जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२. सिंहलदीप वर्णन खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ९ से – १६ तक

 

(२) सिंहलद्वीप वर्णन खंड

सिंघलद्वीप कथा अब गावौं। औ सो पदमिनि बरनि सुनावौं॥
निरमल दरपन भाँति बिसेखा। जो जेहि रूप सो तैसइ देखा॥
धनि सो दीप जहँ दीपक बारी। औ पदमिनि जो दई सँवारी॥
सात दीप बरनै सब लोगू। एक दीप न ओहि सरि जोगू॥
दियादीप नहिं तस उँजियारा। सरनदीप सर होइ न पारा॥
जंबूदीप कहौं तस नाहीं। लंकदीप सरि पूज न छाहीं॥
दीप गभस्थल आरन परा। दीप महुस्थल मानुस हरा॥

सब ससार परथमैं आए सातौं दीप।
एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप॥१॥

गध्रबसेन सुगंध नरेसू। सो राजा, वह ताकर देसू॥
लंका सुना जो रावन राजू। तेहु चाहि बड़ ताकर साजू॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा। सबै छत्रपति औ गढ़ राजा॥
सोरह सहस घोड़ घोड़सारा। स्यामकरन अरु बाँक तुखारा॥
सात सहस हस्ती सिंघली। जनु कबिलास एरावत बली॥
अस्वपतिक सिरमौर कहावै। गजपतीक आँकुस गज नावै॥
नरपतीक कहँ और नरिंदु? भूपतीक जग दूसर इंदू॥

एस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ।
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोई॥२॥

जबहिं दीप नियरावा जाई। जनु कविलास नियर भा आई॥
घन अमराउ लाग चढ़ पासा। उठा भूमि हुत लागि अकासा॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई। भइ जग छाँह रैनि होइ आई॥
मलय समीर सोहावन छाहाँ। जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ॥
ओही छाँह रैनि होइ आवै। हरियर सबै अकास देखावै॥
पथिक जो पहुँचै सहि के घामू। दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू॥
जेइ वह पाई छाहँ अनूपा। फिरि नहि आइ सहै यह धूपा॥

अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत।
फूलै फरै छवौ ऋतु, जानहु सदा बसंत॥३॥


(१) बारी = बाला, स्त्री। सरनदीप—अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे। भूगोल का ठीक ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णद्वीप और सिंहल को भिन्न भिन्न द्वीप माना है। हरा = शून्य। (२) तुखार = तुषार देश का घोड़ा। इंदु = इंद्र। चाहि = अपेक्षा (बढ़कर), बनिस्बत। कविलास = स्वर्ग। (३) भूमि हुत = पृथ्वी से (लेकर)। लागि = तक।

फरे आँव अति सघन सोहाए। औ जस फरे अधिक सिर नाए॥
कटहर डार पींड सन पाके। बड़हर, सो अनूप अति ताके॥
खिरनी पाकि खाँड़ अस मीठी। जामुन पाकि भँवर अति डीठी॥
नरियर फरे फरी फरहरी। फुरै जानु इंद्रासन पुरी॥
पुनि महुआ चुआ अधिक मिठासू। मधु जस मीठ पुहुप जस बासू॥
और खजहजा अनबन नाऊ। देखी सब राउन अमराऊ॥
लाग सबै जस अमृत साखा। रहै लोभाइ सोइ जो चाखा॥

लवँग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर।
आसपास घन इमिली औ घन तार खजूर॥४॥

बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा। करहिं हुलास देखि कै साखा॥
भोर होत बोलहिं चुहचुही। बोलहिं पाँडुक 'एकै तूही'॥
सारौं सुआ जो रहचह करहीं। कुरहि परेवा औ करबरहीं॥
'पीव पीव' कर लाग पपीहा। 'तुही तुही' कर गडुरी जीहा॥
'कुहू कुहू' करि कोइल राखा। औ भिंगराज बोल बहु भाखा॥
'दही दही' करि महरि पुकारा। हारिल बनवै आपन हारा॥
कुहुकहिं मोर सोहावन लागा। होइ कुराहर बोलहिं कागा॥

जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराऊँ।
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ॥५॥

पैग पैग पर कुआँ बाबरी। साजी बैठक और पाँवरी॥
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। औ सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ॥
मठ मंडप चहँ पास सँवारे। तपा जपा सब आसन मारे॥
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी। कोई रामजती बिसवासी॥
कोई ब्रह्मचार पथ लागे। कोइ सो दिगबर बिचरहिं नाँगे॥
कोई सु महेसुर जंगम जती। कोइ एक परखै देवी सती॥
कोइ सुरसती कोई जोगी। कोइ निरास पथ बैठ वियोगी॥

सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत।
आसन मारे बैठ सब जारि आतमा भूत॥६॥

मानसरोदक बरनौं काहा। भरा समद अस अति अवगाहा॥
पानि मोति अस निरमल तासू। अमृत आनि कपूर सुबासू॥
लंकदीप कै सिला अनाई। बाँधा सरवर घाट बनाई॥
खंड खंड सीढ़ी भई गरेरी। उतरह चढ़हि लोग चहुँ फेरी॥



(४) पींड = जड़ के पास की पेडी। फुरै = सचमुच। खजहजा = खाने के फल।

अनबन = भिन्न भिन्न। (५) चुहचुही = एक छोटी चिड़िया जिसे फूलसुँघनी भी कहते हैं। सारौं = सारिका, मैना। महरि = महोख से मिलती-जुलती एक छोटी चिड़िया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं। हारा = हाल, अथवा लाचारी, दीनता। (६) पैग पैग पर = कदम कदम पर।

फूला कँवल रहा होइ राता। सहस सहस पखुरिन कर छाता॥
उलथहिं सीप, मोति उतरहीं। चूगहिं हंस औ केलि कराहीं॥
खनि पतार पानी तहँ काढ़ा। छीर समुद निकसा हुत बाढ़ा॥[]

ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत फल सब रूख।
देखि रूप सरवर कै गै पियास औ भूख॥७॥

पानि भरै आवहिं पनिहारी। रूप सुरूप पदमिनी नारी॥
पद्मगंध तिन्ह अंग बसाहीं। भँवर लागि तिन्ह संग फिराहीं॥
लंकसिंघिनी, सारंगनैनी। हंसगामिनी कोकिलबैनी॥
आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती। गवन सोहाइ सु भाँतिहि भाँती॥
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं। रहस केलि सन आवहिं जाहीं॥
जा सहुँ वै हेरैं चख नारी। बाँक नैन जनु हनहिं कटारी॥
केस मेघावर सिर ता पाई। चमकहिं दसन बीजु कै नाईं॥

माथे कनक गागरी थावह[]
जेहि के असि पनहारी सो रानी केहि रूप॥८॥

ताल तलाब बरनि नहिं जाहीं। सूझै बार पार किछु नाहीं॥
फूले कुमुद सेत उजियारे। मानहुँ उए गगन महँ तारे॥
उतरहिं मेघ चढ़हिं लेइ पानी। चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी॥
पौरहिं पंख सुसंगह संगा। सेत पीत राते बह रंगा॥
चकई चकवा केलि कराहीं। निसिस के बिछोह, दिनह मिलि जाहीं॥
कुररहिं सारस करहिं हुलासा। जीवन मरन सो एकहिं पासा॥
बोलहि सोन ढेक बगलेदी। रही अबोल मौन जल भेदी॥

नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप।
जो मरजीया होइ तहँ सो पावै वह सीप॥९॥

आस पास बहु अमृत बारी। फरी अपूर होइ रखवारी॥
नारँग नीबू सुरंग जंभीरा। औ बदाम बहु भेद अँजीरा॥
गलगल तुरँज सदाफर फरे। नारँग अति राते रस भरे॥
किसमिस सेव फरे नौ पाता। दारिउँ दाख देखि मन राता॥
लागि सुहाई हरफार्‌योरी। उनै रही केरा कै घौरी॥


ब्रह्मचार = ब्रह्मचर्य। सुरसती = सरस्वती (दसनामियों में)। खेंवरा = सेवड़ों का एक भेद। (७) भईं = घूमी हैं॥ गरेरी = चक्करदार। पाल = ऊँचा बाँध या किनारा, भीटा। (८) मेघावर = बादल की घटा। ता पाई = पैर तक। बीजु = बिजली।

  1. कुछ प्रतियों में इस चौपाई के स्थान पर यह है—कतक पंखि पौंरहिं अति लोने। जानहु चित्र लिखे सब सोने।
  2. पाठांतर—मानहु मैन मूरती अछरी बरन अनूप।
(९) बानी = वर्ण, रंग, चमक। सोन, ढेक, बगलेदी = ताल की चिड़ियाँ।

फरे तूत कमरख औ न्यौजी। रायकरौंदा वेर चिरौंजी॥
संगतरा व छुहारा दीठे। और खजहजा खाटे मीठे॥

पानि देहिं खँड़बानी कुबहिं खाँड़ बहु मेलि।
लागी घरी रहट कै सोचहिं अमृतबेलि॥१०॥

पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा। बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा॥
बहुत फूल फूली घनबेली। केवड़ा चंपा कुंद चमेली॥
सुरंग गुलाल कदम औ कूजा। सुगँध बकौरी गंध्रव पूजा॥
जाही जूही बगुचन लावा। पुहुप सुदरसन लाग सुहावा॥
नागेसर सदबरग नेवारीं। औ सिंगारहार फूलवारीं॥
सोनजरद फूलीं सेवती। रूपमंजरी और मालती॥
मौलसिरी बेइलि औ करना। सवै फूल फूले बहुबरना॥

तेहिं सिर फूल चढ़हिं वै जेहि माथे मनि भाग।
आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत औ फाग॥११॥

सिंघलनगर देखु पुनि बसा। धनि राजा अस जे कै दसा॥
ऊँची पौरी उँच अवासा। जनु कैलास इंद्र कर बासा॥
राव रंक सब घर घर सुखी। जो दीखै सो हँसता मुखी॥
रचि रचि साजे चंदन चौरा। पोतें अगर भेद औ गोरा॥
सब चौपारहिं चंदन खंभा। ओठँघि सभापति बैठे सभा॥
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी। परी दीठि इंद्रासन पुरी॥
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता। संसकिरित सबके मुख बाता॥

अस कै मँदिर सँवारे, जनु सिवलोक अनूप।
घर घर नारि पदमिनी, मोहहिं, दरसन रूप॥१२॥

पुनि देखी सिंघल कै हाटा। नवौ निद्धि लछिमी सब बाटा॥
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी। बैठ महाजन सिंघलदीपी॥
रचहिं हथौड़ा रूपन ढारी। चित्र कटाव अनेक सँवारी॥
सोन रूप भल भयउ पसारा। धवल सिरी पोतहिं घर बारा॥
रतन पदारथ मानिक मोती। हीरा लाल सो अनबन जोती॥
औ कपूर बेना कस्तूरी। चंदन अगर रहा भरपूरी॥
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा। ता कहँ आन हाट कित लाहा॥


मरजीया = जान जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तुएँ लानेवाले, जीवकिया, जैसे, गोताखोर। (१०) हरफार्‌योरी = लवली। न्योजी = लीची। खँडवानी = खाँड़ का रस। (११) कूजा = कुब्जक। पहाड़ी या जंगली गुलाब जिसके फल सफेद होते हैं। घनबेली = बेला की एक जाति। नागेसर = नागकेसर। बकौरी = बकावली। बगुचा = (गट्ठा) ढेर, राशि। सिंगारहार = हरिसिगार। शेफालिका।

(१२) मेद = मेदा, एक सुगंधित जड़। गौरा = गोरोचन। ओठँघि =

कोई करै बेसाहनी, काहू केर बिकाइ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गँवाइ॥१३॥

पुनि सिंगारहाट भल देसा। किए सिँगार बैठीं तहँ बेसा॥
मुख तमोल, तन चीर कुसुंभी। कानन कनक जड़ाऊ खुंभी॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं। नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं॥
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी। मारहिं बान सान सौं फेरी॥
अलक कपोल डोल, हँसि देहीं। लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी। अंचल देहिं सुभावहिं ढारी॥
केत खिलार हारि तेहि पासा। हाथ झारि उठि चलहिं निरासा॥

चेटक लाइ हरहिं मन, जब लहि होइ गथ फेंट।
साँठ नाठि उठि भए बटाऊ, ना पहिचानि न भेंट॥१४॥

लेइ के फूल बैठि फुलहारी पान अपूरब धरे सँवारी॥
सोंधा सवैं बैठ लै गाँधी। फूल कपूरे खिरौरी बाँधी॥
कतहूँ पंडित पढ़हिं पुरानू। धरमपंथ कर करहिं बखानू॥
कतहूँ कथा कहै किछु, कोई। कतहूँ नाच कूद भल होई॥
कतहूँ चिरहँटा पंखी लावा। कतहुँ पखंडी काठ नचावा॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला। कतहूँ नाटक चेटक-कला॥
कतहुँ, काहु ठगविद्या लाई। कतहुँ लेहिं मानुष बौराई॥

चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच॥१५॥

पुनि आए सिंघल गढ़ पासा। का बरनौ जनु लाग अकासा॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी। ऊपर इंद्रलोक पर दीठी॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका। काँपै जाँघ, जाइ नहि झाँका॥
अगम असूझ देखि डर खाई। परै सो सपत पतारहिं जाईं॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा। नवौ जो चढ़े जाइ बरम्हंडा॥
कंचन कोट जरे नग सीसा। नखतहिं भरी बीजू जनु दीसा॥
लंका चाहि ऊँच गढ़ ताका। निरखि न जाइ, दीटि तन थाका॥


पीठ टिकाकर। (१३) कुहकुहँ = कुंकुम, केसर। धवल = सफेदी। सिरी = श्री, रोली, लाल बुकनी (श्री का चिह्न तिलक में रोली से बनाते हैं इसी से रोली को श्री कहते हैं)। दूकानदार प्रायः सिंदूररोली आादि के चिह्न दुकानों पर बनाते हैं। बेना = खस वा गंधबेन। बेसाहनी = खरीद। (१४) बेसा = वेश्या। खुंभी = कान में पहनने का एक गहना, लौंग या कील। सारी = सारि, पासा।

गथ = पूँजी। (१४) साँठ = पूंजी । नाठि = नष्ट हुई। (१५) सोंधा = सुगंध द्रव्य। गाँधी = गंधी। खिरौंरी = केवड़ा देकर बाँधी हुई खैर या कत्थे की टिकिया। चिरहँटा = बहेलिया। पखंडी = कठपुतलीवाला। (१६)

हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ़ सुमेर।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर॥१६॥

निति गढ़ बाँचि चले ससि सूरू। नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी। सहस सहस तहँ बैठे पाजी॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी। काँपै पाव चपत वह पौरी॥
पौरिहि पौरि सिंह गढ़ि काढ़े। डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढ़े॥
बहुबिधान वे नाहर गढे। जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढ़े॥
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा। कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा॥
कनक-सिला गढ़ि सीढ़ी लाईं। जगमाहिं गढ़ ऊपर ताई॥

नवौं खंड नव पौरी, औ तहँ वज्र-केवार॥
चारि बसेरे सौं चढ़ै, सत सौं उतरै पार॥१७॥

नव पौरी पर दसवें दुवारा। तेहि पर बाज राज घरियारा॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी। पहर पहर सो आपति बारी॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा। घरी घरी घरियार पुकारा॥
परा जो डाँड़ जगत सब डाँड़ा। का निचिंत माटी कर भाँड़ा?॥
तुम्ह तेहि चाक चढ़े हौ काँचे। आएहु रहै न थिर होइ बाँचे॥
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ। का निचिंत होड़ सोड बटाऊ?॥
पहरहिं पहर गजर निति होई। हिया बजर, मन जाग न सोई॥

मुहमद जीवन जल भरन, रहँट-घरी कै रीति।
घरी जो आई ज्यों भरी, ढरी, जनम गा बीति॥१८॥

गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी। पनिहारी जैसे दुरपदी॥
और कुंड एक मोतीचूरू। पानी अमृत, कीच कपूरू॥
ओहि क पानि राजा पै पीया। बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया॥
कंचन-बिरिछ एक तेहि पासा। जस कलपतरु इंद्र कबिलासा॥
मूल पतार, सरग ओहि साखा। अमरबेलि को पाव को चाखा?॥
चाँद पात औ फूल तराईं। होइ उजियार नगर जहँ ताईं॥
वह फल पावै तप करि कोई। बिरिध खाइ तौ जोबन होई॥

राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग।
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि न रोग॥१९॥

गढ़ पर बसहिं चारि गढ़पती। असुपति, गजपति, भू-नर-पती॥
सब धौराहर सोने साजा। अपने अपने घर सब राजा॥


करिन्ह = दिग्गजों। (१७) पाजी = पैदल सिपाही। कोतवार = कोटपाल, कोतवाल। गुंजरि लीहा = गरज कर लिया।


बसेरा = टिकान। (१८) रहँट-घरी = रहट में लगा छोटा घड़ा। घरियार = घंटा। घरी भरी = घड़ी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी नाँद में एक घड़िया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा दिया जाता था।

रूपवंत धनवंत सभागे। परस पखान पौरि तिन्ह लागे॥
भोग-विलास सदा सब माना। दुख चिंता कोइ जनम न जाना॥
मँदिर मँदिर सब के चौपारी। बैठि कुँवर सब खेलहि सारी॥
पासा ढरहिं खेल भल होई। खड़गदान सरि पूज न कोई॥
भाँट बरनि कहि कीरति भली। पावहिं हस्ति घोड़ सिंघली॥

मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास।
निसि दिन रहै वसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास॥२०॥

पुनि चलि देखा राज दुआरा। मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा।
हस्ति सिंघली बाँधे धारा। जनु सजीव सब ठाढ़ पहारा॥
कौनौ सेत पीत रतनारे। कौनौ हरे, धूम औ कारे॥
बरनहिं बरन गगन जस मेघा। औ तिन्ह गगन पीठि जनु ठेघा॥
सिंघल के बरनौं सिंघली। एक एक चाहि एक एक बली॥
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं। बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं॥
माते तेइ सब गरजहिं बाँधे। निसि दिन रहहिं महाउत काँधे॥

धरती भार न अँगवै, पाँव धरत उठ हालि।
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन्ह के चालि॥२१॥

पुनि बाँधे रजवार तुरंगा। का बरनौं जस उन्हकै रंगा॥
लील, समंद चाल जग जाने । हाँसुल, भौंर गियाह बखाने॥
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती। गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती॥
तीख तुखार चाँड़ औ बाँके। सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके॥
मन तें अगमन डोलहिं बागा। लेत उसास गगन सिर लागा॥
पौन समान समुद पर धावहिं। बूड़ न पाँव, पार होइ आवहिं।
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं। भाँजहि पूँछ, सीस उपराहीं॥

अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह।
नैन पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह॥२२॥


जब पानी भर जाने से घड़िया डूब जाती थी तब एक घड़ी का बीतनामाना जाता था। (२०) परस पखान = स्पर्शमरिण, पारस पत्थर। सारी = पासा। झारि = बिल्कुल या समूह। सरि पूज= बराबरी को पहुँचता है। खड़गदान = तलवार चलाना। (२१) बारा = द्वार। ठेवा = सहारा दिया। रजवार = राजद्वार। समंद = बादामी रंग का घोड़ा। हाँसुल = कुम्मैत हिनाई, मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले। भौंर = मुश्की। कियाह = ताड़ के पके फल का रंग। हरे = सब्जा। कुरंग = लाख के रंग का या नीला कुम्मैत। महुअ = महुए के रंग का। कुरंग = लाल और सफेद मिले रोएँ का, गर्रा। कोकाह = सफेद रंग का। बुलाह = बोल्लाह, गर्दन और पूंछ के बाल पीले। पताजा = ताजियाना, चाबुक। अगमन = आगे। तुखार = तुषार देश के घोड़े, यहाँ घोड़े।

१२

राजसभा पुनि देख बईठी। इंद्रसभा जनु परि गै डीठी॥
धनि राजा असि सभा सँवारी। जानहु फूलि रही फुलवारी॥
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा। दर निसान नित जिन्हके बाजा॥
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा। माथे छात, बैठ सब पाटा॥
मानहुँ कँवल सरोवर फूले। सभा क रूप देखि मन भूले॥
पान कपूर मेद कस्तूरी। सुगंध बास भरी रही अपूरी॥
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा। गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा॥

छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप।
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड़ परताप॥३२॥

साजा राजमँदिर कैलासू। सोने कर सब धरति अकासू॥
सात खंड धौराहर साजा। उहै सँवारि सकै अस राजा॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा। औ नग लाइ सरग लै लावा॥
जावत सबै उरेह उरेहे। भाँति भाँति नग लाग उबेहे॥
भा कटाव सब अनवत भाँती। चित्र कोरि कै पाँतिहि पाँती॥
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे। निसि दिन रहरिं दीप जनु बरे॥
देखि धौरहर कर उँजियारा। छपि गए चाँद सुरुज औ तारा॥

सुना सात बैकुंठ जस तस, साजे खँड सात।
बेहर बेहर भाव तस, खंड खंड उपरात॥२४॥

बरनौं राजमंदिर रनिवासू। जनु अछरीन्ह भरा कविलासू॥
सोरह सहस पदमिनी रानी। एक एक तें रूप बखानी॥
अति सुरूप औ अति सुकुवाँरी। पान फूल के रहहिं अधारी॥
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी। महा सुरूप पाट-परधानी॥
पाट बैठि रह किए सिंगारू। सब रानी ओहि करहिं जोहारू॥
निति नौरंग सुरंगम सोई। प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई॥
सकल दीप महँ जेती रानी। तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी॥

कुँवरि बतीसो लच्छनी, अस सब माँह अनूप।
जानत सिंघलदीप के, सबै बखानैं रूप॥२५॥



(२३) दर = दरवाजा। मेद = मेदा, एक प्रकार की सुगंधित जड़। तवै = तपता है। (२४) उरेह = चित्र। उबेहे = चुने हुए, बीछे हुए। कोरिकै = खोदकर। बेहर बेहर = अलग अलग। (२५) बारहबानी = द्वादशवर्णी, सूर्य की तरह चमकनेवाली।