जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३१. नागमती संदेश खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १३८ से – १४३ तक

 

(३१) नागमती संदेश खंड

फिरि फिरि रोव, कोई नहिं डोला । आधी राति विहंगम बोला॥
'तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी। केहि दुख रैनि न लावसि आँखी'।
नागमती कारन के रोई। का सोवै जो कंत बिछोई॥
 मनचित हुँते न उतरै मोरे। नैन क जल चकि रहा न मोरे॥
कोइ न जाइ अोहि सिंघलदीपा । जेहि सेवाति कहँ नैना सीपा॥
जोगी होइ निसरा सो नाहू। तब हँत कहा सँदेस न काहू॥
निति पूछौं सब जोगी जंगम । कोइ न कहै निज वात विहंगम॥

चारिउ चक्र उजार भए, कोइ न सँदेसा टेक।
कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सनह दंड एक ॥१॥

तासौं दुख कहिए, हो बीरा। जेहि सनि कै लागै पर पीरा॥
को होइ भिउँ अंगवै परदाहा । को सिंघल पहँचावै चाहा?
जॅहवाँ कंत गए होइ जोगी। हौं किंगरी भइ झरि बियोगी॥
व सिंगो पूरी, गुरु भेटा। हौं भइ भसम, न आइ समटा॥
कथा जो कहै आइ ओहि केरी । पाँवरि होउँ, जनम भरि चेरी॥
प्रोहि के गन सँवरत भइ माला। अबहँ न बहरा उडिगा छाला॥
बिरह गुरू, खप्पर के हीया। पवन अधार रहै सो जीया॥

हाड़ भए सब किंगरो, नसै भई सब ताँति ।
रोच रोवॅ तें धुनि उठे, कहौं विथा केहि भाँति ?॥२॥

पदमावति सौं कहेहु, विहंगम । कंत लोभाइ रही करि संगम॥
तु घर घरनि भई पिउ हरता। मोहि तन दीन्हेसि जप औ बरता॥
रावट कनक सो तोकहँ भएऊ। रावट लंक मोहिं कै गएऊ॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा । मो कहँ हिये दुंद दुख पूरा॥
हमहुँ बियाही सँग प्रोहि पोऊ । आपुहि पाइ जान पर जीऊ॥
अवह मया करु, करु जिउ फेरा। मोहि जियाउ कंत देइ मेरा॥
मोहि भोग सौं काज न बारी । सौंह दीठि के चाहनहारी॥

सवति न होइ तू वैरिनि, मोर कंत जेहि हाथ।
पानि मिलाव एक वेर, तोर पाय मोर माथ॥३॥


(१) कारन के- करुणा करके (अवध)। तब हँत = तब से । टंक = ऊपर लेता है। (२) बोरा = भाई। भिउँ = भोम। अंगवै =अंग पर सहे। चाहाखबर । पाँवरि= जूतो। (३) घर = अपने घर में हो। घरनि घरवाली, गृहिणी । रावट = महल । लंक = जलती हुई लंका । चाहनहारी = देखनेवाली।

रतनसेन के माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती ।
आँधरि बढ़ होइ दुख रोवा। जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा॥
जीवन अहा लीन्ह सो काढ़ी । भइ विनु टेक, करै को ठाढ़ी?
बिनु जीवन भइ पास पराई। कहाँ सो पूत खंभ होइ पाई।
नैन दीठ नहिं दिया बराहीं। घर अँधियार पूत जौ नाहीं॥
को रे चलै सरवन के ठाऊँ। टेक देह औ टेक पाऊँ।
तुम सरवन होइ काँवरि सजा। डार लाइ अब काहे तजा?

'सरवन ! सरवन !' ररि मुई. माता काँवरि लागि ।
तुम्ह विनु पानि न पावै, दसरथ लावै आगि॥४॥

लेइ सो सँदेस बिहंगम चला। उठी आगि सगरौं सिंघला॥
बिरह बजागि बीच को ठेघा? | धम सो उठा साम भए मेघा॥
मरिगा गगन लूक अस छटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे॥
जहँ जहँ भूमि जरी भा रेह । बिरह के दाघ भई जनु खहू।
राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगी उड़ी चाँद मह परी॥
जाइ बिहंगम समुद डफारा। जरे मच्छ पानी भा खारा॥
दाधे बन बीहड़, जड़, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा॥
समुद तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख॥
जौ लगि कहा सँदेस नहि, नहिं पियास, नहिं भूख॥५॥


(४) खंभ = सहारा । बराहीं = जलते हैं। सरवन = 'श्रमणकुमार' जिसकी 'कथा उत्तरापथ में घर घर प्रसिद्ध है। एक प्रकार के भिखमंगे सरवन की

भक्ति की कथा करताल बजाकर गाते फिरते हैं। यह कथा वाल्मीकि रामायण में दशरथ ने अपने मरने से पहले कौशल्या से कही है। दशरथ ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक वद्ध तपस्वी के पुत्र को हाथी के धोखे में मार डाला था। वह मनिपत्र अंधे वद्ध माता पिता के लिये पानी लेने आया था। वृद्ध मुनि ने दशरथ को शाप दिया कि दम भी पूत्रवियोग में मरोगे। दशरथ नाम न देकर यही कथा बौद्धों के 'सामजातक' में भी पाई है। पर उसमें अंधे मनि बद्ध के पूर्ण उपासक कहे गए हैं और उनके जी उठने की बात है। रामायण में 'श्रमणकुमार' शब्द नहीं आया है, केवल मनिपुत्र लिखा है । पर इस कथा का प्रचार बौद्धों में अधिक हा, इसी से यह 'सरवन' अर्थात् श्रमण (बौद्ध भिक्ष) की कथा के नाम से ही देश में प्रसिद्ध है। 'सरवन' के गीत गानेवाले प्रारंभ में एक प्रकार के बौद्ध भिक्ष ही थे। इसका आभास इस बात से मिलता है कि सरवन के गानेवाले के लिये अभी थोड़े दिन पहले तक यह नियम था कि वे दिन निकलने के पीछे न माँगा करे, मँह अँधेरे की माँग लिया करे । काँवरि = बाँस के डंडे के दोनों छोरों पर बँधे हए झाबे, जिनमें तीर्थयात्री लोग गंगाजल अादि लेकर चला करते हैं (सरवन अपने माता पिता को कांवरि में बैठाकर ढोया करते ५) ठेघा= टिका, ठहरा । डफारा - चिल्लाया।

रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह प्रोही तरिवर तर फेरा॥
सीतल विरिछ समद के तीरा। अति उतंग ौ छाहै गंभीरा॥
तुरय बाँधि कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला।
देखत फिरै सो तरिवर साखा । लाग सूनै पंखिन्ह के भाखा।
पंखिन मह सो बिहँगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा॥
पूछहि सवै बिहंगम नामा। अहो मीत ! काहे तुम सामा?
कहेसि 'मीत ! मासक दुइ भए । जंबूदीप तहाँ हम गए।

नगर एक हम देखा, गढ़ चितउर अोहि नाव ।।
सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढ़े तेहि ठाव ॥ ६

॥ जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धुंध बाजा॥
नागमती है ताकरि रानी। जरी बिरह भइ कोइल बानी।
अब लगि जरि भइ होइहि छारा। कही न जाइ बिरह के झारा॥
हिया फाट वह जबही ककी। परै आँसू सब होइ होइ ल की।
चहँ खंड छिटकी वह आगी। धरती जरति गगन कहँ लागी॥
बिरह दवा को जरत बुझावा। जेहि लागै सो सौहैं भावा।
हौं पुनि तहाँ सो दाढ़े लागा। तन भा साम जीउ लेइ भागा॥

का तुम हँसहु गरब के, करहु समुद महँ केलि ।
मति अोहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि' ॥७॥

सुनि चितउर राजा मन गुना । विधि सँदेस मैं कासौं सुना॥
को तरिवरि पर पंखी बेसा। नागमती कर कहै स देसा!
को तुं मीत मन-चित्त-बसेरू । देव कि दानव पवन पर्खरू!
ब्रह्म बिस्न बाचा है तोही। सो निज बात कहै तू मोही।
कहाँ सो नागमती ते देखी। कहेसि बिरह जस मनहि बिसेखी॥
हौं सोई राजा भा जोगी। जेहि कारन वह ऐसि बियोगी।
जस तूं पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहिं जाइ उड़ि परौं।

पंखि ! आँखि तेहि मारग, लागी सदा रहाहि ।।
कोइ न सँदेसी आवहि, तेहि क सँदेस कहाँहि ॥ ८॥

पूछसि कहा सँदेस बियोगू । जोगी भए न अानसि भोगू॥
 दहिने संख न, सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै॥
तेलि बैल जस बाव फिराई। परा भँवर महँ सो न तिराई।
तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका। बाएँ फिरै कोहार क चाका॥


(७) धुंध बाजा = धुंध या अंधकार छाया। बानी = वर्ण की । भइ होइहि -- हई होगी। झारा = ज्वाला। लकी = लक। दवा = दावाग्नि ।

(८) बसेरू-बसनेवाला। दिन भरौं = दिन बिताता हूँ। महूँ = मैं भी। (8) दहिने संख - दक्षिणावर्त शंख नहीं फंकता। झूरै = सूखता है । तिराई = पानी के ऊपर पाता है।

तोहि अस नाहीं पंखि भुलाना। उडै सो प्राव जगत महँ जाना॥
एक दीप का पाएउँ तोरे। सब संसार पाँय तर मोरे॥
दहिने फिरै सो अस उजियारा । जस जग चाँद सुरुज मनियारा॥

मुहमद दाई दिसि तजा, एक स्रवन, एक आँखि ।
जब तें दाहिन होइ मिला, बोल पपीहा पाँखि॥९॥

हौं धुव अचल सौं दाहिनि लावा। फिर सुमेरु चितउर गढ़ आवा॥
देखउँ तोरे मँदिर घमोई। मातु तोरि आँघरि भइ रोई॥
जस सरवन बिन अंधी अंधा । तस ररि मुई तोहि चित बंधा॥
कहेसि मरौं, को कांवरि लेई ? पुत्र नाहिं, पानी को देई?
गई पियास लागि तेहि साथा। पानि दीन्ह दसरथ के हाथा।
पानि न पियै, आगि पै चाहा। तोहि अस सुत जनमे अस लाहा।
होइ भगीरथ करु तहँ फेरा । जाहि सवार, मरन कै बेरा॥

तू सपूत माता कर, अस परदेस न लेहि ।
अब ताईं मुइ होइहि, मुए जाइ गति तेहि ।। १०॥

नागमती दुख बिरह अपारा। धरती सरग जरै तेहि झारा॥
नगर कोट घर बाहर सूना । नौजि होइ घर पुरुष बिहूना॥
तू काँवरू परा बस टोना। भला जोग, छरा तोहि लोना॥
वह तोहि कारन मरि भइ छारा। रही नाग होइ पवन अधारा॥
कहुँ बोलहि 'मो कहँ लेइ खाह'। माँसू न, काया रचै जो काह।
बिरह मयूर, नाग वह नारी । त मजार करु बेगि गोहारी॥
माँसु गिरा, पाँजर होइ परी। जोगी ! अबहुँ पहुँच लेइ जारी॥

देखि बिरह दख ताकर मैं सो तजा बनवास ।।
आएउँ मागि समुद्रतट तबहुँ न छाडै पास ॥११॥

अस परजरा विरह कर गठा । मेघ साम भए धूम जो उठा।
दाढ़ा राहु, केतु गा दाधा । सूरज जरा, चाँद जरि आधा॥
औ सब नखत तराई जरहीं। टूटहि लुक, धरति महँ परहीं।


तोहि पास...भुलाना = पक्षी तेरे ऐसा नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि हम उड़ने के लिये इस संसार में पाए हैं। मनियार = रौनका, चमकता हया । मुहमद बाँई ऑखि = मुहम्मद कवि ने बाईं ओर आँख और कान करना छोड़ दिया (जायसी काने भी थे) अर्थात वाम मार्ग छोडकर दक्षिण मार्ग का अनुसरण किया। बोल

= कहलाता है। (१०) दाहिन लावा = प्रदक्षिणा की। घमोई = सत्यानासी या भंडभाँड़ नामक कँटीला पौधा जो खंडहरों या उजड़े मकानों में प्रायः उगता है। सवार = जल्दी। (११) नौजि = न, ईश्वर न करे (अवध)। काँवरू = कामरूप में, जो जादू के लिये प्रसिद्ध है। लोना- लोना चमारी जो जादू में एक थी। मजार = बिल्ली । जरी = जड़ी बूटी। (१२) परजरा = प्रज्वलित हुआ, जला। गठा = गट्ठा, ढेर ।

जरै सो घरनी ठावहिं ठाऊँ। दहकि पलास जरै तेहि दाऊँ।
बिरह साँस तन निकसै झारा । दहि दहि परवत होहिं अँगारा॥
भँवर पतंग जरै औ नागा । कोइल, भुजइल, डोमा कागा॥
बन पंखी सब जिउ लेइ उड़े। जल महँ मच्छ दुखी होइ बुड़े॥

महूँ जरत तहँ निकसा, समुद बुझाएउँ आइ ।
समद पानि जरि खार भा, धुआँ रहा जग छाइ॥१२॥

राजै कहा, रे सरग सँदेसी । उतरि आउ मोहि मिलुरे विदेसी।
पाय टेकि तोहि लायौं हियरे । प्रेम सँदेस कहहु होइ नियरे।
कहा बिहंगम जो बनवासी । 'कित गिरही तें होइ उदासी?
जेहि तरिवर तर तुम अस कोऊ । कोकिल काग बराबर दोऊ॥
धरती महँ विषचारा परा। हारिल जानि भूमि परिहरा॥
फिरौं बियोगी डारहिं डारा । करौं चलैं कह पंख सँवारा॥
जियै क घरी घटति नित जाहीं। साँझहिं जीउ रहै, दिन नाहीं॥
जौ लहि फिरौं मुक्त होइ, परौं न पीजर माँह ।
जाउँ बेगि थल आपने, है जेहि बीच निबाह'॥१३॥

कहि संदेस विहंगम चला। आगि लागि सगरौ सिंघला॥
घरी एक राजा गोहरावा। भा अलोप, पूनि दिस्टि न आवा॥
पंखी नाव न देखा पांखा। राजा होइ फिरा कै साँखा॥
जस हेरत वह पंखि हेराना। दिन एक हमहँ करब पयाना॥
जौ लगि प्रान पिंड एक ठाऊँ। एक बार चितउर गढ़ जाऊँ॥
आवा भँवर मंदिर महँ केवा । जीउ साथ लेइ गएउ परेवा॥
तन सिंघल, मन चितउर बसा। जिउ बिसँभर नागिनि जिमि डसा॥

जेति नारि हँसि पूछहिं अमिय बचन जिउ तंत ।।
रस उतरा, विण चढ़ि रहा, ना अोहि तंत न मंत॥१४॥

बरिस एक तेहि सिंघल भयऊ। भोग बिलास करत दिन गयऊ।
भा उदास जो सुना सँदेसू । सँवरि चला मन चितउर देसू॥
कॅवल उदास जो देखा भँवरा । थिर न रहै अब मालति सँवरा॥
जोगी, भँवरा, पवन परावा। कित सो रहै जो चित्त उठावा॥


दाऊँ = दावाग्नि । भुगहल = भुजंगा नाम का काला पक्षी । डोमा कागा-3 बड़ा कौवा जो सर्वांग काला होता है। (१३) सरग सँदेसी- स्वर्ग से (ऊपर से) संदेसा कहनेवाला। गिरही = गह। हारिल...परिहरा- कहते हैं, हारिल भमि पर पर नहीं रखता, चंगुल में सदा लकडी लिए रहता है जिसमें पर भमि पर न पड़े । चलै कहाँ = चलने के लिये। (१४) गोहरावा = पुकारा । साँखा = शंका, चिता । पिड = शरीर। मंदिर महँ केवा = कमल (पद्यावती) के घर में। बिसंभर = बेसँ भाल, सुध बुध भूला हया। जेति नारि = जितनी स्त्रियाँ हैं सद, जिउ तंत = जी की वात (तत्व) । (१५) पराया = पराए, अपने नहीं ।

जौ पै काढि देइ जिउ कोई। जोगी भँवर न यापन होई॥
तजा कँवल मालति हिय घाली । अब कित थिर पाछै अलि, प्राली।
गंध्रबसेन प्राव सूनि बारा । कस जिउ भएउ उदास तुम्हारा?

मैं तुम्हही जिउ लावा, दीन्ह नैन महँ बास ।
जो तुम उदास तौ यह काकर कबिलास? ॥१५॥


चित्त उठावा = जाने का संकल्प या विचार किया। हिय घाली = हृदय में प्राकर। २०