जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४२. बादशाह चढ़ाई खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १९० से – १९९ तक

 

(४२) बादशाह चढ़ाई खंड

सुनि अस लिखा उठा जरि राजा। जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥
का मोहि सिंघ देखावसि आई। कहौं तौ सारदूल धरि खाई॥
भलेहिं साह पहुमीपति भारी। माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥
जो सो चक्कवै ताकहँ राजू। मँदिर एक कहँ आपन साजू॥
अछरी जहाँ इंद्र पै आवै। और न सुनै न देखै पावै॥
कंस राज जीता जो कोपी। कान्ह न दीन्ह काहु कहँ गोपी॥
को मोहिं त अस सूर अपारा। चढ़ै सरग खसि परै उतारा॥

को तोहि जीव मरावौं सकत आान के दोष?
जो नहिं बुझै समद्र जल, सो बुझाई कित ओस ?॥ १॥

 

राजा! अस न होहु रिस राता। सुनु होइ जूड़ न जरि कहु बाता॥
मैं हौं इहाँ मरै कहँ आवा। बादशाह अस जानि पठावा॥
जो तोहि भार न औरहि लेना। पूछहि कालि उतर है देना॥
बादशाह कहँ ऐस न बोलू। चढ़ै तौ परै जगत महँ डोलू॥
सूरहिं चढ़त न लागहि बारा। तपै आगि जेहि सरग पतारा॥
परबत उड़हिं सूर के फूँके। यह गढ़ छार होइ एक झूँके॥
धँसै सुमेरु समुद गा पाटा। पुहुमी डोल सेस फन फाटा॥

तासौं कौन लड़ाई? बैठहु चितउर खास।
ऊपर लेहु चँदेरी, का पदमिनि एक दासि? ॥ २ ॥

 

जौ पै घरनि जाई घर केरी। का चितउर का राज चँदरी॥
जिउ न लेइ घर कारन कोई। सो घर देइ जो जोगी होई॥
हौं रनथँभउर नाह हमीरू। कैलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू॥
हौं सो रतनसेन सकबंधी। राहु बेधि जीता सैरंधी॥
हनुवँत सरिस भार जेइ काँधा। राघव सरिस समुद जो बाँधा॥
विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका। सिंघलदीप लीन्ह जौ ताका॥
जौ अस लिखा भएउँ नहिं ओछा। जियत सिंघ कै गह को मोछा॥

दरब लेइ तौ मानौं सेव करौं गहि पाउ।
चाहै जौ सो पदमिनी सिंघलदीपहिं जाउ॥ ३ ॥

 

बोलु न राजा! आपु जनाई। लीन्ह देवगिरि और छिताई॥
सातौ दीप राज सिर नावहिं। औ सँग चली पदमिनी आवहिं॥
जेहि कै सेव करै संसारा। सिंघलदीप लेत कित बारा?॥
जिनि जानसि यह गढ़ तोहि पाहीं। ताकर सवै तोर किछु नाहीं॥
जेहि दिन आइ गढ़ी कहँ छेकिहि। सरबस लेइ हाथ को टेकिहि॥
सीस न छाँड़ै खेह के लागे[]। सो सिर छार होइ पुनि आगे॥
सेवा करू जौ जियन तोहि भाई। नाहिं त फेरि माँख होइ जाई॥

जाकर जीवन दीन्ह तेहि, अगमन सीस जोहरि।
ते करनी सब जानै, काह पुरुष का नारि ॥ ४॥

 

तुरुक! जाइ कहु मरै न धाई। होइहि इसकदर कै नाई॥
सुनि अमृत कदलीबन धावा। हाथ न चढ़ा रहा पछितावा॥
औ तेहि दीप पतँग होइ परा। अगिनि पहार पाँव देइ जरा॥
धरती लोह सरग भा ताँबा। जिउ दीन्ह पहुँचत कर लाँबा॥
यह चितउरगढ़ सोइ पहारू। सूर उठै तब होइ अँगारू॥
जो पै इसकंदर सरि कीन्ही। समुद लेहु धँसि जस वै लीन्ही॥
जो छरि आने जाई छिताई। तेहि छर औ डर होइ मिताई॥

महूँ समुझि अस अगमन, सजि राखा गढ़ साजु।
काल्हि होइ जेहि आवन, सो चलि आवै आजु ॥ ५ ॥

 

सरजा पलटि साह पहँ आवा। देव न मानै बहुत मनावा॥
आगि जो जरै आगि पै सूझा। जरत रहै न बुझाए बूझा॥
ऐसे माथ न नावै देवा। चढ़ै सुलेमाँ मानें सेवा॥
सुनि कै अस राता सुलतानू। जैसे तपै जेठ कर भानू॥
सहसौ करा रोष अस भरा। जेहि दिसि देखै तेइ दिस जरा॥

हिंदु देव काह बर खाँचा? सरगहु अब न सूर सौं बाचा॥
एहि जग आगि जो भरि मुख लीन्हा। सो सँग आगि दुहूँ जग कीन्हा॥

रनथँभउर जग जरि बुझा, चितउर परै सो आगि।
फेरि बुझाए ना बुझै, एक दिवस जौ लागि॥ ६ ॥

 

लिखा पत्र चारिहु दिसि धाए। जावत उमरा बेगि बोलाए।
दुंद घाव भा इंद्र सकाना। डोला मेरु सेस अकुलाना॥
धरती डोलि कमठ खरभरा। मथन अरंभ समुद्र महँ परा॥
साह बजाइ कढ़ा जग जाना। तीस कोस भा पहिल पयाना॥
चितउर सौंह बारिगह तानीं। जहँ लगि सुना कूच सुलतानी॥
उठि सरवान गगन लगि छाए। जानहु राते मेघ देखाए॥

हस्ति घोड़ औ दर, पुरुष जावत बेसरा ऊँट।
जहँ तहँ लीन्ह पलानै कटक, सरह अस छूट ॥ ७ ॥

 

चल पंथ बेसर<ref> सुलतानी। तीख तुरंग बाँक कनकानी॥
कारे, कुमइत, लील, सुपेते। खिंग, कुरंग, बोज, दुर केते॥
अबलक, अरबी, लखी, सिराजी। चौधर चाल सँमद भल ताजी॥
किरमिज, नकुरा, जरदे, भले। रूपकरान, बोलसर, चले॥
पँचकल्यान, सँजाब, बखाने। महि सायर सब चुनि चुनि आने॥
मुशकी औ हिरमिजी, एराकी। तुरकी कहे भोथार बुलाकी॥
बिखरि चले जो पाँतिहि पाँती। वरन बरन औ भाँतिहि भाँती॥

सिर औ पूँछ उठाए, चहूँ दिसि साँस ओनाहि।
रोष भरे जस बाउर, पवन तुरास उड़ाहिं॥ ८ ॥

 

लोहसार हस्ती पहिराए। मेघ साम जनु गरजत आए।
मेघहि चाहि अधिक वै कारे। भएउ असूझ देखि अँधियारे॥

जसि भादौं निसि आवै दीठी। सरग जाइ हिरको तिन्ह पीठी॥
सवा लाख हस्ती जब चाला। परबत सहित सबै जग हाला॥
चले गयंद माति मद आवहिं। भागहिं हस्ती गंध जौ पावहिं॥
ऊपर जाइ गगन सिर धँसा। औ धरती तर कहँ धसमसा॥
भा भुइँचाल चलत जग जानी। जहँ पग धरहि उठै तहँ पानी॥

चलत हस्ति जग काँपा, चाँपा सेस पतार।
कमठ जो धरती लेइ रहा, बैठि गएज गजभार ॥ ९ ॥

 

चले जो उमरा मीर बखाने। का बरनौं जस उन्ह कर बाने॥
खुरासन औ चला हरेऊ। गौर बँगाला रहा न केऊ॥
रहा न रूम शाम सुलतानू। कासमीर ठट्टा मुलतानू॥
जावत बड़ बड़ तुरुक कै जाती। माँडोवाले ओ गजराती॥
पटन उड़ीसा के सब चले। लेइ गज हस्ति जहाँ लगि भले॥
कवँरु कामता औ पिंड़वाए। देवगिरि लेइ उदयगिरि आए॥
चला परवती लेइ कुमाऊँ। खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ॥

उदय अस्त लहि देस जो, को जानै तिन्ह नाँव।
सातौ दीप नवौ, जुरे आह इक टाँव॥ १० ॥

 

घनि सुलतान जेहिक संसारा। उहै कटक अस जोरै पारा॥
सबै तुरुक सिरताज बखाने। तबल बाज औ बाँधे बाने॥
लाखन मार बहादुर जंगी। जंबुर कमाने तीर खंदगी<ref>॥
जीभा खोलि राग सौं मढ़े। लेजम घालि एराकिन्ह चढ़े॥
चमकहिं पाखर सार सँवारी। दरपन चाहि अधिक उजियारी॥
बरन बरन औ पाँतिहि पाँती। चली सो सेना भाँतिहि भाँती॥
बेहर बेहर सब कै बोली। बिधि यह खानि कहाँ दहुँ खोली? ॥

सात सात जोजन कर, एक दिन होइ पयान।
अगिलहि जहाँ पयान होइ, पछिलहि तहाँ मिलान॥११॥

 

डोले गढ़ गढ़पति सब काँपै। जीउ न पेट हाथ हिय चाँपै॥
काँपा रनथँभउर गढ़ डोला। नरवर गएउ झुराइ न बोला॥
जूनागढ़ औ चंपानेरी। काँपा माड़ौ लेई चँदेरी॥
गढ़ गुवालियर परी मथानी। औ अँधियार मथा भा पानी॥
कालिंजर महँ परा भगाना। भागेउ जयगढ़ रहा न थाना॥
काँपा बाँधव नरवर राना। डर रोहातास विजयगिरि माना॥
काँप उदयगिरि देवगिरि डरा। तब सो छपाइ आपु कहँ धरा॥

जावत गढ़ औ गढ़पति, सब काँपे जस पात।
का कहँ बोलि सौहँ भा, बादशाह कर छात? ॥१३॥

 

चितउरगढ़ औ कुंभलनेरै। साजे दूनौ जैस सुमेरै॥
द्वतन्ह आइ कहा जहँ राजा। चढ़ा तुरुक आवै दर साजा॥
सुनि राजा दौराई पाती। हिंदू नावँ जहाँ लगि जाती॥
चितउर हिंदुन कर अस्थाना। सत्रु तुरुक हठि कीन्ह पयाना॥
आव समुद्र रहै नहिं बाँधा। मैं होइ मेड़ भार सिर काँधा॥
पुरवहु साथ तुम्हारि बड़ाई। नाहिं त सत को पार छँड़ाई? ॥
जौ लहि मेड़ रहै सुख साखा। टूटे बारि जाइ नहिं राखा॥

सती जौ जिउ महँ सत धरै, जरै न छाँड़ै साथ।
जहँ, बीरा तहँ, चून है, पान सोपारी काथ ॥१३॥

 

करत जो राय साह कै सेवा। तिन्ह कहँ आइ सुनाव परेवा॥
सब होइ एकमते जो सिधारे। बादसाह कहँ आइ जोहारे॥
है चितउर हिंदुन्ह के माता। गाढ़ परै तजि जाइ न नाता॥
रतनसेन तहूँ जौहर साजा। हिंदुन्ह माँझ आहि बड़ राजा॥
हिंदुन्ह केर पतँग कै लेखा। दौरि परहिं अगिनी जहँ देखा॥
कृपा करहु चित बाँधहु धीरा। नातरू हमहिं देहु हँसि वीरा॥
पुनि हम जाइ मरहिं ओहि ठाऊँ। मेटि न जाई लाज सौं नाऊँ॥

दीन्ह साह हँसि बीरा, और तीन दिन बीच।
तिन्ह सीतल को राखै, जिनहिं अगिनि महँ मीचु? ॥१४॥

 

रतनसेन चितउर महँ साजा। आइ बजार बैठ सब राजा॥
तोवँर बैस पवाँर सो आए। औ गहलौत आइ सिर नाए॥
पत्ती औ पँचवान बघेले। अगरपार चौहान चँदेले॥
गहरवार परिहार जो कुरे। औ कलहंस जो ठाकुर जुरे॥
आगे ठाढ़ बजावहिं ढाढ़ी। पाछे धुजा मरन कै काढ़ी॥
बाजहिं सिंगि संख औ तूरा। चंदन खेवरै भरे सेंदुरा॥
सजि संग्राम बाँध सब साका। छाँड़ा जियन, मरन सब ताका॥

गगन धरति जेइ टेका, तेहि का गरू पहार।
जौ लहि जिउ काया महँ, परै सो अँगवै भार॥१५॥

 

गढ़ तस राजा जौ चाहै कोई। बरिस बीस लगि खाँग न होई॥
बाँके चाहि बाँक गढ़ कीन्हा। औ सब कोट चित्र कै लीन्हा॥
खंड खंड चौखंड सँवारा। धरी विषम गोलन्ह कै मारा॥
ठावँहि ठावँ लीन्ह तिन्ह बाँटी। रहा न बीचु जो सँचरै चाँटी॥
बैठे धानुक कँगुरन कँगुरा। भूमि न आँटी अँगुरन अँगुरा॥
औ बाँधे गढ़ गज मतवारे। फाटै भूमि होहि जौ ठारे॥
बिच बिच बुर्ज बने चहुँ फेरी। बाजहिं तबल ढोल औ भेरी॥

भा गढ़ राज सुमेरु जस, सरग छुवै पै चाह।
समुद न लेखे लावै, गंग सहसमुख काह? ॥१९॥

 

बादशाह हठि कीन्ह पयाना। इंद्र भंडार डोल भय माना॥
नबे लाख असवार जो चढ़ा। जो देखा सो लोहे मढ़ा॥
बीस सहस घहराहिं निसाना। गलगंजहिं भेरी असमाना॥
बैरख ढाल गगन गा छाई। चला कटक धरती न समाई॥
सहस पाँति गज मत्त चलावा। धँसत अकास धसत भुइँ आवा॥
बिरिछ उचारि पेड़ि सौं लेहिं। मस्तक झारि डारि मुख देहीं॥
चढ़हि पहार हिये भय लागू। बनखंड खोह न देखहि आगू॥

कोई काह न सँभारै, होत आव तस चाँप।
धरति आपु कहँ काँपै; सरग आपु कहँ काँप ॥१७॥

 

चलीं कमानैं जिन्ह मुख गोला। आवहिं चली, धरति सब डोला॥
लागे चक्र बज्र के गुढ़े। चमकहिं रथ सोने सब मढ़े॥
तिन्ह पर विषम कमानैं धरी। साँचे अष्टधातु कै ढरी॥
सौ सौ मन वै पीयहिं दारू। लागहिं जहाँ सो टूट पहारू॥
मानौ रहहिं रथन्ह पर परी। सत्रुन्ह महँ ते होहिं उठी खरी॥
जौ लागै संसार न डोलहिं। होई भुइँकप जीभ जौ खोलहिं॥
सहस सहस हस्तिन्ह कै पाँती। खींचहिं रथ, डोलहिं नहिं माती॥

नदी नार सब पाटहिं, जहाँ धरहिं वै पाव।
ऊँच खाल बन बीहड़, होत बराबर आव ॥१८॥

 

कहौं सिंगार जैसि वै नारी। दारू पियहि जैसि मतवारी॥
उठे आगि जौ छाँड़हि साँसा। धुआँ जौ लागै जाइ अकासा॥
सेंदुर आगि सीस उपराहीं। पहिया तरिवन चमकत जाहीं॥
कुच गोला दुइ हिरदय लाए। चंचल धुजा रहहिं छिटकाए॥
रसना लूक रहहिं मुख खोले। लंका जरै सो उनके बोले॥
अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधे। खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधे॥
बीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ। सत्रुसाल गढ़भजन नाऊँ॥

तिलक पलीता माथे, दसन ब्रज के बान।
जेहि हेरहिं तेहि मारहिं, चुरकुस करहिं निदान॥ १९ ॥

 

जेहि पंथ चली वै आवहिं। तहँ तहँ जरै, आगि जनु लावहिं॥
जरहिं जो परबत लागि अकासा। बनखँड धिकहिं परास के पास॥
गैंड गंयद जरे भए कारे। औ बन मिरिग रोझ भवँकारे॥
कोइल, नाग काग औ भंवरा। और जो जरे तिनहिं को सँवरा॥
जरा समुद पानी भा खारा। जमुना साम भई तेहि झारा॥
धुआँ जाम, अँतरिख भए मेघा। गगन साम भा धुआँ जो ठेघा॥
सूरुज जो चाँद औ राहू। धरती जरी, लंक भा दाहू॥

धरती सरग एक भा, तबहुँ न आगि बझाइ।
उठ बज्र जरि डुंगवै, धूम रहा जग छाई॥ २० ॥

 

आवै डोलत सरग पतारा। काँपै धरति, अँगवै भारा॥
टूटहिं, परबत मेरु पहारा। होइ चकचून उड़हिं तेहि झारा॥
सत खँड धरती भइ षटखंडा। ऊपर अष्ट भए बरम्हंडा॥
इंद्र आइ तिन्ह खंडन्ह छावा। चढ़ि सब कटक घोड़ दौरावा॥
जेहि पथ चल ऐरावत हाथी। अबहुँ सो डगर गगन महँ आथी॥
औ जहँ जामि रही वह धरी। अबहुँ बसै सो हरिचँद पूरी॥
गगन छपान खेह तस छाई। सूरुज छपा, रैनि होइ आई॥

गएउ सिकंदर कजरिबन, तस होइगा अँधियार।
हाथ पसारे न सूझै, बरै लाग मसियार ॥२१॥

 

 दिनहि रात अस परी अचाका। भा रवि अस्त, चंद्र रथ हाँका॥
मंदिर जगत दीप परगसे। पंथी चलत बसेरै बसे॥
दिन के पंखि चरत उड़ि भागे। निसि के निसरि चरै सब लागे॥
कँवल संकेता, कुमुदिनि फूली। चकवा बिछुरा, चकई भूली॥
चला कटक दल ऐस अपूरी। अगिलहि पानी, पछिलहि धूरी॥
महि उजरी सायर सब सूखा। बनखँड रहेउ न एकौ रूख॥
गिरि पहार सब मिलि गे माटी। हस्ति हेराहिं तहाँ होइ चाँटी॥

जिन्ह घर खेह हेराने, हेरत फिरत सो खेह।
अब तो दिस्टि तब आवै, अंजन नैन उरेह॥ २२ ॥

 

एहि विधि होत पयान सो आवा। आइ साह चितउर नियरावा॥
राजा राव देख सब चढ़ा। आव कटक सब लोह मढ़ा॥
चहुँ दिसि दिस्ट परा गजजूहा। साम घटा मेघन्ह अस रूहा॥
अध ऊरध किछु सूझ न आना। सरगलोक घुम्मरहिं निसाना॥
चढ़ि धौराहर देखहिं रानी। धनि तुइ अस जाकर सुलतानी॥
की धनि रतनसेन तुइँ राजा। जा कहँ तुरुक कटक अस साजा॥

बैरख ढाल केरि परछाहीं। रैनि होति आवै दिन माहीं॥

अंध कूप भा आवै, उड़त आव तस छार।
ताल तलावा पोखर धूरि भरी जेवनार॥ २३ ॥

 

राजै कहा करहु जो करना। भएउ असूझ, सूझ अब मरना॥
जहँ लगि राज साज सब होऊ। ततखन भएउ सँजोउ सँजोऊ॥
बाजे तबल अकूत जुझाउ। चढ़े कोपि सब राजा राऊ॥
करहिं तुखार पवन सौं रीसा। कंध ऊँच, असवार न दीसा॥
का बरनौं अस ऊँच तुखारा। दुइ पौरी पहुँचे असवारा॥
बाँधे मोरछाँह सिर सारहिं। भाँजहिं पूछ चँबर जनु ढारहि॥
सजे सनाहा, पहुँची, टोपा। लोहसार पहिरे सब ओपा॥

तैसे चँवर बनाए, औ घाले गलझंप।
बँधे सेत गलगाह तहँ, जो देखै सो कंप ॥२४॥

 

राज तुरंगम बरनौ काहा? । आने छोरि इंद्ररथ बाहा॥
ऐस तुरंगम परहिं न दीठी। धनि असवार रहहिं तिन्ह पीठी!॥
जाति बालका समुद थहाए। सेत पूँछ जनु चँवर बनाए॥
बरन बरन पाखर अति लोने। जान, चित्र सँवारे सोने॥
मानिक जरे सीस औ काँधे। चँवरलाग चौरासी बाँधे॥
लागे रतन पदारथ हीरा। बाहन दीन्ह, दीन्ह तिन्ह बीरा॥
चढ़हि कुँवर मन करहिं उछाहू। आगे घाल गनहिं नहि काहू॥

सेंदूर सीस चढ़ाए, चंदन खेवरे देह।
सो तन कहा लुकाइय, अंत होइ जो खेह ॥२५॥

 

गज मैमत बिखरे रजबारा। दीसहिं जनहुँ मेघ अति कारा॥
सेत गयंद, पीत औ राते। हरे साम घूमहिं मद माते॥
चमकहिं दरपन लोहे सारी। जनु परबत पर परी अँबारी॥
सिरी मेलि पहिराई सूँड़ै। देखत कटक पायँ तर रूदैं॥
सोना मेलि कै दंत सँवारे। गिरिबर टरहिं सो उन्ह के टारे॥
परबत उलटि भूमि महँ मारहिं। परै जो भीर पत्र अस झारहिं॥
अस गंयद साजे सिंघली। मोटी कुरुम पीठि कलमली॥

ऊपर कनक मँजूसा, लाग चँवर औ ढार।
भलपति बैठे भाल लेइ, औ बैठे धनुकार ॥२६॥

 

असुदल गजदल दूनौ साजे। औ घन तबल जुझाऊ बाजै॥
माथे मुकुट, छत्र सिर साजा। चढ़ा बजाइ इंद्र अस राजा॥
रथ सेना सब ठाढ़ी। पाछे धुजा मरन कै काढ़ी॥
चढ़ा बजाइ चढ़ा जस इंदू। देवलोक गोहने भए हिंदू॥
जानहुँ चाँद नखत लेइ चढ़ी। सूर कै कटक रैनि मसि मढ़ा॥
जौ लगि सूर जाइ देखरावा। निकसि चाँद घर बाहर आवा॥
गगन नखत जस गने न जाहीं। निकसि आए तस धरती माहीं॥

देखि अनी राजा कै, जग होइ गएउ असूझ।
दहुँ कस होवै चाहै, चाँद सूर के जूझ॥२७॥

 

  1. १. पाठांतर--'खीस के लागे। खीस = खिसियाहट, रिस। माँख = क्रोध नाराजगी।