जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३४. लक्ष्मी समुद्र खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १५४ से – १६३ तक

 

(३४) लक्ष्मी समुद्र खंड

मुरछि परी पदमावत रानी। कहाँ जीउ, कहँ पीउ न जानी॥
जानहु चित्र मूर्ति गहि लाई। पाटा परी बहीं तस जाई॥
जनम न सहा पवन सकुवाँरा। तेइ सो परी दुख समुद अपारा॥
लछिमी नावँ समुद कै बेटी। तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी॥
खेलाति अही सहेलिन्ह सेंती। पाटा जाइ लाग तेहि रेती॥
कहेसि सहेली 'देखहु पाटा। मूरति एक लागि बहि घाटा॥
जौ देखा, तिवई है, साँसा। फूल मुवा, पै मुई न बासा' ॥
रंग जो राती प्रेम के, जानहु बीरबहूटि।
आइ वही दधि समुद महँ, पै रंग गएउ न छूटि॥ १ ॥
लछिमी लखन बतीसौ लखी। कहेसि ‘न मरै, सँभारहु सखी॥
कागर पतरा ऐस सरीरा। पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा॥
लहरि झकोर उदधि जल भीजा। तबहूँ रूप रंग नहिं छीजा'॥
आपु सीस लेइ बैठी कोरै। पवन डोलावे सखि चहुँ ओरै॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ। माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ॥
पानि पियाइ सखी मुख धोई। पदमिनि जनहुँ कवँल संग कोई॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही। ‘तिरिया! समुझि बात कहु मोही॥
देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर।
केहि नगरी कै नागरी, काह नावँ धनि तोर?' ॥ २ ॥
नैन पसार देख धन चेती। देखै काह, समुद कै रेती॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ। पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई। सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा। जो सुमेरु बिधि गरुअ सँवारा॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा। चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा॥
रहौ जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी। कैसे जिऔं भार दुख चाँपी? ॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ। दीन्ह बहाइ उदधि जल माहाँ॥
आवा पवन बिछोह कर, पाट परी बेकरार।
तरिवर तजा जो चूरि कै, लागौं केहि के डार? ॥ ३ ॥


(१) न जानी = न जानें। अहा = थी। सेंती = से। रेती = बालू का किनारा। तीवइ = स्त्री में। (२) कागर = कागज। पतरा = पतला। उड़ाइ = उड़कर। कोरै = गोद में। बोलि कै = पुकारकर। समुझि = सुध करके। (३) चेती = चेत करके, होश में आकर। देखै काह = देखती क्या है कि। झाँपी = आच्छादित। चाँपी = दबी हुई। चूरी = चूर्ण किया। लागौं केहि के डार =

(मुहा०) किसको डाल लगूँ अर्थात् किसका सहारा लूँ?

कहेन्हि ‘न जानहिं हम तोर पीऊ। हम तोहिं पाव रहा नहिं जीऊ॥
पाट परी आई तुम बही। ऐस न जानहिं दहुँ कहँ अही’ ॥
तब सुधि पदमावति मन भई। सँवरि बिछोह मुरुछि मरि गई॥
नैनहेि रकत सुराही ढरै। जनहुँ रकत सिर काटे परै॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा। भा चंदन बंदन सब छारा॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा। देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी। जियत न बिछुरै सारस जोरी॥
जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि।
लोग कहैं यह सिर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि॥ ४ ॥
काया उदधि चितव पिउ पाहाँ। देखौं रतन सो हिरदय माहाँ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया। तेहि महँ दरस देखावै पीया॥
नैन नियर पहुँचत सुठि दूरी। अब तेहि लागि मरौं मैं झूरी॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाव, कहौं केहि रोई? ॥
साँस पास निति आवै जाई। सो न सँदेस कहे मोहिं आई॥
नैन कौड़िया होइ मँड़राहीं। थिरकि मारि पै आवै नाहीं॥
मन भँवरा भा कवँल बसेरी। होइ मरजिया न आनै हेरी॥
साथी आथि निआथि जो, सकै साथ निरबाहि।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि॥ ५ ॥
सती होइ कहँ सीस उघारा। घन महँ बीजु घाव जिमि मारा॥
सेंदुर जरै आगि जनु लाई। सिर कै आगि सँभारि न जाई॥
छूटि माँग अस मोति पिरोई। बारहिं बार जरै जौं रोई॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरे। सावन बूंद गिरहिं जनु झरे॥
भहर भहर कै जोबन बरा। जानहुँ कनक अगिनि महँ परा॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई। पाहुन पवन पानि सब कोई॥
खीन लंक टूटी दुखभरी। बिनु रावन केहि बर होइ खरी॥
रोवत पंखि बिमोहे, जस कोकिला अरंभ।
जाकरि कनक लता सो, बिछुरा पीतम खंभ॥ ६ ॥
लछिमी लागि बुझावै जीऊ। ना मरु बहिन! मिलहि तोर पीऊ॥


(४) पाव = पाया। सँवरि = स्मरण करके। सर = चिता।(५)थिरकि मार = थिरकता या चारों ओर नाचता है। साथी...निरबाहि = साथी वही है जो धन और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके। आथि = सार, पूँजी। निआथी = निर्धनता। (६) घन मँह...मारा = काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार। भहर भहर = जगमगाता हुआ। माँग = माँगती है। पाहुन पवन...सब कोइ = मेहमान समझकर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं। बर = बल, सहारा। अरंभ = रंभ, नाद, कूक। (७) बुझावै

लागि = समझाने बुझाने लगी।

पीउ पानि, होउ पवन अधारी। जसि हौं तहूँ समुद कै बारी॥
मैं तोहि लागि लेउँ खटवाटू। खोजिहि पिता जहाँ लगि घाटू॥
हौं जेहि मिलौं ताहि बड़ भागू। राजपाट औ देउँ सोहागू॥
कहि बुझाइ लेइ मँदिर सिधारी। भइ जेवनार न जेंवै बारी॥
जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा। कहँ तेहि भूख, कहाँ सुख सोवा? ॥
कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा। को अस तेहि सौं कहै सँदेसा?
लछिमी जाइ समुद पहँ रोइ बात यह चालि।
कहा समुद वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि॥ ७ ॥
राजा जाइ तहाँ बहि लागा। जहाँ न कोइ सँदेसी कागा॥
तहाँ एक परबत अस डूँगा। जहँवाँ सब कपूर औ मूँगा॥
तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा। दरब सैंति किछु लाग न हाथा॥
अहा जो रावन लंक बसेरा। गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा॥
ढाढ़ मारि के राजा रोवा। केइ चितउरगढ़ राज बिछोवा! ॥
कहाँ मोर सब दरब भँडारा। कहाँ मोर सब कटक खँधारा॥
कहाँ तुरंगम बाँका बली। कहाँ मोर हस्ती सिंघली? ॥
कहँ रानी पदमावति जीउ बसै जेहि पाहँ।
‘मोर मोर' कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह॥ ८ ॥
भँवर केतकी गुरु जो मिलावै। माँगै राज बेगि सो पाव॥
पदमिनि चाह जहाँ सुनि पाबौं। परौं आगि औ पानि धँसावौं॥
खोजौं परबत मेरु पहारा। चढ़ौं सरग औ परौं पतारा॥
कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी। अगम पंथ जो कहै गवेसी॥[]
परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा। जहाँ न बार पार, नहिं थाहा॥
सीताहरन राम संग्रामा। हनुवँत मिला त पाई रामा॥
मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई। को बर बाँधि गवेसी होई? ॥[]
भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि।
आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह बेलि॥ ९ ॥


बारी = लड़की। लेउँ खटवाटू = खटपाटी लूँगी, रूसकर काम धंधा छोड़ पड़ रहूँगी। (स्त्रियों का रूसकर खाना पीना छोड़ खाट पर इसलिये पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी जायगी न उठूँगी, 'खटपाटी लेना' कहलाता है) । सुख सोवा = सुख से सोना ( साधारण क्रिया का यह रूप बँगला से मिलता है) कहाँ सुमेरु...सेसा = आकाश पाताल का अंतर। बात चालि = बात चलाई। (८) डूँगा = टीला। खँधारा = स्कंधावार, डेरा, तंबू। अवगाह = अथाह

(समुद्र) में। (९) चाह = खबर। धँसावौं = धँसू। गवेसी = खोजी, ढूंढ़नेवाला, गवेषणा करनेवाला।

काहि पुकारौं, जा पहँ जाऊँ। गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ॥
को यह समुद मथै बल गाढै। को मथि रतन पदारथ काढ़ै? ॥
कहाँ सो बरम्हा, बिसुन महेसू। कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू॥
को अस साज देइ मोहिं आनी। बासुकि दाम, सुमेरु मथानी॥
को दधि समुद मथै जस मथा? । करनी सार न कहिए कथा॥
जौ लहि मथै न कोई देइ जीऊ। सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ॥
लीलि रहा अब ढील होइ, पेट पदारथ मेलि।
को उजियार करै जग, झाँपा चंद उधेलि? ॥ १० ॥
ए गोसाइँ! तू सिरजन हारा। तुइँ सिरजा यह समुद अपारा॥
तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा। जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा॥
तुइँ जल ऊपर धरती राखी। जगत भार लेइ भार न थाकी॥
चाँद सुरुज औ नखतन्ह पाँती। तोरे डर धावहिं दिन राती॥
पानी पवन आगि औ माटी। सब के पीठ तोरि है साँटी॥
सो मूरुख औ बाउर अंधा। तोहि छाँड़ि चित औरहि बंधा॥
घट घट जगत तोरि है दीठी। हौं अंधा जेहि सूझ न पीठी॥
पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि।
आगि होइ भा माटी, गोरखधंधै लागि॥ ११ ॥
तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ। तुही बिछवसि, करसि मेराऊ॥
चौदह भुवन सो तोरे हाथा। जहँ लगि बिछुर आव एक साथ॥
सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ। रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ॥
जानसि सबै अवस्था मोरी। जस बिछुरी सारस कै जोरी॥
एक मुए ररि मुवै जो दूजी। रहा न जाइ, आउ अब पूजी॥
झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ। कलपौं माँथ वेगि निस्तरऊँ॥
मरौं सो लेइ पदमावति नाऊँ। तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ॥
दुख सौं पीतम भेंटि, सुख सों सोव न कोइ।
एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ॥ १२ ॥


(१०) मीत होइ = जो मित्र हो। गाढै = संकट के समय में। दाम = रस्सी। करनी सार...कथा = करनी मुख्य है, बात कहने से क्या है। बटा भा = बटाऊ हुआ, चल दिया। ढील होई रहा = चुपचाप बैठ रहा। उघेलि = खोलकर।

(११) थाँभा = ठहराया, टिकाया। थूनि = लकड़ी का बल्ला जो टेक के लिये छप्पर के नीचे खड़ा किया जाता है। भार न थकी = भार से नहीं थकी। सब के पीठि...साँटी = सब की पीठ पर तेरी छड़ी है, अर्थात् सब के ऊपर तेरा शासन है। (१२) मेरवसि = तू मिलाता है। आउ = आयु। बिछोवसि = बिछोह करता है। मेराऊ = मिलाप। जाहाँ = जहाँ। कलपौं =

काटूं । करेसि = तुम करना।

कहि कै उठा समुद पहँ आवा। काढ़ि कटार गीउ महँ लावा॥
कहा समुद, पाप अब घटा। बाम्हन रूप आइ परगटा॥
तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे। हाथ कनक बैसाखी लीन्हे॥
मुद्रा स्त्रवन, जनेऊ काँधे। कनकपत्र धोती तर बाँधे॥
पाँवरि कनक जराऊँ पाऊँ। दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ॥
कहसि कुँवर! मोसौं सत बाता। काहे लागि करसि अपघाता॥
परिहँस मरसि कि कौनिउ लाजा। आपन जीउ देसि केहि काजा॥
जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप।
सकति जीउ जौ काढै, महा दोष औ पाप॥ १३ ॥
को तुम्ह उतर देइ, हो पाँड़े। सो बोलै जाकर जिउ भाँड़े।
जबूदीप केर हौं राजा। सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा॥
सिंघलदीप राजघर बारी। सो मैं जाइ बियाही नारी॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा। नग अमोल निरमर भरि लीन्हा॥
रतन पदारथ मानिक मोती। हुती न काहु के संपति ओती॥
बहल, घोड़, हस्ती सिंघली। औ सँग कुँवरि लाख दुइ चली॥
ते गोहने सिंघल पदमिनी। एक सो एक चाहि रुपमनी॥
पदमावति जग रूपमनि, कहँ लगि कहौं दुहेल॥
तेहि समुद्र मँह खोएउँ, हौं का जिऔं अकेल॥ १४ ॥
हँसा समुद, होइ उठा अँजोरा। जग बूड़ा सब कहि कहि 'मोरा'॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा। बूझि बिचारि तहूँ केहि केरा॥
हाथ मरोरि धुनै सिर झाँखी। पै तोहि हिये न उघरै आँखी॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा। हाथ न रहा झूठ संसारा॥
जो पै जगत होति फुर माया। सैंतत सिद्धि न पावत, राया! ॥
सिद्धै दरब न सैंता माड़ा। देखा भार चूमि कै छाँड़ा।
पानी कै पानी महँ गई। तू जो जिया कुसल सब भई॥
जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव।
धन लछिमी सब ताकर, लेई त का पछिताव? ॥ १५ ॥
अनु, पाँड़े! पुरुषहि का हानी। जौ पावौं पदमावति रानी॥


(१३) पाप अब घटा = यह तो बड़ा पाप मेरे सिर घटा चाहता है। बैसाखा = लाठी। पाँवरि = खड़ाऊँ। पाऊँ = पाँव में। काहे लगि = किसलिये। अपघात = आत्मघात। परिहस = ईर्ष्या। १४) तुम्ह = तुम्हें। भाँड़े = घट में. शरीर में। ओती = उतनी। चाहि = बढ़कर। रूपमनी = रूपवती। दुहेल = दुख। (१५) तोर होइ...बेरा = तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता। झाँखी = झीखकर। उधरै = खुलती है। सैंतत सिद्धि...राया = तो हे राजा।! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिद्धि पा न जाते। पानी कै...गई = जो वस्तुएँ (रत्न आदि) पानी की थीं वे पानी में गई। लेइ चाह = लिया

ही चाहे। जब भाव = जब चाहे। (१६) अनु = फिर, आगे।

तपि कै पावा, मिलि कै फूला। पुनि तेहि खोइ सोइ पथ भूला॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा। मुए गए सँवरै पै चाहा॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं? । कहँ अस जीवन कै सुख छाहीं॥
कहँ अस रहस भोग अव करना। ऐसे जिए चाहि मरना॥
जहँ अस परा समुद नग दीया। तहँ किमि जिया चहै मरजीया?
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ। देह हत्या झगौं सिवलोका॥
का मैं ओहि क नसावा, का सँवरा सो दावँ? ।
जाइ सरग पर होइहि, एहि कर मोर नियावँ॥ १६ ॥
जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? । ना मुइ मरै, न रोवै मरा॥
जो मरि भा औ छाँड़ेसि काया। बहुरि न करै मरन कै दाँवा॥
जो भरि भएउ न बूड़ै नीरा। बहा जाइ लागै पै तीरा॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा। जैस राम दसरथ कर बेटा॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा। एहि समुद्र महँ फिरि फिरि रोवा॥
उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा। हति दसमाथ अमरपद दीन्हा॥
तोहि बल नाहिं मूँदु अब आँखी। लावौं तीर, टेक बैसाखी॥
बाउर अंध प्रेम कर, सुनत लुबुधि भा बाट।
निमिष एक महँ लेइगा, पदमावति जेहि घाट॥ १७ ॥
पदमावति कहँ दुख तस बीता। जस असोक बोरौ तर सीता॥
कनक लता दुइ नारँग फरी। तेहि के भार उठि होइ न खरी॥
तेही पर अलक भुअंगिनि डसा। सिर पर चढ़ै हिये परगसा॥
रही मृनाल टेकि दुखदाधो। आधी कँवल भई, ससि आधी॥
नलिनखंड दुइ तस करिहाऊँ। रोमावली बिछूक कहाऊँ॥
रही टूटि जिमि कंचन तागू। को पिउ मेरवै, देइ सोहागू॥
पान न खाइ करै उपवासू। फूल सूख, तन रही न बासू॥
गगन धरति जल बुड़ेि गए, बूड़त होइ निसाँस।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास॥ १८ ॥
लछिमी चंचल नारि परेवा। जेहि सत होइ छरै कै सेवा॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा। अगमन होइ बैठी तेहि बाटा॥
औ भइ पदमावति कै रूपा। कीन्हेसि छाँह, जरै जहँ धूपा॥


फूला = प्रफुल्ल हुआ। चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत। मोकाँ = मोकहँ, मुझको। देइ हत्या = सिर पर हत्या चढ़ाकर। दाँव = बदला लेने का मौका। (१७) मरि भा = मर चुका। दायाँ = दावँ, आयोजन। बाट भा = रास्ता पकड़ा। (१८) बीरौ = बिरवा, पेड़। दाधी = जली हुई। करिहाउँ = कमर, कटि। बिछूक = बिच्छू। सेवाति = स्वाति नक्षत्र में।

(१९) छरै = छलती है। बाटा = मार्ग में। अगमन = आगे।

देखि सो वल कँवल भँवर होइ धावा। साँस लीन्ह, वह बास न पावा॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी। रतनसेन तब दीन्हीं पीठी॥
जौ भलि होति लच्छमी नारीं। तजि महेस कत होत भिखारी? ॥
पुनि धनि फिर आगे होइ रोई। पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई? ॥
हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ।
आनि समुद महँ छाँड़ैहु, अब रोवौं देइ जीउ॥ १९ ॥
मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू। लेत फिरौं मालति कर खोजू॥
मालति नारी, भँवरा पीऊ। लहि वह बास रहै थिर जीऊ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई। फूल सोइ पै बास न सोई॥
भँवर जो सब फूलन कर फेरा। बास न लेइ मालतिहि हेरा॥
जहाँ पाव मालति कर बासू। वारै जीउ तहाँ होई दासू॥
कित वह बास पवन पहुँचावै। नव तन होइ, पेट जिउ आवै॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ। और फूल कै बास न लेऊँ॥
भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि।
सौहैं भाल खाइ, पै, फिरि कै देइ न पीठि॥ २० ॥
तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ। जहाँ सो मालति लेइ चलु, जाऊँ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा। पानि पियावा मरत पियासा॥
पानी पिया कँवल जस तपा। निकसा सुरुज महँ छपा॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा। राजकुँवर मनि दिपै ललाटा॥
दसन दिपै जस हीरा जोती। नैन कचोर भरे जनु मोती।
भुजा लंक उर केहरि जीता। मूरति कान्ह देख गोपीता॥
जस राजा नल दमनहिं पूछा। तस बिनु प्रान पिंड है छूछा॥
जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग।
मिला भँवर मालति कहँ, करहु दोउ मिलि भोग॥ २१ ॥
पदिक पदारथ खीन जो होती। सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती॥
कँवल जो बिहँसि सूर मुख दरसा। सूरुज कंँवल दिस्टि सौं परसा॥
लोचन कँवल सिरीमुख सूरू। भएउ अनंद दुहूँ रस मूरू॥
मालति देखि भँवर गा भूली। भँवर देखि मालति बन फूली॥


दीठी = देखा। दीन्ही पीठी = पीठ दी, मुंह फेर लिया। (२०) खोजू = पता। कर फेरा = फेरा करता है। हेरा = दृँढता है। वारै = निछावर करता है। नव = नया। भाल = भाला। (२१) लेइ चलु, जाउँ = यदि ले चले तो जाऊँ। छपा = छिपा हुआ। कचोर = कटोरा। गोपीता = गोपी। दमनहिं = दमयंती को। पिंड = शरीर। छूँछा = खाली। पदिक = गले में पहनने का एक चौखूँटा गहना जिसमें रत्न जड़े जाते हैं। (२२) पदिक पदारथ = अर्थात्

पद्मावती। बहुरा = लौटा, फिरा। मूरू = मूल, जड़।

देखा दरस; भए एक पासा। वह ओहिके, वह ओहिके आसा॥
कंचन दाहि दीन्ह जनु जीऊ। ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ॥
पायँ परी धनि पीउ के, नैनन्ह सौं रज मेट।
अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कवलहिं भेंट॥ २२ ॥
जिनि काहू कहँ होइ बिछोऊ। जस वै मिले मिलै सब कोऊ॥
पदमावति जौ पावा पीऊ। जनु मरजियहि परा तन जीऊ।
कै नेवछावरि तन मन बारी। पायन्ह परी घालि गिउ नारी॥
नव अवतार दीन्ह बिधि आजू। रही छार भइ मानुष साजू॥
राजा रोव घालि गिउ पाग। पदमावति के पायन्ह लाग॥
तन जिउ महँ बिधि दीन्ह बिछोऊ। अस न करै तो चीन्ह न कोऊ॥
सोई मारि छार कै मेटा। सोइ जियाइ करावै भेंटा॥
मुहमद मीत जौ मन बसै, बिधि मिलाव ओहि आनि ।
संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि॥ २३ ॥
लछमी सौं पदमावति कहा। तुम्ह प्रसाद पायउँ जो चहा॥
जौ सब खोइ जाहिं हम दोऊ। जो देखै भल कहै न कोऊ॥
जे सब कुँवर आए हम साथी। औ जत हस्ति, घोड़ औ साथी॥
जौ पावैं, सुख जीवन भोगू। नाहिं त मरन, भरन दुख रोगू॥
तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ। जो एहि कर सब बूड़ सो पाऊँ॥
तब सो जरी अमृत लेइ आवा। जो मरे हुत तिन्ह छिरिक जियावा॥
एक एक कै दीन्ह हो आनी। भा सँतोष मन राजा रानी॥
आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं आनंद।
भई प्राप्त सुख संपति, गएउ छूटि दुख दंद॥ २४ ॥
और दीन्ह बहु रतन मखाना। सोन रूप तौ मनहिं न आना॥
जे बहु मोल पदारथ नाऊँ। का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ॥
तिन्ह कर रूप भाव को कहै। एक एक नग दीप जो लहै॥
हीर फार बहु मोल जो अहै। तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहै॥


एक पासा = एक साथ। सीऊ = सीता। रज मेट = आँसुओं से पैर की धूल धोती है। भइ ससि कँवलहि भेंट = शशि, पद्मावती का मुख और कमल, राजा के चरण। (२३) घालि गिउ = गरदन नीचे झुकाकर। मानुष साजू = मनुष्य रूप में। घालि गिउ पागा = गले में दुपट्टा डालकर। पागा = पगड़ी। तन जिउ...चीन्ह न कोऊ = शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने वियोग दिया; यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोई न पहचाने। (२४) तुम्ह = तुम्हारे। आथी = पूँजी, धन। जरी = जड़ी। (२५) पखाना = नग, पत्थर। सोन = सोना। रूप = चाँदी। तुम्ह ठाऊँ = तुम्हारे निकट, तुमसे।

हीर फार = हीरे के टुकड़े।

जौ एक रतन भँजावै कोई। करै सोइ जो मन महँ होई॥
दरब गरब मन गएउ भुलाई। हम सम लच्छ मनहिं नहिं आई॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना। जो जेहि चहिय सोइ तेइ माना॥
बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी काज जो सोइ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ॥ २५ ॥
दिन दस रहे तहाँ पहुनाई। पुनि भए बिदा समुद सौं जाई॥
लछमी पदमावति सौं भेंटी। औ तेहि कहा 'मोरि तू बेटी'॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा। भरि कैं रतन पदारथ हीरा॥
और पाँच नग दीन्ह बिसेखे। सरवन सुना, नैन नहिं देखे॥
एक तौ अमृत, दूसर हंसू। औ तीसर पंखी कर बंसू॥
चौथ दीन्ह सावक सादूरू। पाँचवँ परस, जो कंचनमूरू॥
तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए। जलमानुष अगुवा सँग लाए॥
भेंटघाँट कै समदि तब, फिरे नाइकै माथ।
जलमानुष तबहीं फिरे, जब आए जगनाथ॥ २६ ॥
जगन्नाथ कहँ देखा आई। भोजन रींधा भात बिकाई॥
राजै पदमावति सौं कहा। साँठेि नाठि किछु गाँठि न रहा॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला। निसँठ जो पुरुष पात जिमि डोला॥
साँठिहि रंक चलै झौंराई। निसंठ राव सब कह बौराई॥
साँठिहि आव गरब तन फूला। निसँठहि बोल, बुद्धि बल भूला॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई। निसँठहिं काह होइ औंघाई॥
साँठिहि दिस्टि, जोति होइ नैना। निसँठ होइ, मुख आव न बैना॥
साँठिहि रहै साधि तन, निसँठहि आगरि भूख।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि, ठाढ़ ठाढ़ पै सूख॥ २७ ॥
पदमावति बोली सुन राजा। जीउ गए धन कौने काजा? ॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी। पुनि कित मिलै लच्छि जौ नाठी॥


फार = फल, कतरा, टुकड़ा। हम सम लच्छ = हमारे ऐसे लाखों हैं। (२६) पहुँनाई = मेहमानी। बिसेखे = विशेष प्रकार के। बंसू = वंश, कुल। सावक सादूरू = शार्दूल शावक, सिंह का बच्चा। परस = पारस पत्थर। कंचन-मूरू = सोने का मूल अर्थात् सोना उत्पन्न करनेवाला। जलमानुष = समुद्र के मनुष्य। अगुवा = पथप्रदर्शक। सँग लाए = संग में लगा दिए। भेंट घाँट = भेंट मिलाप। समदि = बिदा करके। (२७) रीधा = पका हुआ। साँठि = पूंजी, धन। नाटि = नष्ट हई। झौंराई = झूमकर। कह = कहते हैं। औंघाई = नींद। साधि तन = शरीर को संयत करके। आगरि = बढ़ी हई, अधिक। गथ = पूंजी। नाठी = नष्ट हुई।

भुकती साँठि गाँठि जो करै। साँकर परे सोइ उपकरै॥
जेहि तन पंख, जाइ जहँ ताका। पैग पहार होइ जौ थाका॥
लछमी दीन्‍ह रहा मोहिं बीरा। भरि कै रतन पदारथ हीरा॥
काढ़ि एक नग वेगि भँजावा। बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा॥
दरव भरोस करै जिनि कोई। साँभर सोइ गाँठि जो होई॥

जोरि कटक पुनि राजा, घर कहँ कीन्‍ह पयान।
दिवसहि भानु अलोप भा, वासुकि इंद्र सकान॥८॥


 

भुकती = बहुत सी, अधिक। साँकर परे = संकट पड़ते पर। उपकरै = उपकार करती है; काम आती है। साँभर = संवल, राह का खर्चे। सकन = डरा।

  1. पाठांतर — अगम पंथ कर होइ संदेसी।
  2. बर बाँधि = रेखा खींचकर, दृढ़ प्रतिज्ञा करके (आजकल 'बरैया बाँधि' बोलते
    हैं)। पाठांतर = को सहाय उपदेसी होई।