जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२२. पार्वती महेस खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ७९ से – ८२ तक

 

(२२) पार्वती महेश खंड

ततखन पहुँचे आइ महेसू। बाहन बैल, कुस्टि कर भेसू॥
काथरि कया हड़ावरि बाँधे। मुंड माल औ हत्या काँधे॥
सेसनाग जाके कँठमाला। तनु भभूति, हस्ती कर छाला॥
पहुँची रुद्रकवँल कै गटा। ससि माथे औ सुरसरि जटा॥
चँवर घंट औ डँवरू हाथा। गौरा पारबती धनि साथा॥
औ हनुवंत वीर सँग आवा। धरे भेस बाँदर जस छावा॥
अवतहि कहेन्हि न लावहु आगी। तेहि कै सपथ जरहु जेहि लागी॥
की तप करै न पारेहु, की रे नसाएहु जोग? ।
जियत जीउ कस काढ़हु? कहहु सो मोहि बियोग॥ १ ॥
कहेसि मोहि बातन्ह बिलमावा। हत्या केरि न डर तोहि आवा॥
जरै देहु, दुख जरौं अपारा। निस्तर पाइ जाउँ एक बारा॥
जस भरथरी लागि पिंगला। मो कहँ पदमावति सिंघला॥
मैं पुनि तजा राज औ भोगू। सुनि सो नावँ लीन्ह तप जोगू॥
एहि मढ़ सेएउँ आइ निरासा। गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा॥
मैं यह जिउ डाढ़े पर दाधा। आधा निकसि रहा, घट आधा॥
जा अधजर सो बिलँब न लावा। करत बिलंब बहुत दुख पावा॥
एतना बोल कहत मुख, उठी बिरह कै आगि।
जौं महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि॥ २ ॥
पारबती मन उपना चाऊ। देखौं कुँवर केर सत भाऊ॥
ओहि एहि बीच कि पेमहि पूजा। तन मन एक कि मारग दूजा॥
भइ सुरूप जानहुँ अपछरा। बिहँसि कुँवर कर आँचर धरा॥
सुनहु कुँवर मोसौं एक बाता। जस मोहि रंग न औरहि राता॥
औ विधि रूप दीन्ह है तोकाँ। उठा सो सबद जाइ सिवलोका॥
तब हौं तोपहँ इंद्र पठाई। गइ पदमिनि, तैं अछरी पाई॥
अब तजु जरन, मरन, तप जोगू। मोसौं मानु जनम भरि भोगू॥


(१) कुस्टि = कुष्टी, कोढ़ी। हड़ावरि = अस्थि की माला। हत्या = मुत्य, काल? रुद्रकँवल = रुद्राक्ष। गटा = गट्टा, गोल दाना। (२) निस्तर = निस्तार, छुटकारा। (३) ओहि एहि बीच...नजा = उसमें (पद्मा वती में) और इसमें कुछ अंतर रह गया है कि वह अंतर प्रेम से भर गया है और दोनों अभिन्न हो गए हैं। (४) राता = ललित, सुंदर। तोकाँ = तुमको (= तोकहँ)।

हौंं अछरी कबिलास कै जेहि सरि पूज न कोइ।
मोहि तजि सँवरि जो ओहिं मरसि, कौन लाभ तेहि होइ? ॥ ३ ॥
भलेहिं रंग अछरी तोर राता। मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता॥
मोहिं ओहि सँवरि मुए तस लाहा। नैन जो देखसि पूछसि काहा॥
अबहिं ताहि जिउ देइ न पावा। तोहि अस अछरी ठाढ़ि मनावा॥
जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा। न जानौं काह होइ कबिलासा॥
हौं कबिलास काह लै करऊँ। सोइ कबिलास लागि जेहि मरऊँ॥
ओहि के बार जीउ नहिं बारौं। सिर उतारि नेवछावरि सारौं॥
ताकर चाह कहै जो आई। दोउ जगत तेहि देहुँ बड़ाई॥
ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ।
तेहि निरास पीतम कहँ, जिउ न देउँ का देउँ? ॥ ४ ॥
गौरइ हँसि महेस सौं कहा। निहचै एहि बिरहानल दहा॥
निहचै यह ओहि कारन तपा। परिमल पेम न आछै छपा॥
निहचै पेम पीर यह जागा। कसे कसौटी कंचन लागा॥
बदन पियर जल डभकहि नैना। परगट दुवौ पेम के बैना॥
यह एहि जनम लागि ओहि सीझा। चहै न औरहि, ओही रीझा॥
महादेव देवन्ह के पीता। तुम्हारी सरन राम रन जीता॥
एहू कहँ तस मया करेहू। पुरवहु आस कि हत्या लेहू॥
हत्या दुइ के चढ़ाए काँधे बहु अपराध।
तीसर यह लेउ माथे, जौ लेवै कै साध॥ ५ ॥
सुनि कै महादेव कै भाखा। सिद्धि पुरुष राजै मन लाखा॥
सिद्धहिं अंग न बैठे माखी। सिद्ध पलक नहिं लावै आँखी॥
सिद्धहिं संग होइ नहिं छाया। सिद्धहिं होइ भूख नहिं माया॥
जेहि जग सिद्ध गोसाई कीन्हा। परगट गुपुत रहै को चीन्हा? ॥
बैल चढ़ा कुस्टी कर भेसू। गिरजापति सत आइ महेस्॥
चीन्है सोइ रहै जो खोजा। जस विक्रम औ राजा भोजा॥
जो ओहि तंत सत्त सौं हेरा। गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा॥
बिनू गुरु पंथ न पाइय, भूलै सो जो मेट॥
जोगी सिद्ध होइ तब, जब गोरख सौं भेंट॥ ६ ॥


(४) तस = ऐसा (इस अर्थ में प्रायः प्रयोग मिलता है)। कबिलास = स्वर्ग। बारौं = बचाऊँ। सारौं = करुँ। चाह = खबर। निरास = जिसे किसी की आशा न हो, जो किसी के आसरे का न हो। (५) आछै = रहता है। कसे = कसने पर। लागा = प्रतीत हुआ। डभकहि = डबडबाते हैं, आर्द्र होते हैं। परगट... बैना = दोनों (पीले मुख औौर गीले नेत्र) प्रेम के वचन या बात प्रकट करते हैं। हत्या दुइ = दोनों कंधों पर एक एक (कवि ने शिव के कंधे पर हत्या की कल्पना क्यों की है, यह नहीं स्पष्ट होता)। (६) लाखा = लखा, पहचाना।

मेरा = मेल, भेंट। जो मेट = जो इस सिद्धांत को नहीं मानता।

ततखन रतनसेन गहबरा। रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा॥
मातै पितै जनम कित पाला। जो अस फाँद पेम गिउ घाला? ॥
धरती सरग मिले हुत दोऊ। केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ! ॥
पदिक पदारथ कर हुँत खोवा। टूटहिं रतन,रतन तस रोवा॥
गगन मेघ जस बरसै भला। पुहुमी पूरि सलिल बहि चला॥
सायर टूट, सिखर ग पाटा। सूझ न बार पार कहुँ घाटा॥
पौन पान होइ होइ सब गिरई। पेम के फंद कोइ जनि परई॥
तस रोवै जस जिउ जरै, गिरै रक्त औ माँसु।
रोवँ रोवँ सब रोवहिं सूत सूत भरि आँसु॥ ७ ॥
रोवत बूडि उठा संसारू। महादेव तब भएउ भयारू॥
कहेन्हि ‘न रोव, बहुत तैं रोवा। अब ईसर भा, दारिद खोवा॥
जो दुख सहै होइ दुख ओकाँ। दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका॥
अब तैं सिद्ध भएसि सिधि पाई। दरपन कया छूटि गइ काई॥
कहौं बात अब हौं उपदेसी। लागु पंथ, भूले परदेसी॥
जौं लगि चोर सेंधि नहिं देई। राजा केरि न मूसै पेई॥
चढ़े न जाइ बार ओहि खूँदी। परै त सेंधि सीस बल मूँदी॥
कहौं सो तेहि सिंहलगढ़, है खँड सात चढ़ाव।
फिरा न कोई जियत जिउ सरग पथ देइ पाव॥ ८ ॥
गढ़ तस बाँक जैसि तोरि काया। पुरुष देखु ओही कै छाया॥
पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हे। जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हे॥
नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा। औ तहँ फिरहि पाँच कोटवारा॥
दसवँ दुआर गुपुत एक ताका। अगम चढ़ाव, बाट सुठि बाँका॥
भेदै जाइ सोइ वह घाटी। जो लहि भेद, चढ़ै होइ चाँटी॥
गढ़ तर कुंड, सुरँग तेहि माहाँ। तहँ वह पंथ कहौं तोहि पाहाँ॥
चोर बैठ जस सेंधि सँवारी। जुआ पैंत जस लाव जुआरी॥
जस मरजिया समुद धँस, हाथ आव तब सीप।
ढ़ूंढ़ि लेइ जो सरग दुआरी, चढ़ै सो सिंघलदीप॥ ९ ॥
दसवँ दुआर ताल कै लेखा। उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा॥
जाइ सो तहाँ साँस मन बंधी। जस धँसि लीन्ह कान्ह कालिंदी॥


(७) गहबरा = घबराया। घाला = डाला। पदिक = ताबीज, जंतर। गापाटा = (पानी से) पट गया। (८) मयारू = मया करनेवाला, दयार्द्र। ईसर = ऐश्वर्या। ओकाँ = उसको (ओकाँ ओकइँ)। मूसै पेई = मूसने पाता है। चढ़ै न खूँदी = कूदकर चढ़ने से उस द्वार तक नहीं जा सकता। (९) ताका = उसका। जो लहि...चाँटी = जो गुरु से भेद पाकर चींटी के समान धीरे धीरे (योगियों के पिपीलिका मार्ग से) चढ़ता है। पैंत = दाँव। (१०) ताल कै लेखा = ताड़ के समान (ऊँचा)।

तू मन नाथु मारि के साँसा। जो पै मरहि अबहिं करु नासा॥
परगट लोकचार कहु॒ बाता। गुपुत लाउ मन जासों राता॥
'हौं हौं' कहत सबै मति खोई। जौं तू नाहिं आहि सब कोई॥
जियतहि जुरै मरै एक वारा। पुनि का मीचु, को मारै पारा॥
आपुहि गुरु सो आपुहि चेला। आपुहि सब औ आपु अकेला॥
आपुहि मीच जियन पुनि, आपुहि तन मन सोइ!
आपुहि आपु करै जो चाहै, कहाँ सो दूसर कोइ?॥१०॥


 

लोकचार = लोकाचार की। जुरै = जुट जाय।