जायसी ग्रंथावली/भूमिका/मत और सिद्धांत

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १०३ से – १२१ तक

 

मत और सिद्धांत

यह आरंभ में ही कहा जा चुका है कि मुसलमान फकीरों की एक प्रसिद्ध गद्दी की शिष्यपरंपरा में होते हुए भी, तत्वदृष्टिसंपन्न होने के कारण, जायसी के भाव अत्यंत उदार थे। पर विधिविरोध, विद्वानों की निंदा, अनधिकार चर्चा, समाजविद्वेष आदि इनकी उदारता के भीतर नहीं थे। व्यक्तिगत साधना की उच्च भूमि पर पहुँचकर भी लोकरक्षा और लोकरंजन के प्रतिष्ठित आदर्शों को ये प्रेम और संमान की दृष्टि से देखते थे। न्यायनिष्ठ राजशक्ति, सच्ची वीरता, सुख-विधायक प्रभुत्व, अनुरंजनकारी ऐश्वर्य, ज्ञानवर्धक पांडित्य में ये भगवान् की लोकरक्षिणी कला का दर्शन करते थे और उनकी स्तुति करना वाणी का सदुपयोग मानते थे। साधारण धर्म और विशेष धर्म दोनों के तत्व को ये समझते थे। लोक-मर्यादा के अनुसार जो संमान की दृष्टि से देखे जाते हैं उनके उपहास और निंदा द्वारा निम्न श्रेणी की जनता को ईर्ष्या और अहंकार वृत्ति को तुष्ट करके यदि चाहते तो ये भी एक नया 'पंथ' खड़ा कर सकते थे। पर इनके हृदय में यह वासना न थी। पीरो, पैगंबरों, मुल्लों और पंडितों की निंदा करने के स्थान पर इन्होंने ग्रंथारंभ में उनकी स्तुति की है और अपने को 'पंडितों का छछलगा' कहा है।

विधि पर इनकी पूरी आस्था थी। 'वेद, पुराण' और 'कुरान' आदि को ये लोककल्याणमार्ग प्रतिपादित करनेवाले वचन मानते थे। जो वेदप्रतिपादित मार्ग पर न चलकर मनमाने मार्ग पर चलते हैं उन्हें जायसी अच्छा नहीं समझते—

राघव पूज जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ।
वेदपंथ जे नहिं चलहिं, ते भूलहिं बन माँझ?

झूठ बोल थिर रहै न राँचा। पंडित सोइ वेदमत साँचा॥
वेद वचन मुख साँच जो कहा। सो जुग जुग थिर होइ रहा॥

आरंभ में ही कहा जा चुका है कि वल्लभाचार्य, रामानंद, चैतन्य महाप्रभु आदि के प्रभाव से जिस शांतिपूर्ण और अहिंसामय वैष्णव धर्म के प्रवाह ने सारे देश को भक्तिरस मग्‍न किया उसका सबसे अधिक विरोध उन हिंसापूर्ण शाक्तमत और वाममार्ग से दिखाई पड़ा। मंत्र तंत्र के प्रयोग करनेवाले, भूत प्रेत, और यक्षिणी आदि सिद्ध करनेवाले तांत्रिक और शाक्तों के प्रति उस समय समाज के भाव कैसे हो रहे थे, इसका पता राघव चेतन के चरित्रचित्रण से मिलता है। शाक्तमत विहित मंत्र तंत्र और प्रयोग आदि वेदविरुद्ध अनाचार के रूप में समझे जाने लगे थे। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कई जगह समाज की प्रवृत्ति का आभास दिया है; जैसे—

जे परिहरि हरि-हर-चरन भजहिं भूतगन घोर।
तिनकी गति मोहिं देहु विधि जो जननी मत मोर॥

प्रेमप्रधान वैष्णव मत के इस पुनरुत्थान में अहिंसा का भाव यों तो सारी जनता में आदरलाभ कर चुका था पर और फकीरों के हृदय में विशेष कर साधुओं और फकीरों के हृदय में विशेष रूप से बद्धमूल हो गया था। क्या हिंदू, क्या मुसलमान, क्या सगुणोपासक, क्या निर्गुणोपासक, सब प्रकार के साधु और फकीर इसका महत्व स्वीकार कर चुके थे। कबीरदास का यह दोहा प्रसिद्ध ही है—

बकरी पाती खाति है ताकी काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात हैं तिनको कौन हवाल?॥

इसी प्रकार और बहुत जगह कबीरदास जी ने पशुहिंसा के विरुद्ध वाणी सुनाई है, जैसे—

दिन को रोजा रहत हैं, राति हनत हैं गाय।
यह तो खून, वह बंदगी, कहु क्यों खुसी खुदाय॥
खुस खाना है खीचरी, माँझ परा टुक लोन।
माँस पराया खाय कै, गला कटावै कौन?॥

इस साधु प्रवृत्ति के अनुसार जायसी ने पशुहिंसा के विरुद्ध अपने विचार, युद्धस्थल के वर्णन में, इस प्रकार प्रकट किए हैं—

जिन्ह जस माँसू भखा परावा। तस तिन्ह कर ले औरन खावा॥

जायसी मुसलमान थे इससे उनकी उपासना निराकारोपासना ही कही जायगी। पर सूफी मत की ओर पूरी तरह झुकी होने के कारण उनकी उपासना में साकारोपासना की सी ही सहृदयता थी। उपासना के व्यवहार के लिये सूफी परमात्मा को अनंत सौंदर्य, अनंत शक्ति और अनंत गुणों का समुद्र मानकर चलते हैं। सूफियों के अद्वैतवाद ने एक बार मुसलमानी देशों में बड़ी हलचल मचाई थी। ईरान, तूरान आदि में आर्य संस्कार बहुत दिनों तक दबा न रह सका। शामी कट्टरपन के प्रवाह के बीच भी उसने अपना सिर उठाया। मंसूर हल्लाज खलीफा के हुक्म से सूली पर चढ़ाया गया पर 'अनलहक' (मैं ब्रह्म हूँ) की आवाज बंद न हुई। फारस के पहुँचे हुए शायरों की प्रवृत्ति इसी अद्वैत पक्ष की ओर रही।

पैगंबरी एकेश्वरवाद (मोनोथेइज्म) और इस अद्वैतवाद (मोनिज्म) में बड़ा सिद्धांतभेद था। एकेश्वरवाद और बात है, अद्वैतवाद और बात। एकेश्वरवाद स्थल देववाद है और अद्वैतवाद सक्ष्म आत्मवाद या ब्रह्मवाद। बहुत से देवी देवताओं को मानना और सबके दादा एक बड़े देवता (ईश्वर) को मानना एक ही बात है। एकेश्वरवाद भी देववाद ही है। भावना में कोई अंतर नहीं है। पर अद्वैतवाद गूढ़ दार्शनिक चिंतन का फल है, सूक्ष्म अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त तत्व है, जिसको अनुभूतिमार्ग में लेकर सूफी आदि अद्वैती भक्त संप्रदाय चले। एकेश्वरवाद का मतलब यह है कि एक सर्वशक्तिमान सबसे बड़ा देवता है जो सृष्टी की रचना, पालन और नाश करता है। अद्वैतवाद का मतलब है कि दृश्य जगत् की तह में उसका आधारस्वरूप एक ही अखंड नित्य तत्व है और वही सत्य है। उससे स्वतंत्र और कोई अलग सत्ता नहीं है और न आत्मा परमात्मा में कोई भेद है। दृश्य जगत् के नाना रूपों को उसी अव्यक्त ब्रह्म के व्यक्त आभास मानकर सूफी लोग भावमग्न हुआ करते हैं।

अतः स्थूल एकेश्वरवाद और ब्रह्मवाद में भेद यह हुआ कि एकेश्वरवाद के भीतर वाह्यार्थवाद छिपा है क्योंकि वह जीवात्मा, परमात्मा और जड़ जगत् तीनों को अलग अलग तत्व मानता है पर ब्रह्मवाद में शुद्ध परमात्मा के अतिरिक्त और सत्ता नहीं मानी जाती, अात्मा और परमात्मा में भी कोई भेद नहीं माना जाता। अतः स्थल दष्टिवाले पैगंबरी एकेश्वरवादियों के निकट यह कहना कि 'आत्मा और परमात्मा एक ही है' अथवा 'मैं ही ब्रह्म हूँ' कुफ की बात है। इसी से सूफियों को कट्टर मुसलमान एक तरह के काफिर समझते थे। सूफी मजहबी दस्तूर (कर्मकांड और संस्कार) आदि के संबंध में भी कुछ आजाद दिखाई देते थे और मोक्ष के लिये किसी पैगंबर आदि मध्यस्थ की जरूरत नहीं बताते थे। इस प्रकार के भावों का प्रचार वे कथानों द्वारा भी किया करते थे। जैसे, कयामत के दिन जब मुहम्मद साहब खुदा के सामने सबको पेश करने लगेंगे तब कुछ लोग भीड़ से अलग दिखाई देंगे। मुहम्मद साहब कहेंगे 'ऐ ख दाबंद! ये लोग कौन हैं, मैं नहीं जानता।' खुदा उस वक्त कहेगा 'ऐ मुहम्मद! जिनको तुमने पेश किया वे तुम्हें जानते हैं, मुझे नहीं जानते। ये लोग मुझे जानते है, तुम्हें नहीं जानते'। फारस के शिक्षित समाज का झुकाव इसी सूफी मत की ओर बहुत कूछ रहा। जायसी ने सूफियो के उदार प्रेममार्ग के प्रति अपना अनुराग प्रकट किया है--

प्रेम पहार कठिन बिधि गढ़ा। सो पै चढ़े जो सिर सौं चढ़ा।।
पंथ सूरि कर उठा अँकूरू। चोर चढ़े की चढ़ मँसूरू।।

यहाँ पर संक्षेप में सूफी मत का कुछ परिचय दे देना आवश्यक जान पड़ता है। प्रारंभ में सूफी एक प्रकार के फकीर या दरवेश थे जो खुदा की राह पर अपना जीवन ले चलते थे, दीनता और नम्रता के साथ बड़ी फटी हालत में दिन बिताते थे, ऊन के कंबल लपेटे रहते थे, भूख प्यास सहते थे और ईश्वर के प्रेम में लीन रहते थे। कुछ दिनों तक तो इस्लाम की साधारण धर्मशिक्षा के पालन में विशेष त्याग और आग्रह के अतिरिक्त इनमें कोई नई बात या विलक्षणता नहीं दिखाई पड़ती थी। पर ज्यों ज्यों ये साधना के मानसिक पक्ष की ओर अधिक प्रवृत्त होते गए, त्यों त्यों इसलाम के बाह्य विधानों से उदासीन होते गए। फिर तो धीरे धीरे अंत:करण के पवित्रता और हृदय के प्रेम को ही ये मुख्य कहने लगे और बाहरी बातों को आडंबर। मुहम्मद साहब के लगभग ढाई सौ वर्ष पीछे इनकी चिंतनपद्धति का विकास हुआ और ये इसलाम के एकेश्वरवाद (तौहीद) से अद्वैतवाद पर जा पहुँचे। जिस प्रकार हमारे यहाँ अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी विशुद्धाद्वैतवादीद्वैतवाद आदि सब श्रुतियों को ही आधार मानकर उन्हीं के वचनों को प्रमाण में लाते थे उसी प्रकार वे कुरान के वचनों को अपने ढंग पर व्याख्या करते थे। कहते हैं कि अद्वैतवाद का बीज इन्हें कुरान के कुछ वचनों में ही मिला, जैसे 'अल्लाह के मुख के सिवा सब वस्तुएँ नाशवान् (हालिक) हैं; चाहे तू जिधर फिरे अल्लाह का मुँह उधर ही पावेगा।' चाहे जो हो, कुरान का अल्लाह रूप 'पुरुषविशेष' सूफियों के यहाँ आकर अद्वैत पारमार्थिक सत्ता हुआ।

इसमें संदेह नहीं कि सूफियों को अद्वैतवाद पर लानेवाले प्रभाव अधिकतर बाहर के थे। खलीफा लोगों के जमाने में कई देशों के विद्वान् बगदाद और बसरे में आते जाते थे। आयुर्वेद, दर्शन, ज्योतिष, विज्ञान आदि अनेक भाषाओं के ग्रंथों का अरबी में भाषांतर भी हुआ। यूनानी भाषा के किसी ग्रंथ का अनुवाद 'अरस्तू के सिद्धांत' के नाम से अरबी भाषा में हुआ जिसमें अद्वैत का दार्शनिक रीति पर प्रतिपादन था। इसके अतिरिक्त भारतवर्ष के वेदांतकेसरी का गर्जन भी दूर दूर तक गूँज गया था। मुहम्मद बिन कासिम के साथ आए हुए कुछ अरब सिंध में रह गए थे। इतिहासों में लिखा है कि वे और उनकी संतति ब्राह्मणों के साथ बहुत मेलजोल से रही। इन अरबों में कुछ सूफी भी थे जिन्होंने हिंदुओं के अद्वैतवाद का ज्ञान प्राप्त किया और साधना की बातें भी सीखी। सिंध में अली प्राणायाम की विधि (पास-ए-अनफास) जानते थे। उन्होंने वायजीद को 'फना' (गुजर जाना अर्थात् अहंभाव का सर्वथा त्याग और विषयवासना की निवृत्ति) का सिद्धांत बताया। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह 'फना' बौद्धों के निर्वाण की प्रतिध्वनि थी। बल्ख और तुर्किस्तान आदि देशों में बौद्ध सिद्धांतों की गूँज तबतक कुछ बनी हुई थी। बहुत से शक और तुरुष्क उस समय तक बौद्ध बने थे और पीछे भी कुछ दिनों तक रहे। चंगेज खाँ बौद्ध ही था। अलाउद्दीन के समय में कुछ ऐसे मंगोल भारतवर्ष में भी आकर बसे थे जो 'नए बने हुए मुसलमान' कहे गए हैं।

अब सूफियों की सिद्धांत संबंधिनी कुछ खास बातों का थोड़े में उल्लेख करता हूँ जिससे जायसी के दोनों ग्रंथों का तात्पर्य समझने में सहायता मिलेगी। सूफी लोग मनुष्य के चार विभाग मानते हैं—(१) नफ्स (विषयभोग वृत्ति या इंद्रिय), (२) रूह (आत्मा या चित्), (३) कल्ब (हृदय) और अक्ल (बुद्धि)।

नफ्स के साथ युद्ध साधक का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए। कल्ब (हृदय) और रूह (आत्मा) द्वारा ही साधक अपनी साधना करते हैं। कुछ लोग हृदय का एक सबसे भीतरी तल 'सिर्र' भी मानते हैं। कल्ब और रूह का भेद सूफियों में बहुत स्पष्ट नहीं है। हमारे यहाँ मन (अंतःकरण) और आत्मा में प्राकृतिक अप्राकृतिक का जैसा भेद है वैसा कोई भेद नहीं है। 'कल्ब' भी एक भूतातीत पदार्थ कहा गया है, प्रकृति का विकार या भौतिक पदार्थ नहीं। उसके द्वारा ही सब प्रकार का वस्तुज्ञान होता है अर्थात् उसी पर वस्तु का प्रतिबिंब पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे दर्पण पर पड़ता है। शाहजहाँ के पुत्र दाराशिकोह ने अपनी छोटी सी पुस्तक 'रिसालए हकनुमा' में चार जगत् कहे हैं—(१) आलमे नासूत—भौतिक जगत, (२) आलमे मलकूत या आलमे अरवाह—चित् जगत् या आत्म जगत्, (३) माल जबरूत—आनंदमय जगत् जिसमें सुख दुःख आदि द्वंद्व नहीं और (४) आलमे लाहूत—सत्य जगत् या ब्रह्म। 'कल्ब' रूह (आत्मा) और रूपात्मक जगत् के बीच का एक साधनरूप पदार्थ है। इसका कुछ स्पष्टीकरण दाराशिकोह के इस विवरण से होता है—

'दृश्य जगत् में जो नाना रूप दिखाई पड़ते हैं वे तो अनित्य हैं पर उन रूपों की जो भावनाएँ होती हैं वे अनित्य नहीं हैं। वे भावचिव नित्य हैं। उसी भावचित्र जगत् (आलमे मिसाल) से हम आत्मजगत् को जान सकते हैं जिसे 'आलमें गैब' ऑौर 'आलमे ख्वाब' भी कहते हैं। आँख मूँदने पर जो रूप दिखाई पड़ता है वही उस रूप की आत्मा या सारसत्ता है। अतः यह स्पष्ट है कि मनुष्य को आत्मा उन्हीं रूपों की है जो रूप बाहर दिखाई पड़ते हैं, भेद इतना ही है कि अपनो सारसत्ता में स्थित रूप पिंड या शरीर से मुक्त होते हैं। सारांश यह कि आत्मा और बाह्य रूपों का बिंब प्रतिबिंब संबंध है। स्वप्न की अवस्था में आत्मा का यही सूक्ष्म रूप दिखाई पड़ता है जिसमें आँख, कान, नाक, आदि सबकी वृत्तियाँ रहती हैं पर स्थूल रूप नहीं रहते।'

इस विवरण से यह आभास मिलता है कि सूफियों के अनुसार 'ज्ञान' या 'प्रत्यय' तो है आत्मा और जिसपर विविध ज्ञान या भावचित्र अंकित होते हैं वह है 'कल्ब' वा हृदय। ऊपर जो चार जगत् कहे गए हैं उनपर ध्यान देने से प्रथम को छोड़ शेष तीन जगत् हमारे यहाँ के 'सच्चिदानंद' के विश्लेषण प्रतीत होंगे। सूफियों के अनुसार 'सत्' ही चरम पारमाथिक सत्ता है। वह सत्य या ब्रह्म चित् या आत्म जगत् से भी परे है। हमारे यहाँ बहुत से वेदांती भी ब्रह्म को आत्मस्वरूप या परमात्मा कहते हुए भी चिद्रूप कहना ठीक नहीं समझते। उनका कहना है कि आत्मा के सान्निध्य से जड़ बुद्धि में उत्पन्न धर्म ही चित् अर्थात् ज्ञान कहलाता है। अतः वृद्धि के इस धर्म का यूरोप आत्मा या ब्रह्मा पर उचित नहीं। ब्रह्मा को निर्गुण और अज्ञेय ही कहना चाहिए।

पारमार्थिक वस्तु या सत्य के बोध के लिये 'कल्ब' स्वच्छ और निर्मल होना आवश्यक है। उसकी शुद्धि जिक्र (स्मरण) और मुराकबत (ध्यान) से होती है। स्मरण और ध्यान से ही 'मंजु मन मुकुर' का मल छूट सकता है। जिक्र या स्मरण की प्रथमावस्था है अहंभाव का त्याग अर्थात् अपने को भूल जाना और परमावस्था है ज्ञाता और ज्ञान दोनों की भावना का नाश अर्थात् यह भावना न रहना कि हम ज्ञाता हैं और यह किसी वस्तु का ज्ञान है बल्कि अर्थ या विषय के आकार का ही रह जाना। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह योग की निर्विकल्प या असंप्रज्ञात समाधि है।

सूफी मत की भक्ति का स्वरूप प्रायः वही है जो हमारे यहाँ की भक्ति का। नफ्‌स के साथ जिहाद (धर्मयुद्ध) विरति पक्ष है और जिक्र नौर मुराकवत (स्मरण और ध्यान) नवधा भक्ति पक्ष। रति और विरति इन दोनों पक्षों को लिए बिना अनन्य भक्ति की साधना हो नहीं सकती। हम व्यावहारिक सत्ता के बीच अपने होने का अनुभव करते हैं। जगत् केवल नामरूप और असत् सही, पर ये नामरूपात्मक दृश्य जबतक ध्यान की परमावस्था द्वारा एकदम मिटा न दिए जाएँ, तबतक हमें इनका कुछ इंतजाम करके चलना चाहिए। जबकि हम अपने रतिभाव को पूर्णतया दूसरे (अदृश्य) पक्ष में लगाना चाहते हैं तब पहले उसे दृश्य पक्ष से धीरे धीरे सुलझाकर अलग करना पड़ेगा। साधना के व्यवहारक्षेत्र में हमें ईश्वर और जगत्, ये दो पक्ष मानकर चलना ही पड़ेगा। तीसरे हम ऊपर से होंगे। इसी से भक्ति के साथ एक ओर तो वैराग्य लगा दिखाई पड़ता है, दूसरी ओर योग।[]

'कल्ब क्या है’, इसपर कुछ विचार हो चुका। जबकि कल्ब पर पड़े हुए प्रतिबिंब का ही आत्मा को बोध होता है तब वह शुद्ध वेदांत की दृष्टि से आत्मा के साथ लगा हुआ अंतःकरण ही है और जड़ प्रकृति का ही विकार है। प्रकृति का विकार होने से वह भी 'जगत्' के अंतर्भूत है। इस पद्धति पर चलने से हम वेदांत के 'प्रतिबिंबवाद' पर पहुँचते हैं। जायसी ने इसी भारतीय पद्धति का अनुसरण करके जगत् को दर्पण कहा है जिसमें ब्रह्म का प्रतिबिंब पड़ता है।

'कल्ब या हृदय को भी सूफियों ने जो रूह (आत्मा) के समान अभौतिक माना है वह अपने प्रेममार्ग या भक्तिमार्ग की भावना के अनुसार उसे परमात्मा के नित्य स्वरूप के अंतर्भूत करने के लिये। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी की आलोचना में हम कह चुके हैं, परोक्ष 'चित्' और परोक्ष 'शक्ति' मात्र की भावना से मनुष्य की वृत्ति पूर्णतया तुष्ट न हुई, इससे वह परोक्ष 'हृदय' की खोज में बराबर रहा। भक्ति मार्ग में जाकर परमात्मा का 'हृदय' मनुष्य को मिला और मनुष्य की संपूर्ण सत्ता का एक परोक्ष आधार प्रतिष्ठित हो गया। मनुष्य का हृदय मानो उस परोक्ष हृदय के बिना अकेले ऊबता सा था। किस प्रकार उस 'परोक्ष हृदय' का आभास ईसाई मत ने पहले पहल संसार की भिन्न भिन्न जातियों को दिया, इसका वर्णन अंग्रेज कवि ब्राउनिंग ने बड़े मार्मिक ढंग से किया है। कारसिश नामक एक विद्वान् अरब हकीम की भेंट लाजरस नामक एक यहूदी से होती है जो अपनी जाति के एक ईसाई हकीम द्वारा अपने मरकर जिलाए जाने की बात कहता है और ईसाई मत के प्रेमतत्व का संदेश भी सुनाता है। अब हकीम उस यहूदी से मिलने का वृत्तांत अपने एक मित्र को लिखते हुए उक्त प्रेममार्ग की चर्चा इस प्रकार करता है—

'दि वेरी गाड! थिंक एबिब डस्ट दाऊ थिंक?
सो द आल-ग्रेट वेयर द आल -लविंग टू—
सो, थ्रू दि थन्डर कम्स ए ह्यूमन वायस,
सेइंग, 'ओ हार्ट आई मेड, ए हार्ट वीट्स हियर!
फेस, माइ हैन्ड्स फैशन्ड, सी इट इन माइसेल्फ्।
दाऊ हैस्ट नो पावर, नार मेयस्ट कन्सीव आफ माइन।
बट लव गेव दी विथ माइसेल्फ टू लव,
ऐंड दाउ मस्ट लव भी हू हैव डाइड फार दी'।

(भावार्थ—हबीब! सोचो तो; वही सर्वशक्तिमान् ईश्वर प्रेममय भी है। मेघगर्जन के बीच से मनुष्य का सा यह स्वर सुनाई पड़ता है—'हे मेरे बनाए हुए हृदय! इधर भी हृदय है। हे मेरे बनाए हुए मुखड़े! मुझमें भी मुखड़ा देखा। तुझमें शक्ति नहीं है और न तू मेरी शक्ति का अनुमान कर सकता है। पर प्रेम मैंने तुझको दिया है कि तू मुझसे प्रेम कर जो तेरे लिये मर चुका है'।)

तत्वज्ञान संपन्न प्राचीन यूनानी (यवन) जाति के बीच जब 'पाल' नामक यहूदी स्थूल सीधे सादे प्रेममय ईसाई मत का प्रचार करने गया तब किस प्रकार ज्ञानमार्ग से भरे यूनानियों ने उस 'असभ्य यहूदी' की बातों की पहले उपेक्षा की, पर पीछे उसके शांतिदायक संदेश पर मुग्ध हुए, यह बात वर्णन करने के लिये ब्राउनिंग ने इसी प्रकार के एक और पत्र की रचना की है।

ब्राउनिंग के समान ही और योरोपियनों की भी यही धारणा थी कि प्रेमतत्व या भक्तिमार्ग का आविर्भाव पहले पहल ईसाई मत में हुआ और ईसाई उपदेशकों द्वारा भिन्न भिन्न देशों में फैला। भारतवर्ष के 'भागवत संप्रदाय' की प्राचीनता पूर्णतया सिद्ध हो जाने पर भी बहुतेरे अबतक उस प्रिय धारणा को छोड़ना नहीं चाहते। सच पूछिए तो 'भगवान् के हृदय' की पूर्ण भावना भारतीय भक्तिमार्ग में ही हुई। ईसाई मत को पीछे से भगवान् के हृदय का वहाँ तक आभास मिला जहाँ तक उपास्य उपासक का संबंध है। व्यक्तिगत साधना के क्षेत्र के बाहर उस हृदय की खोज नहीं की गई। केवल इतने ही से संतोष किया गया कि ईश्वर शरणागत भक्तों के पापों को क्षमा करता है और सब प्राणियों में प्रेम रखता है। इतने से ईश्वर और मनुष्य के बीच के व्यवहार में तो वह हृदय दिखाई पड़ा पर मनुष्य मनुष्य के बीच के व्यवहार में अभिव्यक्त होनेवाले तथा लोकरक्षा और लोकरंजन करनेवाले हृदय की ओर ध्यान न गया। लोक में जिस हृदय से दीन दुखियों की रक्षा की जाती है, गुरुजनों का आदर सम्मान किया जाता है, भारी भारी अपराध क्षमा किए जाते हैं, अत्यंत प्रबल और असाध्य अत्याचारियों का ध्वंस करने में अद्भुत पराक्रम दिखाया जाता है, नाना कर्तव्यों और स्नेह संबंधों का अत्यंत भव्य निर्वाह किया जाता है, सारांश यह कि जिससे लोक का सुखद परिपालन होता है, वह भी उसी एक 'परम हृदय' की अभिव्यक्ति है, इसकी भावना भारतीय भक्तिपद्धति में ही हुई।

जिस समय 'निर्गुनिए' भक्तों की लोकधर्म से उदासीन या विमुख करनेवाली वाणी सर्वसाधारण के कानों में गूँज रही थी उस समय गोस्वामी तुलसीदास जी ने किस प्रकार भक्ति के उपयुक्त प्राचीन व्यापक स्वरूप की जनसाधारण के बीच प्रतिष्ठा की, गोस्वामी जी की आलोचना में हम दिखा चुके हैं।

सूफी लोग साधक की क्रमशः चार अवस्थाएँ कहते हैं—(१) 'शरीअत'—अर्थात् धर्मग्रंथों के विधिनिषेध का सम्यक् पालन। यह है हमारे यहाँ का कर्मकांड। (२) 'तरीकत'—अर्थात् बाहरी क्रियाकलाप से परे होकर केवल हृदय की शुद्धता द्वारा भगवान् का ध्यान। इसे उपासना कांड कह सकते हैं। (३) 'हकीकत' भक्ति और उपासना के प्रभाव से सत्य का सम्यक् बोध जिससे साधक तत्वदृष्टि संपन्न और त्रिकालज्ञ हो जाता है। इसे ज्ञानकांड समझिए। (४) 'मारफत'— अर्थात् सिद्धावस्था जिसमें कठिन उपवास और मौन आदि की साधना द्वारा अंत में साधक की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और वह भगवान् की सुंदर प्रेममयी प्रकृति (जमाल) का अनुसरण करता हुआ प्रेममय हो जाता है।

जायसी ने इन अवस्थाओं का उल्लेख 'अरावट' में इस प्रकार किया है—

कही 'सरीअत' चिस्ती पीरू। उधरित असरफ औ जहँगीरू॥
राह 'हकीकत' परै न चूकी। पैठि 'मारफत' मार बुडूकी॥

यह कह आए हैं कि जायसी को विधि पर पूरी आस्था थी। वे उसको साधना की पहली सोढ़ी कहते हैं जिसपर पैर रखे बिना कोई आगे बढ़ नहीं सकता—

साँची राह 'सरीअत' जेहि बिसवास न होइ।
पाँव रखै तेहि सीढ़ी, निभरम पहुँचै सोइ॥

साधक के लिये कहा गया है कि वह प्रकट में तो सब लोकव्यवहार करता रहे, सैकड़ों लोगों के बीच अपना काम करता रहे, पर भीतर हृदय में भगवान् की भावना करता रहे, जैसा कि जायसी ने कहा है—

परगट लोक चार कहु बाता। गुपुत भाउ मन जासौं राता॥

इसे 'खिलवत दर अंजुमन' कहते हैं।

नफ्स के साथ जिहाद करते हुए—इंद्रियदमन करते हुए—उस परमात्मा तक पहुँचने का जो मार्ग बताया गया है वह 'तरीकत' कहलाता है। इस मार्ग का अनुसरण करनेवाले को क्षुत्पिपासा सहन, एकांतवास और मौन का आश्रय लेना चाहिए। इस मार्ग में कई पड़ाव हैं जो 'मुकामात' कहलाते हैं। इनमें से पहला 'मुकाम' है 'तौबा'। जायसी ने जो चार टिकान या बसेरे कहे हैं (चारि बसेरे सौं चढ़े, सत सौं उतरै पार) वे या तो ऊपर कही हुई चार अवस्थाएँ हैं अथवा ये ही मुकामात हैं। वे 'मुकामात' या अवस्थाएँ उन अभ्यंतर अवस्थाओं के अधीन हैं जो परमात्मा के अनुग्रह से कल्प या हृदय के बीच उपस्थित होती हैं और 'अहवाल' कहलाती हैं। इसी 'अहवाल' की अवस्था का प्राप्त होना 'हाल आना' कहलाता है जिसमें भक्त अपने को बिल्कुल भूल जाता है और ब्रह्मानंद में झूमने लगता है। जायसी ने इन पद्यों में इसी अवस्था की ओर संकेत किया है—

कया जो परम तत्त मन लावा। घूमि माति, सुनि और न भावा॥

जस मद पिए घूम कोई नाद सुने पै घूम।
तेहि तें बरजे नीक है, चढ़े रहसि कै दूम॥

इस 'हाल' या प्रलयावस्था के दो पक्ष हैं—त्यागपक्ष और प्राप्तिपक्ष। त्यागपक्ष के अंतर्गत हैं—(१) फना (अनअलग सत्ता की प्रतीति के परे हो जाना), (२) फकद (अहंभाव का नाश) और सुक्र (प्रेममद) प्राप्तिपक्ष के अंतर्गत हैं—(१) बका (परमात्मा में स्थिति), (२) वज्द (परमात्मा की प्राप्ति) और (३) शह्न (पूर्ण शांति)। बसरा और बगदाद बहुत दिनों तक सूफियों के प्रधान स्थान रहे। बसरे में 'राबिया' और बगदाद में 'मंसूर हल्लाज' प्रसिद्ध सूफी हुए हैं। मंसूर हल्लाज की पुस्तक 'किताबे तवासीफ' सूफियों का सिद्धांत ग्रंथ माना जाता है। अतः उसके अनुसार ईश्वर और सृष्टि के संबंध में सूफियों का सिद्धांत नीचे दिया जाता है—

परमात्मा की सत्ता का सार है प्रेम। सृष्टि के पूर्व परमात्मा का प्रेम निर्विशेष भाव से अपने ऊपर था इससे वह अपने को—अकेले अपने आपको ही—व्यक्त करता रहा। फिर अपने उस एकांत अद्वैत प्रेम को, उस अपरत्वरहित प्रेम को, बाह्य विषय के रूप में देखने की इच्छा से उस शून्य से अपना एक प्रतिरूप या प्रतिबिंब उत्पन्न किया जिसमें उसी के गुण और नामरूप थे। यही प्रतिरूप 'अमदा, कहलाया जिसमें और जिसके द्वारा परमात्मा ने अपने को व्यक्त किया—

आपुह आह चाह देखावा। आदम रूप भेस धरि आवा॥

हल्लाज ने ईश्वरत्व और मनुष्यत्व में कुछ भेद रखा है वह 'ब्रह्मैव भवति' तक नहीं पहुँचता है। साधना द्वारा ईश्वर की प्राप्ति हो जाने पर भी, ईश्वर की सत्ता में लीन हो जाने पर भी, कुछ विशिष्टता बनी रहती है। ईश्वरत्व (लाहूत) मनुष्यत्व (नासूत) में वैसे ही ओतप्रोत हो जाता है—बिल्कुल एक नहीं हो जाता—जैसे शराब में पानी। इसी से ईश्वरदशाप्राप्त मनुष्य कहने लगता है 'अनलहक'—मैं ही ईश्वर हूँ। ईश्वरत्व का इस प्रकार मनुष्यत्व में ओतप्रोत हो जाना हल हो जाना 'हुलूल' कहलाता है। इस हुलूल में अवतारवाद की झलक है, इससे मुल्लाओं ने इसका घोर विरोध किया। जो कुछ हो, हल्लाज ने यह प्रतिपादित किया कि अद्वैत परमसत्ता में भी भेदविधान है, उसमें भी विशिष्टता है, जैसे कि रामानुजाचार्य जी ने किया था।

इब्‍न अरबी ने 'लाहूत' और 'नासूत' की यह व्याख्या की है कि दोनों एक ही परमसत्ता के दो पक्ष हैं। लाहूत नासूत हो सकता है और नासूत लाहूत। इस प्रकार उसने ईश्वर और जीव दोनों के परे ब्रह्म को रखा और वेदांतियों के उस भेद पर आ पहुँचा जो वे ब्रह्म और ईश्वर अर्थात निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म में करते हैं। वेदांत में भी एक ही ब्रह्म शुद्ध सत्व में प्रतिबिंबित होने पर ईश्वर और अशुद्ध सत्व में प्रतिबिंबित होने पर जीव कहलाता है। परब्रह्म के नीचे एक और ज्योतिस्वरूप की भावना पश्चिम की पुरानी जातियों में भी थी—जैसे, प्राचीन मिस्रियों में 'लोगस' की, यहूदियों में 'कबाला' की और पारसियों में 'बहमन' की। ईसाइयों में भी 'पवित्रात्मा' के रूप में वह बना हुआ है।

सूफियों के एक प्रधान वर्ग का मत है कि नित्य पारमार्थिक सत्ता क ही है। यह अनेकत्व जो दिखाई पड़ता है वह उसी एक का ही भिन्न भिन्न रूपों में आभास है। यह नामरूपात्मक दृश्य जगत् उसी एक सत् की बाह्य अभिव्यक्ति है। परमात्मा का बोध इन्हीं नामों और गुणों के द्वारा हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रखकर जायसी ने कहा—

दीन्ह रतन बिधि चारि, नैन, बैन, सरवन्न, मुख।
पुनि जब मेटिहि मारि, मुहमद तब पछिताब मैं॥

(अखरावट)

इस परम सत्ता के दो स्वरूप हैं—नित्यत्व और अनंतत्व; दो गुण हैं—जनकत्व और जन्यत्व। शुद्ध सत्ता में न तो नाम है, न गुण। जब वह निर्विशेषत्व या निर्गुणत्व से क्रम?: अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आती है तब उसपर नाम और गुण लगे प्रतीत होते हैं। इन्हीं नामरूपों और गुणों की समष्टि का नाम जगत् है। सत्ता और गुण दोनों मूल में लाकर एक ही हैं। दृश्य जगत् भ्रम नहीं है, उस परम सत्ता की आत्माभिव्यक्ति या अपर रूप में उसका अस्तित्व है। वेदांत की भाषा में वह ब्रह्म का ही 'कनिष्ठ स्वरूप' है। हल्लाज के मत की अपेक्षा यह मत वेदांत के अद्वैतवाद के अधिक निकट है।

सूफियों के मत का जो थोड़ा सा दिग्दर्शन ऊपर कराया गया उससे इस बात पर ध्यान गया होगा कि उनके अद्वैतवाद में दो बातें स्फुट नहीं है—(१) परम सत्ता चिरत्वरूप ही है, (२) जगत् अभ्यास मात्र है। पर जैसा कि पाठकों को पढ़ने ज्ञात होगा, जायसी सूफियों के अद्वैतवाद तक ही नहीं रहे हैं, वेदांत के अद्वैतवाद तक भी पहुँचे हैं। भारतीय मतमतांतरों की उनमें अधिक झलक है।

ज्ञानकांड के निर्गुण ब्रह्म को यदि उपासना क्षेत्र में ले जायँगे तो उसे सगुण करना ही पड़ेगा। जिन्होंने मूर्ति के निषेध को ठीक खुदा के पास तक पहुँचा देनेवाला रास्ता समझा था, वे भी उसकी देश-काल-संबंध-शून्य भावना नहीं कर सके थे। खुदा का कयामत के दिन एक जगह बैठना, चारों ओर सब जीवों का इकट्ठा होना, बगल में हजरत मुहम्मद या ईसा का होना, जड़ द्रव्य लेकर अपनी ही सूरत सकल का पुतला बनाना और उसमें रूह फूंकना, छह दिन काम करके सातवें दिन आराम करना, ये सब बातें अव्यक्त और निर्गुण की नहीं हैं। ज्ञानेंद्रिय-गोचर आकार के बिना चाहे किसी प्रकार काम चल भी जाय पर मन का गोचर गुणों के बिना तो किसी दशा में काम नहीं चल सकता। अतः मूर्त्तामूर्त सबको उस ब्रह्म का व्याक्ताव्यक्त रूप माननेवाले सूफी यदि उस ब्रह्म की भावना अनंत सौंदर्य और अनंत गुणों से संपन्न प्रियतम के रूप में करें तो उनके सिद्धांत में कोई विरोध नहीं आ सकता। उपनिषदों में भी उपासना के लिये ब्रह्म की सगुण भावना की गई है। सूफी लोग ब्रह्मानंद का वर्णन लौकिक प्रेमानंद के रूप में करते हैं और इस प्रसंग में शराब, मद आदि को भी लाते हैं।

प्रतीकोपासना (अग्नि, जल, वायु आदि के रूप में) और प्रतिमापूजन के प्रति जो घोर द्वेषभाव पैगंबरी मतों में फैला हुआ था वह सूफियों को उदार और व्यापक दृष्टि में अत्यंत अनुचित और घोर अज्ञानमूलक दिखाई पड़ा। उस कट्टरपन का शांत विरोध प्रकट करने के लिये वे कभी कभी अपने उपास्य प्रियतम की भावना 'बुत' (प्रतिमा) के रूप करते थे। जितना ही इस 'बुत' का विरोध किया गया उतना ही वह फारसी की शायरी में दखल जमाता गया। सूफी बराबर 'खुदा के नूर को हुस्ने बुताँ के परदे में' देखते रहे। सूफियों के प्राधान्य के कारण धीरे धीरे 'बुत' और 'गै' (शराब) दोनों शायरी के अंग हो गए। शायर लोग 'खुदा खुदा करना' और 'बुतों के आगे सिजदः करना' दोनों बराबर ही समझने लगे।[]

पदमावत में अद्वैतवाद की झलक स्थान स्थान पर दिखाई पड़ती है। अद्वैतवाद के अंतर्गत दो प्रकार के द्वैत का त्याग लिया जाता है—आत्मा और परमात्मा के द्वैत का तथा ब्रह्म और जड़ जगत् के द्वैत का। इनमें से सूफियों का जोर पहली बात पर ही समझना चाहिए। यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद् का 'अहं ब्रह्मास्मि' वाक्य जिस प्रकार ब्रह्म की एकता और अपरिच्छिन्नता का प्रतिपादन करता है उसी प्रकार सूफियों का 'अनहलक' वाक्य भी। इस अद्वैतवाद के मार्ग में बाधक होता है अहंकार। यह अहंकार यदि छूट जाय तो इस ज्ञान का उदय हो जाय कि 'सब मैं ही हूँ', मुझसे अलग कुछ नहीं है—

हौं हौं कहत सबै मति खोई। जौ तु नाहिं आहि सब कोई॥
आपुहि गुरु गुरु सो आपुहि चेला। आपुहिं सब औ आपु अकेला॥

'अखरावट' में जायसी ने 'सोऽहं' इस तत्व की अनुभूति से ही पूर्ण शांति की प्राप्ति बताई है—

'सोऽहं सोऽहं' बसि जो करई। सो बूझै, सो धीरज धरई॥

वेदांत का अनुसरण करते हुए जायसी ब्रह्म और जगत् की समस्या पर भी जाते हैं और जगत् को ब्रह्म से अलग नहीं करते। जगत् की जो अलग सत्ता प्रतीत होती है, वह पारमार्थिक नहीं है, अवभास या छाया मात्र है—

जब चीन्हा तब और न कोई। तन मन, जिउ, जीवन सब सोई॥
'हौं हौं' कहत धोख इतराहीं। जब भा सिद्ध कहाँ परछाहीं?

चित् अचित् की इस अनन्यता के प्रतिपादन के लिये वेदांत 'विवर्तवाद' का आश्रय लेता है जिसके अनुसार यह जगत् ब्रह्म का विवर्त (कल्पित कार्य) है। मूल सत्य द्रव्य ब्रह्म ही है जिसपर अनेक असत्य अर्थात् सदा बदलते रहनेवाले दृश्यों का अध्यारोप होता है। जो नामरूपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तव स्वरूप ही है, न ब्रह्म का कार्य या परिणाम ही है। वह है केवल अध्यास या भ्रांतिज्ञान। उसकी कोई अलग सत्ता नहीं है। नित्य तत्व एक ब्रह्म ही है। इसी सामान्य सिद्धांत के स्पष्टीकरण के लिये वेदांत में प्रतिबिंबवाद, दृष्टिसृष्टिवाद, अवच्छेदवाद, अजातवाद (प्रौढ़वाद) आदि कई वाद चलते हैं।

'प्रतिबिंबवाद' का तात्पर्य यह है कि नामरूपात्मक दृश्य (जगत्) ब्रह्म के प्रतिबिंब हैं। बिंब ब्रह्म है; यह जगत् उसका प्रतिबिंब है। इस प्रतिबिंबवाद की ओर जायसी ने 'पदमावत' में बड़े ही अनूठे ढंग से संकेत किया है। दर्पण में पद्मिनी के रूप की झलक देख अलाउद्दीन कहता है—

देख एक कौतुक हौं रहा। रहा अँतरपट पै नहिं अहा॥
सरवर देख एक मैं सोई। रहा पानि औ पान न होई॥
सरग आइ धरती महँ छावा। रहा धरति, पै धरत न आवा॥

परदा था भी और नहीं भी था—अर्थात् इस विचार से तो व्यवधान था कि उस स्वरूप का हम स्पर्श नहीं कर सकते थे और इस विचार से नहीं भी था कि उस व्यवधान में उस स्वरूप की छाया दिखाई पड़ती थी। प्रकृति की दो शक्तियाँ मानी जाती हैं—आवरण और विक्षेप। आवरण द्वारा वह मूल निर्गुण सत्ता के वास्तव स्वरूप को ढाँकती है और विक्षेप द्वारा उसके स्थान पर बदलनेवाले नाना रूपों को निकालती है। जब कि ये नाना रूप ब्रह्म ही के प्रतिबिंब हैं तब हम यह नहीं कह सकते कि वह आवरण या परदा ऐसा है जिसमें ब्रह्म का आभास बिल्कुल नहीं मिल सकता। सरोवर में पानी था, पर पानी तक पहुँच नहीं होती थी—उस शीतल करनेवाले तत्व की झलक मिलती है, पर उसकी प्राप्ति यों नहीं हो सकती। पूर्ण साधना द्वारा यदि उसकी प्राप्ति हो जाए तो भवताप से चिरनिवृत्ति हो जाए और आत्मा की प्यास सब दिन के लिये बुझ जाय। 'सरग धरती महँ छावा'—स्वर्गीय अमृत तत्व इसी पृथ्वी में व्याप्त है पर पकड़ में नहीं आता। इसी भाव को जायसी ने 'अखरावट' में अधिक स्पष्ट रूप में प्रकट किया है—

आपुहि आपु जो देख चहा। आपनि प्रभुत आप से कहा॥
सबै जगत दरपन कै लेखा। आपुहि दरपन, आपुहि देखा॥
आपुहि वन औ आपु पखेरू। आपुहि सौजा, आपु अहेरू॥
आपुहि पुहुप फूलि वन फूलै। आपुहि भँवर बासरस भूलै॥
आपुहि घट घट महँ मुख चाहै। आपुहि आपन रूप सराहै॥

दरपन बालक हाथ, मुख देखै, दूसर गनै।
तस भा दुइ एक साथ, मुहमद एहै जानिए॥

'आपुहि दरपन आपुहि देखा 'इस वाक्य से दृश्य और द्रष्टा, ज्ञेय और ज्ञाता का एक दूसरे से अलग न होना सूचित होता है। इसी अर्थ को लेकर वेदांत में यह कहा जाता है कि ब्रह्म जगत् का केवल निमित्त कारण ही नहीं, उपादान कारण भी है। 'आपुहि आपु जो देखै चहा' का मतलब यह है कि अपनी ही शक्ति की लीला का विस्तार जब देखना चाहा। शक्ति या माया ब्रह्म ही की है, ब्रह्म से पृथक् उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं। 'आपुहि घट घट महँ मुख चाहै'—प्रत्येक शरीर में जो कुछ सौंदर्य दिखाई पड़ता है वह उसी का है। किस प्रकार एक ही प्रखंड सत्ता के अलग अलग बहुत से प्रतिबिंब दिखाई पड़ते हैं, यह बताने के लिये जायसी यह पुराना उदाहरण देते हैं—

गगरी सहस पचास, जो कोउ पानी भरि धरै।
सूरुज दिपै अकास, मुहमद सब महँ देखिए॥

जिस ज्योति से मनुष्य उस परमहंस ब्रह्म की छाया देखता है वह स्थिर है क्योंकि वह ब्रह्म ही है। वह ब्रह्मज्योति अपनी माया से आच्छादित होने पर भी न उससे मिली हुई कही जा सकती है, न अलग—मिली हुई इसलिये नहीं कि नाम-रूपात्मक दृश्यों का उसके स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, अलग इसलिये नहीं कि उसके साथ ही उसकी अभिव्यक्ति छायारूप में रहती है—

देखेउ परमहंस परछाहीं। नयन ज्योति सौं बिछुरति नाहीं॥
जगमग जल महँ दीसै जैसे। नाहिं मिला नहिं बेहरा तैसे॥

नाम, रूप असत्य हैं अर्थात बदलते रहते हैं पर उनकी तह में जो आत्मसत्ता है वह नित्य और अपरिणामी है, इसका स्पष्ट शब्दों में उल्लेख इस सोरठे में है—

विगरि गए सब नावँ, हाथ, पाँव, मुँह, सीस धर।
तोर नावँ केहि ठाँवँ, मुहमद सोइ विचारिए॥—(अखरावट)

नित्य तत्व और नामरूप का भेद समझाने के लिये वेदांती समुद्र और तरंग का या सुवर्ण और अलंकार का दृष्टांत लाया करते हैं। अखरावट में वह भी मौजूद है—

सुन्न समुद्र चख माहि, जल जैसी लहरें उठहिं।
उठि उठि मिटि मिटि जाहिं, मुहमद खोज न पाइए॥

वह व्यक्त तत्व यद्यपि घट घट में व्याप्त है, नामरूपात्मक जगत् की तह में है, पर नामरूपों का उसपर कोई प्रभाव नहीं, वह निर्लिप्त और अविकारी है—'न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:'—

चख महँ नियर, निहारत दूरी। सब घट माहँ रहा भरि पूरी।
पवन न उड़ै, न भीजै पानी। अगिनि जरै जस निरमल बानी॥

ब्रह्म अपनी माया का विस्तार करके उसमें अपना प्रतिबिंब देखता है। इस बात को समझाने के लिये जायसी आँख की पुतली के बिंदु की ओर संकेत करते हैं। यह बिंदु जब अपनी शक्ति का प्रसार करता है तभी जगत् को देखता है। इस बात की ओर पूर्ण ध्यान देकर विचार करने से मनुष्य को दृग्दृश्य विवेक प्राप्त हो सकता है और वह यह समझ सकता है कि दृश्य की प्रतीति होना अव्यक्त में अव्यक्त का सामना ही है, नित्य व्यक्त तत्व ब्रह्म मायापट का विस्तार करके—अर्थात् दिक्काल आदिका आरोप करके—अपना प्रतिबिंब डालता है। अव्यक्तमूल प्रतिबिंब प्रतीति के रूप में फिर उसी व्यक्त नित्य चित्तत्व में पलटकर समाता है—

पुतरी महँ जो बिंदि एक कारी। देख जगत सो पट विस्तारी।
हैरत दिस्टि उघरि तस आई। निरखि सुन्न महँ सुन्न समाई॥

प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक फिक्ट ने भी जगत् की प्रतीति की प्रायः यही पद्धति बताई है।

ब्रह्म को 'ईश्वर' संज्ञा किस प्रकार प्राप्त होती है इसका विवरण वेदांत के ग्रंथों में मिलता है। पहले प्रकृति रजोगुण की प्रवृत्ति से दो रूपों में विभक्त होती है—सत्वप्रधान और तमः प्रधान। सत्वप्रधान के भी दो रूप हो जाते हैं—शुद्ध सत्व (जिसमें सत्व गुण पूर्ण हों) और अशुद्ध सत्व (जिसमें सत्व अंशतः हो)। प्रकृति के इन्हीं भेदों में प्रतिबिंबित होने के अनुसार ब्रह्म कभी 'ईश्वर', कभी 'हिरण्य गर्भ' और कभी 'जीव' कहलाता है। जब माया या शक्ति के तीन गुणों में से शुद्ध सत्व का उत्कर्ष होता है तब उसे 'माया' कहते हैं और इस माया में प्रतिबिंबित होनेवाले ब्रह्म को सगुण यानी व्यक्त ईश्वर कहते हैं। अशुद्ध सत्व की प्रधानता को 'अविद्या' और उसमें प्रतिबिंबित होनेवाले चित् या ब्रह्म को प्राज्ञ या जीव कहते हैं। इस सिद्धांत का भी आभास जायसी ने इस प्रकार दिया है—

भए आपु और कहा गोसाईं। सिर नावहु सगरिउ दुनियाई॥

आप ही तो सब कुछ हुआ, पर माया के भेद के अनुसार एक ओर तो ईश्वर (सर्वशक्तिमान् विधायक और शासक) रूप में व्यक्त हुआ और दूसरी ओर जीव रूप में, जो उस ईश्वर को सिर नवाता है।

ब्रह्म और जीव आत्मा और परमात्मा की एकता इस प्रकार भी समझाई जाती है कि 'जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है।' इस तथ्य को लेकर साधना के क्षेत्र में एक विलक्षण रहस्यवाद की उत्पत्ति हुई जिसकी प्रेरणा से योग में पिंड या घट के भीतर ही ब्रह्म का एक विशेष स्थान निर्दिष्ट हुआ और उसके पास तक पहुँचानेवाले विकट मार्ग (नाभि से चलकर) की कल्पना की गई। जायसी ने इस रहस्यमयी भावना को स्वीकार किया है—

सातौ दीप नवौ खंड, आठौ दिशा जो आहि।
जो बरह्मंड सो पिंड है, हेरत अंत न जाहिं॥

और एक पूरा रूपक बाँधकर पिंड को ही ब्रह्मांड बनाया है—

टा टुक झाँकहूँ सातौ खंडा। खंड खंड लखहु बरह्मंडा
पहिल खंड सनीचर नाऊँ। लखि न अँटकु पौरी महँ ठाऊँ॥
दूसर खंड बृहस्पति तहँवाँ। काम दुवार भोगघर जहँवाँ॥
तीसर खंड जो मंगल मानहुँ। नाभि कँवल महँ ओहि अस्थानहु॥
चौथ खंड जो आदित अहई। बाईं दिसि अस्तन महँ रहई॥
पाँचव खंड शुक्र उपराहीं। कंठ माहँ ओ जीभ तराहीं॥
छठएँ खंड बुद्धि कर बासा। दोउ भौंहन्ह के बीच निवासा॥

सातवँ सोम कपार महँ, कहा जो दसवँ दुवार।
जो वह पवँरि उघारै, सो बड़ सिद्ध अपार॥

इसमें जायसी ने मनुष्य शरीर के पैर, गुह्येंद्रिय, नाभि, स्तन, कंठ, दोनों भौहों के बीच के स्थान और कपाल को क्रमशः शनि, वृहस्पति, मंगल, आदित्य, शुक्र, बुध और सोमस्वरूप कहा है। एक और ध्यान देने की बात यह है कि कवि ने जिस क्रम से एक दूसरे के ऊपर ग्रहों की स्थिति लिखी है वह सूर्यसिद्धांत आदि ज्योतिष के ग्रंथों के अनुकूल है।

तत्व दृष्टि से 'पिंड और ब्रह्मांड की एकता' के निश्चय पर पहुँच जाने पर फिर उसी के अनुकूल साधना मार्ग सामने आता है, जो योगशास्त्र का विषय है। पतंजलि ने विभूतिपाद में नाभिचक्र, कंठकप, कूर्मनाड़ी और मूर्धज्योति का ही उल्लेख किया है, पर हठयोग में काव्यव्यूह का विशेष विस्तार से वर्णन है जिसकी चर्चा पहले कर आए हैं। मूर्धज्योति या ब्रह्मरंध्र को ही जायसी ने 'दसवाँ द्वार' कहा है जहाँ वृत्ति को ले जाकर लीन करने से ब्रह्म के स्वरूप का साक्षात्कार हो सकता है। जायसी ने वेदांत के सिद्धांतों के साथ हठयोग की बातों का भी समावेश क्यों किया, इसका कारण उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया होगा। तत्वज्ञान के पश्चात् उसके अनुकूल साधना होनी चाहिए। जबकि यह सिद्ध हो गया कि जो ब्रह्म विश्व की आत्मा के रूप में ब्रह्मांड में व्याप रहा है वही मनुष्य के पिंड या शरीर में भी है तब शरीर के भीतर ही उसके साक्षात्कार की साधना का निरूपण होना ही चाहिए।

अब यह देखिए कि तत्वदृष्टि से जायसी सृष्टिविकास का किस रूप में वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि सृष्टि के पहले ब्रह्म अपने को अपने में समेटे हुए था—'रहा आपु महँ आपु समाना (अखरावट)। सर्गोन्मुख होने के पहले वह 'वज्रबीज' अव्यक्त था—

बजर बीज वीरौ अस, ओहि न रंग न भेस।

अंकुरित होने पर उसमें से दो पत्ते निकले—एक चित्तत्व, दूसरा पार्थिव तत्व—

होतै बिरवा भए दुइ पाता। पिता सरग ओ धरती माता॥

इन्हीं दो से फिर अनेक प्रकार की चराचर सृष्टि हुई—

विरिछ एक लागी दुइ डारा। एकहिं ते नाता परकारा॥
मातु के रक्त पिता के बिंदू। उपने दुवौ तुरुक औ हिंदू॥
रकत हुतें तन भए चौरंगा। बिंदु हुतें जिउ पाँचौं संगा॥
जस ए चारिउ धरति बिलाहीं। तस वै पाँचहुँ सरहिं जाहीं॥

एक ही वृक्ष की दो डालियाँ हुईं—एक चेतन तत्व अर्थात् जीवात्मा और दूसरा अचेतन अर्थात् जड़ द्रव्य। चित् पुरुषपक्ष या पितृपक्ष है और अचित् प्रकृतिपक्ष या मातृपक्ष है। चित् को रूप (चिदाकाश) सूक्ष्म समझना चाहिए और अचित् को पृथ्वीस्वरूप स्थूल।

जबकि व्यक्त चित् (जीव) और व्यक्त चित् (विकृति) दोनों एक ब्रह्म से उत्पन्न हैं तब ब्रह्म में भी ये दोनों पक्ष अव्यक्त वा सूक्ष्म रूप में होंगे। इस प्रकार जायसी के उक्त कथन में रामानुज के विशिष्टाद्वैत की झलक साफ है जिसके अनुसार ब्रह्म चिदचिद्विशिष्ट है अर्थात् चित् और अचित दोनों उसके अंग हैं। जायसी ने आगे चलकर तो ब्रह्म को द्विकलात्मक साफ कहा है—

खा खेलार जस है दुइ करा। उहै रूप आदम अवतरा॥

ब्रह्म के सूक्ष्म चित् से जीवात्माओं की उत्पत्ति और सूक्ष्म अचित् से उनके शरीर और जड़ जगत् की उत्पत्ति हुई। विशिष्टाद्वैत के अनुसार ब्रह्म केवल निमित्त कारण है; उपादान हैं जड़ (स्थूल अचित्) और जीव (स्थूल चित्)। पर दूरारूढ़ वेदांत के अद्वैतवाद में ब्रह्म सब भेदों (स्वगत, सजातीय और विजातीय) से रहित तथा जगत का निमित्त और उपादान दोनों माना जाता है। सूफियों को भी आत्मा और परमात्मा में किसी प्रकार का पारमार्थिक भेद (जन्य जनक का भी) मान्य नहीं है। अतः प्रतियों के अनुकूल यदि हम 'विरिछ एक लागी डारा' दुइ का अर्थ करना चाहें तो जीव और जड़ को क्रमशः ब्रह्म के श्रेष्ठ और कनिष्ठ स्वरूप (जिन्हें गीता में अपरा और प्रकृति कहा है) मानकर कर सकते हैं[]। श्रेष्ठ स्वरूप निर्विकार रहता है और कनिष्ठ स्वरूप (माया) में अनेक प्रकार के भेद और विकार दिखाई पड़तें हैं। पर अद्वैतवाद के अनुकूल सृष्टि के वर्णन में अधिक जटिलता है और शब्दों के प्रयोग में सावधानी की भी बहुत आवश्यकता है। इसका निर्वाह जायसी के लिये कठिन था। इसी से आगे चलकर इन्होंने चित्‌तत्व के समुद्र से जो असंख्य प्रकार के शरीरों के भीतर जीवबिंदुओं की वर्षा कराई है वह शुद्ध वेदांत के अपरिच्छिन्न चित् के अनुकूल नहीं है, विशिष्टाद्वैत भावना से ही मेल खाती है—

रहा जो एक जल गुपुत समुंदा। बरसा सहस अठारह वृंदा॥
सोई अंश घटहिं घट मेला। औ सोइ वरन वरन होइ खेला॥

इस चौपाई में 'गुपुत समुंदा' सूक्ष्म चित् है जिससे अनेक प्रकार के जीवात्माओं की उत्पत्ति हुई।

यहीं तक नहीं, उत्पत्ति का और आगे चलकर जो वर्गीकरण किया गया है वह भी विचारणीय है; जैसे—

रकत हुते तन भए चौरंगा। बिंदु हुते जिउ पाँचौं संगा॥
जस ए चारिउ धरति विलाहीं। तस वै पाँचहु सरगहि जाहीं॥

‘रक्त’ से अभिप्राय यहाँ माता के रज अर्थात् प्रकृति के उपादान से है । प्रकृति के क्रमागत विकार से नाना प्रकार के शरीर संघटित हुए, यहाँ तक तो ठीक ही ठीक है। पर चित्तत्व के अंतर्गत जीवात्मा के अतिरिक्त पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ (या पंचप्राण अर्थ लीजिए) भी हैं, यह मत भारतीय दृष्टि से शास्त्रसम्मत नहीं है। सांख्य और वेदांत दोनों में ज्ञानेंद्रियाँ और अंतःकरण तथा प्राण भी प्रकृति के उत्तरोत्तर विकार माने जाते हैं। पर अंतःकरण या मन से आत्मा भिन्न है, यह सूक्ष्म भावना पश्चिमी देशों में स्फुट नहीं थी। पर 'जस वै पाँचहुँ सरगहि जाहीं' का भारतीय अध्यात्म की दृष्टि से यह अर्थ ले सकते हैं कि जीवात्मा के साथ 'लिंग' शरीर लगा जाता है।

पदमावत के आरंभ में सृष्टि का जो वर्णन है वह तो बिल्कुल स्थूल तथा नैयायिकों, पौराणिकों तथा जनसाधारण के 'आरंभवाद' के अनुसार है। यहीं तक नहीं, उसमें हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की भावनाओं का मेल है। उसमें एक ओर तो पुराणों के ‘सप्तद्वीप' और 'नव' खंड है, दूसरी ओर नूर की उत्पत्ति और 'हिशद हजार आलम'। उक्त वर्णन में एक बात पर और ध्यान जाता है। कवि ने सर्वत्र भूतकालिक रूप 'कोन्हेसि' का प्रयोग किया है जिसमें शामी पैगंबरी मतों (यहूदी, ईसाई और इसलाम) की इसी परिमित भावना का आभास मिलता है कि वर्तमान सृष्टि प्रथम और अंतिम है। इन मतों के अनुसार ईश्वर ने न तो इसके पहले सृष्टि की थी और न वह आगे कभी करेगा। इसमें न तो कल्पांतर की कल्पना है, न जीवों के पुनर्जन्म की। कयामत या प्रलय आने तक सब जीवात्मा इकट्ठे होते जायँगे और अंत में सबका फैसला एक साथ हो जायगा। जो पुण्यात्मा होंगे वे अनंत काल तक स्वर्ग भोगने चले जायँगे और जो पापी होंगे वे अनंत काल तक नरक भोगा करेंगे। 'पदमावत' में तो एक ही बार सृष्टि होने का थोड़ा आभास मात्र है। पर 'अखरावट' में यह बात कुछ अधिक खोलकर कही गई है—

ऐस जो ठाकुर किय एक दाऊँ। पहिले रचा मुहम्मद नाऊँ॥

हिंदू पौराणिक भावना के अनुसार भी सृष्टि का जहाँ वर्णन होगा वहाँ यही अभिप्राय प्रकट होगा कि ईश्वर 'सृष्टि करता है' अर्थात बराबर करता रहता है।

आदम की उत्पत्ति का और गेहूँ खाने के अपराध में आदम हौवा के स्वर्ग से निकाले जाने का उल्लेख भी है—

जबहीं किएउ जगत सब साजा। आदि चहेउ आदम उपराजा॥

खाएनि गोहूँ कुमति भुलाने। परे आइ जग मँह, पछिताने। (अखरावट)
छोह न कीन्ह निछोही आहू। का हम्ह दोष लाग एक गोहूँ॥ (पदमावत)

'स्तुति खंड' में यह इसलामी विश्वास भी मौजूद है कि ईश्वर ने पहले नूर (पैगंबर) या ज्योति उत्पन्न की और मुहम्मद ही की खातिर से स्वर्ग और पृथ्वी की रचना की—

कीन्हेसि प्रथम जोति परगासू। कीन्हेसि तेहि पिरीति कविलासू॥

'कविलास' शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर स्वर्ग के अर्थ में किया है।

यह तो प्रसिद्ध ही है कि यहूदियों के पुराने पैगंबर मूसा की उस सृष्टिकथा को इसाइयों ने भी माना और मुसलमानों ने भी लिया जिसके अनुसार ईश्वर ने छह दिन में प्रकाश, पृथ्वी, जल तथा वनस्पतियों और जीवों को अलग अलग उत्पन्न किया और अंत में मनुष्य का पुतला बनाकर उसमें अपनी रूह फूँकी। इसलाम में आकर सृष्टि की इस पौराणिक कथा में दो एक बातों का अंतर पड़ा। मूसा के खुदा को सृष्टि बनाने में छह दिन लगे थे, पर अल्लाह ने सिर्फ 'कुन' कहकर एक क्षण में सारी सृष्टि खड़ी कर दी। ज्योति की प्रथम उत्पत्ति का उल्लेख मूसा के वर्णन में भी है पर इसलाम में उस ज्योति का अर्थ 'मुहम्मद का नूर' किया जाता है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि सृष्टि का उक्त पैगंबरी वर्णन किसी तात्विक क्रम पर नहीं है। जायसी ने भी आरंभ में ज्योति का नाम लेकर फिर आगे किसी क्रम का अनुसरण नहीं किया है। वे सिर्फ वस्तुएँ गिनाते गए हैं : पर 'पदमावत' में एक स्थान पर भूतों की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार कहा गया है—

पवन होइ भा पानी, पानी होइ भइ आग।
आगि होइ भइ माटी, गोरखधंधै लागि॥

यह क्रम तैत्तिरीयोपनिषद् में जो क्रम कहा गया है उससे नहीं मिलता। तैत्तिरीयोपनिषद् में यह क्रम है—आत्मा (परमात्मा) से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी। यह क्रम इस आधार पर है कि पहले एक गुण का पदार्थ हुआ, फिर उससे दो गुणवाला और फिर उस दो गुणवाले से तीन गुणवाला; इसी प्रकार बराबर होता गया। पर जायसी का क्रम किस आधार पर है, नहीं कहा जा सकता। हाँ, पाँच भूतों के स्थान पर जायसी ने जो चार ही कहे हैं वह प्राचीन यूनानियों के विचार के अनुसार है जिसका प्रचार अरब आदि देशों में हुआ। प्राचीन पाश्चात्यों की भूतकल्पना इतनी सूक्ष्म न थी कि वे भूतों के अंतर्गत आकाश को लेते। आकाश के संबंध में अरब और फारस आदि मुसलमानी देशों के जनसाधारण की भावना भी बहुत स्थूल थे। वे उसे नक्षत्रों से जुड़ा हुआ एक शामियाना समझते थे, इसी से जायसी ने कहा है—

गगन अंतरिख राखा, बाज खंभ बिनु टेक।

'अखरावट' में उपनिषद् की कुछ बातें कहीं कहीं ज्यों की त्यों मिलती हैं। आत्मा के संबंध में जायसी कहते हैं—

पवन चाहि मन बहुत उताइल। तेहि तें परम आसु सुठि पाइल॥
मन एक खंड न पहुँच पावै। आसु भुवन चौदह फिरि आवै॥

पवनहिं महँ जो आसमाना। सब भा बरन जो आपु माना॥
जैत डोलाए बेना डोलै। पवन सबद होइ किछुह न बोलै॥

यही बात ईशोपनिषद् में कही गई है—

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवाऽऽप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्भावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥४॥

अर्थात्—आत्मा अचल मन से अधिक वेगवाला है, इंद्रियाँ उसको नहीं पा सकतीं। वह मन, इंद्रिय आदि दौड़नेवालों से ठहरा हुआ भी, परे निकल जाता है और उसी की सत्ता से वायु में कर्मशक्ति है।

सारांश यह है कि अद्वैतपक्ष मान्य होने पर भी जायसी ने अन्य पक्षों की भावना द्वारा उद्घाटित स्वरूपों का भी पूरे औत्सुक्य के साथ अवलोकन किया है। सूक्ष्म और स्थल दोनों प्रकार के विचारों का समावेश उनमें है। जगह जगह उन्होंने संसार को असत्य और माया कहा है जिससे मूल पारमार्थिक सत्ता का केवल आत्मस्वरूप होना ध्वनित होता है। साथ ही, जगत् को दर्पण कहना, नामरूपात्मक दृश्यों को प्रतिबिंव या छाया कहना यह सूचित करता है कि अचित् को ब्रह्म तो नहीं कह सकते, पर है वह उसी रूप की छाया जिस रूप में यह जगत् दिखाई पड़ता है। दूसरी ओर ईश्वर की भावना कर्ता या केवल निमित्त कारण के रूप में भी सृष्टिवर्णन में उन्होंने की है। यहीं तक नहीं, कहीं कहीं उन्होंने हिंदू और मुसलिम भावना का मेल भी एक नए और अनूठे ढंग से किया है।

इस प्रकार के परस्पर भिन्न सिद्धांतों की झलक से यह लक्षित होता है कि उन्होंने जो कुछ कहा है वह उनके तर्क या 'ब्रह्मजिज्ञासा' का फल नहीं है, उनकी सारग्राहिणी और उदार भावुकता का फल है, उनके अनन्यप्रेम का फल है। इसी प्रेमाभिलाष की प्रेरणा से प्रेमी भक्त उस अखंड रूपज्योति की किसी न किसी कला के दर्शन के लिये सृष्टि का कोना कोना झाँकता है, प्रत्येक मत और सिद्धांत की ओर आँख उठाता है और सर्वत्र जिधर देखता है उधर उसका कुछ न कुछ आभास पाता है। यही उदार प्रवृत्ति सब सच्चे भक्तों की रही है। जायसी की उपासना 'माधुर्य भाव' से, प्रेमी और प्रिय के भाव से है। उनका प्रियतम संसार के परदे के भीतर छिता हुआ है। जहाँ जिस रूप में उसका आभास कोई दिखाता है वहाँ उसी रूप में उसे देख ये गद्गद होते हैं। वे उसे पूर्णतया ज्ञेय या प्रमेय नहीं मानते। उन्हें यही दिखाई पड़ता है कि प्रत्येक मत अपनी पहुँच के अनुसार, अपने मार्ग के अनुसार, उसका कुछ अंशतः वर्णन करता है। किसी मत या सिद्धांतविशेष का यह आग्रह कि ईश्वर ऐसा ही है, भ्रम है। जायसी कहते हैं—

सुनि हस्ती कर नावँ, अँधरन टोवा धाइ कै।
जेड़ टोवा जेहि ठावँ, मुहमद सो तैसे कहा॥

'एकांगदस्सिनो' (एकांगदर्शियों) का यह दृष्टांत पहले पहल बुद्ध ने दिया था। इसको जायसी ने बड़ी मार्मिकता से अपनी उदार मनोवृत्ति की व्यंजना के लिये लिया है। इससे यह व्यंजित होता है कि प्रत्येक मत में सत्य का कुछ न कुछ अंश रहता है। इंगलैंड के प्रसिद्ध तत्वदर्शी हर्बर्ट स्पेंसर ने भी यही कहा है कि 'कोई मत कैसा ही हो उसमें कुछ न कुछ सत्य का अंश रहता है। भूतप्रेतवाद से लेकर बड़े बड़े दार्शनिक वादों तक सबमें एक बात सामान्यतः पाई जाती है कि सबके सब संसार का मूल कोई अज्ञेय और अप्रमेय रहस्य समझते हैं जिसका वर्णन प्रत्येक मत करना चाहता है, पर पूरी तरह कर नहीं सकता।'

यह बात प्रसिद्ध है कि पहुँचे हुए साधक अपने अनुभव को गुप्त रखते हैं। उसे प्रकट करना वे ठीक नहीं समझते। जायसी भी कहते हैं—

मति ठाकुर के सुनि कै, कहै जो हिय मझियार।
बहुरि न मत तासों करै, ठाकुर दूजी बार॥

इस मौन का रहस्य यही है कि अध्यात्म का विषय स्वयंवेद्य और अनिर्वचनीय है। शब्दों में उसका ठीक ठीक प्रकाश हो नहीं सकता। शब्दों में प्रकट करने के प्रयत्न से दो बातें होती हैं—एक तो शब्द भावना को परिमित करके अनुभूति के कुछ बाधक हो जाते हैं। दूसरे श्रोता के तर्क वितर्क से भी वृत्ति चंचल हो जाती है। जो अचिंत्य है वह शब्दों में ठीक ठीक कैसे आ सकता है?

अचियाः खलु ये भावा न तांस्तर्केण साधयेत्।

इसी से ब्रह्म के संबंध में तीन बार प्रश्न करने पर एक ऋषि ने तीनों बार मौन ही द्वारा उत्तर दिया था।

यहाँ तक तो तत्वसिद्धांत की बात हुई। सामाजिक विचार जायसी के प्रायः वैसे ही थे जैसे उस समय जनसाधारण के थे। अब फारस आदि देशों में स्त्रियों का पद बहुत नीचा समझा जाता था। वे विलास की सामग्री मात्र समझी जाती थीं। प्राचीन भारत की बात तो नहीं कह सकते पर इधर बहुत दिनों से इस देश में भी यही भाव चला आ रहा है। बादल युद्ध में जाते समय अपनी स्त्री का हाथ छुड़ाकर उससे कहता है—

तिरिया, भूमि खड़ग कै चेरी। जीत जो खड़ग होइ तेहि केरी॥


  1. यहाँ 'योग' शब्द का व्यवहार उसी अर्थ में है जो 'याज्ञवल्क्य स्मृति' में है—संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनः।
  2. करूँ मैं सिजदः बुतों के आगे, तू ऐ बरहमन! 'खुदा, खुदा' कर।
  3. द्वावेव ब्रह्मणो रूपे, मूर्त्तञ्चैवामूर्त्तञ्च, मर्त्यञ्वामृतञ्च।

    —बृहदारण्यक (मूर्तामूर्त प्रकरण)