जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४९. देवपाल दूती खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २३० से – २३६ तक

 

(४९) देवपाल दूती खंड

कुंभलनेर राय देवपाल। राजा केर सत्रु हियसालू॥
वह पै सुना कि राजा बाँधा। पाछिल बैर सँवरि छर साधा॥
सत्रुसाल तब नेवरै सोई। जौ घर आव सत्रु कै जोई॥
दूती एक विरिध तेहि ठाऊँ। बाम्हनि जाति, कुमोदिनि नाऊँ॥
ओहि हँकारि कै वीरा दीन्हा। तोरै बर मैं बर जिउ कीन्हा॥
तृइ जो कुमोदिनि कँवल के नियरे। सरग जो चाँद बसै तोहि हियरे॥
चितउर महँ जो पदमिनि रानी। कर बर छर सौ दे मोहिं आनी॥

रूप जगत मन मोहन, औ पदमावति नावँ।
कोटि दरब तोहि देइहौं, आनि करसि एहि ठावँ॥ १ ॥

 

कुमुदिनि कहा 'देखु, हौं सो हौं। मानुष काह देवता मोहौं॥
जस काँवरू चमारिनि लोना। को नहिं छर पाढ़त कै टोना॥
बिसहर नाचहिं पाढ़त मारे। औ धरि मूँदहि घालि पेटारे॥
बिरिछ चलै पाढ़त कै बोला। नदी उलटि बहु परवत डोला॥
पढ़त हरै पंडित मन गहिरे। और को अंध, गूँग औ बहिरे॥
पाढ़त ऐस देवतन्ह लागा। मानुष कहँ पाढ़त सौं भागा? ॥
चढ़ि अकास कै काढ़त पानी। कहा जाइ पदमावति रानी'॥

दूती बहुत पैज कै, बोली पाढ़त बोल।
जाकर सत्त सुमेरु है, लागे जगत न डोल ॥ २ ॥

 

दूती बहुत पकावन साधे। मोतिलाडू औ खरौरा बाँधे॥
माठ, पिराकै, फैनी, पापर। पहिरे बूझि, दूत के कापर॥
लेइ पूरी भरि डाल अछूती। चितउर चली पैज कै दूती॥
बिरधि बैस जो बाँधे पाउ। कहाँ सो जोबन, कित वेबसाऊ? ॥
तन बूढ़ा, मन बूढ़ न होई। बल न रहा, पै लालच सोई॥

कहाँ सो रूप जगत सब राता। कहाँ सो गरब हस्ति जस माता॥
कहाँ सो, तीख नयन, तन ठाढ़ा। सबै मारि जोबन पन काढ़ा॥

अहमद बिरिध जो नइ चलै, काह चलै भुइँ टोइ।
जोबन रतन हेरान है, मकु धरती महँ होइ॥ ३ ॥

 

आइ कुमोदिनि चितउर चढ़ी। जोहन मोहन पाढ़त पढ़ी॥
पूछि लीन्ह रनिवास बरोठा। पैठी पवँरी भीतर कोठा॥
जहाँ पदमिनी ससि उजियारी। लेइ दुती पकवान उतारी॥
हाथ पसारि धाइ कै भेंटी। 'चीन्हा नहिं, राजा कै बेटी॥
हौं बाम्हनि जेहि कुमुदिनि नाऊँ। हम तुम उपने एकै ठाऊँ॥
नावँ पिता कर दूबे बेनी। सोई पुरोहित गँधरबसेनी॥
तुम बारी तब सिंघलदीपा। लीन्हे दूध पियाइउँ सीपा॥

ठाँव कीन्ह मैं दूसर, कुँभलनेरै आइ।
सुनि तुम्ह कहँ चितउर महँ, कहिउँ कि भेंठौं जाइ॥ ४ ॥

 

सुनि निसचै नैहर के कोई। गरे लागि पदमावति रोई॥
नैंन गगन रबि बिनु अँधियारे। ससि मुख आँसु टूट जनु तारे॥
जग अँधियार गहन धनि परा। कब लगि सखि नखतन्ह निसि भरा॥
माय बाप कित जनमी बारी। गीउ तूरि कित जन्म न मारी?॥
कित बियाहि दुख दीन्ह दुहेला। चितउर पंथ कंत बँदि मेला॥
अब एहि जियन चाहि भल मरना। भएउ पहार जन्म दुख भरना॥
निकसि न जाइ निलज यह जीउ। देखौं मँदिर सून बिनु पीऊ॥

कुहुकि जो रोई ससि नखत, नैन हैं रात चकोर।
अबहूँ, बोलैं तेहि कुहुक, कोकिल, चातक, मोर ॥ ५ ॥

 

कुमुदिनि कंठ लागि सुठि रोई। पुनि
लेइ रूपडार मुख धोई॥
तु ससि रूप जगत उजियारी। मुख न झाँपु निसि होइ अँधियारी॥
सुनि चकोर कोकिल दुख दुखी। घुँघुची भई नैन करमुखी॥
केतौ धाइ मरै कोइ बाटा। सोइ पावा जो लिखा लिलाटा॥

जो विधि लिखा आन नहिं होई। कित धावै, कित रोवै कोई॥
कित कोउ हींछ करै पूजा। जो विधि लिखा होई नहिं दूजा॥
जेतिक कुमुदिनि बैन करेई। तस पदमावति स्त्रवन न देई॥

सेंदुर चीर मैल तस, सूखि रही जस फूल।
जेहि सिंगार पिय तजिगा, जनम न पहिरै भूल ॥ ६ ॥

 

तब पकवान उघारा दूती। पदमावति नहिं छुवै अछूती॥
मोहि अपने पिय केर खभारू। पान फूल कस होई अहारू?॥
मोकहँ फूल भए सब काँटै। बाँटि देहु जौ चाहहु बाँटे॥
रतन छुआ जिन्ह हाथन्ह सेंती। और न छुवैं सो हाथ सँकेती॥
ओहि के रँग भा हाथ मँजोठी। मुकुता लेउँ तौ घुँघची दीठी॥
नैन करसुहें, रातो काया। सोती होहिं घुँघची जेहि छाया॥
अस कै ओछ नैन हत्यारे। देखत गा पिउ, गहै न पारे॥

का तोर छुवौं पकवान, गुड़ करुवा, घिउ रूख।
जेहि मिलि होत सवाद रस, लेई सो गएउ पिउ भूख ॥ ७ ॥

 

कुमुदिनि रही कँवल के पासा। बैरी सूर, चाँद कै आसा॥
दिन कुँभिलानि रही भइ चूरू। बिगसि रैनि बातन्ह कर भूरू॥
कस तुइ, बारि! रहसि कुँभलानी। सूखि बेलि जस पाव न पानी॥
अबही कँवल करी तुइ बारी। कोवँरि बैस, उठत पौनारी॥
बेनी तोरि मैलि औ रूखी। सरवर माह रहसि कस सूखी?॥
पान बेलि विधि कया जमाई। सींचत रहै तबहि पलुहाई॥
करु सिंगार सुख फूल तमोरा। बैठु सिंघासन, झूलु, हिंडोरा॥

हार चीर निति पहिरहु, सिर कर करहु सँभार।
भोग मानि लेहु दिन दस, जोबन जात न बार ॥ ८ ॥

 

बिहँसि जो जोबन कुमुदिनि कहा। कँवल न बिगसा, संपुट रहा॥
ए कुमुदिनि! जोबन तेहि माहा। जो आछै पिउ के सुख छाहाँ॥
जाकर छत्र सो बाहर छावा। सो उजार घर कौन बसावा?॥
अहा न राजा रतन अँजोरा। केहिक सिंघासन, केहिक पटोरा?॥
को पालक पौढ़े ,को माढ़ी? । सोवनहार परा बँदि गाढ़ी॥
चहुँ, दिसि यह घर भा अँधियारा। सब सिगार लेइ साथ सिधारा॥
कया बेलि तब जानौं जामी। सींचनहार छाब घर स्वामी॥

तौ लहि रहौं झुरानी, जौ लहि आव सो कंत।
एहि फूल, एहि सेंदुर, नव होइ उठै बसंत॥ ९ ॥

 

जिनि तुइ, बारि! करसि अस जीऊ। जौ लहि जोबन तौ लहि पीऊ॥
पुरुष संग आपन केहि केरा। एक कोहाँइ, दूसर सहुँ हेरा॥
जोबन जल दिन दिन जस घटा। भँवर पछान, हंस परगटा॥
सुभर सरोवर जौ लहि नीरा। बहु आदर, पंखी बहु तीरा॥
नौर घटे पुनि पूछ न कोई। बिरसि जो लीज हाथ रह सोई॥
जौ लगि कालिंदी, होहि बिरासी। पुनि सुरसरि होइ समुद परासी॥
जोबन भवँर, फूल तन तोरा। विरिध पहुँचि जस हाथ मरोरा॥

कृस्न जो जोबन कारनै, गोपीतिन्ह के साथ।
छरि कै जाइहि बानपै, धनुक, रहै तोरे हाथ॥ १० ॥

 

जौ पिउ रतनसेन मोर राजा। बिनु पिउ जोबन कौने काजा॥
जौ पै जिउ तौ जोबन भला। आपन जैस करै निरमला॥
कुल कर पुरुष सिंघ जेहि खेरा। तेहि थर केस सियार बसेरा?॥

हिया फार कूकुर तेहि केरा। सिंधहि तजि सियार मुख हेरा॥
जोबन नीर घटे का घटा?। सत्त के बर जौ नहिं हिय फटा॥
सघन मेघ होइ साम बरीसहिं। जोबन नव तरिवर होइ दीसहि॥

रावन पाप जो जिउ धरा, दुवौ जगत मुँह कार।
राम सत्त जो मन धरा, ताहि छरै को पार? ॥ ११ ॥

 

कित पावसि पुनि जोबन राता। मैमँत, चढ़ा साम सिर छाता॥
जोबन बिना बिरिध होइ नाऊँ। बिनु जोबन थाकै सब ठाऊँ॥
जोबन हेरत मिलै न हेरा। सो जौ जाइ, करै नहिं फेरा॥
है जो केस नग भँवर जो बसा। पुनि बग होहिं, जगत सब हँसा॥
सेंवर सेव न चित कर सुना। पुनि पछितासि अंत जब भूआ॥
रूप तोर जग ऊपर लोना। यह जोबन पाहुन चल होना॥
भोग विलास केरि यह वेरा। मानि लेहु, पुनि को केहि केरा?॥

उठत कोंप जस तरिवर, तस जोवन तोहि रात।
तौ लगि रंग लेहु रचि, पुनि सो पियर होझ पात ॥ १२ ॥

 

कुमुदिनि बैन सुनत हिय जरी। पदमिनि उरह आगि जनु परी॥
रँग ताकर हौं जारौं काँचा। आपन तजि जो पराएहि राँचा॥
दूसर करै जाइ दुइ बाटा। राजा दुइ न होहि एक पाटा॥
जेहि के जीउ प्रीति दिढ़ होई। मुख सोहाग सौ बैठे सोई॥
जोबन जाउ, जाउ सो भंवरा, पिय कै प्रीति न जाइ, सो सँवरा॥
एहि जग जौं पिउ करहिं न फेरा। ओहि जग मिलहिं जौ दिन दिन हेरा॥
जीवन मीर रतन जहँ पीऊ। बलि तेहि पिउ पर जोबन जीऊ॥

भरथरि बिछुरि पिंगला, आहि करत जिउ दीन्ह।
हौं पापिनि जो जियत हौ, इहै दोष हम कीन्ह॥ १३ ॥

 

पदमावति! सो कौन रसोई। जेहि परकार न दूसर होई॥
रस दूसर जेहि जीभ बईठा। सो जानै रस खाटा मीठा॥

भँवर बास बहु फूलन्ह लेई। फूल बास बहु भँवरन्ह देई॥
दूसर पुरुष न रस तुइ पावा। तिन्ह जाना जिन्ह लीन्ह परावा॥
एक चुल्लू रस भरै न हीया। जौ लहि नहिं फिर दूसर पीया॥
तोर जीवन जस समुद हिलोरा। देखि देखि जिउ बूड़ै मोरा॥
रंग और नहिं पाइय वैसे। जरे मरे बिनु पाउब कैसे?॥

देखि धनुक तोर नैना मोहि लाग विष बान।
बिहँसि कँवल जो मानै, भँवर मिलावौं आन॥१४॥

 

कुमुदिनि! तुइ बैरिनि नहीं धाई। तुइ मसि बोलि चढ़ावसि आई॥
निरमल जगत नीर कर नामा। जौ मसि परै होइ सो साभा॥
जहँवा धरम पाप नहि दीसा। कनक सोहाग भाँभ जस सीसा॥
जो मसि परे होइ ससि कारी। सो मसि लाइ देसि मोहिं गारी॥
कापर महँ न छूट मसि अंकू। सो मसि लेइ मोहिं देसि कलंकू॥
साम भँवर मोर सूरुज करा। और जो भँवर साम मसि भरा॥
कँबल भँवर रवि देखै आँखी। चंदन बास न बैठे माखी॥

साम समुद मोर निरमल रतनसेन जग सेन।
दूसर सरि जो कहावै सो बिलाइ जस फन॥१५॥

 

पदमिनि! पुनि मसि बोल न बैना। सो मसि देखु दुहूँ तोरे नैना॥
मसि सिंगार, कार सब बोला। मसि क बुंद तिल सह कपोला॥
लोना सोइ जहाँ मसि रेखा। मसि पुतरिन्ह तिन्ह सौं जग देखा॥
जो मसि घालि नयन दुहूँ लीन्ही। सो मसि फेरि जाइ नहिं कीन्ही॥
मसि मुद्रा दुइ कुच उपराहीं। मसि भँवरा जे कँबल भँवाहीं॥
मसि केसहि, मसि भौंह उरेही। मसि बिनु दसन सोह नहिं देही॥
सो कस सेत जहाँ मसि नाहीं?। सो कस पिड न जेही न परछाहीं?॥

अस देवपाल राय मसि, छत्र घरा सिर फेर।
चितउर राज बिसरिगा, गए जो कुंभलनेर॥१६॥

 

सुनि देवपाल जो कुंभलनेरी। पंकजनैन भौंह धनु फेरी॥
सत्रु मोरे पिउ कर देवपालू। सो कित पूज सिंघ सरि भालू?॥

दुःख भरा तन जेत न केसा। तेहि का सँदेस सुनावसि, बेसा?॥
सोन नदी अस मोर पिउ गया। पाहन होइ परै जौ हरुआ॥
जेहि ऊपर अस गरुवा पीऊ। सो कस डोलाए डोलै जीऊ?॥
फरत नैन चेरि सौ छूटीं। भइ कूटन कुटनी तस कूटीं॥
नाक कान काटेन्हि, मसि, लाई। मूँड़ मूँड़ि कै गदह चढ़ाई॥

मुहमद विधि जेहि गरु गढ़ा, का कोई तेहि फूँक।
जेहि के भाग जग थिर रहा, उड़ै न पवन के झूँक॥१७॥