जायसी ग्रंथावली/पदमावत/५८. उपसंहार

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २६१ से – २६२ तक

 

उपसंहार

मैं एहि अरथ पंडितन्ह बूझा। कहा कि हम्ह किछु और न सूझ॥
चौदह भुवन जो तर उपराहीं, ते सब मानुष के घट माहीं॥
तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥
गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा॥
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोइ न एहि चित बंधा॥
राघव दूत सोई सैतानू। माया अलाउदीं सुलतानू॥
प्रेम कथा एहि भाँति बिचारहु। बूझि लेहु जौ बूझै पारहु॥
तुरकी, अरबी, हिदुई, भाषा जेती आहि।
जेहि महँ मारग प्रेम कर, सबै सराहै ताहि॥ १ ॥
मुहमद कबि यह जोरि सुनावा। सुना सो पीर प्रेम कर पावा॥
जोरो लाइ रकत कै लेई। गाढ़ि प्रीति नयनन्ह जल भेई॥
औ मैं जानि गीत अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा॥
कहाँ सो रतनसेन अब राजा? । कहाँ सुआ अस बुधि उपराजा? ॥
कहाँ अलाउद्दीन सुलतानू। ? कहँ राघव जेइ कीन्ह बखानू? ॥
कहँ सूरूप पदमावति रानी? । कोइ न रहा, जग रही कहानी॥
धनि सोई जस कीरति जासू। फूल मरै, पै मरे न बासू॥
केइ न जगत जस बँचा, केइ न लीन्ह जस मोल? ।
जो यह पढ़ै कहानी, हम्ह सँवरै दुइ बोल॥ २ ॥
मुहमद बिरिध बैस जो भई। जोबन हुत, जो अवस्था गई॥
बल जो गएउ कै खीन सरीरू। दिस्टि गई नैनहिं देइ नीरू॥
दसन गए कै पचा कपोला। बैन गए अनरुच देइ बोला॥


(१) एहि = इसका। पंडितन्ह = पंडितों से। कहा...सूझा = उन्होंने कहा, हमें तो सिवा इसके और कुछ नहीं सूझता है कि। उपराहीं = ऊपर। निरगुन = ब्रह्म, ईश्वर। (२)जोरी लाइन...भई = इस कविता को मैंने रक्त की लेई लगाकर जोड़ा है और गाढ़ी प्रीति को आँसुओं से भिगो भिगोकर गीला किया है। चीन्हा = चिह्न, निशान। उपराजा = उत्पन्न किया। अब बुधि उपराजा = जिसने राजा रत्नसेन के मन में एसी बुद्धि उत्पन्न की। केइ न जगत जस बेंचा = किसने इस संसार में थोड़े के लिये अपना यश नहीं खोया? अर्थात् बहुत से लोग ऐसे हैं। हम्ह सवँरै = हमें याद करेगा। दुइ बोल = दो शब्दों में, दो बार। (३) पचा = पिचका हुआ। अनरुच = अरुचिकर।

बौराई = बावलापन, जैसे, करत फिरत बौराई। — तुलसी।

बुधि जो गई देइ हिय बोराई। गरब गएउ तरहुँत सिर नाई॥
सरवन गए ऊँच जो सुना। स्याही गई सीस भा धुना॥
भँवर गए केसहि देइ भूवा। जोबन गएउ जीति लेइ जूबा॥
जौ लहि जीवन जोबन साथा। पुनि सो मीचु पराए हाथा॥
बिरिध जो सीस डोलावै, सीस धुनै तेहि रीस।
बूढ़ी आऊ होहु तुम्ह, केइ यह दीन्ह असीस? ॥ ३ ॥
















तरहुँत = नीचे की ओर। धुना = धुनी रूई। भूवा = काँस के फूल, घुवा। जौ लहि हाथा = कवि कहता है कि जबतक जिंदगी रहे जवानी के साथ रहे, फिर जब दूसरे का आश्रित होना पड़े तब तो मरना ही अच्छा है। रीस = रिस या क्रोध से। केइ...असीस = किसने व्यर्थ ऐसा आशीर्वाद दिया।