जायसी ग्रंथावली/भूमिका/फुटकल प्रसंग

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १३२ से – १३४ तक

 

फुटकल प्रसंग

पदमावत के बीच में बहुत से ऐसे फुटकल प्रसंग भी आए हैं जैसे, दानमहिमा, द्रव्यमहिमा, विनय इत्यादि। ऐसे विषयों के वर्णन को काव्यपद्धति के भीतर करने के लिये कविजन या तो उनके प्रति अनुराग, श्रद्धा, विरक्ति आदि अपना कोई भाव व्यंग्य रखते हैं या कुछ चमत्कार की योजना करते हैं। कवि के भाव का पता विषय को प्रिय या अप्रिय, विशद या कुत्सित रूप में प्रदर्शित करने से लग सकता है। इस रूप में प्रदर्शित करते समय प्रत्युक्ति प्रायः करनी पड़ती है क्योंकि रूप के उत्कर्ष या अपकर्ष से ही कवि (आश्रय) की रति या विरक्ति का आभास मिलता है। जैसे यदि कोई पात्र किसी स्त्री का बहुत सुंदर रूप में वर्णन करता है तो उसके प्रति उसके रतिभाव का पता लगता है, वैसे ही यदि कवि दानशीलता, विनय आदि गुणों का खूब बढ़ा चढ़ाकर वर्णन करता है तो उन गुणों के प्रति उसका अनुराग प्रकट होता है। नीचे कुछ फुटकल प्रसंग दिए जाते हैं—
दान महिमा—

धनि जीवन औ ताकर हीया। ऊँच जगत महँ जाकर दीया॥
दिया जो जप तप सब उपराहीं। दिया बराबर जग किछु नाहीं॥
एक दिया ते दसगुन लहा। दिया देखि सब जग मुख चहा॥
दिया करै आगे उजियारा। जहाँ न दिया तहाँ अँधियारा॥
दिया मँदिर निसि करै अँजोरा। दिया नाहिं, घर मूसहि चोरा॥


नम्रता की शक्ति—

एहि सेंति बहुरि जूझ नहिं करिए। खड़ग देखि पानी होइ ढरिए॥
पानिहि काह खड़ग कै धारा। लौटि पानि होइ सोइ जो मारा॥
पानी केर आग का करई। जाइ बुझाइ जौ पानी परई॥


दुःख की घोरता—

दुख जारै दुख भूँजै, दुख खोवै सब लाज।
गाजहि चाहि अधिक दुख, दुखी जान जेहि बाज॥

इस दोहे से कवि के हृदय की कोमलता, प्राणिमात्र के दुःख से सहानुभूति प्रकट होती है।


अपकार के बदले उपकार—

मंदहि भल जो करै भल सोई। अतहि भला भले कर होई॥
शत्रु जो विष देइ चाहै मारा। दीजिय लोन जानि विषहारा॥
विष दीन्हें विसहर होइ खाई। लोन दिए होइ लोन विलाई॥
मारे खड़ग खड़ग कर लेई। मारे लोन नाइ सिर देई॥


साहस—

साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई


द्रव्यमहिमा—

(क) दरब ते गरब करै जो चाहा। दरब तें धरती सरग बेसाहा॥
दरब तें हाथ व कविलासू। दरब तें अछरी छाँड़ न पासू॥

दरब तें निरगुन होई गुनवंता। दरब तें कुबुज होइ रुपवंता है॥
दरब रहै भुइँ, दिपै लिलारा। अस मन दरब देइ को पारा?

(ख) साँठि होई जेहि तेहि सब बोला। निसँठ जो पुरुष पात जम डोला॥
साँठहिं रक चलै झौंराई। निसँठ राव सब कह बौराई॥
साँठिहि आव गरब तन फूल। निसँठिहि बोल बुद्धि बल भूला॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई। निसँठहि काह होई औंधाई॥
साँठिहि दिस्टि जोति होइ नैना। निसँठ होह, मुख आव न बैना॥