जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३९. राघवचेतन दिल्ली गमन खंड

जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १७८ से – १७९ तक

 

(३९) राघवचेतन दिल्ली गमन खंड

राघव चेतन कीन्ह पयाना। दिल्ली नगर जाइ नियराना॥
आाइ साह के बार पहूँचा। देखा राज जगत पर ऊँचा॥
छत्तिस लाख तुरुक असवारा। तीस सहस हस्ती दरबारा॥
जहँ, लगि तपै जगत पर भानू। तहँ लगि राज करै सुलतानू॥
चहूँ खंड के राजा आवहिं। ठाढ़ झुराहि, जोहार न पावहिं॥
मन तेवान कै राघव भूरा। नाहि उबार, जीउ डर पूरा॥
जहँ झुराहिं दीन्हे सिर छाता। तहँ हमार को चालै बाता॥

वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर?
अब खुर खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर ॥ १ ॥

 

बादसाह सब जाना बूझा। सरग पतार हिये महँ सूझा॥
जो राजा अस सजग न होई। काकर राज, कहाँ कर कोई॥
जगत भार उन्ह एक सँभारा। तौ थिर रहै सकल संसारा॥
औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा। सब काहू पर दिस्टि पहूँचा॥
सब दिन राजकाज सुख भोगी। रैन फिरै घर घर होइ जोगी।
राव रंक जावत सब जाती। सब कै चाह लेइ दिन राती॥
पंथी परदेसी जत आवहिं। सब कै चाह दूत पहुँचावहिं॥

 एहू बात तहँ पहुँची, सदा छत्र सुख छाहँ!
बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाहँ॥ २ ॥

 

 मया साह मन सुनत भिखारी। परदेसी को? पूछु हँकारी॥
हम्ह पुनि जाना है परदेसा। कौन पंथ गवनव केहि भेसा? ॥
दिल्ली राज चिंत मन गाढ़ी। यह जग जैस दूध के साढ़ी॥
सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा। मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा॥
एहि दहि ले का रहै ढिलाई। साढ़ी काढ़ दही जब ताईं॥
एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए। कै कै गरब खेह मिलि गए॥
रावन लंक जारि सब तापा। रहा न जीवन, आव बुढ़ापा॥

भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाटँ।
अज्ञा भई हँकारहु, धरती धरै लिलाट॥३॥

 

 राघव चेतन हुत जो निरासा। ततखत बेगि बोलावा पासा॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा। चमकत नग कंकन कर दीसा॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ। तू मंगन कंकन का बाहाँ॥
राघव फेरि सीस भुइँ धरा। जुग जुग राज भानु कै करा॥
पदमिनि सिंघलदीप के रानी। रतनसेन चितउरगढ़ आनी॥
कवँल न सरि पूजै तेहि बासा। रूप न पूजै चंद अकासा॥
जहाँ कवँल ससि सूर न पूजा। केहि सरि देउँ, और को दूजा? ॥

सोइ रानी संसार मनि दछिना कंकन दीन्ह।
अछरो रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥ ४ ॥

 

 सुनि कै उतर साहि मन हँसा। जानहु बीजु चमकी परगसा।
काँच जोग जेहि कंचन पावा। मंगन ताहि सुमेरु चढ़ावा॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची। अबहु सँभारि बात कहु साँची॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं। जेहि के सरि सूरुज ससि नाहीं? ॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे। सातौ दीप जहाँ कर जोरे।
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी। सो मोरे सोरह सै रानी॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासो। देखि लीन होइ लीन बिलासी॥

चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रवि तपै अकास।
जो पदमिनि तौ मोरे, अछरी तौ कबिलास॥ ५ ॥

 

तुम बड राज छत्रपति भारी। अनु बाम्हन मैं अहाँ भिखारी॥
चारिउ खंड भोख कहँ बाजा। उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा॥
धरमराज औ सत कलि माहाँ। भूठ जो कहै जीभ केहि पाँहा ?॥
किछु जो चारी सब किछु उपराहीं। ते एहि जंबूदीपहिं, नाहीं!॥
पदमिनि, अंमृत, हंस, सदूरू। सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू॥
सातौ दीप देखि हौं आवा। तब राघव चेतन कहवावा॥
आज्ञा होइ, न राखौं धोखा। कहौं सबै नारिन्ह गुन दोषा॥

 इहाँ हस्तिनी, संखिनी, औ चित्विनि बहु बास।
कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भंवर फिरै जेहि पास? ॥ ६ ॥