जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१७. मंडपगमन खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ६२

 

 

(१७) मंडपगमन खंड

राजा बाउर विरह वियोगी। चेला सहस तीस सँग जोगी॥
पदमावति के दरसन आसा। दँडवत कीन्ह मँडप चहूँ पासा॥
पुरुष वार होइ के सिर नावा। नावत सीस देव पहूँ आवा॥
नमो नमो नारायन देवा। का मैं जोग, करौं तोरि सेवा॥
तू दयाल सब के उपराहीं। सेवा केरि आस तोहि नाहीं॥
ना मोहि गुन, न जीभ रस बाता। तू दयाल, गुन निरगुन दाता॥
पुरवहु मोरि दरस के आसा। हौं मारग जववौं धरि साँसा॥

तेहि विधि बिने न जानौ जेहि विधि अस्तुति तोरि।
करहु सुदिस्टि मोहिं पर, हींछा पूजै॑ मोरि॥१॥

कै अस्तुति जब बहुत मनावा। सबद अकूत मँडप महँ आवा॥
मानुष पेम भएउ बैकुंठी। नाहिं त काह, छार भरि मूठी॥
पेमहिं माँह बिरह रस रसा। मैन के घर मधु अमत बसा॥
निसत धाइ जौ मरै त काहा। सत जौं करे बैठि तेहि लाहा॥
एक वार जौं मन देइ सेवा। सेवहिं फल प्रसन्न होइ देवा॥
सुनि कै सबद मँडप झनकारा। बैठा आइ पुरुष के बारा॥
पिड चढ़ाइ छार जैति आँटी। माटी भएउ अंत जो माटी॥

माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल।
दिस्टि जौं माटी सौं करै, माटी होइ अमोल॥२॥

बैठ सिंघछाला होइ तपा। ‘पदमावति पदमावति’ जपा॥
दीठि समाधि ओही सौं लागी। जेहि दरसन कारन बैरागी॥
किंगरी गहे वजावैं भूरै। भोर साँझ सिंगी निति पूरै॥
कंथा जरै, आगि जन लाई। विरह धँधार जरत न बभाई॥
नैन रात निसि मारग जागे। चढ़े चकोर जानि ससि लागे॥
कुंडल गहे सीस भुईं लावा। पाँवरि होउ जहाँ ओहि पावा॥
जटा छोरि कै बार वहारौं। जेहि पथ आव सीस तहँ वारौं॥

चारिहु चक्र फिरौं मैं, डँड न रहौं थिर मार।
होइ कै भसम पौन सँग (धावौं) जहाँ परान अधार॥३॥


 

(१) निरगुन= बिना गुणवाले का। (२) अकूत = आपसे आप, अकस्मात्‌। मैन = मोम। लाह = लाभ। पिंड = शरीर। जेति = जितनी। अँटी = अँटी; हाथ में समाई। माटी सौं दिस्टि करै = सब कुछ मिट्टी समझे या शरीर मिट्टी में मिलाए। माटी = शरीर। (३) तपा = तपस्वी।

(३) भूरे = व्यर्थ। धँधार = लपट। रात = लाल। पाँवरि = जूती पावा = पैर। बहारौं = झाडू लगाऊँ। थिर मार = स्थिर होकर।