौतिक तत्व है गौर जैसे पृथ्वी, मन या चित् वेसा ही सूक्ष्म तत्व है जैसे स्वर्ग या नाका १५= भाड़ झंखाड़ । बानी = । । () झाँखर वर्णकति दूध माँजोति = अत् िव “वह ज्योति भी इसी जगत् के भीतर भीतर भासित हो रहो बीडु में श्राहि है ! खोइ = एक ही ब्रह्म के चित् ऑौर अचित् दो पक्ष हुए, दोनों के बीच तेरी अलग सत्ता कहाँ से आाई ? अपनी अलग सत्ता या के श्रम अहंभाव को मिटाकर ब्रह्म में मिलकर एक हो जा। (१६) नगरा काया -“कीहा = ईश्वर ने इस शरीर की रचना एक नगर के रूप में की है । । संसार सँजोग = संसार की रचनारामपुरी = स्वर्ग ; वह का स्थान । कुकरमा : । नरक= तह । स्तर । साध अस्तर माँ = (जो उस रामपुरी या ब्रह्मद्वार तक पहुंचना चाहता हो वह) चुपचाप भीतरी तह में हैठे । आखरावट २७३ I सुठि अगम पंय बड़े बाँका। तस मारग जस सुई क नाका ॥ चाँक चढ़ाव, सात खंड ऊँचा। चारि बसेरे जा पहुंचा ॥ जस सुमेरु पर अमृत मूरी । देखत नियर, चढत बड़ि दूसरी ॥ घि हिचल जो तहें जई। अमृतमूरि पाइ सो खाई ॥ दोहा । एहि बाट पर नारद, वैट कटक के साज । जो मोहि पेलि पईने, करै दुव जग राज ॥ ‘हीं' कहते भए नोट, पिये खंड मोस भए बहु फाटक कोट, मुहमद अब कैसे मिलहि 1१६। ‘टा टक गाँकह सात ख़डा। खंड खंड लखह बरम्हड मह । पहिल खंड जोरों सनीचर नाऊँ। लखि न टक, पौरी रोकें। द्र बड़ हस्पति तहँवा। काम द्वार भोग घर जहाँ । ॥ तौसर ज । श्रोहि
- जो मंगल जान नाभि कर्बल महें अस्थानह
चौथ खंड जो शादित अहई। बाई दि िअस्तन महें रहई। ॥ पाचव वंड उपराहीं। कंठ माहें औौ जीभ तराहीं । ॥ सुत्र द्ध कर बासा। दुड़ भौंहन्ह के बीच निवासा दोहा सातवू सोर कपार , कहा तो दसवें दुधार। जा वह पर्धारि ऊा सो बड़े सिद्ध अपार ॥ सरिटा। जो न होत अवतार, कहाँ कुटुम परिवार सब । ठ सब संसार, महमद चित्त न लाइए १७ । बाँका = टेढ़ाक = नई का , विकट । सुई नाका छेद । चारि बसेरे = योग के ध्यान, प्रत्याहार सूफियों के अनुसार शरीअत , धारणऔौर समाधि अथवा तरीकतहकोकत और मारफत--साधक की ये चार अवस्थाएँ । जस सुमेरु पर अंत मूरो = जैसे सुमेरु पर संजीवनी है उसी प्रकार ऊपर कपाल में ब्रह्म । स्वरूपा मज्योति । है । एहि बाट पर = सपना का मार्ग जो नाभिचक्र से ऊपर बहार (। दशम द्वार) की ग्रोर गया है । ‘हीं' कहते भए ओोट = पिये प्रिय या अहंकार आते ही ब्रह्म श्रौर जीव के बीच व्यवधान पड़ गया । = ईश्वर ने । खंड = भेद । (१७) पहिल खंडेड जो सनोचर नाऊँ = जिस प्रकार ऊपर नीचे ग्रहों है उसी प्रकार शरीर में क्रमशः सात खंड हैं जिसमें) को स्थिति सबसे पहला या नीचे सनोचर है जो शरीर में पौली या लात समझना चाहिए। । कवि ने जो एक के ऊपर दूसरे ग्रह को स्थिति लिखी है वह ज्योतिष के ग्रंथों के चत्र। अनुसार तो है पर इससे हठयोग के मूलाधार आौर की व्यवस्था ठीक ठीक नहीं बैठती। २७४ अखरावट सब जगत ठा ठाकर बड़ श्राप गोसाईं । जेइ सिरजा उग आपनिहि नाई ।। ‘नाप जो । आपनि प्रभुता श्राप साँ कहा ॥ दख चहा दरपन के लेखा। श्रापुहि दरपनग्राहि देखा आाहि बन औौ श्रा पखेरू । आापूहि सजा, अपू अहेरू ॥ आापुहेिं पुहप फूलि बन फूले । ग्राहि भंवर बास रस भूले ॥ चापुहि फल, रखवारा। श्रापुहि सो रस चाखनहारा ॥ ह आापूहि घट घट महें मुख चाहै । ग्राहि यापन रूप सराहै। । दहा आपूहि कागदूअपु मसि, जापुहि लेखनहार अपुहि लिखनी, प्रखर, जापुहि डित नापार ॥ केह नहि लागिहि मथ, जब नब कविलास म्हूँ। चलब झारि दोऊ हाथमुहमद यह जग छोडुि के 1१६। डा डरपह मन सरगहि खोई। जेहि पाटे पष्ठिताव न होई ॥ गरब करेंजो ‘हीं हों' करई । वैरी सोड़ गोस।ई के ग्रहई ॥ जो जानै है मरना। तुहि कहें ‘मोर तोर का करना ? ॥ निहचय नैन, बैनसरवन बिवि दीन्हा । हाथ पाँव स्व सेवक कीन्हा । जहिर राज भोग सुख करई। लेइ साद जगत जस चहई ।। सो सब विहि, मैं जो दीन्हा। मैं मोहि कर कस नगुन कीन्हा । कौन उतर, का करव बहाना। बोझं बटुर, लदें कित धाना ? ॥ दाह के किट ले, न सकब तब, नितिहि अवधिनिराई ! सो दिन आड़ जो , पुनि कियु कोन्ह न जाई ॥ (१८) सिरजा = उत्पन्न किया। पनिहि नाई के प्रथत् ियह ईश्वर का ही प्रतिभास । जगत है । आपुहि श्रा जो देखे चहा = अपने ग्रापको जब देखना चाहा, अथत् िअपनी शक्ति के विस्तार को लीला जब देखनी चाही (शावित था प्रकृ ति ब्रह्म हैं। को है, उससे १थ यू उसको कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं। जैसा मानते ) कि सांस्यवाल हैं। सने दरपन के लेखा = इस जगत् को जगत क दर्पण समझो जिसमें ब्रह्म के स्वरूप का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है (प्रतिबिंब वाद। मुख वा मुख देता है ) । (१९) सरगहि खोई - ग्रादम अपराध के कारण से निकाले गए मन हो स्वर्ग इससे में डर।। = जगत् । पूछिदि पड़ेगा । मै जो दोन्हा - मैन जो हाथ, पैर नादि तुझे दिए थे । अवगुन कीन्हा जगत में: "टपयोग किया, उसे भु काम में लाया। लव = काटे । धाना = धान । : के किछू लेइ = कुछ कर ले । न सकब तब = फिर पीछे मु छ नहीं कर सके गा। अरावट २७४ जेइ न चिन्हारी कीन्ह, यह जिउ जौ लहि पिंड महें। पुनि किए परै न चीन्हि, मुहमद यह जग धंध होइ 1१९। ढा ढा जो रकत पसेऊ। सो जानै एहि बात क भेजे ॥ हि कर ठकुर पहरे जागे । सो सेवक कस सोवं लाएं ? ॥ जो सेवक सौवें चिंतन देई । तेहि ठाकुर नहि मया करेई ॥ iइ अवतरि उन्ह कहूँ नहि चीन्हा। तेनु यह जनम बिरिथा कीन्हा ॥ यूंदे नेन जगत महें अवना । अंधझूध तैसे । गवना लेइ किए स्वाद जाग नहि पावा। भरा मास तेइ सोढं रॉवावा ॥ रहे नौंददुखभरम फिर तिन्ह । लपेटा। प्राइ कत, न भेंटा धाबत बीरें नि दिन, मरम सनेही साथ । तेहि परभयज बिहान जबरोड रोइ मीं ह।थ ॥ लछिमी सत में चेरि, लाल करे बहु मुख है । दीटेि न देखे फेरि, मुहमद राता प्रेम जो ।।२०॥ ना निसता जो आए न एहि विष किएऊ भएऊ । सो रसहि मारि । यह , थिर नाहीं । उठहि मेघ जेई जाइ बिलाहीं । संसार आठ चिन्हारी = जान पहचान । जो लहि = जब तक । पुनि किछु परे न चीन्हि = जब शरीर गौर ग्रात्मा का वियोग हो जायगा तब फिर अनेक रूपों का। ज्ञान नहीं रह जायगा, ईश्वर को नहीं पहचान सकेगा (जयसी बाह्य और अंतःकरण विशिष्ट मात्मा को ही ब्रह्मा के के परिचय योग्य समझते हैं यह बात ध्यान देने की है) । धंध = अंधकार । यह जग धंध होइ = यह संसार अंधकार हो जायगा अत् िइसके नाना रूप, जिन्हें ब्रह्म के स्वरूप का प्र कह गए हैं, तिरोहित हो जाएँगे। (२०) पसे = प्रस्वेद, पसीना । सोचे = सोने । लेइ पाया = इस जगत् में जाकर भी सचेत होकर नाना। में कि रूपों में ईश्वर के साक्षात्कार का स्वाद न लेने पाया । भरा मासरी गेंबावाड बरसात को भरनी का महीना (जिसमें बीज बोने का उद्योग करना उत्तम चाहिएतिन्ह = उन ईश्वर को। धावत बीते ) उसने सोकर खो दिया । साथ ८ खोज में इधर उधर दौड़ते रात दिन बीते औौर परम स्नेही प्रियतम जो (ईश्वर) साथ हो था, कहीं बाहर नहीं । लाल = लालसा। दी न = कितु जो ईश्वर के प्रेम में रंगा है वह लक्ष्मी की और फिरकर नहीं देखता। (२१) निसर्ताइस के रस या =बिना सत्य का। एहि रसहि म्र कर ससार सुख को । विष किएउ=ग्रपने लिये विप सा समझता है। । २७६ आखरावट जो एहि रस के बाएँ भएड। तेहि कहें रस बिषभर होइ गएऊ ।। तेइ सब तजा अरथ बेवहारू। औ घर बार कुटुम परिवारू ॥ खीर खाँड़ तेहि मीट न लागे। उहै बार होड़ भिच्छा ! मांग । जस जस नियर होड़ वह देखें। तस तस जगत हिया महें !! लेख पुहमी देखि न लादे दोठी ! हे & नवें न नापनि पीटी ॥ दोहा छोड़ि देतु सब धंधा, कार्डि जगत सौ हाथ। घर माया कर छोडि कै, ध काया कर साथ ॥ साँई के , बह मानिक मुकृता भरे । मन चोरहि ऐसार, मुहमद तौ किए पाइंट . ।।२१। ता तप साधनु एक पथ लागे। करह सेब दिन राति, सभागे ! ॥ श्रोहि मन लावह, है न रूटा। छोड़ह भगरायह जग झठा ।। जब हंकार ठाकुर कर थाइहि। एक थी जिज रहै न पाइहि ॥ ऋतु बसंत सब खेल धमारी। दगला अस तन, चढ़ब घटारी : ! सोह सोझागिनि जाहि सोहाग। कंत मिले जो खेले फा ॥ के सिंगार सिर सेंर । सबहि मिलि खेले ॥ मेलें माइ चाँचरि श्री जो रहे गरब के गोरी। चट दुहाग, जस । जरें होरी ॥ दोहा खे लि लेह जस खेलना, ऊख नागि देई ल।। झुमरि रख़लहु भूमि के, पूजि मनोरा गाड़ ॥ सोरठा । कहाँ तें उपने ग्राह, सवि बधि हिरदय उपजिए ! पुनि कहूँ जाहि समाई, मुहमद सो खंड खोजिए ।२२। विषभर = = ईश्वर । बिषभरा । उहै बार उसी के द्वार परनियर होइ = से । नवपीठि = पथ्वी में शुछ ठ के पीठ । निकट हर झुकाता: काया कर अपनी काया खोज कर । पैसा । ध साथ के भीतर ढूंढने लिये अपनी नहीं घसा दे : मन चोरहि पैसा = मन रूपी चोर को उस दसवें द्वार में पहुँचा । (-‘चोर पैठ जम सेंधि सँवारी'--पदमावत : पार्वती महश ग्लड ) । मिलाइए (२२) को 1 तलावा । आइदि = ग्राएगा । श्रोहि = उस ईश्वर दगला - , ऊरता । ददगल शरीर ऐसा है। हंकार -- अटारी = पर कपडा मैला और जाना है । पर प्रियतम के महल पर । दुहाग = दुर्भाग्य । उख = शरीर या मन जिसमें संसार का रस रहता है। । लाइ । = । = जलाकर मनरा मनरा झूमक, एक , प्रकार के गीत । उपने = उपन्न हुए । उपजिए=उत्पन्न कीजिएलाइए। । अखरावट २७७ था थापहु बह ज्ञान बिचारू। जेहि महें सब समाड़ संसाह ॥ जैसी अहै पैिरथमी सगरी । तैसिहि जान । काया नगरी तन महें 'र श्र वेदन पूरी। तन महें वैद औौ ओषद मूरी ॥ तन महें श्री श्रम त विप बसई। जावै सो जो कसौटी क१ई ॥ का भां T पढे ग्रेने प्रो लिखे ?। करनी साथ किए औौ सिखे ॥ प्रापृहि खइ ोहि जो पrवा । सो वो से मन लाई जमावा ॥ जो प्रोहि हैरत जाइ गई। सो भावै अमृत फल खई ॥ दोहा जाहि खोए पिउ मिलेपिउ खोए राव जाड़ । देखहु वृ िबिचारि मनलेह न हेरि हेराइ ॥ सोरा कट है पिज कर खोज, पावा सो मरजिया जT तह नहि हँसी, न रो, महमद ऐसे ठवें वह । 1२३। दा दाया जाकतें ग करई। सो सिख पंथ सम िपग धरई ॥ सात खंडेड ग्र चारि निसेनी। अगम चढ़ाव, पंथ तिरवेनी ॥ तां बह चहै जो गत चढावे । पाँव न ड, अधिक बल पार्टी ॥ चला। जो ग सक्षति भा भगति चेला। होड़ खेलर खेल बह । परा गइ । जो अपने बल चदि के नघा। सो खसि टूटि जाँघा नारद दौरि लेड़ तेहि साथ मारग चला । संग तेहि मिला। तेली बेल जी निसि दिन फिरई । एक परग मगुस न सो सरई ॥ दोहा सोड़ सभ् लाा रहै, जेहि चलि भागे जाई । नतु फिर पाछे जावईमारग चलि न सिराइ ॥ (२३) कसौटी कसई - शरीर को तप आदि की कसौटी पर कसे तो अमत विष का लग जाय गा पता । करन साथ किए =देखादेखी कमों के करने से । श्रोहि = उस ईश्वर को 1 बी - बिरवा, पौधा, पेड़ । सो बीजमावा
मानों जिसका फल भ्रम है। लेह न हेरि हेराइ
सम्पादनउसने ऐसा पेड़ लगाया स्वय को ) से हाद ने लो। का कड वा कठिन । खो जाकर (अपने जोकर सरजिया = जान जोखों में डाल कर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तुएं (जैसे । मोती, लानेवालेरोज = , रोना। (२४) दाया= दया। सिलाजीत) । रोदन सिख=शिष्य, चेला। निसेनी - सीटी । पंथ तिरवनी- डला सिंगला और सुषुम्ना तोनों नाड़ियाँ । सतति शक्ति 1 बसि परा = गिर पड़ा। नारद = शैतान = अग्रसर होता है, आगे बढ़ता । अगुसरई है । सोध = खोजमार्ग। । जहिजिससे । नतु = नहीं तो। मिराइ = चुकता है, खतम होता है। । २७८ अखरावट सोरठा । सुनि हस्ती कर नावें अँधरन्ह टोवा धाड़ है । ड टोवा के हि टाबें, मुहमद सो तैसे कहा ५२४। धा धावडू नेहि मारग गे। जहि निसतार होइ सब भागे । बिधिना के मारग हैं ते ते । सरग नखत तन रोवाँ जेते ॥ जेइ हेरा नेइ नरेंदें पावा। ा संतोष, समुशि मन गाबा ॥ तेहि महें पंथ कहीं भल गई। जेहि टुनौ जग बाज बड़ाई ॥ सो बड़ पंथ मुहम्मद केरा। है निरमल कविलास बसेरा ॥ लिखि पुरान बिधि पटवा साँचा। भा परवाँन, दुबौ जग बाँचा ॥ सुनत ताहि नारद उठ भागे । छूट पाप, पुनि सुनि ला वह मारग जो पावे, सो पाँचे भव पार। जो भूला होड़ अनतहि, तेहि लूटा बटपार ॥ साईं केरा बार, जो थिर देखें औौ सुनै । नड़ न करें जोहार, मुहमद निति उठि पाँच बेर ।२५॥ ना नमाज है, दोन क यूनी। पड़े नमाज सोड़ बढ़ गुनी ॥ कही तरीकत चिसती पीरू। उधरित असरफ नौ जाँगीरू ॥ सुनि हस्ती कर कहा - चार , यह देखने के लिये कि हाथी कैसा होता है, हाथी को टटोलने लगे थे जिसने पूरे छ टोली वह कहने लगा रस्सी के ऐसा होता है, जिसने पैर टटोला वह कहने लगा कि खंभे के ऐसा होता है, इसी प्रकार जिसने जो ग्रंग टटोला वह उसी के अनसार हाथी का स्वरूप कहने लगा (यही दशा ईश्वर ऑौर जगत् के संबंध में लोगों के ज्ञान को ‘एकांगदस्सिन' का यह दष्टत पहले पहल भगवान वद्ध ने देकर समझाया था) । है । (२५विधना के मारगरजते = इसमें ने ईश्वर तक पहुँचने ) के लिये अनेक मागों को । उदारतापूर्वक स्वीकार किया जायसी है, यद्यपि अपने इसलाम मत के अनुरोध से उन्होंने ‘महम्मद के पंथकी प्रशंसा की है। । पुरान कुरान । विधि == ईश्वर। परवान प्रमाण , सनत ताहि‘‘भारी-कुरान का आायत सुनते हो शैतान भाग जाता ऑौर जगह । बटपार : डाक, (काम, क्रोध यादि) । बार = द्वार । नई नई = है । पुन्नि पुण्य अनतहि = अन्यत्न, भक ोककर। जोहार = बंदना, सिजदा। पाँच बेर= पाँचो वक्तों की नमाज । (२६) दीनधर्ममजहब । यूनीटेक, खंभा । गनी = गुणी । तरीकत : बाहरी क्रिया कलाप से परे होकर हृदय से शुद्धतापूर्वक ईश्वर का । ध्यान चिसती = निजामुद्दीन चिश्ती पीर = गुरु, प्राचार्य । उधरित = उद्धरणी की। खेवक = नेवाला । हकीकत = सत्य का बोध । अखरावट २७९ तेहि के नाव चढ़ा ही धाई। देखि समद जल जिउ न डेराई ॥ जेहि के ऐसन खेवक भला। जाइ उतरि निरभय सो चला ॥ राह हकीकत परै न को। पैठि मारफत मार बकी ॥ टूढ़ि उठे लेइ मानिक मोती! जा समाई जोति महें जोती । जेहि कहूँ उन्ह आस नाव चढ़ावा। कर गहि तर खेइ लेइ आावा ॥ दोहा साँची राह सरीग्रतजेहि बिसबास न होइ । पाँव राख तेहि सोढ़ी, निंभरम पहुँचे सो । जेड पावा गुरु मीट, सो सख मारग महें चले । सुख आनंद "भा डीठ, महमद साथ पोढ़ जेहि 1२६। पा पाएई गुरु मोहदी मोठा1 मिला पंथ सो दरसन दोठा ॥ नाथू पियार से रहान कालपी गुरु था ! । नगर हत श्री तिन्ह दरस गोसाई पावा। अलहदाद गुरु पंथ लखावा ॥ अलहदाद सैयद चेला गुरु सिद्ध नवेला। मुहमद के वे । सैयद मुहमद दोनह सांचा। दानियाल सिख दीन्ह सुबाचा ॥ जुग जुग अमर सो हजरत ख्वाजे । हजरत नबी रसूल बाजे दानियाल तहें परगट कोन्हा। हजरत ख्वाज खिजिर पथ दोन्हा । दोहा खडग दीन्ह उन्ह जाई कर्वी, देखि डरें इवलीस । नायें सुनत सो भागे, धुनै प्रोट होइ सोरा । मारT देखि समद महें सीप, विन वडे पावे नहीं । होइ पतंग जल दोप, महमद तेहि धंति लीजिए ।२। । फा जो त पावे । फल मोल गुरु सो बीरी मन लाइ जमावे । जौ पखार तन यापन । निमि दिन जा सो फल चाख ॥ । को क =, भूल 1 मारफत =सिद्धावस्था । ड की = बड की, गोता । जाइ ‘जाती = ब्रह्म को ज्योति में यह ज्योति (आत्मा) लीन हो जाती समाह है। बिसवास = विश्वासघात, धोखा । डठ भा = दिखाई पड़ा । पोढ़ = मजबूत। (२७ ) गुरु = यहाँ गुरु का गुड़ के साथ श्लेष भो है । मोहदी । = संदर व वनों मुहिउहोन हत । = था। गत थान = गुरु का स्थान । सुवाचा ने से । =को, अनुग्रह किया । तहूं = प्रति, के सामने। पथ नेवाजे निवाजिश दोन्हा रास्ता जइ = पकड़ाया । कहें = ईश्वर के मार्ग पर जाने के लिये। इब लोस = शैतान। (२८) गुरु ढ़त = गह से। बो = पेड़ । पखारि = धोकर। २८० अरावट चित भूलें जम झूले ऊखा। तजि के दोउ नींद औ भूख़ा। चिंता है जब पेहूँ सारू। भूमि कुल्हाड़ी करै प्रहारू ॥ तन कोल्ह, मन कातर फेरैं। पाँच भूत मातमहि पे ॥ जैसे भाटी तप दिन रातो। जग धंध जाएं जस बाती । चापुहि पेरि उड़ाई खई। तब रस औौट पाकि गुड होई ॥ दोहा प्रस व रस औौटावह, जामत गुड़ हो गई । गड से खड्ड मीटि भइ, सव परकार मिठाइ । सोरा धूप रहै ज ग श्राइ, वह खंड संसार महें । चुनि कहें जाइ समाइ, मुहमद सो खंड खोजिए।२८। बा तन ज तुि जिद्ध प्रस चैंधियारा1 नदि होत नयन उजियारा ।। मति क द जो नैनन्ह माहों । सोई प्रेम प्रंस परशाही ! श्रोहि जोत साँ पर हीरा ग्राहि स निरमल सकल सरीरा। उ जोति नैनन्ह म आा। जस । चैचमक उठे बोज देखावै । । मग हि सगरे जाहि विचारू । साँकर म"ह तेहि बड़ बिसतारू । जहवाँ कि नहि है, वरा। a ताँ । सत जहाँ वह रस भरा निरमल जोति बरनि नहि जाई । मिरखि सुन्न यह सुन्न समाई ॥ हूं माटी में जल निरमलजल में निरमल वाउ । हु ने सुटि निरमल, नु यह जाकर भाउ ॥ सारठा इहै जगत के पन्न, यह जप तप सब सधना । जानि परे जेहि मुन, सोई सिद्ध मुहमद भा ।२६। भा भल सुन्नहि रोइ जो जानेंमें जग पहिचानें। । सुन्नहि सब ॥ सुनहि है। सुन उपाती। सुनहि में उपहि बहु माँती ॥ सारू सार, तत्त्र 1 कातर कोल्ह का पाटा जिसपर बैठकर हाँकनेवाला बल हॉकता है। । तप जलती है । खोई जिसका रस निकाल लिया गया हो । आस है इतना । (२३) वंद बिंदी अथा पुतली के बीच गन्ने की सीटी का तिल । सतकग सत्य की ज्योति । वह रस ईश्वर भाव । अथत का यह जाकर भाउ यह सर भाव जिसका है, जिससे संसार के रूप का दर्शन होता है प्रौर मन में भावना होती है अर्थात ज्योति या तेज । जानि पर जह सुन्न जिसे इस प्रन्प का भेद मिल गया (एक परमाण के भीतर ही सारे ब्रह्मांड की व्यवस्था छिपी हुई है इसी बात की भावना योगी विदु द्वारा करते हैं) । (३०) उपात उत्पत्ति । २८५ सुन्नहि माँभ इंद्र बरम्हडा । सुन्नहि में टीके नवखडा ।। सुन्न हि तें उपजे सव कोई। पुनि बिलाड़ सब सुन्नहि होई ॥ सुन्नहि सात सरग उपराहीं । सुन्नहि सात धरति तराहीं। सुन्नहि ठाट लाग सब एक।। जीवहि लाग पिंड सगरे का ॥ सुन्नम सुन्नम सव उतिराई । मुनहि हैं सब रहै साई दोहा सुन्नहि महूँ मन ए ख, जस जस काया महें उ । काठी माँभ नागि जसदूध माहें जस घीज ॥ सोरठा जावैन एकहि , जागे देखढ़ छोर सब । मुहमद मोति सदकाढह नथनि अरंभ के 1 ३०!। मा मन मथन करे तन वीरू। दृहै सोड जो ग्रामू अहोरू ॥ पाँच भत नात महि मारै। दरव गरव करसी के जारे । मन माटा सम एस के धोवै । तन डे ला तोहि मानें बिलोच । जपहु वृद्धि के दुड़ सन फेन्दु दही र आंस हिया अभेरह पब्ध कढ़ई कैंसन फेरहूं। ऑोहि जोति महें जोति अरह ॥ अंतट साठी फूटे। निरमल होइ मया सब माखन उल* मूल उठे लेइ जोती। समुद माँह जस मोती । जस । जस घिउ होइ जराइ , तस जिज निरमल होइ। महै महेरा दूरि करि, भोग करै सुख स इ ॥ सोरठr हिया कंवल फ्ल, जिउ नेहि मां जस बासना । जस तन तजि मन महें भूल, मुहमद तब पहिदानिए ॥ ३१ उमी के टीके : टिके हुए हैं । ठाट संसार
सारे का ढाँचा। सब एका
सम्पादनलगा । एक शून्य से लगा अथत् िउसी पर ठहरा जोवहिसगरे है । का = सब का । शरीर जीव पर टिका सुन्नम सुत्रम ही शून्य में हुमा है । = शून्य । सुन्नतेि काह भह मन रूख -उस शून्य के भीतर ही मन रूपी वृक्ष (सवत्मा) है। = लकड़ी । जान = सा खटाई दूध में थोड़ा दही या जिसे डालने से वह। खंडेला जमकर दही हो जाता है । (३१) करसो = उपले को राख । = ३वेह ==मथानी। दुइ सन फेरह एक ही में ध्यान जमाओो, द्विविधा छोड़ो। चर हो, फटे वाँ = पीछे से । कई=छोटा बेला या दोया जिसे मटके में डालकर दहौ निकालते हैं। जोति = ब्रह्मज्योति । ग्र रह = मिला ! अतरपट = का उस माया परदा जिससे हृदय वहज्योति का साक्षात्कार नह ! महेथे कर सकता । मया। = माया । उल* = उमड़कर ऊपर जाता है । । । महरा महींमद्रा । बासना बास, गध । २८२ जा जानह जिउ बसे सो तहवाँ। रहै कंबल हिय संपुट जहँवाँ ॥ दोप जैस बरत हिय ऑारे। सर्वे घर उजियर ते िउजियारे ।। तेहि महें श्रेस समानेउ थाई । सून सहज मिलि थावे प्राई ।। तहरी उठे धुनि आाउ ारा । अनहद सवद होइ झनकारा ॥ तेहि महूँ जोर्ति अनूपम भाँतो । दीपक एक, बरं दुइ वाती ॥ एक जो परगट होई उजियारा। दूसर गुपुत सो दसवें दुबारा ॥ मन जस , आासु तेलदम टेमप्रेम जस दीया । , बाती कीया ॥ दोहा। तहँव तम जस भंवराफिरा करे चहें पास । मोड़ पवन जब पहुंचे, लेइ फिरै सो त्रास ॥ सुनहु बचन एक मोर, दीपक जस गारे बरै । सव घर होइ अंजोर मुहमद तस जिउ हीय महें 1३२॥ रा रातः तेहि के वेगि लागु प्रीतम के संगा | । चव । रंगा। अर उध अस है दुड परगट हीया । , गृहुत बड़े जस दीया ॥ परगट मया मोह जस लावै गुपुत . । सुंदरसन श्राप लखावे ॥ अस दरगाह जाइ नहि पैठा। नारद पंवरि कतक लेइ बैठा ॥ ताकह मत्र एक है साँचा। । जो वह परे जाई सो बाँचा पट्टे सो लेइ लेइ ना। नारद छाँड़ेि देड़ सो ठाऊँ। बकरे हाथ होड़ वह ली । खोलि केवार ले सो पू जी ॥ दोहा। उघरे नैन हिया करमाले , दरसन रात । देन्नै सो श्री it चन चौदही, जाने सब बात ( ३२) कंवल हिय = सुषुम्ना नाड़ी परजो हृदय कमल । है । मारे ग्राल पर। श्रेस - वहा । सन्न = शन्य । सहज = प्रगति । ग्राउंकार = ऑोंकार प्रणव । सबद = अनाहत का अंश निर्गणश्रव्यक्त ब्रह्मसत्ता । यह अंतश्रादि इंद्रियों स्य नाद ग्राँख, को बंद करके नहद नाद कान, नाक के व्यापारों ध्यान करने से सुनाई पड़ता है। । - दसवें = वहर । टेम दीपक की ली । ग्रामुलूट दृढ़ बाती एक तसँखो, दूसरी बहिर्मुखी सो बास = जोव जो हृदय कमल में सुगंध के समान है । ", प्राण। दम = श्वास । १. भाटांतर--जि है । (३३) अरध.होय = मन या हृदय एक अंतर्रुख है बहिर्मुख अंतर्मुख से ग्रात्मस्वरूप का ज्ञान होता है और बहिर्मुख से बाह्य जगत् के विषया दूसरा का। नारद = शैतान । कटक काम, क्रोध, मोह आादि । = (ध) । सो यूजी - अर्थात ईश्वर का दर्शन । ग्राठे दरसन रात 1 दर्शन कर जिसके पाकर ग्रानंदमग्न हो । अखरावट २८ कंत पियारे , देखो तूलम तूल' हो । भए बयस दुइ हें , मृहमद निति सरवरि करें ॥ ३३ : ला लखखई सोई लखि नावा। जो एहि मारग घापु गंवावा ॥ पीउ सुनत धनि आा बिसा। चित्त लखंतन खोइ अड॥ ‘हीं हो’ करव ग्रडारह खई । परगट गुप्त रहा भरि सोई ॥ बाहर भीतर सोइ समाना। कौतुक सपना सो निज जाना है। सस इं देखें औौ मई गुनई । सोई सब मधुरी मूर्ति सुनई॥ सोई करे कीन्ह जो चहई। सोई जानि चूंकि वप रहई ।। सोई घट घट होइ रस लेई । सइ , सो उतर देई ॥ सोई सारी अंतरपटखेले आा अकेले । वह भूला जग सेंती, जग भूला श्रोहि खेल । सोरठा जो लगि सुनै न मीलूतो लग मारे जियत जिउ । कोई हतेछ न बीच, मुहमद एक होड़ रहै है। ३४ ॥ वा वह रूप न जा बखानी । अगम अगोचर अकथ कहानी ॥ दहि बंद भाएउ सो द । न एक माहें सेंसी रोवंदा ॥ बारे खेलतरुन वह सोवा। लउटी बूढ़ लेइ पुनि रोवा । सो सब रग गोसाईं के रा। भा निरभेल कबिलास बसेरा ॥ सो परगट महें भाई भुलावै । गुपुत में प्रापन दरस देखावे ॥ तुम मनु गुपृत मते तस सेऊ । ऐसन सेउ न जाने लेऊ । । तूलम तूल = बराबर परआमने सामने । भए ब्यस दुइ हेंठ = अवस्था में तीसरे स्थान पर होने पर भी (पहले ईश्वरफिर फिरिश्ते हुएउसके पीछे मनुष्य हुग्रा), अवस्था में कनिष्ठता ाने पर भी। सरवरि = बराबरी । १. पाटांतर--दर जो मतलब हो । (३४) अंा वाब = अपने को खो दे । घति = स्वी। खोइ अडारे: = खो डालै । खोड़ ग्रडारह = खो डालो । जग सेंती - गंमार से । अहि खेल = उसके खेल में । जौ गि मीनु = जब तक मृत्यु न आा जाय । माएं जियत जिउ = जीते जी जीव को मारेOपनी अलग संता भूल जाय या मन का दमन करे । (३५) सुंदहि ठंद = नकल ही नकल में, खेल ही खेल में । बंटा बँधुवाबंदी । रोबैदा = रोना । लउटरी = लकुटीलाठी । आई भलाव संसार में जाकर भूला हुआ दिखाई पड़ता है । आापन दरस = अपना शुद्ध स्वरूप । प्रतु = फिर । गुपुत मते = गुप्त रूप से, मन के भीतर ही भीतर ॥ तस = इस प्रकार केऊ= कोई । २८४ अरावट ग्रामू मरे बिनु सरग न छूवा। ग्राँधर हहि, चाँद कहें ऊवा ? ॥ - '९ पानी महूँ जस बुल्ला, रास यह जग उतिराड़ । एकहि थावत देखिएएक है । जगत बिलाइ ॥ सारठा दीन्ह रतन बिधि नारि, नैन, चैनसरवन्न मुख । पुनि जग मेटिहि मारि, मुहमद तव पछिताव में 11 ३५ ॥ सा सांसा जौ लहि दिन चारो। ठाकुर से करि लेह चिन्हारी ॥ अंध न होह रहह, डिठियारा। चीन्हि लेह जो तोहि सँवारा ॥ पहले से जो ठाकुर कीजिय। रो से जनम मरन नहि छीजिय ॥ बाँह घि औो मेरी माँसू । सूखे भोजन करह गरासू ॥ दूधमांडू घिर कर न अहारू। राटी। सानि करह फरहा । एहि विवि काम घटावह काया । काम, क्रोधतिसनामत माया ॥ सब ठहु बजासन मारी। गहि सुखमना पिंगला नारी ॥ प्रे तंतु तस लाग रह, करह ध्यान चित बधि । पारस जैम अहेर , रहै सर साधि लाग , सर अपने कौतुक । लागि, उपजाएन्हि वह भांति के चोन्हि सो लेहुर्गा । ३६ जागि, मुहम्मद सोइ न खाइए ॥ ख़ खेलहूखेलह श्रोहि टा। मुनि का खेलई खेल समेटा ॥ कठिन खेल अंशु मार करा। हतन्ह खाइ फिरे सिर टकरा । मरन रखुल देखा , सो सा। हाई पतंग दोपक महें धंसा ॥ तन पतंग के भिरिग में नंगाई । सिद्ध होड सो जुग जुग ताई बिनु जिड़ दिए न पावे कोई। जो मरजिया अमर भा सोई नाम जो जामें चंदन पासा। चंदन धि तेहि होई पासा ॥ पाबन्द जाइ बलो सन भका। टेका। जी लहि जिउ तन, तौलहि ग्राषु मरे..वा बिना मरे स्वयं भी दिखाई देता (कहावत) । बुल्ला वल । टिहि मिटाबे गा, नष्ट कर देगा : (३६) चिन्हारी जान पहचान । डिटियार दष्टिवाला । जियन मरन जोवन मरण के चक्र में । ! छाfजय नष्ट हों। व जसन द्योग में एक ग्रसन। ना सुषुम्ना नाड!" तंतु तत्व। पारधि रो, शिकारो। (३७) ग्राहि भेंटा उसक संयोग या में । टकर, ठtर । तन अपना मिल टकरा पतंग.नाई जैसे पतंग स्वरूप छोड़ भौंग के रूप का हो जाता है। । बबली सन टेका बली का सहारा ले । वप, रूप। कया = काया में । भका अखरावट २८५ अस जाने है। सव महें श्री सब भावहि सोइ । ीं कोहाँ कर माटी, जो चाहै सो हो । सोरट सिद्ध पदारथ तीनि, बुद्धि पानें औ सिर, कया । पुनि लेइ हि सब होनि, मुहद तब पकिताब मैं 1 ३७ ॥ सा साहस जाकर जग पूरी। सो पावा वह अमृत मूरी ॥ कहीं मंत्र जो आापनि पौंजी। खोल केवारा ताला जी। साटि’ बरिस जो लपई गई। इन एक गुपुत जाप जो जपई ॥ जानतें दुौ बराबर सेवा । ऐसन चले सहमदी खवा ॥ करनी करें जो पू आासा । सँवरे नादें जो लेइ लेइ साँसा ॥ काटी धंसत उठे जस आाग। दरसन देखि उठे तस जागी । जस सरवर महूँ पंकज देखा। हिय के अखि दरस सब लेखा ।॥ जासु कथा दरपन के , देख श्राप म “ह थाप । चापुहि आा जाइ गिलु, जनहि घुनि न पाप ॥ , मनुवाँ चंचल ढाँप, बरक़ अहथिर ना रहै । साप, मुहमद तेहि विधि राखिए ॥ ३८ हा हिय ऐसन बरजे रह । चूड़ न जाई, बुड़ अति महई ॥ सोइ हिरदय कके सीढ़ी चढ़ई । जमि लोहार ने दरपन गई ॥ चिनगि जोति करसी में भागे। परम तंत परचा लागे । पाँच दूत लोहा गति तावै । दुहें साँस भाटो सुलगावै ॥ कया ताई के खरतर' करई । प्रेम के पेंड़सी पोढ़ के धरई ॥ हनि हथेव हि दरसन सा । खोलनो जाप हिये तन मर्ज ॥ (३८) लघई झपई = पचे, हैरान हो । सा िबरिस.ज जपई = साठ बरस अनेक यत्न करके हैरान होना अंर एक क्षण भर गुप्त मंत्र का जाप करना दोनों बराबर हैं । महमदी खेवा = महम्मद का मत या मार्ग । काटो = लकड़ो । वैसत = घिसते हुए । मनुवाँ = मन । ग्रहथिर = स्थिर । (२६) जिमि लोहार...गढ़ई = जैसे लोहार घन की चोट मार मारकर दरपन गढ़ता है (पुराने समय में लोहे को खूब मज़ औौर चमकाकर दर्पण बनाए जाते थे, बिहारी ने जो दरपन का मोरचा ' कहा है वह लोहे के दर्पण के संबंध में है। चिनगि-भागे = उपले की राख में चिनगारी नहीं रह सकती । परम तंतु = मूल मंत्र से । लोहा गति = लोहे के समान । खरतर = खूब ख रा या लाल । १. पाठ ‘केकरि दर’ है, जिसका कुछ अर्थ नहीं लगता । पोढ़ के = मजबूती से । हनि = मारकर। हथेव = हथौड़ा । २८६ आखरावट तिल तिल दिस्टि जोति सह ठानै । सांस चढ़ाइ के ऊपर जाने दोहा। तो निरमल मख देखे जोग होइ तेहि ऊप । होइ डिटियार सो देखें आंधन के धकूप ॥ सोरटा जेकर पास अनफाँस, कह झिय फिकिर 'भारि है । कहत रहै हर साँस, मुहमद निरमल होइ तब ॥ ३१ ।: खा खेलन ने खेल पसारा। कठिन खखेल खेलनहारा। प्राहि प्राहि चाह देखावा । श्रादम रूप भेस धरि नावा ॥ अलिफ एक अल्ला बड़ सोई। दाल दीन दुनिया सब कोई ॥ मख दुड ॥ मीम मुहम्मद प्रीति पियारा। तिनि नाखर यह रथ बिचारा ॥ विधि अपने हाथ उरेहा । जग सानि सँवारा देहा के दरपन अस रचा बिसेखा। ग्रापन दरस या महें देखा जो यह खोज श्राप महें कोन्हा। तेइ प्रापृहि खोजा, सब चीन्हा ॥ भागि किया दुआइ मारग, पाप पुन्नि दुइ ठाँव । दहिने सौ मुठेि दाहिनेबाएँ सौ सुछि बातें ॥ सोर भा अपूर सब ठावें, गुड़िला मोम सँवारि कै; । नाएँ, मुहमद सब शादम कहै ॥ ४० ॥ श्र उन्ह नाँव सीखि जौ पावा । अलख नाव लेड सिद्ध कहावा ॥ अनहद ते भा आदम दूजा। श्राप नगर करवायें पूजा ॥ घट घट महें होइ निति सब ठाऊँ। लाग पुकारे आापन ना. ।। अनहद सुन्न रहै सब लागे । कबहूं न बिसगे सोए जागे । लिखि पुरान महें कहा बिसेखी। मोहैि नहि देखहमैं तुम्ह देखी। तू तस सोइ न माह बिसारसि। न सेवा जीते, नहि हासि ॥ ग्रस निरमल जस दरपन मागे । निसि दिन तोर दिस्टि मोह लागे ॥ उप = प्रोप, प्रकाश । पास घनफीस = बंधन और मोक्ष । फिकि र = फि, सामीप्य प्राप्त करने के लिये चितन । (४०) शाहिदेखावा = अपना ‘‘रूप अपने । अलिफ को ही दिखाना चाहा - अरबी का आाकारसूचक वर्षों से दाल = ‘द' सूचक वर्ण। मीम = ‘म’ सूचक वर्ण । तिनि = ‘मादम' शब्द के तीन अक्षर। भागि = विभाग करके , बाँटकर। गुड़िला = पुतला, मूति । मोम = मोम का । (४१) अनहद = नादब्रहा।' मोह नहीं देखहुदेखी । घुम मुझे नहीं देखते हो, मैं तुम्हें देखता हूं । सेवा = सेवा से। आखरावट ८७ पृह बास जस हिरदय, रहा नन नियरे से सुठि नीयरे, ओोहट से सुटि दूरि । सरठा दुव दिस्टि टत लाइ, दरपन जो देखा चहै । दरपन जादू देखाइ, मुहमद तौ मुख देखिए ॥ ४१ S ठा छाडेढ़ कलंक झेहि नाहीं। केहु न बराबरि तेहि परछाहीं । सूरज तपे परै अति घाम् । लागे गहन गहन होइ सामू । सेसि कलंक का पटतर दीन्हा। घटे बहैसे गहने लीन्हाँ ॥ नागि बुझाड़ जो पानी परई। पानि सूख, भाटी सब सरई ॥ सब जाइहि जरे जग महें होई। सदा संरबदा अहथिर सोई ॥ निहकलंक निरमल सब अंगा। अस नाहीं केहू रूप न रंगा । जो जाने सो भेद न कहई । मन महें जान बूमि चुप रहई ॥ दाहा के के ठाकुर सुनि मति क, कहै जो हिय मझियार । बहुरि तासों क, टाकुर दूजी बार ॥ न मत। सोरठा गगरी सह पचास, जो कोउ पानी भरि धरे । सूरज दिपे अकास, मुहमद सब महें देखिए ॥ ४२ ॥ ना नारद तब रोइ पुकारा। एक जोलाहै सौं, मैं हारा। प्रेम में निति ताना तनई। जप तप सावि मैकरा भरई ॥ दब गरब सब बिथारी। गनि साथी सब लेहि भारी।। दइ पाँच चत माँडी गनि मल । मोहि स मोर न एक चलई । बिधि कहें सबरि साज सो सार्ज लेइ लेइ नार्वे कूच सौ मजे ॥ । ओोहट = अलगदूर । मुख = ईश्वर का रूप । (४२) छाठेहुनाहीं तुमने उस ईश्वर को छोड़ दिया जो निष्कलंक है । केह = कोई । सामू = श्याम, गहने लीन्हा = गहन से लिया गया, ग्रस्त हश्रा (यह प्रयोग बहुत प्राचीन है, इसी कर्मवाच्य से के प्रयोग बने हैं प्रयोग आाजकल कर्जे वाय ) । सरईमड़ती है । रूप रंगा = न रूप में, न रंग में । मति ठाकुर ‘बार . = -=। न पने अंतकरण में ईश्वर की सलाह सुनकर जो उस हृदय की बात को बाहर कहता है । उससे फिर ईश्वर दूसरी बार सलाह नहीं करता। गगरी सहस = प्रतिबिंबवाद का यह उदाहरण बहुत पुराना है। । (४३) तंतु - तागा”। बिथारी = बिखेर दे । मडी = कलप जो कपड़े पर दिया जाता है । कूच =जुलाहो की छू ची। २८ २८८ मन भु देड़ सब अँग मो। तन सो बिनै दाउ कर जोरे ? । सूत सूत सो कया मैंजाई। सीझा काम विनत सिधि पाई । राउर धागे का कहें, जो सँवरै मन लाइ । तेहि राजा निति संव, पूछे धरम बलाई । तेहि मुख लावा लूक, ससुझावै समु नहीं । पर खरा तेहि चूक, मृहमद जेहि जाना नहीं । ४३ ॥ मन सौं देई कढ़ती दुइ गाढ़ी । गाढ़े छीर रहे होइ साढ़ी । ना श्रोहि लेखे गति न दिभा । करगह नैठि साट सो बिना। खरिका लाड करे तन घी'। नियरन हो, डरे इलीसू ।। भर सास जव नावें। री। निसर्ग ठंी, ॥ पैसे भरी। लाइ लाइ नरी चढ़ाई। इललिलाह के ढारि चलाई ॥ के चित डोले नहिं बूटी दुरई। पल पल पेखि ग्राग अनुसरई ॥ सीधे मारन पहंचे जाई। जो एहि भाँति करै सिधि पई ॥ दाहा चले साँस तेहि मारग, जेहि से तारन हो । ध पार्टी तेहि सोढ़ो, तुरतें पहंचे सो ।। सोरा दरपन बालक हाथ, मुख देख दूसर गने । तस भा दुइ एक साथ, मुहद एजें जानिए ।॥ ४४ ॥ कहा मुहम्मद प्रेम कहानी। सुनि सो ज्ञानी भए चियानी । मुर्रा = ऐंठन । वि’ = (क) बुने, (ख) विनय करके । पाई = पतली छडियों का ढाँचा जिसपर ताने का सूत फैलाते हैं । राउर = प्रापके। आगे - - सामने । धरम = धर्म से १. पातर--‘सीया'। २. पाटiतर--‘घड़ी' । (४४) कढ़नी = मथानी में लगाने की डोरी, नेती। गाढ़े छीर... साढ़ी = नहीं तो गाढ़ा दूध मलाई हो जाता है । साट =यस्त्र, धोती । खरिका = कमानी ? घीसू = माँजा, रगड़। इधलीस = शैतान । ३. पाठ ‘ची' है, जिसका कुछ अर्थ नहीं जान पड़ता। नरी = ढरकी के भीतर की नली जिसपर तार लपेटा रहता है । इललिलाह: = ईश्वर का नाम। डारि = हरकी । टूटी = जिसमें ताना लपेटा रहता है । ग्राग अनुसरई = आगे बढ़ता है। चलें साँस तेहि मारग = इला चौर पिंगला दोनों से दहिने और बाएँ श्वास का चलना हठयोगवाले मानते हैं । तारन उद्धार । (४५) ज्ञानी =' तत्वज्ञ । आखरावट २८ ने सम।ि गुरू स ा । देख लें निरवि भरा औौ ठंा ॥ दुर्दा है “क अकेला। नौ अनबन परकार सो खेला। रूप ने भा चहै दुवाँ मि लि एका। को सिव देड़ काहि, को टेका ॥ कैसे ग्राषु बीच सो मेटे ? । कैसे आप हे राइ सो भेंट ? है। जो लहि पाप न जीयत मरई । रि सी बात न करई ॥ तेहि कर रूप बदन सब देखें । उठं व री महें भाँति बिसेफ ॥ न दोहा सो नौ आभा हे राम है, तन मन जीवन खो: । चेला पूछे गुरू कहूँतेहि कस अगरे होइ ? ॥ सोरठ मन आहथिर है टेकू, दूसर कहना ईि दे । आदि त जो एक, मुहमद कहु, दूसर कहाँ ॥ ४५ ॥ सुन तेला ! 5 तस र ा रू कहई। एक होइ सो लाखन लहई ॥ हथिर जो पि डा द्वाड़े। न । लेइ धरतो महें गार्ड ॥ काह कहीं जस व परछाहीं । जौ पै किg आापन बस नाहीं ॥ जो बाहर सो अंत समाना। सो जानै जो मोहि पहचाना ॥ तू हेरे भीतर स मिंता। सोइ करें जेहि लहैं न चिता ॥ स मन बूति ड, को तोरा ? । हो समान, करह मति मोरा। दुइ ढंग चलै न राज न रैयत । तब वेइ सोख जो हो मग ऐयत ॥ दोहा आ स मन बूझहु व तुमकरता है सो ए' । साइ सूरत सइ मूरत, सूने गुरू सा टक पानी=योग साधनेवाले । वे =ले ने । देखनिखि : ..=
- 'छठ इस
संसार में ईश्वर को व्याप्त देखता भो मैं नहीं भी देखता हूँ । अनबन=अनेक, नाना। को टे का = कौन व शिक्षा ग्रहण करता है । ? बोच = अतर (ईश्वर ऑौर जीव के बी त्र काr) हूँमैं = वह प्रियतम ईश्वर सता है । तेहि कर रूप । विसे = कभो तो वह सब को उस रूप का देखता है और फिर वही दूसरे क्षण तेहि अगरे। में (व्यवहार में) भिन्न भिन्न रूप और प्रकार निदिष्ट करता है । = अहथिर उसके सामने । ४६) लखन (लहई = लाखों रूप धारण करता है ।
- = जीवात्मा को स्थिर करके । जो पै ."नाहीं = जो वास्तव में कुछ है।
कि वह अपने वश के बाहर है, अर्थात् वस्तुसता तक हमारी पहुंच नहीं । चिता सांसारिक चिता = । छड़ - सब को छोड़ दे। को तोरा = तेरा कौन है ? समापन = समदर्शी । क रह मति ‘मोरा’ = ‘मेरा ' कर। मेरा मत । हत = से । तब वे इः ‘ऐयत वे ही सीखते हैं जो सच्चे मार्ग पर आ जाते हैं । २९ खरावट नवरस पह गुरु भीज, गुरु परसाद सो पिउ मिले । जामि उठे सो बीज, मुहमद सोई सहम बुंद 1 ४६ ॥ माया जरि अस चापुहि खोई। रहै न पाप, मैलि गई धोई ॥ ग दूसर भा सुनहि सुन्नू । कहें कर पापकहाँ कर पुन्नू ॥ जापुहि गुरू, आयु भा चेला । ग्राहि सव आय ग्रामू ग्रकला ।। अहै सो जोगी, अहै सो भोगी। मुहैं सो निरमल, अहै सो रोगी । अहै सो कड़वा, अहै सो मीठा । अहै सो आामिल, है सो सीठा ॥ वे श्रापुहि कह सत्र महें मेला। रहै सो सब महें खेले खेला। उहै दोउ मिलि एक भए । बात करत दूसर होइ गएऊ । जो कि है सो है सव, मोहि बिनु नाहिन कोई ॥ जो मन चाहा सो किया, जो चाहे सो होइ ॥ सोरठा एक से दूर नहिं, बाहर भीतर चूमि ले । खरड़ा दुइ न समाहि, मुहमद एक मियौन महें1 ४७ ॥ पू गुरू बात एक तोहों। हिया सोच एक उपजा मोहीं ॥ तोहि अस कतन मो fह आस कोई । जो कि तू है सड़े टह हरा सोई ॥ तस देखा मैं यह संसारा। जस सब भौंडा गढ़ कोहरा । काह माँ खाँड़ भरि धरई। काह माँभ सो गोवर भरई ॥ वह सब किडु से कहई श्राप चिरि व चुप रहई ॥ मानुष तौ नीके सैंग लासैं। देग्वि विनाइ त टि के भागे सभ चाम सब काह भावा। देखि सरा सो नियर न मावा ॥
टेक = निश्चित बचन । सोई सहस ढूंद = ग्रात्मतत्व या जीव (जिसका अटारह हजार ढूंदों से बरसना पहले कह पाए हैं) । (४७) गाँ दूसर= दूसरे ’’ अध्यात्म पक्ष में । शामिल - अम्ल, खट्रा । सीठा = नीरस । धात करत. संसार के व्यवहार में, कहने सुनने को । खाँडा दू...' = बृतपाद का तस कि अपरिचिटन सत्ता एक ही हो सकती है, एक से अधिक होने से सब परिचित होंगी। (४८) तोहि अस॰ कोई = न भेरा रूप सत्य है, न तेरा । वह सब हई = जब देखते हैं कि कोई अच्छा है, कोई बुरा तब सद कि. कुछ वही है वह कैसे कहा जाय । वयोंकि ऐसा कहने से बुराई भी ” उसमें लग जाती है । सी . = सीझा हुा । सरा = सड़ा हुआ! । = सब सब त्राहि से आखरावट २७१ दोहा पुति साई व जन रमै, औौ निरमल सब चाहि । जेहि न लि कि७ लागेलावा जाड़ न हि ॥ जोगि, उदासी दास, तिन्हहिं न दुख औौ सुख हिया । घरही माह दास, मुहमद सोइ सराहिए ।॥ ४८ ॥ सु चेला ! स स व संसारू। श्रोहि भाँति तुम कथा बिचारू ॥ जौ जिक कथा तो दुख स भोजा। पाप के प्रोट पुन्नि सब छीजा ॥ जस प्रज उय देख अकाए। सब जग पुनि उहै परगासू ॥ भल ो जहाँ होई । सब पर धूप रहै पुनि सोई ॥ मंद लगि मंदे पर वह दिस्टि जो परई। ताकर लैि नैन हैों हुई। अस वह निरमल धरति अकसा। जैसे मिली फूल महें बासा । सवें सब परकारान ठाँव श्री । ना वह मिला, "रहै निनारा ॥ दोहा श्रोहि जोति परव्ाहीं, नव खंड उजियार। । सुज चाँद के जोती, उदित अहै संसार ॥ सोरटा जे हि जोति सरूप, चाँद सुरुज तारा भए । ४९ तेहि कर रूप अनूप, मुहमद व रनि न जइ किए ॥ ॥ चेलै समभि, गुरू स भू । धरती सरग बीच सब छा ॥ कान्ह न यूनी, भोति, न पाखा । केहि बिधि टेकि गगन यह राखा । कहीं स आई मेघ बरिसावै। सेत साम सत्र होइ के धावै ? ॥ पानी भरे समद्र हि जाई। कहाँ से उतरे, बरसि बिलाई ? ॥ पानी मां , उन्हें बजरागी । कहाँ से लौकि बीज भुहूँ लागी ? ॥ कहाँ सूर, चंद श्र तारा। लागि अकास करहि उजियारा ? ॥ सूरज उवे बिहनहिं आाई। पुनि सो अर्थ कहाँ कहें जाई ॥ जेहि न ...ताहि मैलि= जो निष्कलंक है उसमें कलंक या बुराई का आरोप करते नहीं बनताघरही माहूँ उदास । == जो गृहस्थी में रहकर अपना कर्म करता हश्रा । भी उदासीन या निष्काम रहता है । (४६) औोही भाँति, विचारु = जैसे जीवात्मा शुद्ध ग्रानंदस्वरूप है पर शरीर के संयोग में ःख प्रादि से युक्त दिखाई पड़ता है। वैसे ही शुद्ध ब्रह्म संसार के व्याववारिक क्षेत्र में भला वरा नादि कई रूपों में दिखाई पड़ता है (शरीर ौर जगत् की एकता पहले कह आए हैं) । पराहीं = परछाई से । (५०) चे = चेले ने । थनी=टेक । बजरागी= व जाग्नि, बिजली । लौकिचमककर। मूर - कोह = क्रोध। , मूल नक्षत्र । "ले २९२ खरावट काहे चंद घटत है, काहे सूरज पूर । काहे होइ अमावसकाहे ला मूर ॥ जस किंतु माया मोह, तैसे मेघापवनजल । विज़री जैसे कोह, महमद तहाँ समाइ यह ॥ ५० ॥ सुनु चेला ! एहि जग कर अवना । सब बाहर भीतर है पवना ॥ सुन्न सहित बिधि पवनहि भरा । तहाँ श्राप होइ निमल करा ॥ पवनहि महूँ जो श्राप समाना। सब भा बरन ज्यों श्राप समाना ॥ जैस डोताए बेना डोले । पवन सवद होइ क्रिकृह न बोलें। पवनदि मिला मेघ जल भरई ! पवनहि मिला ठंद भुईं पई । पवनहि माँह जो कुल्ला होई। पवनहि , जाड़ भिलि सोई ॥ पवनहि पवन अंत होइ जाई । पवन हि तन कहेंयार मिलाई ॥ दाहा जिया जंतु जत सिरजा, सब माँ पवन सो पूरि । पवनहि पवन चाइ मिलि, नागि, धूरि बा, जल, ।। निति होई, साई जो ग्राज्ञा करे सो आयम । पवन परेवा सोइ, महमद विधि राखे रहै 1 ५१ ॥ बड़ करतार जिवन कर राजा। पवन बिना किछ करत न छाजा ! तेहि । पबन सकें बिजुरी साजामोहि मेघ परबत उपराजा ॥ उहै मेघ सकें करि देखाथे। उहै म मुनि जाइ छपावै। उहैचलाने चहें दिसि संोई। जस जस पाँव धरै जो कोई ॥ जहाँ चलईतस चलायें तहवाँ । जस जस नावें तस नवई न मार्च छिटकत झौंपे । तेहि मेघ सँग रून खन काँपे ॥ जस पिउ सेवा के चू । परै गाज कूट ॥ रूठेपुहमी तपि तहाँ - जहाँ गया मंह हैं । (५१) अवना = ग्राना, चा जाना । विवि = ईश्वर पवनहि = पवन में । । कराe= बलायोति । सब भा बरन. समाना = श्राप या उस ईश्वर के अनुकूल सब कT रूप रंग हा। । पवनहि = पवन ही से वह बुलबुला फूटता है। जाइ मिलि के जल में फिर मिल जाता है । फुट पवनहि पवन जाइ मिलि = कवि ने प्र चीन पाश्चात्य तत्वज्ञों के अनसार बापू को ही सबसे सूक्ष्म तत्व माना है और उसी को सबके मल में रखा है (उपनिषद् में नाका ग्रादिम और मूलभूत कहा गया है) । परेवा के पक्षी, दृत । (५२) मोहि = उसी पवन से । उपराजा - उत्पन्न किया । = वही ईश्वर उह । जा छपाने = जाकर अपने को छिपाता है ? नाब=द्मजाता है, प्रबत्त करता है । छिटकतशॉपे = (बिजली) छिटकते ही फिर छिप जाती है। सेवा सेवा = में । चूके = पर छूटे = , है । चकने । मारता हैपीटता । अब्रावट २९३ अगिनि, पानि अ माटी, पवन फूल कर मल । उन्हई सिरजन कीन्हा, मारि कीन्ह अस्थूल ॥ । देख गर, मन चीन्ह, कहाँ जई खोजत रह । जान परवीन, मुहमद तेहि सुधि पाइए 1 ५२ चेला चरचत गुरु गन गावा। खोजत छि परम गति पावा ॥ गुरु बिचारि चेला जेहि चीन्हा। उत्तर कहत भरम लेइ लीन्हा। जगमग देख उहै उजियारा। तनि लोक लहि किरिन पसारा है। मोहि ना वरन, न जाति अजाती। चंद न रुज, दिवस ना राती ॥ कथा न अहैआकथ भा रहई। बिना बिनार समझिम का प्रई ? ।। सहं राई बसि जो करई। । जो व: सो धीरज धरई ।। क हैके वरनि कहानी। जो घूमें सो सिद्धि गियानी ॥ प्रम माटी तन भड, माटी मद् नव खंड । । कर प्रचंड ज खेलें मटि क ; हैं, भाटी प्रेम । के सरा गलि सोड माटी हो, लिनेहारा । वापुरा । जो न मिटावै कोई, है लिखा ॥ बहर्ता दिना ॥ ५३ वश में करके अस्थल कहाँ जा बोजत या मारवश । = स्थथल से रहै - विना गुरु क कहीं इधर उधर भटकता रहा ।“जमि परै जो समभ पड़े । नेहि सुधि (५३ मार्ग पता जायमा पाइए = उनसे ईश्वर से मिलने के का मिल । ) चरचत - पहचानते ही । छि = जिज्ञासा करके । चेल के अधिकारी शिप्य। लiह । केह = जो कोइ । खैले माटि कहें = शरीर को लेकर प्रेम = तक जे का खेल खेल डाले । माटीमिट्टी में, शरीर में । 0 के