जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४१. पद्मावती रूप चर्चा खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १८२ से – १८९ तक

 

(४१) पद्मावती रूपचर्चा खंड

वह पदमिनि चितउर जो आनी। काया कुंदन द्वादसबानी॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा। वह सुगंध जस कँवल बिगासा॥
कुंदन कनक कठोर सो अंगा। वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा॥
ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा। सोइ मलयागिरि भएउ सभागा॥
काह न मूठि भरी ओहि देही? असि मूरति कैइ दैउ उरँही? ॥
सबै चितेर चित्र कै हारे। ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे॥
कया कपूर, हाड़ सब मोती। तन्हितें अधिक दीन्ह विधि जोती॥

सुरूज किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिक सरीर।
सौंह दिस्टि नहिं जाइकरि नैनन्ह आवै नीर ॥ १ ॥

 

ससि मुख जबहिं कहै किछु बाता। उठत आठ सूरुज जस राता॥
दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं। सब जग जनहुँ फूलझरी छूटहिं॥
जानहुँ ससि महँ बीजु देखावा। चौंधि परै किछु कहै न आवा॥
कौंधत अह जस भादौं रैनी। साम रैनि जनु चलै उडैनी॥
जनु, बसंत ऋतु कोकिल बोली। सुरस सुनाइ मारि सर डोली॥
ओही सिर सेसनाग जौ हरा। जाइ सरन बेनी होइ परा॥
जनु अमृत होइ वचन बिगासा। कँवल जो बास बास धनि पासा॥

 सबै मनहि हरि जाइ मरि, जो देखै तस चार।
पहिले सो दुख बरनि कै, बरनौ ओहिक श्रृंगार ॥ २ ॥

 

कित हौं रहा काल कर काढ़ा। जाइ धौरहर तर भा ठाढ़ा।
कित वह आइ झरोखे झाँकी। नैन कुरंगिनि चितवनि बाँकी॥
बिहँसी ससि तरई जनु परी। की सो रैनि छुटी फुलझरी॥
चमक बीजू जस भादौं रैनी। जगत दिस्टि भरि रही उडैनी॥
काम कटाछ दिस्टि विष बसा। नागिनि अलक पलक महँ डसा॥
भौंह धनुष पल काजर बूड़ी। वह भइ धानुक हौं भा ऊड़ी।
मारि चली मारत हँसा। पाछे नाग रहा हौं डँसा॥

काल घालि पाठ रखा, गरुड़ न मंतर कोइ।
मोरे पेट वह पैठा, कासैं पुकारौं रोइ? ॥ ३ ॥

 

बेनी छोरि झार जौ केसा। रैनि होइ जग दीपक लेसा॥
सिर हुँत बिसहर परे भुइँ बारा। सगरौ देस भएउ अँधियारा॥
सकपकाहिं बिष भरे पसारे। लहरि भरे लहकहिं अति कारे॥
जानहुँ लोटहिं चढ़े भुअंगा। वेधे बास मलयगिरि अंगा॥
लुरहि मुरहि जनु मानहि केली। नाग चढ़े मालति कै वेली॥
लहरैं देइ जनहुँ कांलिदी। फिर फिरि भँवर होइ चित बंदी॥
चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा। भँवर न उड़हिं जो लुबुधे वासा॥

होइ अँधियार बाजु धन, लेपै जबहि चीर गहि झाँप।
केस नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप ॥ ४ ॥

 

 माँग जो मानिक सेंदुर रेखा। जनु बसंत राता जग देखा॥
कै पत्रावली पाटी पारी। औ रुचि चित्र विचित्र सँवारी॥
भए उरेह पुहुप सब नामा। जनु बग बिखरि रहे घन सामा॥
जमुना माँझ सुरसती मंगा। दुहू दिति रही तरंगिनि गंगा॥
सेंदुर रेख सो ऊपर राती। बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती॥
बलि देवता भए देखि सेंदूरु। पूजै माँग भोर उठि सूरू॥
भोर साँत रबि होइ जो राता। ओहि रेखा राता होइ गाता॥

 बेनी कारी पुहुप लेइ, निकसी जमुना आइ।
पूज इद्र आनद सौं, सेंदर सीस चढ़ाइ ॥ ५ ॥

 

दुइज लिलाट अधिक मनियारा। संकर देखि माथ तहँ धारा॥
यह निति दुइज जगत सब दीसा। जगत जोहारै देइ असीसा॥
ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजे। होइ सो अमावस छपि मन लाजै॥
तिलक सँवारि जो चुन्नी रची। दुइज माँझ जानहुँ कचपची॥
ससि पर करवत सारा राहू। नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू॥
पारस जोति लिलाटहि ओती। दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती॥
सिरी जो रतन माँग बैठारा। जानहु गगन टूट निसि तारा॥

ससि औ सूर जो निरमल तेहि लिलाट के ओप।
निसि दिन दौरि न पूजहिं पुनि पुनि होहि अलोप॥ ६ ॥

 

भौंहें साम धनुक जनु चढ़ा। बेझ करै मानुस कहँ गढ़ा॥
चंद क मूठि धनुक वह ताना। काजर पनच बरुनि बिष बाना॥
जा सहुँ हेर जाइ सो मारा। गिरिवर टरह भौंह जो टारा॥
सेतबंध जेइ धनुष बिड़ारा। उहौ धनुष भौंहन्ह सौं हारा॥
हारा धनुष जो वेधा राहू। और धनुष कोइ गनै न काहू॥
कित सो धनुष मैं भौंहन्ह देखा। लाग बान तिन्ह आउ न लेखा॥
तिन्ह बानन्ह झाँझर भा हीया। जो अस मारा कैसे जीया?॥

 सूत सूत तन बेधा रोवँ रोवँ सब देह।
नस नस महँ ते सालहिं हाड़ हाड़ भए बेह॥ ७ ॥

 

 नैन चित्र एहि रूप चितेरा। कँवल पत्र पर मधुकर फेरा॥
समुद तरंग उठहिं जनु राते। डोलहिं औ घूमहि रस माते॥
सरद चंद महँ खजन जोरी। फिरि फिरि लरै बहोरि बहोरी॥
चपल विलोल डोल उन्ह लागे। थिर न रहै चचल बैरागे॥
निरखि अघाहिं न हत्या हुँते। फिरि फिरि स्त्रवनन्ह लागहिं मते॥
अंग सेत मुख साम सो ओही। तिरछे चलहिं सूध नहिं होही॥
सुर नर गंध्रब लाल कराहीं। उलथे चलहिं सरग कहँ जाहीं॥

 अस वै नयन चक्र दुइ, भंवर समुद उलथाहिं।
जनु जिउ घालि हिंडोलहिं लेइ, आवहिं लेइ जाहिं॥ ८ ॥

 

नासिक खड़ग हरा धनि कीरू। जोग सिगार जिता औ बीरू॥
ससि मुँह सौहँ खड़ग देइ रामा। रावन सौं चाहै संग्रामा॥
दुहु समुद्र महँ जनु बिच नीरू। सेतुबंध बाँधा रघुबीरू॥
तिल के पुहुप आस नासिक तासू। औ सुगंध दीन्ही बिधि बासू॥
हीर फूल पहिरे उजियारा। जनहुँ, सरद ससि सोहिल तारा॥
सोहिल चाहि फूल वह ऊँचा। धावहिं नखत न जाइ पहूँचा॥
न जनौ कैस फूल वह गढ़ा। बिगसि फूल सब चाहहिं चढ़ा॥

 वह फूल सुबासित, भएउ नासिका बंध।
जेत फूल ओहि हिरकहिं, तिन्ह कहँ होइ सुगंध ॥ ९ ॥

 

अधर सुरंग पान अस खीने। राते रंग अमिय रस भीने॥
आछहिं भिजे तँबोल सौं राते। जनु गुलाल दीसहिं बिहँसाते॥
मानिक अधर दसन जनू हीरा। बैन रसाल खाँड़ मुख बीरा॥
काढ़े अधर डाभ जिमि चीरा। रुहिर चुवै जो खाँड़ै बीरा॥
ढारै रसहि रसहि रस गोली। रकत भरी औ सुरँग रँगीली॥
जनु परभात राति रवि रेखा। बिगसे बदन कँवल जनु देखा॥
अलक भुअंगिनि अधरहि राखा। गहै जो नागिनि सो रस चाखा॥

अधर अधर रस प्रेम कर, अलक भुअगिनि बीच।
तब अमृत रस पावै जब नागिनि गहि खींच ॥१०॥

 

दसन साम पानन्ह रँग पाके। बिगसे कँवल माँह अलि ताके॥
ऐसि चमक मुख भीतर होई। जनु दारिउँ औ साम मकोई॥
चमकहिं चौक बिहँस जौ नारी। बीजु चमक जस निसि अँधियारी॥
सेत साम अस चमकत दीठी। नीलम हीरक पाँति बईठी॥
केइ सो गढ़े अस दसन अमोला। मारै बीजु बिहँसि जो बोला॥
रतन भीजि रस रंग भए सामा। ओही छाज पदारथ नामा॥
कित वै दसन देख रस भीने। लेइ गइ जोति नैन भए हीने॥

 दसन जाति होइ नैन मग, हिरदय माँझ पईठ।
परगट जग अँधियार जनु, गुपुत होहि मैं दीठ॥ ११ ॥

 

 रसना सुनह जो कह रस बाता। कोकिल बैन सुनत मन राता॥
अमृत कोंप जीभ जनु लाई। पान फूल असि बात सोहाई॥
चातक बैन सुनत होई साँती। सुनै सो परै प्रेम मधु माती॥
बिरवा सूख पाव जस नीरू। सुनत बैन तस पलुह सरीरू॥
बोल सेवाति बूँद जनु परहीं। स्त्रवन सीप मुख मोती भरहीं॥
धनि वै वैन जौ प्रान अधारू। भूले स्त्रवनहिं देहि अहारू॥
उन्ह बैनन्ह कै काहि न आसा। मोहहि मिरिग बीन बिस्वासा॥

कंठ सारदा मोहै जीभ सुरसती काह॥
इंद्र चंद्र रवि देवता सबै जगत मुख चाह ॥ १२ ॥

 

स्त्रवन सुनह जो कुंदन सीपी। पहिरे कुंडल सिंघलदीपी॥
चाँद सुरज दुहुँ दिसि चमकाहीं। नखतन्ह भरे निरखि नहीं जाहीं॥
खिन खिन करहिं बीजू अस काँपा। अँवर मेघ महँ रहहिं न झाँपा।
सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते। होहि निनार न स्त्रवनन्ह हुँते॥
काँपत रहहिं बोल जो बैना। स्त्रवनन्ह जौ लागहिं फिर नैना॥
जस जस बात सखिन्ह सौं सुना। दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धुना॥
खूँट दुवौ अस दमकहि खूँटो। जनहु परै कचपचिया टूटी॥

वेद पुरान ग्रंथ जत, स्त्रवन, सुनत सिखि लीन्ह।
नाद विनोद राग रस बंधक स्त्रवन ओहि विधि दींन्ह ॥ १३ ॥

 

कँवल कपोल ओहि अस छाजै। और न काह दैउ अस साजै॥
पुहुप पंक रस अमिय सँवारे। सुरँग गेंद नारँग रतनारे॥
पुनि कपोल बाएँ तिल परा। सो तिल बिरह चिनगि कै करा॥
जो तिल देख जाइ जरि सोई। बाएँ दिस्टि काुह जिनि होई॥
जानहुँ भँबर पदुम पर टूटा। जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा॥
देखत तिल नैनन्ह गा गाड़ी। और न सूझै सो तिल छाँड़ी॥
तेहि पर अलक मनि जरी डोला। छुवै सौ नागिनि सुरंग कपील॥

रच्छा करै मयूर वह, नाँधि न हिय कर लोट।
गहि रे जग को छुइ सकै, दुई पहार के ओट ॥ १४ ॥

 

 गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ो। कुँदै फेरि कुँदेरै काढ़ो॥
धनि वह गीउ का बरनौं करा। बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥
घिरिनि परेवा गीउ उठावा। चहै बोल तमचूर सुनाव॥
गीउ सुराही कै अस भई। अमिय पियाला कारन नई॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा। तेइ सोइ ठाँव होइ जौ देखा॥
सुरुज किरिनि हुँत गिउ निरमली। देखे बेगि जाति हिय चली॥
कंचन तार सोइ जिउ भरा। साजि कँवल तेहि उपर धरा॥

नागिनि चढ़ी कँवल पर चढ़ि कै बैठ कमंठ।
कर पसार जो काल कहँ सो लागै ओहि कंठ॥१५॥

 

कनक दंड भुज बनी कलाई। डाँड़ी कँवल फेरि जनु लाई॥
चंदन खाँभहि भुजा सँवारी। जानहुँ मेलि कँवल पौनारी॥
तेहि डाड़ी सँग कँवल हथोरी। एक कँवल कै दूनौ जोरी॥
सहजहि जानहु मेहँदी रची। मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची॥
करपल्लव जो हथोरिन्ह साथा। पे सब रकत भरे तेहि हाथा॥
देखत हिया काढ़ि जनू लेई। हिया काढ़ि कै जाइ न देई॥
कनक अँगूठी औ नग जरी। वह हत्यारिनि नखतन्ह भरी॥

जैसी भुजा कलाई, तेहि विधि जाइ न भाखि।
ककन हाथ होइ जहँ, तहँ दरपन का साखि? ॥ १६ ॥

 

हिया थार कुच कनक कचोरा। जानहुँ दुवौ सिरिफल जोरा॥
एक पाट बै दूनौ राजा। साम छत्र दूनहुँ सिर छाजा॥
जानहूँ, दोउ लटू एक साथा। जग भा लटू चढ़ै नहिं हाथा॥
पातर पेट आहि जनु पूरी। पान अधार फूल अस फूरी॥
रोमावलि ऊपर लटू घुमा। जानहु दोउ साम औ रूमा॥
अलग भुअंगिनि तेहि पर लाटा। हिय घर एक खेल दुइ गोटा॥
बान पगार उठे कुच दोऊ। नाँघि सरन्ह उन्ह पाव कोउ॥

कैसहु नवहि न नाए, जोबन गरव उठान।
जो पहिले कर लावै सो पाछे रति मान ॥ १७ ॥

 

भृंग लंक जनु माँझ न लागा। दुइ खंड नलिन माँझ तनु तागा॥
जब फिरि चली देख मैं पाछे। अछरी इंद्रलोक जनु काछे॥
जबहि चली मन भा पछिताऊ। अबहूँ दिस्टि लागि ओही ठाऊँ॥
मुठरी लाजि छपीं गति ओही। भई अलोप न परगट होहीं॥
हंस लजाइ मानसर खेले। हस्ती लाजि धूरि सिर मेले॥
जगत बहुत तिय देखी महूँ। उदय अस्त अस नारि न कहूँ॥
महिमंडल तौ ऐसि न कोई। ब्रह्मंडल जौ होइ तो होई॥

बरनेउ नारि जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ।
और जो अही अदिस्ट धनि, सो कछ बरनि न जइ ॥ १८ ॥

 

का धनि कहौं जैसि सुकुमारा। फूल के छुए होइ बेकरारा॥


(१६) डाँड़ी कँवल लाई = कमलनाल उलटकर रखा हो। कर पलव्व= उंगली। साखि = साक्षी। कंकन हाथ साखि = हाथ कंगन को आरसी क्या? (१७) कचोरा = कटोरा। पाट = सिंहासन। साम छत्र = अर्थात् कुच का श्याम अग्रभाग। लटु = लट्टू। फूरी = फूली। साम = साम सीरिया का मुल्क जो अरब के उत्तर है। घर = खाना कोठा।

गोटा = गोटी। पगार = प्राकार या परकोटे पर। (१८)देख = देखा। खेले = चले गए। ब्रह्ममँडल = स्वर्ग। (१९) बेकरारा =बेचैन।

पखुरी काढ़हिं फूलन सेंती। सोई डासहिं सौंर सपेती॥
फूल समूचै रहै जौ पावा। व्याकुल होइ नींद नहिं आवा॥
सहै न खीर खाँड़ औ घीऊ। पान अधार रहै तन जीऊ॥
नस पानन्ह कै काढ़हिं हेरी। अधर न गड़ै फाँस ओहि केरी॥
मकरि के तार तेहि कर चीरू। सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू॥
पालँग पावँ क आछै पाटा। नेत बिछाव चलै जौ बाटा॥

घालि नैन ओहि राखि पल नहिं कीजिय ओट।
पेम क लुबुधा पाव ओहि, काहु सो बड़ का छोट॥ १९ ॥

 

जौ राघव धनि बरनि सुनाई। सुना साह गइ मुरछा आई॥
जनु मूरति वह परगट भई। दरस देखाइ माहिं छपि गई॥
जो जो मँदिर पदमिनि लेखी। सूना जौ कँवल कुमुद अस देखी॥
होइ मालति धनि चित्त पईठी। और पुहुप कोउ आव न दीठी॥
मन होइ भँवर भएउ बैरागा। कँवल छाड़ि चित और न लागा॥
चाँद के रंग सुरुज जस राता। और नखत सो पूछ न बाता॥
तब कह अलाउदीं जगसूरू। लेउँ नारि चितउर कै चूरू॥

जौ वह पदमिनि मानसर, अलि न मलिन होइ जात।
चितउर महँ जो पदमिनी, फेरि उहै कहु बात ॥ २० ॥

 

ए जगसूर! कहौं तुम्ह पाहाँ। और पाँच नग चितउर माहाँ॥
एक हंस है पखि अमोला। मोती चुनै पदारथ बोला॥
दूसर नग जौ अमृत बसा। सा विष हरै नाग कर डसा॥
तीसर पाहन परस पखाना। लाह छुए होई कंचन बाना॥
चौथ अहै सादूर अहेरी। जो बन हस्ति धरै सब घेरी॥
पाँचव नग सो तहाँ लागना। राजपंखित पेखा गरजना॥
हरिन रोझ कोइ भागि न बाँचा। देखत उड़ै सचान होइ नाचा॥

नग अमोल अस पाँचौ, भेंट समुद ओहि दीन्ह।
इसकंदर जो न पावा, सो सायर धँसि लीन्ह॥ २१ ॥

 

पान दीन्ह राघव पहिरावा। दस गज हस्ति घोड़ सो पावा॥
औ दूसर कंकन कै जोरी। रतन लाग ओहि बत्तिस कोरी॥
लाख दिनार देवाई, जेंवा। दारिद हरा समुद कै सवा॥
हौं जेहिं दिवस पदमिनि पावौं। तोहि राघव! चितउर बैठावौं॥
पहिले करि पाँचौ नग मूठी। सो नग लेउँ जो कनक अँगूठी॥
सरजा बीर पुरुष बरियारू। ताजन नाग सिंघ असवारू॥
दीन्ह पत्र लिखि बेगि चलावा। चितउर गढ़ राजा पहँ आवा॥

राजै पत्नि बँचावा, लिखी जो करा अनेग।
सिंघल कै जो पदमिनी, पठै देहु तेहि बेग ॥ २२ ॥