जायसी ग्रंथावली/पदमावत/५०. बादशाह दूती खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २३७ से – २४० तक

 

रानी धरमसार पुनि साजा। बँदि मोख जेहि पावति राजा॥
जावत परदेसी चलि आवहिं। अन्नदान औ पानी पावहिं॥
जोगि जती आवहिं जत कंथी। पूछै पियहि, जान कोइ पंथी॥
दान जौ देत बाँह भई ऊँची। जाइ साह पहँ बात पहूँची॥
पातुरि एक हुति जोगि सवाँगी। साह अखारे हुँत ओहि माँगी॥
जोगिनि भेस वियोगिनि कीन्हा। सींगी सबद मूल तँत लीन्हा॥
पदमिनि पहँ पठई करि जोगिनि। बेगि आनु करि विरह बियोगिनी॥

चतुर कला मनमोहन परकाया परवेश।
आइ चढ़ी चितउर गढ़, होइ जोगिनि के भेस॥१॥

 

माँगत राजबार चलि आई।भीतर चेरिन्ह बात जनाई॥
जोगिनि एक बार है कोई। माँगै जैसि बियोगिनि सोई॥
अबहीं नव जोबन तप लीन्हा। फारि पटोरहि कंथा कीन्हा॥
बिरह भभूत, जटा बैरागी। छाला काँध, जाप कँठलागी॥
मुद्रा स्त्रवन, नाहिं थिर जीऊ। तन तिरसूल, अधारी पीऊ॥
छात न छाँह; धूप जनु मरई। पावँ न पँवरी, भूभुर जरई॥
सिगी सबद, धँधारी करा। जरै सो ठाँव पाँव जहँ धरा॥

किंगरी गहे बियोग बजावै,बारहि बार सुनाव।
नयन चक्र चारिउ दिसि (हेरहिं) दहुँ दरसन कब पाव॥२॥

 

सुनि पदमावति मँदिर बोलाई। पूछा कौन देस तें आई?॥
तरुन वैस तोहि छाज न जोगू। केहि कारन अस कीन्ह बियोगू?'॥
कहिसि बिरह दुख जान न कोई। बिरहिन जान बिरह जेहि होई॥
कंत हमार गएउ परदेसा। तेहि कारन हम जोगिनि भेसा॥
काकर जिउ, जोबन औ देहा। जौ पिउ गयउ, भएउ सब खेहा॥
फारि पटीर कीन्ह मैं कंथा। जहँ पिउ मिलहि लेउँ सो पंथा॥

फिरौं, करौं चहुँ चक्र पुकारा। जटा परीं, का सीस सँभारा? ॥
हिरदय भीतर पिउ बसै, मिलै न पूछौं काहि?
सून जगत सब लागै, ओहि बिनु कछु नहि आहि॥ ३ ॥
स्त्रवन छेद महँ मुद्रा मेला। सबद ओनाउँ कहाँ पिउ खेला॥
तेहि बियोग सिंगी निति पूरौं। बार बार किंगरी लेइ झूरौं॥
को मोहिं लेइ पिउ कंठ लगावै। परम अधारी बात जनावै॥
पाँवरि टूटि चलत, पर छाला। मन न मरै, तन जोबन बाला॥
गइउँ पयाग मिला नहिं पीऊ। करवत लीन्ह, दीन्ह बलि जीऊ॥
जाइ बनारस जारिउँ कया। पारिउँ पिंड न्हाइउँ गया॥
जगन्नाथ जगरन कै आई। पुनि दुबारिका जाइ नहाई॥
जाइ केदार दाग तन, तहँ न मिला तिन्ह आँक।
ढ़ूँढ़ि अयोध्या आइउँ, सरग दुवारी झाँक॥ ४ ॥
गउमुख हरिद्वार फिर कीन्हिउँ। नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ॥
ढूंढ़िउँ बालनाथ कर टीला। मथुरा मथिउँ, न सो पिउ मीला॥
सुरूजकुंड महँ जारिउँ देहा। बद्री मिला न जासौं नेहा॥
रामकुंड, गोमती, गुरुद्वारू। दाहिनबरत कीन्ह कै बारू॥
सेतुबंध, कैलास, सुमेरू। गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू॥
बरम्हावरत ब्रह्मावति परसी। बेनी संगम सीझिउँ करसी॥
नीमषार मिसरिख कुरुक्षेता। गोरखनाथ अस्थान समेता॥
पटना पुरब सो घर घर, हाँड़ि फिरिउँ संसार।
हेरत कहूँ न पिउ मिला, ना कोइ मिलवन्हार॥ ५ ॥
बन बन सब हेरेउँ नव खंडा। जल जल नदी अठारह गंडा॥
चौंसठ तीरथ के सब ठाऊँ। लेत फिरिउँ ओहि पिउ कर नाउँ॥


चहुँ चक्र = पृथ्वी के चारों खूँट में। आहि = है। (४) ओनाउँ = झुकती हूँ, झुककर कान लगाती हूँ। सबद ओनाउँ...खेला = आहट लेने के लिये कान लगाए रहती हूँ कि प्रिय कहाँ गया। झूरौं = सूखती हूँ। अधारी = सहारा देनेवाली। पर = पड़ता है। बाला = नवीन। जगरन जागरण। दाग = दागा, तप्त मुद्रा ली। तिन्ह = उस प्रिय का। आँक = चिह्न, पता। सरगदुवारी = अयोध्या में एक स्थान। (५) गउमुख = गौमुख तीर्थ, गंगोत्तरी का वह स्थान जहाँ से गंगा निकली है। नगरकोट = नागरकोट, जहाँ देवी का स्थान है। कटि रसना। दीन्हिउँ = जीभ काटकर चढ़ाई। बालनाथ कर टीला = पंजाब में सिंध और झेलम के बीच पड़नेवाले नमक के पहाड़ों की एक चोटी। मीला = मिला। सुरुजकुंड = अयोध्या, हरिद्वार आदि कई तीर्थों में इस नाम के कुंड हैं। बद्री = बदरिकाश्रम में। कैबारू = कई बार। अलकपुर = अलकापुरी। ब्रह्मावति = कोई नदी। करसी =करीषाग्नि में; उपलों की आग में। हाँड़िफिरिउँ

= छान डाला; ढूंढ़ डाला, टटोल डाला।

दिल्ली सब देखिउ तुरकानू। औ सुलतान केर बँदिखानू॥
रतनसेन देखिउँ बँदि माहाँ। जरै धूप, खन पाव न छाहाँ॥
सब राजहिं बाँधे औ दागे। जोगिनि जान राज पग लागे॥
का सो भोग जेहि अंत न केऊ। यह दुख लेइ सो गऐउ सुखदेऊ॥
दिल्ली नावँ न जानहु ढीली। सुठि बँदि गाढ़ि निकस नहि कीली॥
देखि दगध दुख ताकर, अबहुँ कया नहिं जीउ।
सो धनि कैसे दहुँ जियै, जाकर बँदि अस पीउ? ॥ ६ ॥
पदमावति जौ सुना बँदि पीऊ। परा अगिनि महँ मानहुँ घीऊ॥
दौरि पायँ जोगनि कै परी। उठी आगि अस जोगिने जरी॥
पायँ देहि, दुइ नैनन्ह लाऊँ। लेइ चलु तहाँ कंत जेहि ठाऊँ॥
जिन्ह नैनन्ह तुइ देखा पीऊ! मोहिं देखाउ, देहुँ बलि जीऊ॥
सत औ धरम देहुँ सब तोहीं। पिउ कै बात कहै जौ मोहीं॥
तृइ मोर गुरू, तोरि हौं चेली। भूली फिरत पंथ जेहि मेली॥
दंड एक माया करु मोरे। जोगिन होउँ चलौं सँग तोरे॥
सखिन्ह कहा, सुनु रानी, करहु न परगट भेस।
जोगी जोगबै गुपुत मन, लेइ गुरु कर उपदेस॥ ७ ॥
भीख लेहु, जोगिनि! फिर माँगू। कंत न पाइय किए सवाँगू॥
यह बड़ जोग बियोग जो सहना। जेहुँ पीउ राखै तेहुँ रहना॥
घर ही महँ रहु भई उदासा। अँजुरी खप्पर, सिंगी साँसा॥
रहै प्रेम मन अरुझा गटा। बिरह धँधारि, अलक सिर जटा॥
नैन चक्र हेरै पिउ पंथा। कया जो कापर सोई कंथा॥


(३) राज पग लागे = राजा ने प्रणाम किया। न केउ = पास में कोई न रह जाय । (यह दु:ख ) ले गएउ = लेने या भोगने गया। सुखदेऊ = सुख देनेवाला तुम्हारा प्रिय। दिल्ली नावँ = दिल्ली या दिल्ली इस नाम से (पृथ्वीराज रासो में किल्ली ढिल्ली कथा है)। सुठि = खूब। कीलो कारागार के द्वार का अर्गल। अबहुँ कया नहिं जीउ = अब भी मेरे होश ठिकाने नहीं।

(७) माया = मया, दया। (८) फिरि माँगू = जाओ, और जगह घूम- कर माँगो। सवाँग = स्वाँग, नकल, आडंबर। यह बड़..सहना = वियोग का जो सहना है यही बड़ा भारी योग है। जेहूँ = जैसे, ज्यों, जिस प्रकार। तेहूँ = त्यों, उस प्रकार। सिंगी साँसा = लंबी साँस लेने को ही सिंगी फूकना (बजाना) समझो। गटा = गटरमाला। रहै प्रेम...गटा = जिसमें उलझा हुआ मन है उसी प्रेम को गटरमाला समझो। छाल = मृगछाला। तँत = तंत, तत्व या मंत्र। पाँचौ...भूत होहीं = शरीर के पंचभूतों को ही रमी हुई भभूत या भस्म समझो। पँवरि पाँच पर रेहु = पाँव पर जो धूल लगे उसी

को खड़ाऊँ समझ।

छाला भूमि, गगन सिर छाता। रंग करत रह हिरदय राता॥
मन माला फेरै तँत ओही। पाँचौ भूत भसम तन होहीं॥
कंडल सोइ सुनु पिउ कथा, पँवरि पाँव पर रेहु।
दंडक गोरा बादलहि जाइ अधारी लेहु॥ ८ ॥


















अधारी = अड्डे के आकार की लकड़ी जिसे सहारे के लिये साधु रखते हैं। अधारी लेहु = सहारा लो।