जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१२. जोगी खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ४७ से – ५१ तक

 

तजा राज, राजा भा जोगी। औ किंगरी कर गहेउ वियोगी॥
तन विसँभर मन वाउर लटा। अरुझा पेम, परी सिर जटा॥
चंद्र वदन औ चंदन देहा। भसम चढ़ाइ कीन्ह तन खेंहा॥
मेखल, सिंघी, चक्र धँधारी। जोगवाट, रुदराछ, अधारी॥
कंथा पहिरि दंड कर गहा। सिद्ध होइ कहाँ गोरख कहा॥
मुद्रा स्रवन, कंठ जपमाला। कर उपदान, काँध बघछाला॥
पाँवरि पाँव, दीन्ह सिर छाता। खप्पर लीन्ह भेंस करि राता॥

चला भुगुति माँगै कहँ, साधि कया तप जोंग।
सिद्ध होंइ पदमावति, जेहि कर हिये वियोग॥१॥

गनक कहहिं गति गौन न आजू। दिन लेइ चलहु, होइ सिध काजू॥
पेम पंथ दिन घरी न देखा। तब देखै जब होइ सरेखा॥
जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू। कया न रकत, नेन नहिं आँसू॥
पंडित भूल, न जानै चालू। जीउ लेत दिन पूछ न कालू॥
सती कि वौरी पूछिंहि पाँडे। औ घर पैठि कि सैंते भाँड़े॥
मरै जो चले गंग गति लेई। तेहि दिन कहाँ घरी को देई?॥
मैं घर बार कहाँ कर पावा। घरी के आपन, अंत परावा॥

हौं रे पथिक पखेरू, जेहि वन मोर निबाहु।
खेलि चला तेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु॥२॥

चहुँ दिसि आन साँटिया फेरी। भै कटकाई राजा केरी॥
जावत अहहिं सकल अरकाना। साँभर लेहु, दूरि है जाना॥
सिंघलदीप जाइ अब चाहा। मोल न पाउब जहाँ बेसाहा॥

 

(१) किगरी=छोटी सारंगी या चिकारा। लटा—शिथिल, क्षीणा। मेखल—मेखला। सिंघी—सींग का वाजा जो फूँकने से बजता है। धँधारी = एक में गुछी हुई लोहे की पतली कड़ियाँ जिनमें उलझे हुए डोरे या कौड़ी को गोरखपंथी साधू अ्रदभूत रीति से निकाला करते हैं, गौरखधंधा। अधारी = भोला जो दोहरा होता है। मुद्रा = स्फटिक का कुंडल जिसे गोरखपंथी कान में बहुत बड़ा छेद करके पहनते हैं। उदपान = कमंडलू। पाँवरि = खड़ाऊ। राता गेरुआ। (२) तब देखै = तब तो देखे, तब न देख सकता है। सरेखा = चतुर, होशवाला। सैते = सँभालती या सहेजती है।

(३) आन = आज्ञा, घोषणा (प्रा० आण्णा)। साँटिया = डौड़ीवाला। कटकाई = दलवल के साथ चलने की तैयारी। अरकाना = अरकान, दौलत, सरदार। साँभर = संवल, कलेऊ। साँठि = पूजी। तुंरय = तुरग। गुदर।

सब निवहै तहँ आपनि साँठी। साँठि बिना सो रह मुख माँटी॥
राजा चला साजि कै जोगू। साजहु बेगि चलहु सब लोगू॥
गरब जो चढ़े तुरय कै पीठी। अब भुइँ चलहु सरग कै डीठी॥
मंतर लेहु होहु सँग लाग। गुदर जाइ सब होइहि आगू।॥

का निचिंत रे मानस, आपन चीते आछु।
लेहि सजग होइ अगमन, मन पछिताव न पाछु॥३॥

विनवै रत्नसेन कै माया। माथे छात, पाट निति पाया॥
विलसहु नौ लख लच्छि पियारी। राज छाँड़ि जिनि होहु भिखारी॥
निति चंदन लागै जेहि देहा। सो तन देख भरत अब खेहा॥
सब दिन रहेहु करत तुम भोगू। सो कैसे साधव तप जोगू॥
कैसे धूप सइव बिनु छाहाँ। कैसे नींद परिहि भुइ माहाँ?
कैसे ओढ़ब काथरि कंथा। कंसे पावँ चलब तुम पंथा?॥
कैसे सहब खिनहि खिन भूखा। कैसे खाब कुरकुटा रूखा॥

राजपाट, दर, परिगह तुम्ह ही सौं उजियार।
बेठि भोग रस मानहु, कै न चलहु अँधियार॥४॥

मोहि यह लोभ सुनाव न माया। काकर सुख काकर यह काया॥
जो निआन तम होइहि छारा। माटिहिं पोखि मरै को भारा?
का भूलाैं एहि चंदन चोवा। बैरी जहाँ अंग कर रोवाँ॥
हाथ, पाँव, सरवन औं आँखी। ए सब उहाँ भरहि मिलि साखी॥
सूत सूत तन बोलहिं दोखू। कहु कैसे होइहि गति मोखू॥
जौं भल होत राज और भोगू। गोपिचंद नहिं साधत जोंगू॥
उन्ह हिय दीठि जो देख परेवा। तजा राज कजरी वन सेवा॥

देखि अंत अस होइहि गुरू दीन्‍ह उपदेस।
सिंघलदीप जाब हम, माता! देहु अदेस॥५॥

रोवहिं नागमती रनिवासू। केइ तुम्ह कंत दीन्ह बनवासू॥
अब को हमहिं करिहि भोगिनी। हमहूँ साथ होब जोगिनी॥
की हम्ह लाबहु अपने साथा। की अब मारि चलह एहि हाथा॥
तुम्ह अस बिछुरै पीउ पीरीता। जहँवाँ राम तहाँ सँग सीता॥
जौ लहि जिउ सँग छाड़ न काया। करिहौं सेव, पखरिहौं पाया॥
भलेहि पदमिनी रूप अनूपा। हमतें कोइ आगरि रूपा॥


होइहि = पेश होइए। हाजिर होइए आपनि चीते आछ = अपने चेत या होश में रह। अगमन = भागे, पहले से। (४) माया माता। लच्छि = लक्ष्मी। कंथा = गुदड़ी। कुरकुटा = मोटा कुटा अ्रन्न। दर = दल या राजद्वार। परिगह = परिग्रह, परिजन, परिवार के लोग। (५) निआन निदान, अंत में।

पोखि = पोषण करके। साखी भरहिं = साक्ष्य या गवाही देते हैं। देख परेवा = पक्षी की सी अपनी दशा देखी। कजरीबन = कजलीवन।

भंवे भलेहि पुरुखन के डीठी। जिनहि जान तिन्ह दीन्ही पीठी॥

देहि असीत सवे मिलि, तुम्ह माथे निति छात।
राज करह चितउरगढ़राउ पिय! अहियात॥६॥

तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी। मूरुख सी जो मते घर नारी॥
तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी। सू रुख सी जो मते घर नारी॥
राघव जो सीता सँग लाई। रावन हरी, कवन सिधि पाई है॥
यह संसार सपन कर लेखा। बिखूरि गए जानों नहि देखा॥
राजा भरथरि सुना जो ज्ञानी। जेहि के घर सोरह से रानी॥
कुच लीन्हे तरवा सहराई। भा जोगी, कोड संग न लाई॥
जोगिहि काह भोग सर्दी काजू। चहै न धन घरनी श्री राजू॥
जूड़ कुरकुटा भीखहि चाहा। जोगी तात भात कर काहा॥

कहा न माने राजा, तजी सबाई भीर।
चला छाँड़ि के रोवत, फिरि के देइ न धीर॥७॥

रोवत माय, न बहुरत बारा। रतन च ला घर भा अँधियारा॥
बार मोर जो राजहिं रता। सो लै चला, सुआ परबता॥
रोवहिं रानी, तहि पराना। नोचहिं बार, करहिं खरिहाना॥
चूरहिं गिउ अभरन, उर हारा। अब कापर हम करब सिंगारा॥
जी कहँ कहहिं रहसि कै पीऊ। सोइ चला, काकर यह जीऊ॥
मरै चहहिं, पै मरै न पावहिं। उठै आगि, सब लोग वुझावहिं॥
घरी एक सुठि भएउ अँदोरा। पुनि पाछे बीता होइ रोरा॥

टूटे मन नौ मोती, फटे मन दस काँच।
लोन्ह समेटि सब अभरन, हौइगा दुख कर नाच ॥८॥

निकसा राजा सिंगी पूरी। छाँड़ा नगर मेलि कै धूरी॥
राय रान सब भए वियोगी। सोरह सहस कुँवर भए जोगो॥
माया मोह हरा सेइ हाथा। देखेन्हि वूझि निआन न साथा॥
छाँड़ेन्हि लोग कुटुंब सब कोऊ। भए निनार सुख दुख तजि दोऊ॥
सँवरैं राजा सोइ अकेला। जेहि के पंथ चले होइ चेला॥
नगर नगर औ गाँवहिं गाँवा। छाँड़ि चले सब ठाँवहि ठावाँ॥
काकर मढ़, काकर घर माया। ताकर सब जाकर जिउ काया॥

चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु।
कोस बीस चारिहु दिसि जानो फूला टेसु॥९॥


(६) भँवै = इधर उधर घूमती है। जिनहि... पीठी = जिनसे जान पहचान हो जाती है उन्हें छोड़ नए के लिये दौड़ा करती है। (७) मतै = सलाह ले। तात भात = गरम ताजा भात। (८) बारा = बालक बेटा। खरिहान करहिं ढेर लगाती हैं। अँदोरा = हलचल, कोलाहल (सं० आंदोलन)।

(९) पूरी = बजाकर। मेलि कै = लगाकर। निनार = न्यारे, अलग।

आगे सगन सगनियै ताका। दहिने माछ रूप के टाँका॥
भरे कलस तरुनी जल आई। 'दहिउ लेहु' ग्वालिनि गोहराई॥
मालिनि आव मौर लिए गाँथे। खंजन बैठ नाग के माथ॥
दहिने मिरिग आइ बन धाएँ। प्रतीहार बोला खर बाएँ॥
विरिख सँवरिया दहिने बोला। बाएँ दिसा चाषु चरि डोला॥
बाएँ अकासी धौरी आई। लोवा दरस आइ दिखराई॥
बाएँ कुररी, दहिने कूचा। पहुँचे भुगुति जैस मन रूचा॥

जा कहँ सगुन होहिं अस औ गवनै जेंहि आस।
अस्ट महासिधि तेहि कहँ, जस कवि कहा वियास॥१०॥

भएउ पयान चला पुनि राजा। सिंगि नाद जोगिन कर बाजा॥
कहेन्हि आजु किछु थोर पयाना। काल्हि पयान दूरि हैं जाना॥
ओहि मिलान जौ पहुँचे कोई। तब हम कहव पुरुष भल सोई॥
है आगे परबत कै बाटा। विषम पहार अगम सुठि घाटा॥
बिच विच नदी खोह औ नारा। ठावहिँ ठाँव बैठ बटपारा॥
हनुवेंत केर सुनव पुनि हाँका। दहूँ को पार होइ, को थाका॥
अस मन जानि सँभारहु आगू। अगुआ केर होहु पछलागू॥

करहिं पयान भोर उठि, पंथ कोस दस जाहिं।
पंथी पंथा जे चलहिं, ते का रहहिं ओठाहिं॥११॥

करहु दीठि थिर होइ बटाऊ। आगे देखि धरहु भुदँ पाऊ॥
जो रे उवट होइ परे भूलाने। गए मारि, पथ चलै न जाने॥
पाँयन पहिरि लेहु सब पौरी। काँट धसैं, न गडै अँकरौरी॥
परे आइ बन परवत माहाँ। दंडाकरन वीर वन जाहाँ॥
सघन ढाँख बन चहुँँदिसि फला। बह दुख पाव उहाँ कर भूला॥
झाँखर जहां सा छाँड़हु पंथा। हिलगि मकोइ न फारहु कंथा॥
दहिने विदर, चेदेरी बाएँ। दहूँ कहँ होइ बाट दुइ ठाएँ॥

एक बात गइ सिंघल, दूसरि लंक समीप।
हैं आगे पथ दूऔ, दहुँ गौनव केहि दीप॥१२॥


मढ़ = मठ (१०) सगुनिया = शकुन जाननेवाला। माछ = मछली। रूप = रूपा, चाँदी। टॉका = बरतन। मौर = फूलों का मुकुट जो विवाह में दूल्हे को पहनाया जाता है (सं० मुकुट, प्रा० मउड़)। गाँथे गथे हुए। बिरिख = वृष, बैल। सांवला, काला। चाषु = चाप, नीलकंठ। अकासी धौरी = क्षेंमकरी चील जिसका सिर सफेद और सब अंग लाल या खैरा होता है। लोवा = लोमड़ी। कुररी = टिटिहरी। कूचा = काँच, कराकुल, कुज।

(११) मिलान = टिकान, पड़ाव। ओठाहिं = उस जगह। (१२) बटाऊ = पथिक। उबड़ = उबड़ खाबड़, कठिन मार्ग। दंडाकरन = दंडकारप्य। बीभवन = सघन वन। भाँखर = कैंटीली भड़ियाँ। हिलगि = सटकर।

ततखन बोला सुआ सरेखा। अगुआ सोइ पंथ जेहि देखा॥
सो का उड़ै न जेंहि तन पाँखू। लेइ सो परासहि बूड़त साखू॥
जस अंधा अंधै कर संगी। पंथ न पाव होइ सहलंगी॥
सुनु मत, काज चहसि जौं साजा। बीजानगर विजयगिरि राजा॥
पहुचौ जहाँ गोंड और कोला। तजि वाएँ अँधियार, खटोला॥
दक्खिन दहिने रहहि तिलंगा। उत्तर बाएँ गढ़ काटंगा॥
माँझ रतनपुर सिंधदुवारा। झारखंड देइ वाँव पहारा॥

आगे पाव उड़ैसा, बाएँ दिए सो बाट।
दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद के घाट॥१३॥

होत पयान जाइ दिन केरा। मिरिगारन महँ भएउ बसेरा॥
कुस साँथरि भइ सौंर सुपेती। करवट आइ बनी भुइँ सेंती॥
चलि दस कोस ओस तन भीजा। काया मिलि तेहिं भसम मलीजा॥
ठाँव ठाँव सव सोअहिं चेला। राजा जागै आपु अकेला॥
जेहि के हिये पेम-रँग जामा। का तेहि भूख नींद विसरामा॥
वन अँधियार, रैनि अँधियारी। भादों बिरह भएउ अति भारी॥
किंगरी हाथ गहे बैरागी। पाँच तंतु धुन झोही लागी॥

नैन लाग तेहि मारग, पदमावति जेहि दीप।
जैस सेवातिहि सेवै, बन चातक, जल सीप॥१४॥


 

(१३) सरेख = सयाना, श्रेष्ठ, चतुर। लेइ सो. . .साखू = शाखा डूबते समय पत्ते को ही पकड़ता है। परास = पलास पत्ता। सहलंगी सँगलगा; साथी। बीजानगर = विजयानगरम्‌। गोड़ और कोल = जंगली जातियाँ। अँधियार = अँजारी जो बीजापुर का एक महाल था। खटोला = गढ़मंडला का पश्चिम भाग। गढ़ काटंग = गढ़ कटंग, जबलपुर के आसपास का प्रदेश। रतनपुर = विलासपुर के जिले में आजकल है। सिंधदुआरा = छिंदवाड़ा (?)॥ झारखंड = छतीसगढ़ और गोंडवाने का उत्तर भाग। (१४) सौंर चादर। सती = से।