जायसी ग्रंथावली/पदमावत/५१. पद्मावती, गोरा बादल संवाद खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २४१ से – २४३ तक

 
(५१) पद्मावती गोरा बादल संवाद खंड


सखिन्ह बुझाई दगध अपारा। गइ गोरा बादल के बारा॥
चरन कँवल भुई जनम न धरे! जात तहाँ लगि छाला परे॥
निसरि आए छात्री सुनि दोऊ। तस काँँपे जस काँप न कोऊ॥
केस छोरी चरनन्ह रज झारा। कहाँ पाँव पदमावति धारा?॥
राखा आनि पाट सोनवानी। बिरह बियोगिनि बैठी रानी॥
दोउ ठाढ़ होइ चँवर डोलावहिं। माथे छात, रजायसु पावहिं॥
उलटि बहा गंगा कर पानी। सेवक बार आइ जो रानी॥
का अस कस्ट कोन्ह तुम्ह, जो तुम्ह करत न छाज।
अज्ञा होह बेगि सो, जीउ तुम्हारे काज'॥१॥
कही रोइ पदमावति बाता। नैनन्ह रकत दीख जग राता॥
उथल समुद जस मानिक भरे। रोइसि रुहिर आँसू तस ढरे॥
रतन के रंग नैन पै बारौं। रती रती के लोहू ढारौं॥
भँवरा ऊपर कँवल भवावौं। लेइ चलु तहाँ सूर जहूँ पावौ॥
हिय कै हरदि, बदन के लोहू। जिउ बलि देउँ सो सँवरि बिछोहू॥
परहिं आँसू जस सावन नीरू। हरियरि भूमि, कुसुंभी चीरू॥
चढ़ी भुअंगिनि लट लट केस। भइ रोवति जोगिन के भेसा॥
वीर बहूटी भइ चली, तबहुँ रहहि नहि आँसु॥
नैनहिं पंथ न सूझे, लागेउ भादौं मासु॥२॥

तुम गोरा बादल छँभ दोऊ। जस रन पारथ और न कोऊ॥
दुख बरखा अव रहै न राखा। मूल पतार, सरग भइ साखा॥
छाया रहो सकल महि पूरी। बिरह बेलि भइ बाढ़ि खजूरी॥
तेहि दुख लेत बिरिछ बन बाढ़े। सोस उघारे रोवहिं ठाढ़े॥


———————————— (१) बारा = द्वार पर। काँपे = चौंक पड़े। सोनवानी = सुनहरी। माथे छात = आपके माथे पर सदा छत्र बना रहे। बार = द्वार पर। का = क्या। तुम्ह न छाज = तुम्हें नहीं सोहता। (२) दीख = दिखाई पड़ा। राता = लाल। उथल = उमडता है। रुहिर = रुधिर। रंग = रंग पर। पै = अवश्य, निश्चय। भँवरा = रत्नसेन। कँवल = नेत्र (पद्मिनी के) । हरदि = कमल के भीतर छाते का रंग पीला होता है। बदन के लोहू = कमल के दल का रग रक्त होता है।

(३) खँभ = खंभे, राज्य के आधार स्वरूप। पारथ = पार्थ,अर्जुन।

बरखा = वर्षा में। तेहि दुख लेत...बाढ़े = उसी दुख की बाढ़ को लेकर जंगल के पेड़ बढ़कर इतने ऊँचे हुए हैं।

पुहुमि पूरि सायर दुख पाटा। कौड़ी केर बेहरि हिय फाटा॥
बेहरा हिये खजूर क बिया। बेहर नाहि मोर पाहन हिया॥
पिय जेहि बँदि जोगिनि होइ धावौं। हौं बँदि लेउँ, पिर्याह मुकरावौं॥
सूरुज गहन गरासा, कँवल न बैठे पाट।
महूँ पंथ तेहि गवनव, कंत गए जेहि बाट॥ ३ ॥
गोरा बादल दोउ पसीजे। रोवत रुहिर बूड़ि तन भीजे॥
हम राजा सौं इहै कोहाँने। तुम न मिलौ, धरिहैं तुरकाने॥
जो मति सुनि हम गए कोहाँई। सो निआन हम्ह माथे आई॥
जौ लगि जिउ, नहिं भागहिं दोऊ। स्वामि जियत कित जोगिनि होऊ॥
उए अगस्त हस्ति जब गाजा। नीर घटे घर आइहि राजा॥
बरषा गए, अगस्त जौ दीठिहि। परिहि पलानि तुरंगम पीठिहि॥
बेधौं राहु, छोड़ावहुँ सूरू। रहै न दुख कर मूल अँकूरू॥
सोई सूर, तुम ससहर, आनि मिलावौं सोइ।
तस दुख महँ सुख उपजै, रैनि माँह दिनि होइ॥ ४ ॥
लीन्ह पान बादल औ गोरा। ‘केहि लेइ देउँ उपम तुम्ह जोरा? ॥
तुम सावंत, न सरवरि कोऊ। तुम्ह हनुवंत अँगद सम दोऊ॥
तुम अरजुन औं भीम भुवारा। तुव बल रन दल मंडनहारा॥
तुम टारन भारन्ह जग जाने। तुम सुपुरुष जस करन बखाने॥
तुम बलवीर जैस जगदेऊ। तुम संकर औ मालकदेऊ॥
तुम अस मोरे बादल गोरा। काकर मुख हेरौं, बँदिछोरा? ॥
जस हनुवँत राघव बँदि छोरी। तस तुम छोरि मेरावहु जोरी॥
जैसे जरत लखाघर, साहस कीन्हा भीउँ।
जरत खंभ तस काढ़हु, कै पुरुषारथ जीउ॥ ५ ॥
राम लखन तुम दैत सँघारा। तुमहीं घर बलभद्र भुवारा॥
तुमही द्रोन और गंगेऊ। तुम्ह लेखौं जैसे सहदेऊ॥


बेहरि = विदीर्ण होकर। जेहि बँदि = जिस बंदीगृह में। मुकरावौं = मुक्त कराऊँ, छुड़ाऊँ। (४) तुरकान = मुसलमान लोग। उए अगस्त = अगस्त्य के उदय होने पर, शरत् आने पर। हस्ति जब गाजा = हाथी चढ़ाई पर गरजेंगे, या हस्त नक्षत्र गरजेगा। आइहि = आयेगा। दीठिहि = दिखाई पड़ेगा। परिहि पलानि...पीठिहि = घोड़े की पीठ पर जीन पड़ेगी, चढ़ाई के लिये घोड़े कसे जायँगे। अँकूरू = अंकुर। ससहर = शशधर, चंद्रमा। (५) लीन्ह पान = वीड़ा लिया, प्रतिज्ञा की। केहि...जोरा = यहाँ से पद्मावती के वचन हैं। सावंत = सामंत। भुवारा = भूपाल। टारन भारन्ह = भार हटानेवाले। करन = कर्ण। मालकदेऊ = मालदेव (?)। बँदिछोर = बंधन छुड़ानेवाले। लखाघर = लाक्षागृह। खंभ = राज्य का स्तंभ, रत्नसेन। (६) दैत संभारा =

दैत्यों का संहार करनेवाले।

तुमहिं युधिष्ठिर और दुरजोधन। तुमहिं नील नल दोउ संबोधन॥
परसुराम राघव तुम जोधा। तुम्ह परतिज्ञा तें हिय बोधा॥
तुमहिं सत्रुघन भरत कुमारा। तुमहिं कृस्न चानूर सँघारा॥
तुम परदुम्न औ अनिरुध दोऊ। तुम अभिमन्यु बोल सब कोऊ॥
तुम्ह सरि पूज न विक्रम साके। तुम हमीर हरिचँद सत आँके॥
जस अति संकट पंडवन्ह, भएउ भीवँ बंदि छोर।
तस परबस पिउ काढ़हु, राखि लेहु भ्रम मोर॥ ६ ॥
गोरा बादल बीरा लीन्हा। जस हनुवंत अंगद बर कीन्हा॥
सजहु सिंघासन, तानहु छातू। तुम्ह माथे जुग जुग अहिवातू॥
कँवल चरन भुइँ धरि दुख पावहु। चढ़ि सिंघासन मँदिर सिधाबहु॥
सुनतहि सूर कँवल हिय जागा। केसरि बरन फूल हिय लागा॥
जनु, निसि महँ दिन दीन्ह देखाई। भा उदोत, मसि गई बिलाई॥
चढ़ी सिंघासन झमकति चली। जानहुँ चाँद दुइज निरमली॥
औ सँग सखी कुमोद तराईं। ढारत चँवर मँदिर लेइ आई॥
देखि दुइज सिंघासन, संकर धरा लिलाट।
कँवल चरन पदमावति, लेइ बैठारी पाट॥ ७ ॥














गंगेऊ = गांगेय, भीष्म पितामह। तुम्ह लेखौं = तुमको समझती हूँ। संबोधन = ढाढ़स देनेवाले। तुम्ह परतिज्ञा = तुम्हारी प्रतिज्ञा से। बोधा = प्रबोध, तसल्ली। सत आँके = सत्य की रेखा खींची है। म्रम = प्रतिष्ठा, सम्मान। (७) बर = बल। अहिवातु = सौभाग्य, सोहाग। उदोत = प्रकाश। देखि दुइज...लिलाट = दूज के चंद्रमा को देख उसे बैठने के लिये शिव जी ने अपना लिलाटरूपी सिंहासन रखा अर्थात् अपने मस्तक पर रखा।