उपयोगितावाद
जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवादक उमराव सिंह कारुणिक

मेरठ: ज्ञानप्रकाश मंदिर, पृष्ठ ३६ से – ६९ तक

 

दूसरा अध्याय।

उपयोगितावाद का अर्थ।

बहुत से यथेष्ट ज्ञान न रखने वाले भूल से यह मान लेते हैं कि उपयोगितावादी उपयोगिता शब्द को संकुचित तथा बोलचाल के अर्थ में-जिस में उपयोगिता शब्द आनन्द का विरोधी है-लेते हैं। कैसे आश्चर्य की बात है कि दूसरी ओर कुछ मनुष्य उपयोगितावाद पर इस से उल्टा आक्षेप करते हैं। वे कहते हैं कि उपयोगितावादी प्रत्येक बात का आनन्द-एकमात्र आनन्द-ही की दृष्टि से विचार करते हैं। जिन्होंने इस विषय पर कुछ भी विचार किया है वे जानते हैं कि एपीक्यूरस (Epicurus) से लेकर बैन्थम (Bentham) तक जितने उपयोगितावाद के पोषक हुवे हैं उन में से किसी का भी यह आशय नहीं था कि उपयोगिता तथा आनन्द परस्पर विरोधी हैं। प्रत्युत् उन का कहना था कि उपयोगिता का मतलब आनन्द-प्राप्ति तथा दुःख से बचना है। उन लोगों ने उपयोगी को सुखद तथा सुन्दर का विरोधी दिखाने की जगह सदैव यही कहा है कि उपयोगी के अर्थ ही ये हैं कि अन्य बातों के साथ२ सुखद तथा सुन्दर भी हो। किन्तु फिर भी जन साधारण जिन में बहुत से लेखक भी है-जो कि केवल समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं ही में लेख नहीं लिखते हैं वरन् दार्शनिक पुस्तकों के भी रचयिता हैं-इस विषय पर विचार करते हुवे यही मामूली भूल करते हैं। उपयोगितावाद के विषय में बिना कुछ विचार किये ही ये लोग उपयोगिता शब्द को पकड़ लेते हैं और मान बैठते हैं कि यह सिद्धान्त आनन्द के कतिपय रूपों का तथा सौन्दर्य, आभूषण या चित्तरञ्जन का विरोधी है। इस प्रकार की भद्दी भूल इस सिद्धान्त की उपेक्षा करने ही की दृष्टि से नहीं की जाती वरन् कभी कभी इस सिद्धान्त की प्रशंसा करने में भी ऐसी ही भूल की जाती है मानो इस सिद्धान्त का लक्ष्य साधारण बातों या क्षणिक आनंद को महत्त्व देना है।

उस सम्प्रदाय का, जो उपयोगितावाद या सब से अधिक आनन्द के सिद्धान्त को आचार शास्त्र की भित्ति मानता है, कहना है कि जो काम जितना आनन्द की ओर ले जाता है उतना ही अच्छा है तथा जो काम आनन्द से जितनी विपरीत-दशा में ले जाता है उतना ही बुरा है। आनन्द से मतलब है सुख तथा कष्ट का अभाव। आनन्द के अभाव का अर्थ है कष्ट तथा सुख का न होना। इस सिद्धान्त द्वारा स्थिर किये गये आचार के आदर्श को साफ़ तौर से समझाने के लिये बहुत सी बातें बताने की आवश्यकता है। विशेषतया इस बात का स्पष्टीकरण होना चाहिये कि कौन कौन सी चीज़ों को यह सुखद समझता है तथा कौन कौन सी चीज़ों को दुःखद। किन्तु इन बातों की व्याख्याओं का जीवन के उस सिद्धान्त पर-जो आचार के इस सिद्धान्त का आधार है-कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। अर्थात् आनन्द तथा दुःख से मुक्ति ही एक मात्र इष्ट लक्ष्य है और सारे इष्ट पदार्थ (जिनकी संख्या उपयोगितावाद की स्कीम में भी उतनी ही अधिक है जितनी और किसी स्कीम में) इसही कारण इष्ट है कि या तो उनमें आनन्द है या उन के द्वारा आनन्द बढ़ता है तथा कष्ट कम होता है।

जीवन का इस प्रकार का सिद्धान्त बहुत से मनुष्यों के मस्तिष्क में चक्कर लगाता है। इन मनुष्यों में कुछ ऐसे भी हैं जो इस सिद्धान्त के घोर विरोधी हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि यह मान लेना, कि जीवन का आनन्द से उच्चतर (उन्हीं लोगों के अनुसार) कोई लक्ष्य नहीं है, जिस की प्राप्ति की हम इच्छा करें तथा जिसके लिये हम काम करें, बिल्कुल ही नीचता है। उन के कथनानुसार यह सिद्धान्त शूकरों का है। प्राचीन समय में भी प्रतिघृणा दिखाने के लिये एपीक्यूरस (Epicurus) के अनुयायियों की भी शूकरों से तुलना की गई थी। इस सिद्धान्त के आधुनिक पोषकों पर भी आजकल जर्मन, फ्रांसीसी तथा अंग्रेज़ विरोधी इस ही प्रकार के नुक्के छोड़ते हैं।

इस प्रकार के आक्षेप किये जाने पर एपीक्योरियन लोगों (Epicureans) ने सदैव यही उत्तर दिया है कि-हम लोग मानुषिक प्रकृति को नीच नहीं प्रदर्शित करते। हमारे विरोधियों ही पर यह दोष घटित होता है जो यह समझते हैं कि मनुष्यों की दृष्टि में उस आनन्द से अधिक और कोई आनन्द नहीं हो सकता जो शूकरों की दृष्टि में है। यदि यह कल्पना ठीक होती कि मनुष्य उन्हीं आनन्दों का अनुभव कर सकते हैं जिन का अनुभव शूकरों को होता है तो उस दशा में एपीक्योरियन लोगों (Epicureans) पर किये गये आक्षेपों का कुछ उत्तर नहीं दिया जा सकता था। किन्तु फिर यह आक्षेप किसी प्रकार का इलज़ाम नहीं रहता। क्योंकि यदि मनुष्य और शूकर दोनों के आनन्दोद्गार एक होते तो जीवन का जो नियम एक के लिये ठीक होता वही दूसरे के लिये भी ठीक होता। एपीक्योरियन लोगों के जीवन की जानवरों के जीवन से तुलना करना मनुष्य-जीवन को नीच मानना है क्योंकि जानवर के आनन्द मनुष्य की तुष्टि नहीं कर सकते। जानवर की भूख से मनुष्य की अनुभव-शक्तियां अधिक उच्च हैं। जब एक बार मनुष्य को उन शक्तियों का ज्ञान हो जाता है तो वह किसी चीज़ को आनन्द नहीं मानता जब तक कि उस चीज़ से उन शक्तियों की तुष्टि न हो। निस्सन्देह मेरा यह विचार नहीं है कि एपीक्योरियन लोग (Epicureans) उपयोगितावाद के सिद्धान्त से अपने अनुक्रमों की अनुसंधि बनाने में बिल्कुल निर्दोष थे। पर्याप्त रीति से ऐसा करने के लिये बहुत से तितिक्षावाद (Stoicisim) तथा ईसाई धर्म के तत्त्वों को सम्मिलित करना पड़ेगा। किन्तु ऐसे किसी एपीक्योरियन (Epicurean) सिद्धान्त का पता नहीं है जो मस्तिष्क, अनुभव तथा कल्पना से सम्बन्ध रखने वाले आनन्दों को केवल संवेदना जनक आनन्दों से ऊंचा दर्जा नहीं देता है। फिर भी यह बात माननी पड़ेगी कि साधारणतया उपयोगितावादी लेखकों ने शारीरिक आनन्दों की अपेक्षा मानसिक आनन्दों को इस कारण ऊंचा दर्जा दिया है कि वे अपेक्षाकृत अधिक कालतक स्थिर रहने वाले, सुरक्षित तथा सस्ते होते हैं-अर्थात्मा नसिक आनन्दों को ऊंचे दर्जे पर उन के असली गुणों की अपेक्षा अन्य कारणों की वजह से रक्खा है। और इन सब बातों में उपयोगितावादियों ने अपने दावे को भली भांति प्रमाणित कर दिया है। किन्तु उपयोगितावादी लोग अपने दावे को और भी उच्च आदर्श रखकर बिना किसी प्रकार की परस्पर विरोधात्मक बात कहे हुवे प्रमाणित कर सकते थे। इस बात को मानना उपयोगितावाद के विरुद्ध नहीं है कि कुछ प्रकार के आनन्द अधिक इष्ट तथा मूल्यवान हैं। यह बात बिल्कुल बेतुकी मालूम पड़ती है कि और सब चीज़ों पर विचार करते समय तो गुण तथा परिमाण दोनों पर विचार करें और आनन्द का विचार करते समय एकमात्र परिमाण ही को ध्यान में रक्खें।

यदि प्रश्न किया जाय कि भिन्न २ आनन्दों में गुण का क्या भेद हो सक्ता है तथा परिमाण के विचार को छोड़ कर और किस प्रकार एक आनन्द दूसरे आनन्द की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हो सकता है तो ऐसे प्रश्न का एक ही उत्तर हो सकता है। वह उत्तर यह है:-यदि ऐसे सब मनुष्य या उन में से अधिकतर मनुष्य जो दो आनन्दों का अनुभव कर चुके हैं बिना किसी प्रकार के नैतिक दबाव के उनमें से एक आनन्द को दूसरे की अपेक्षा अधिक अच्छा आनन्द बतावें तो वही आनन्द अधिक इष्ट है। यदि वे मनुष्य जो दो आनन्दों से परिचित हैं एक आनन्द को, यह बात जानते हुवे भी कि उस आनन्द के प्राप्त करने में अधिक अशान्ति का सामना करना पड़ेगा, दूसरे आनन्द से अच्छा समझे और उस आनन्द को दूसरे आनन्दों के किसी भी परिमाण के लिये, जिस का कि वे उपभोग कर सकते हैं, छोड़ने के लिये तैयार न हों तो ऐसी दशा में हम उस इष्ट आनन्द को गुण की दृष्टि से इतना ऊँचा दर्जा देने में ठीक हैं जिस से कि तुलना करते समय परिमाण का विचार उपेक्षणीय रह जाय।

अब यह निर्विवाद बात है कि जो मनुष्य दोनों आनन्दों से बराबर परिचित हैं तथा दोनों के उपभोग करने की बराबर सामर्थ्य रखते हैं वे उस आनन्द को अच्छा समझते हैं जिस का उपभोग करने में उन को अपनी उच्चतर शक्तियों को काम में लाना पड़ता है। यदि किसी मनुष्य से कहा जाय कि अगर तुम जानवर बनना स्वीकार करो तो तुम को जितना आनन्द जानवर अनुभव कर सकता है उतने आनन्द को अनुभव करने का पूर्ण अवसर दिया जायगा, तो वह मनुष्य कभी भी इस प्रलोभन के कारण जानवर बनना स्वीकार न करेगा। कोई बुद्धिमान् मनुष्य मूर्ख बनना न चाहेगा, कोई पढ़ा लिखा मनुष्य पागल बनना पसन्द न करेगा, कोई सहानुभूत रखने वाला तथा अन्तरात्मा के आदेशानुसार कार्य करने वाला मनुष्य खुदग़र्ज़ तथा कमीन बनने के लिये तैयार न होगा, चाहे उनसे कितना ही क्यों न कहा जाय कि मूर्ख, पागल तथा बदमाश अपनी दशा में उनकी अपेक्षा अधिक सन्तुष्ट हैं। ऐसे आदमी कभी भी अपने विशेष आनन्द को सर्व साधारण द्वारा उपयुक्त आनन्द के लिये तिलांजलि न देंगे। यदि कभी ऐसा करने का विचार भी करेंगे तो बहुत ही दुःखित अवस्था में। ऐसे समय में वे उस दुःख से बचने के लिये अन्य किसी भी दशा में-चाहे वह कैसी ही घृणित क्यों न हो-परिवर्तित होना चाहते हैं। उच्च विकाश प्राप्त मनुष्यों को सुखी होने के लिये अधिक बातों की आवश्यकता है। वे निस्सन्देह साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक कारणों से दुःखी हो सकते हैं। किन्तु ये सब असुविधायें होते हुवे भी वे कभी साधारण विकाश-प्राप्त मनुष्यों की श्रेणी में आना पसन्द न करेंगे। हम उनके ऐसा न करने का चाहे कुछ कारण क्यों न बतावें। चाहे हम उन के ऐसा न करने के कारण उनका घमण्ड बतावें-मनुष्य की उच्चतम तथा नीचतम दोनों प्रकार की भावनाओं के लिये इस शब्द का बेसोचे समझे प्रयोग किया जाता है। चाहे हम इस बात का कारण उनकी स्वातन्त्र्य-प्रियता तथा व्यक्तिगत स्वाधीनता ठहरावें। चाहे हम इसका कारण उनका शक्ति तथा आवेश का प्रेम-जिन दोनों बातों का ऐसा बनना रुचिकर न होने देने में बहुत कुछ भाग है-ठहरावें। किन्तु मान-मर्यादा के विचार को इस बात का कारण बताना अधिक उपयुक्त होगा। मान-मर्यादा का ख्य़ाल थोड़ा बहुत प्रत्येक मनुष्य को होता है। हां! यह बात ठीक है कि सब मनुष्यों को बराबर नहीं होता। अधिक विकाश प्राप्त मनुष्यों को मान मर्यादा का ख्याल अधिक होता है। इस कारण ऐसे मनुष्य कभी भी ऐसी बात की इच्छा नहीं कर सकते जिस से उनकी मान-मर्यादा में बट्टा आने की संभावना हो। यह बात दूसरी है कि किसी कारण विशेष से ऐसे मनुष्य थोड़ी बहुत देर के लिये अपनी मान-मर्यादा का ख्याल भूल जायें। जिन मनुष्यों का विचार है कि उच्च-विकाश प्राप्त मनुष्य ऐसा करने में अपने सुख की कुरबानी करते हैं-अर्थात् उच्च-विकाश प्राप्त मनुष्य और सब बातें बराबर होने पर साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सुखी नहीं हैं-वे लोग सुख तथा तुष्टि के दो बहुत भिन्न २ भावों को गड्ड मड्ड कर देते हैं। यह बात निर्विवाद है कि उस मनुष्य की इच्छाओं की पूर्णरूप से तुष्टि हो जाने की बहुत अधिक संभावना है जो बहुत थोड़ी वस्तुओं को आनन्द समझता है। उच्च विकाश-प्राप्त मनुष्य समझेगा कि संसार की इस दशा में जितने आनन्द हैं अपूर्ण हैं। किन्तु ऐसा मनुष्य सह्य होने की दशा में सुखों की अपूर्णताओं को सहन करना सीख सकता है। ऐसा मनुष्य कभी ऐसे मनुष्य से ईर्षा नहीं करेगा जो वास्तव में इन अपूर्णताओं से अपरिचित है क्योंकि वह जानता है कि अपूर्णताओं से अपरिचित मनुष्य उस लाभ को अनुभव नहीं कर सकता जो अपूर्णताओं से परिचित होने की दशा में होता है। सन्तुष्ट सुवर से असन्तुष्ट मनुष्य होना अच्छा है तथा सन्तुष्ट मूर्ख से असन्तुष्ट सुक़रात (Socrates) होना अच्छा है। यदि मूर्खों और सुवरों का ऐसा विचार नहीं है तो इस का कारण यही है कि वे सवाल के एक पहलू ही को जानते हैं और विकाश-प्राप्त मनुष्य सवाल के दोनों पहलुओं से परिचित होता है।

यह आक्षेप किया जा सकता है कि बहुत से ऐसे मनुष्य भी हैं जो उच्चतर आनन्दों के उपभोग करने की योग्यता रखने पर भी कभी २ प्रलोभन के कारण उनसे नीच कोटि के आनन्दों का उपभोग करने में लग जाते हैं। किन्तु इस बात से हमारे कथन की पुष्टि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। बहुधा चरित्र की दुर्बलता के कारण मनुष्य शीघ्र प्राप्त होने वाले आनंद के मुक़ाबले में उससे देर में प्राप्त होने वाले किन्तु उच्चतर आनन्द को छोड़ देते हैं। जब दो शारीरिक आनन्दों में इस प्रकार का मुक़ाबला होता है तो भी ऐसा ही होता है। शारीरिक तथा मानसिक आनन्दों के मुक़ाबले में भी यही बात देखने में आती है। मनुष्य ऐसे आनन्दों का उपभोग करते हैं जो स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद हैं यद्यपि वे जानते हैं कि स्वास्थ्य-रक्षा अधिक अच्छी है। फिर यह भी आक्षेप किया जा सकता है कि बहुत से मनुष्य जवानी के जोश में तो बड़े उदार होते हैं किन्तु जूं जूं आयु बढ़ती जाती है वे सुस्त तथा स्वार्थी होते जाते हैं। परन्तु मेरा यह विश्वास नहीं है कि ऐसे मनुष्य जिन की प्रकृति में यह साधारण परिवर्तन हो जाता है, जान बूझ कर उच्च आनन्दों के मुक़ाबले में निम्न कोटि के आनन्दों को पसन्द कर लेते हैं। मेरा विश्वास है कि निम्न कोटि के आनन्दों के उपभोग में संलग्न होने से पहिले ही वे उच्च कोटि के आनन्दों को अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं। उच्च भावों की शक्ति बहुत से मनुष्यों में नाज़ुक पौधा होती है जो केवल विरुद्ध असर पड़ने ही से नहीं वरन् सहारा न मिलने ही के कारण बड़ी आसानी से नष्ट हो जाती है। बहुत से युवा पुरुषों में, यदि उन का पेशा जिस के करने के लिये वे विवश हुवे हैं तथा उन का समाज इस प्रकार की शक्ति का विरोधी है, यह शक्ति शीघ्र ही मृतावस्था को प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार मनुष्य अपनी मानसिक रुचियों (Intellectual tastes) को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार समय तथा अवसर न मिलने के कारण उच्च भावनाओं को भी तिलाञ्जलि दे देते हैं और निम्न कोटि के आनन्दों का उपभोग करने में लग जाते हैं। ऐसा करने का कारण यह नहीं होता है कि वे निम्न कोटि के आनन्दों को जान बूझ कर अच्छा समझने लगते हैं। उनके ऐसा करने का कारण यही होता है कि या तो उनकी निम्न कोटि के आनन्दों तक ही पहुंच होती है या वे उच्च कोटि के आनन्दों का उपभोग करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या कभी किसी ने दोनों प्रकार के आनन्दों का उपभोग करने में समर्थ होने पर भी निम्न कोटि के आनन्दों को उच्च कोटि के आनन्दों पर तरजीह दी है? हां यह तो देखा गया है कि बहुत से मनुष्यों ने दोनों प्रकार के आनन्दों को मिलाना चाहा है और वे अपने इस प्रयत्न में असफल रहे हैं।

एक मात्र अधिकारी पंडितों के इस निर्णय का मेरे विचार में कोई अपील नहीं हो सकता। इस विषय पर-कि दो आनंदों में या दो प्रकार के रहन सहन के ढंगों में, बिना किसी प्रकार की नैतिक दृष्टि से विचार किये हुवे, तथा उनके परिणामों की ओर कुछ ध्यान न देते हुवे कौनसा आनन्द अधिक अच्छा है या कौनसा ढंग अधिक आनन्दप्रद है-उन मनुष्यों के निर्णय ही को, जो दोनों प्रकार के आनन्दों तथा रहन सहन के ढंगों का पूर्ण ज्ञान रखते हों, अन्तिम निर्णय समझना चाहिये। मतभेद होने की दशा में बहुमत से निर्णय होना चाहिये। आनन्दों के गुणों के विषय में भी इस निर्णय को मानने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं चाहिये क्योंकि और कोई ऐसा दरबार नहीं है जहां परिमाण तक के विषय में निर्णय कराने के लिये जाया जाय। दो कष्टों में कौनसा कष्ट अधिक है या दो आनन्दों में कौनसा आनन्द अधिक अच्छा है-इस बात का निर्णय हम इस के अतिरिक्त और कैसे कर सकते हैं कि उन मनुष्यों की, जो दोनों प्रकार के दुःखों तथा सुखों से परिचित हों, सम्मति लें। न तो आनन्द ही समजातिक हैं और न कष्ट ही। आनन्द के मुकाबले में कष्ट सदैव विविध जातिक है। तजुरबेकार मनुष्यों के अनुभव तथा निर्णय की सहायता के बिना और कैसे कहा जा सकता है कि अमुक आनन्द को प्राप्त करने में इतने कष्ट की कुछ परवाह न करनी चाहिये। इस कारण जब अधिकारी मनुष्यों का अनुभव और निर्णय बतावें कि उच्च शक्तियों द्वारा प्राप्त आनन्द, परिमाण के प्रश्न को छोड़ कर, उन आनन्दों से जिन का अनुभव जानवर भी कर सकते हैं अधिक अच्छे हैं तो उच्च शक्तियों द्वारा प्राप्त आनन्दों को ऊंचा दर्जा देना ही ठीक है।

मैं ने इस विषय की इस कारण विस्तृत विवेचना की है क्योंकि बिना इस के यह बात अच्छी तरह समझ में नहीं आ सकती कि 'उपयोगिता या सुख' किस प्रकार मानुषिक आचार के नियमों का पथ प्रदर्शक है। किन्तु उपयोगितावाद के आदर्श को मानने के लिये इस बात का मानना अनिवार्य नहीं है क्योंकि उपयोगितावाद का यह आदर्श नहीं है कि कर्ता को सबसे अधिक आनन्द मिले। उपयोगितावाद का आदर्श तो यह है कि सब को मिला कर सब से अधिक आनन्द मिले। इस बात में सन्देह हो सकता है कि क्या उच्च आचारवाला मनुष्य अपने उच्च आचार के कारण सदैव अधिक सुखी रहता है। किन्तु यह बात निस्सन्दिग्ध है कि उच्च आचार वाला मनुष्यों को अधिक सुखी बनाता है और इस कारण संसार को ऐसे मनुष्य से बहुत लाभ पहुंचता है। इस कारण उपयोगितावाद उस ही समय अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है जब कि सर्व साधारण आचार की उच्चता के महत्व को समझें।

सब से अधिक आनन्द के सिद्धान्त के अनुसार, जैसा कि ऊपर समझाया जा चुका है, अन्तिम लक्ष्य, जिस के कारण और सब बातें इष्ट हैं (चाहे हम अपने भले का विचार करें चाहे दूसरों के भले का) ऐसी स्थिति है जो यथा संभव दुःखों से मुक्त है तथा गुण तथा परिमाण दोनों की दृष्टि से इतनी अधिक आनन्दमय है जितनी कि हो सकती है। गुण की कसौटी तथा परिमाण के मुकाबले में उस को नापने का नियम यही है कि वही आनन्द अधिक अच्छा है जिस के पक्ष में उन मनुष्यों की सम्मति हो जो अपने ज्ञान तथा निरूपण शक्ति के कारण दोनों की तुलना करने के योग्य हों। उपयोगितावाद के अनुसार मानुषिक कार्यों का यह लक्ष्य होना चाहिये। इस कारण आचार का आदर्श भी यही होना चाहिये अर्थात् आचार से सम्बन्ध रखने वाले नियम ऐसे होने चाहियें जिनके अनुसार चलने से मनुष्य यथा सम्भव अधिक आनन्द प्राप्त कर सकें; यही नहीं बल्कि सारी मनुष्य जाति वरन् यथा सम्भव समग्र ज्ञान-ग्रहणशील सृष्टि यथा सम्भव आनन्दमय स्थिति को प्राप्त हो सके।

इस सिद्धान्त का विरोधी एक और सम्प्रदाय भी है। इस सम्प्रदाय का कहना है कि किसी भी रूप में आनन्द मानुषिक जीवन तथा कार्यों का सविवेक लक्ष्य नहीं हो सकता, क्योंकि पहिली बात तो यह है कि आनन्द अप्राप्य है। व्यङ्ग के ढंग से यह लोग पूछते हैं, "तुझ को सुखी रहने का क्या अधिकार है?" इस प्रश्न को कुछ तोड़ मरोड़ कर कारलायल (Corlyle) ने पूछा था, "कुछ देर पहिले तुझको अस्तित्व में आने ही का क्या अधिकार था?" इसके बाद वे कहते हैं कि मनुष्य का काम बिना आनन्द के चल सकता है। सारे उच्च आशय मनुष्यों ने इस बात को अनुभव किया है। त्याग का पाठ पढ़े बिना वे उच्च आशय बन ही नहीं सकते थे। इन लोगों के अनुसार इस पाठ को समझना तथा इसके अनुसार कार्य करना सब गुणों की आरम्भिक तथा आवश्यक शर्त है।

इनमें से पहिला आक्षेप यदि कुछ वास्तविकता लिये होता तो बड़ा वज़नदार होता। क्योंकि यदि सुख मनुष्यों के लिये अप्राप्य है तो सुख-प्राप्ति आचार या अन्य किसी सविवेक कार्य का लक्ष्य नहीं हो सकती। यद्यपि ऐसी दशा में भी उपयोगितावाद की पुष्टि में थोड़ा बहुत कहा जा सकता था, क्योंकि उपयोगिता सिद्धान्त केवल सुख-प्राप्ति की चेष्टा ही नहीं है वरन् कष्ट का कम करना भी है। इस कारण यदि सुख-प्राप्ति की आशा आकाश-कुसुम पाने की आशा ही के समान होती तो भी उस समय तक के लिये, जब तक कि मनुष्य जाति जीवित रहना चाहे और आत्म-हत्या की शरण न ले, उपयोगितावाद को बहुत कुछ काम करना रहता और इस सिद्धांत की बहुत कुछ आवश्यकता रहती। इस बात का ज़ोर से कहना-कि मानुषिक जीवन में सुखी होना असम्भव है, यदि मनमानी बात बकना नहीं है तो भी बात को बढ़ाकर कहना अवश्य है। यदि आनन्द से यह मतलब है कि निरन्तर सुखप्रद आवेश रहे तो यह प्रत्यक्ष ही है कि ऐसा होना असम्भव है। बहुत अधिक हर्ष की उमंग केवल कुछ क्षण रहती है या कुछ दशाओं में कुछ रुकावट के साथ कुछ घन्टे या कुछ दिन रहती है। इस बात से वे तत्वज्ञानी, जो आनन्द को जीवन का उद्देश्य बताते हैं, उतने ही परिचित थे जितने परिचित वे लोग हैं जो उनकी ख़ुश्की उड़ाते हैं। जिस आनन्द से उनका मतलब था वह उमङ्ग में अपने आप को भूल जाने का जीवन नहीं था। उन का मतलब ऐसे जीवन से था जिस में ऐसे अवसर आते रहें तथा बहुत से तथा भिन्न २ प्रकार के सुखों का अनुभव होता रहे तथा कभी कभी-सो वह भी क्षणिक-कष्ट का अनुभव हो। ऐसे मनुष्य जीवन से उस से अधिक आनन्द पान के इच्छुक नहीं थे जितना कि जीवन से प्राप्त होसकता है। जिन मनुष्यों को ऐसे जीवन के उपभोग करने का सौभाग्य प्राप्त हुवा है उन्होंने सदैव ऐसे जीवन को सुखमय समझा है, और अब भी बहुत मनुष्य अपने जीवन के अधिकांश में इस प्रकार के सुख का अनुभव करते हैं। आधुनिक रद्दी शिक्षा तथा दूषित सामाजिक बन्धनों ही के कारण सब मनुष्य इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने में असमर्थ हैं।

स्यात् अब विरोधी यह आक्षेप करें कि क्या मनुष्य सुख को जीवन का लक्ष्य समझते हुवे, इतने थोड़े सुख से सन्तुष्ट हो जायेंगे। किन्तु बहुत से मनुष्य इस से भी कम सुख से सन्तुष्ट रहे हैं। सन्तुष्ट जीवन के मुख्य अवयव दो मालूम पड़ते हैं-शान्ति तथा आवेश। कभी २ इन में से एक भी पर्याप्त हो जाता है। बहुत शान्ति होने पर मनुष्य थोड़े ही सुख से सन्तुष्ट हो जाता है तथा बहुत आवेश होने पर अधिक दुःख सह सकता है। निस्सन्देह कोई ऐसी समवायिक (Inherent) बात नहीं है जिसके कारण मनुष्य जाति के अधिकांश को इन दोनों का मिलाना असम्भव हो क्योंकि ये दोनों बातें इतनी कम असङ्गत हैं कि दोनों में प्राकृतिक मेल है। इन में से एक का बढ़ाना दूसरी की तैयारी और उस की इच्छा पैदा करना है। केवल वे ही मनुष्य जिनमें आलस्य हद से ज्यादा बढ़ गया है शान्ति के बाद आवेश की इच्छा नहीं करते। केवल वे ही मनुष्य जिनको आवेश की आवश्यकता का मर्ज़ ही होगया है आवेश के बाद की शान्ति को बद मज़ा समझते हैं, बजाय इसके कि जितना पहिले आवेश को सुखद समझते थे उसी के बराबर अब शान्ति को सुखद समझें। जब कि ऐसे मनुष्य जिन को देखती आंखों कोई दुःख नहीं होता जीवन से असन्तुष्ट हो जाते हैं तो इस का कारण साधारणतया यह होता है कि वे अपने अतिरिक्त किसी की परवा नहीं करते। ऐसे मनुष्यों के लिये, जिन्हें साधारणतया अपने इष्ट मित्रों और संबन्धियों से कुछ प्रेम नहीं होता है, जीवन के आवेश बहुत कम हो जाते हैं। ज्यूँ ज्यूँ अपने से संबन्ध रखने वाले सब सुखों की इति श्री करने वाली मृत्यु आयु बढ़ने के कारण निकटतर होती जाती है उन्हें जीवन शुष्क मालूम देने लगता है। किन्तु वे मनुष्य जो बाद में अपने प्रेम पात्रों को छोड़ जाते हैं तथा विशेषतया वे मनुष्य, जिन की प्रकृति मनुष्य जाति के भलाई के कामों में सर्वसाधारण से सहानुभूति रखने की हो जाती है, मृत्यु के सन्निकट होने पर भी जीवन में वैसाही भानन्द अनुभव करते हैं जैसाकि जवानी के जोश में तथा ख़ूब स्वस्थ होने की दशा में अनुभव किया करते थे। स्वार्थ-प्रियता के अतिरिक्त जीवन के असन्तोषकारी प्रतीत होने का दूसरा प्रधान कारण मानसिक संस्कृति की कमी है। संस्कृत मस्तिष्क-संस्कृत मस्तिष्क से मेरा मतलब तत्त्वज्ञानी के मस्तिष्क से नहीं है वरन् प्रत्येक ऐसा मस्तिष्क जिस के लिये ज्ञान-भण्डार का द्वार खुल गया है तथा जिस को उचित सीमा तक अपनी शक्तियों को काम में लाना सिखाया गया है-अपने चारों ओर के पदार्थों में अनन्त आनन्द का उद्गार अनुभव करता है। ऐसे मस्तिष्क को प्राकृतिक पदार्थों, कला के कारनामों, कविता की कल्पनाओं, मनुष्य जाति के रहन सहन के ढंगों में तथा मनुष्य जाति की प्राचीन तथा अर्वाचीन दशा और भविष्य आशाओं में अनन्त आनन्द की सामग्री मिलती है। निस्सन्देह ऐसा होना भी संभव है कि कोई मनुष्य इन चीज़ों के आनन्द के सहस्रांश का भी उपभोग किये बिना ही उनकी ओर ध्यान न दे। किन्तु ऐसा होना उसही दशामें संभव है कि जब उस मनुष्य ने आरम्भ ही से इन चीज़ों में किसी प्रकार की नैतिक या मानुषिक दिलचस्पी न ली हो और उन को केवल उत्कण्ठा मिटाने की दृष्टि से देखा हो। कोई कारण नहीं मालूम पड़ता कि सभ्य देश में जन्म लेने वाले मनुष्य को इतनी मानसिक संस्कृति दाय स्वरूप में क्यों न मिले जिस से वह इन विचारशील विषयों में यथेष्ट दिलचस्पी ले सके। कोई कारण प्रतीत नहीं होता कि क्यों कोई मनुष्य अपनेही ख्याल में मस्त रहे और अपने स्वार्थ से संबन्ध न रखने वाली किसी वस्तु की ओर ध्यान ही न दे। जब आजकल ही--अनेक शिक्षा--सम्बन्धी त्रुटियों तथा निरर्थक सामाजिक बन्धनों के रहते–-अनेक मनुष्य ऐसे देखे जाते हैं जो सर्वसाधारण के लिये तन, मन, धन सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं तो निस्सन्देह उचित शिक्षा होने पर इस प्रकार के मनुष्यों की संख्या बहुत कुछ बढ़ सकती है। उचित शिक्षा प्राप्त प्रत्येक मनुष्य में, कम या अधिक मात्रा में, इष्ट मित्रों के प्रति शुद्ध प्रेम तथा सार्वजनिक कार्यों की ओर रुचि का होना सम्भव है। ऐसे संसार में, जहां पर चित्तरञ्जन के लिये इतनी अधिक सामग्री है तथा इतनी अधिक बातें सुधारने तथा उन्नतावस्था को पहुंचाने के लिये हैं, साधारण नैतिक तथा मानसिक विकाश प्राप्त प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को इस प्रकार व्यतीत कर सकता है कि दूसरे मनुष्यों के हृदय में उस को देखकर उसके समान जीवन व्यतीत करने की लालसा हो। ऐसा मनुष्य, यदि निर्धनता, बीमारी, तथा प्रेम-पात्रों की बेवफ़ाई अथवा असामयिक मृत्यु प्रभृति शारीरिक तथा मानसिक वेदना पहुंचाने वाले जीवन के वास्तविक कष्टों से बच जावे और दूषित क़ानून तथा पराधीनता उस के मार्ग में रुकावट न डालें तो इस मत्सरजनक स्थिति को प्राप्त कर सकता है। इस कारण मुख्य समस्या तो यह है कि कष्टों से बचा जाय। कोई बडी तक़दीर वाला ही इन कष्टों से बचता है। आधुनिक स्थिति में ये कष्ट दूर नहीं किये जा सकते तथा अध़िकतर दशाओं में उचित अंश में कम भी नहीं किये जा सकते। किन्तु कोई भी मनुष्य, जिस की सम्मति क्षण भर के लिये भी माननीय है, इस बात में सन्देह नहीं कर सकता कि संसार के बहुत से कष्ट दूर किये जा सकते हैं और यदि मनुष्य उन्नति करता रहा तो ये कष्ट अन्त में बहुत कम रह जायेंगे। कष्ट पहुंचाने वाली निर्धता को समाज की बुद्धिमानी तथा व्यक्तिगत सद्भाव बिल्कुल खो सकते हैं। सब से बड़ा दुर्जय दुश्मन रोग भी अच्छी शारीरिक तथा नैतिक शिक्षा तथा दूषित प्रभावों के न फैलने देने से बहुत कुछ कम किया जा सकता है। विज्ञान की भविष्य उन्नति से भी इस दुर्जय दुश्मन पर विजय पाने की बहुत कुछ आशा होती है। जितनी विज्ञान की उन्नति होती जा रही है उतना ही अपनी असामयिक मृत्यु तथा इस से भी अधिक कष्टप्रद अपने सुख के आधार प्रेम-पात्रों की असामयिक मृत्यु का खटका कम होता जा रहा है। अब रही बदक़िस्मती तथा सांसारिक बातों में निराशाओं की बात सो उन का कारण मुख्यतया हमारी अदूरदर्शिता, दुर्व्यवस्थित इच्छायें तथा दूषित या अपूर्ण संस्थायें हैं। संक्षेप यह कि मानुषिक कष्टों के सब बड़े २ कारण अधिकांश में और बहुत से कारण सर्वोश में प्रयत्न करने तथा सचेत रहने से दूर किये जा सकते हैं। हां! इसमें शक नहीं कि ये कष्ट बहुत ही धीरे २ कम होंगे और इन दुश्मनों पर विजय पाने तथा संसार को आदर्श स्थिति पर लाने के लिये अनेकों पीढियों को अपनी आहुति देनी पड़ेगी। किन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयत्न ही में विवेकशील सथा उदार मनुष्यों को इतना आनन्द मिलेगा जिसको अपने वे किसी स्वार्थ के लिये छोड़ने को तय्यार न होंगे।

अब दुसरे आक्षेप पर विचार करना चाहिये। आक्षेपकारियों का कहना है कि बिना सुख के भी काम चल सकता है। निःसंदेह बिना सुख के रहा जा सकता है। हमारे आधुनिक संसार के उन भागों में भी जहां बर्बरता सब से कम है, मनुष्य जाति का १९/२० अंश विवश होकर बिना सुख के जीवन व्यतीत कर रहा है। बहुधा महापुरुष या शहीद लोग किसी ऐसी चीज़ के लिये, जिसको वे अपने व्यक्तिगत सुख से अधिक मूल्यवान समझते हैं, जान-बूझ कर सुख को तिलाञ्जलि दे देते हैं। किन्तु वह चीज़, जिसके लिये वह अपने सुख की परवा नहीं करते, दूसरों के सुख या दूसरों के सुख के किसी प्रकार के साधन के अतिरिक्त और क्या है? अपने सुख या सुख पाने के अवसरों को छोड़ देने का साहस रखना बड़ी बात है। किन्तु फिर भी यह आत्म-त्याग किसी उद्देश्य के लिये होना चाहिये। आत्म-त्याग का उद्देश्य आत्म-त्याग ही न होना चाहिये। यदि कहा जाय कि इस आत्म-त्याग का उद्देश्य सुख नहीं है वरन धर्म ( Virtue ) है तो मैं प्रश्न करूंगा कि क्या महापुरुष या शहीद का इस बात में विश्वास न रखते हुवे भी, कि हमारे इस आत्म-त्याग से दूसरों को इस प्रकार का आत्म-त्याग न करना पड़ेगा, आत्म-त्याग करते? क्या महापुरुष या शहीद यह जानता हुआ आत्म-त्याग करता है कि उसके ऐसा करने से उसके भाइयों को कुछ फल न मिलेगा और उनका जीवन भी सुख का त्याग कर देने वालों के समान ही हो जायगा। उन मनुष्यों का यथासम्भव सम्मान किया जाना चाहिये या जो संसारके उपकार या संसार का सुख बढ़ाने के लिये अपने सुख को लात मार देते हैं। किन्तु जो मनुष्य इसके अतिरिक्त और किसी उद्देश्य के लिये आत्म-त्याग करता है वह उस योगी से अधिक सम्मान का पात्र नहीं है जो अकारण अपने शरीर को नाना प्रकार के कष्ट देता रहता है। ऐसा मनुष्य इस बात का ज्वलन्त उदाहरण हो सकता है कि मनुष्य क्या कर सकता है किन्तु इस बात का नहीं कि मनुष्य को क्या करना चाहिये।

यद्यपि संसार की अत्यन्त अपूर्ण या अव्यवस्थित दशा ही में मनुष्य सुख को बिल्कुल तिलाञ्जलि देकर दूसरों के सुख को बढ़ा सकता है; किन्तु जब तक भी संसार इस अपूर्ण या अव्यवस्थित दशा में है इस प्रकार के आत्म-त्याग के लिये तैयार रहना मनुष्य का सब से बड़ा गुण है जो कि उस में हो सकता है।

मैं इतना और कहूँगा कि--चाहे यह बात परस्पर विरोधात्मक प्रतीत हो--कि संसार की इस दशा में जान बूझ कर सुख को तिलाञ्जलि दे देने की क्षमता से ऐसे सुख को पाने की, जो कि पाया जा सकता है, बहुत अधिक आशा बंधती है। क्योंकि जान बूझ कर ऐसा कर सकने के अतिरिक्त और किसी प्रकार जीवन उच्च नहीं बन सकता, केवल इस ही प्रकार मनुष्य अनुभव कर सकता है कि चाहे भाग्य कितना ही मेरे विरुद्ध क्यों न रहे, मेरे ऊपर काबू नहीं पा सकता। एक बार ऐसा ख्य़ाल जमते ही जीवन के दुःखों की अत्यधिक चिन्ता काफ़ूर हो जाती है और रोम सम्राज्य के सब से बुरे समय में रहने वाले स्टायक अर्थात् तितिक्षावादियों के समान ऐसा मनुष्य शान्ति के साथ प्राप्य साधनों द्वारा तुष्टि प्राप्त कर लेता है।

किन्तु इस बीच में उपयोगितावादियों को इस बात की घोषणा करने से नहीं चूकना चाहिये कि आत्म-त्याग( Self-devotion ) पर हमारा भी उतना ही अधिकार है जितना तितिक्षावादी ( Stoies ) या अतीतात्यकों ( Transcendentalists ) का। उपयोगितात्मक आचार शास्त्र इस बात को मानता है कि मनुष्य दूसरों के फ़ायदे के लिये अपने सब से अधिक फ़ायदे को छोड़ सकते हैं। किन्तु ऐसा आत्म-त्याग जो सुख के समूह ( Sum total of happiness ) को नहीं बढ़ाता या बढ़ाने में सहायता नहीं देता निरर्थक आत्म-त्याग है। उपयोगितावाद एक मात्र उस आत्म-त्याग की प्रशंसा करता है जो मनुष्य जाति या किसी जाति विशेष के सुख या सुख के कुछ साधनों को बढ़ाता है।

मुझे इस बातको फिर दुबाग कहना चाहिये--क्योंकि उपयोगितावाद के विरोधी इस बात को स्वीकार करने की उदारता प्रदर्शित नहीं करते हैं--कि किसी आचार के ठीक होने का उपयोगितात्मक आदर्श वह प्रसन्नता नहीं है जिस का सम्बन्ध केवल कर्ता ही से हो वरन् उन सब मनुष्यों की प्रसन्नता है जिनका कि उस बात से सम्बन्ध है। अपनी निजी प्रसन्नता तथा दूसरों की प्रसन्नता का विचार करने में उपयोगितावादी को उदासीन परोपकारी दृष्टा के समान न्यायशील ( Impartial ) होना चाहिये। यशूमसीह के सुवर्ण नियम में उपयोगितात्मक आचार शास्त्र का पूर्ण भाव मिलता है। दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करो जैसा कि तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें तथा अपने पड़ौसी को अपने ही समान प्यार करो--इस सिद्धान्त को मानने से उपयोगितात्मक आचार का आदर्श पूर्णता को पहुंच जाता है। इस भादर्श के यथा संभव निकट पहुंचने के लिये उपयोगितावाद के अनुसार प्रथम तो नियम ( कानून ) तथा सामाजिक व्यवस्था ( Arrangement ) इस प्रकार की होनी चाहिये कि यथा संभव व्यक्तिगत प्रसन्नता या लाभ तथा सामाजिक प्रसन्नता या लाभ में परस्पर विरोध न हो वरन् प्रत्येक का एक दूसरे के साथ सन्निकट संबन्ध हो जाय। दूसरी बात यह है कि शिक्षा और जन सम्मति, जिन का मनुष्य के आचरण पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में इस बात को जमादें कि उस के निजी सुख तथा सामाजिक सुख का प्रथक् न हो सकने वाला ( Indissoluble ) संबन्ध है। विशेषतया यह बात सुझा देनी चाहिये कि किसी व्यक्ति को उन्हीं कामों को करने से वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है जो सामाजिक सुख को दृष्टि में रखकर ठीक या गलत निर्धारित किये गये हैं। ऐसा होने पर उस मनुष्य को यह विचार भी नहीं आयगा कि समाज के हित के विरोधी कार्य करने से मैं सुखी हो सकुंगा। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस प्रकार के भाव छठने लगेंगे कि मैं ऐसे काम करूं जिन से समाज की भलाई हो। प्रत्येक काम में, जो वह करेगा, उमका यही उद्देश्य रहेगा। यदि उपयोगितावाद के विरोधी उपयोगितावाद के इस असली स्वरूप को समझनें तो फिर मैं नहीं समझता कि अन्य आधार पर स्थित आचार शास्त्र की कौनसी खूबी उन्हें उपयोगितात्मक आचार शास्त्र में नहीं मिलेगी। अन्य आचार प्रणाली ( Ethical system ) ही मनुष्य-प्रकृति को इससे अधिक और क्या उच्च तथा उदार बना सकती है?

उपयोगितावाद के विरोधियों पर सदैव ही यह इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता कि वे इस सिद्धान्त को बुरे स्वरूप में पेश करते हैं। जिन लोगों ने इस सिद्धान्त की उच्चता को कुछ २ ठीक तरह समझा है वे यह आक्षेप करते हैं कि इस सिद्धान्त का आदर्श जन साधारण के लिये बहुत उच्च है। उनका कहना है कि मनुष्यों से इस बात की आशा नहीं की जा सकती कि वे सदैव जो कुछ करेंगे जनसाधारण के हित को दृष्टि में रखते हुवे करेंगे। किन्तु ऐसा आक्षेप करना आचार के आदर्श के अर्थ ही न समझना है। ऐसा आक्षेप करने वाले कार्य करने के नियम को उसके उद्देश्य के नियम से मिला देते हैं। आचार शास्त्र का उद्देश्य है कि वह हमें बताये कि हमारा क्या धर्म या क्या फ़रायज़ हैं तथा इस बात को जानने की क्या कसौटी है। किन्तु आचार शास्त्र का कोई क्रम यह नहीं कहता कि जो कुछ भी हम करेंगे उसका एक मात्र प्रयोजन ( Motive ) धर्म या फ़र्ज़ ( Duty ) की भावना ही होगी। इसके विपरीत हम सौ में से निन्यानवे अन्य और प्रयोजनों से करते हैं और ये सब काम, यदि प्रयोजन के नियम के अनुसार दूषित नहीं हैं, तो ठीक हैं। इस प्रकार ठीक अर्थ न समझ कर उपयोगितावादियों पर आक्षेप करना तो और भी अधिक अनुचित है क्योंकि उपयोगितावादियों ने अन्य आचार-शास्त्रियों की अपेक्षा इस बात पर अधिक जोर दिया है कि कार्य के अच्छे या आचारयुक्त होने का उस कार्य करने के प्रयोजन ( Motive ) से कुछ सम्बन्ध नहीं है। प्रयोजन से तो कर्त्ता की उच्चता या नीचता का पता चलना है। यदि कोई मनुष्य किसी डूबते हुवे मनुष्य को डूबने से बचाता है तो आचार-नीति की दृष्टि से उसका काम ठीक है, चाहे उसने अपना धर्म समझ कर ऐसा किया हो या इस कष्ट के बदले किसी प्रकार का पुरस्कार पाने की नियत से। जो ऐसे मित्र के साथ, जो उस में विश्वास करता है, विश्वासघात करता है वह बुरे काम का दोषी है, चाहे उसने यह काम किसी ऐसे मित्र की ख़ातिर किया हो जिस का वह अधिक ऋणी है। किन्तु यह समझ लेना, कि उपयोगितावाद का मतलब यह है कि मनुष्य सदैव संसार या सारे समाज को दृष्टि में रक्खे, ठीक नहीं है। अधिकतर काम संसार के लाभ की दृष्टि से नहीं वरन् मनुष्यों के फ़ायदे की नियत से किये जाते हैं। संसार का लाभ भी मनुष्यों के लाभ के मिलने से ही होता है। इस कारण यह आवश्यक नहीं है कि उच्च कोटि का पुण्यात्मा मनुष्य ऐसे अवसरों पर अपना ध्यान, उन विशेष मनुष्यों से जिन से उस के कार्य का सम्बन्ध है, हटाले। हां! इस बात का दृढ़ निश्चय करलेना अत्यावश्यक है कि कहीं वह उन विशेष व्यक्तियों को लाभ पहुंचाने में किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार पर तो आघात नहीं कर रहा है। उपयोगितावाद के अनुसार सुख का बढ़ाना ही नेकी का प्रयोजन है। ऐसे अवसर जब कोई मनुष्य--हज़ार में किसी एक व्यक्ति की बात दूसरी है--बहुत आदमियों को लाभ पहुंचा सकता है बहुत कम होते हैं! ऐसे अवसरों ही पर उस को एक मात्र सार्वजनिक हित का ख्याल रखना चाहिये। अन्य अवसरों पर वह व्यक्ति विशेष या कतिपय व्यक्तियों के हित का ध्यान रख सकता है। केवल उन्हीं मनुष्यों को, जिन के कार्यों का प्रभाव संसार या समाज पर पड़ता है, सार्वजनिक हित के विचार को ध्यान में रखना चाहिये। अब रहे वे काम जिन्हें आचारयुक्तता को ध्यान में रखते हुवे नहीं करना चाहिये चाहे उनका किसी विशेष दशा में अच्छा ही फल क्यों न हो। सो इन कामों के विषय में प्रत्येक विवेकशील कर्ता जान सकता है कि ये ऐसे काम हैं कि यदि साधारणतया उन्हें किया जाने लगे तो साधारणतया उनका फल बुरा ही होगा। सार्वजनिक हित को ध्यान में रखने की जितनी आवश्यकता उपयोगितावादी बताते हैं, उतनी आवश्यकता सब ही आचार शास्त्री बताते हैं क्योंकि उन सब का कहना है कि ऐसे काम नहीं करने चाहिये जो देखती आंखों समाज को हानि पहुंचाते हैं।

आचार के आदर्श के प्रयोजन को ठीक तौर से समझने में इससे भी अधिक भूल करने वाले तथा ठीक और गलत शब्दों के अर्थ ही न समझने वाले बहुधा यह आक्षेप करते हैं कि उपयोगितावाद आदमियों को सहानुभूति-शून्य बना देता है अर्थात् अन्य व्यक्तियों के प्रति मनुष्यों के नैतिक भावों को टणडा वर देता है। इस सिद्धान्त के मानने वाले कार्यों के शुष्क परिणामों ही का ध्यान रखते हैं और उन गुणों का विचार नहीं करते जिनके कारण ये कार्य होते हैं। यदि उनके इस कथन का यह अर्थ है कि उपयोगितावादी कर्ता के किसी काम के ठीक या गलत होने का निर्णय करने में कर्ता के गुणों का कुछ ख्य़ाल नहीं करते तो उनका यह आक्षेप केवल उपयोगितावाद ही पर नहीं है प्रत्युत आचार का कोई आदर्श या कसौटी ( Standard ) मानने ही पर है क्योंकि जहां तक हमें मालूम है निस्सन्देह आचार शास्त्रियों का कोई भी सम्प्रदाय किसी काम को इसी कारण अच्छा या बुरा नहीं ठहराता है कि उसको किसी अच्छे या बुरे आदमी ने किया है। इस बात का कुछ भी ध्यान नहीं रखता है कि उस काम को किसी प्रेम-पात्र, वीर या परोपकारी मनुष्य ने किया है या घृणित, डरपोक या स्वार्थी मनुष्य ने। इन बातों का विचार तो मनुष्यों से सम्बन्ध रखता है, कामों के अच्छा या बुरा होने से नहीं। उपयोगितावाद में कोई ऐसी बात नहीं है जो हमें इस बात के मानने से रोके कि मनुष्य अपने कामों के ठीक या गलत होने ही के कारण रुचिकर या अरुचिकर नहीं होते। तितिक्षावादी (Stoics), जिनको विरोधाभासात्मक भाषा इस्तेमाल करने की लत थी और जो इस प्रकार वे अपना ध्यान नेकी को छोड़कर और सब बातों से हटाना चाहते थे, बड़े शौक़ से कहा करते थे कि जिस के पास नेकी है सब कुछ है। नेक मनुष्य-एकमात्र नेक मनुष्य ही धनी है, सुन्दर है और बादशाह है। किन्तु उपयोगितावाद का सिद्धान्त नेक मनुष्यों के विषय में ऐसी कोई बात नहीं कहता। उपयोगितावादी खूब अच्छी तरह जानते हैं कि नेकी के अतिरिक्त और भी पदार्थ हैं जिन की प्राप्ति की मनुष्य को कामना होनी चाहिये। उपयोगितावादी इन सब पदार्थों का यथा योग्य सम्मान करने के लिये बिल्कुल राजी हैं। वे जानते हैं कि ठीक काम करने वाले मनुष्य का नेक होना आवश्यक नहीं है तथा अन्य प्रशंसनीय गुण होने की वजह से भी मनुष्य बहुधा निर्दोष काम करते हैं। जब उपयोगितावादी इस बात का कोई उदाहरण देखते हैं तो इससे कर्ता संबन्धी निर्याय में हेर फेर कर लेते हैं। किन्तु निस्सन्देह काम के ठीक या गलत होने के विचार में कुछ परिवर्तन नहीं करते। मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि इन सब बातों के होते हुवे भी उपयोगितावादियों का विचार है कि अन्त में किसी मनुष्य के सदाचारी होने का सबसे अच्छा प्रमाण उसके अच्छे काम हैं। वे ऐसे आदमी को अच्छा मानने से बिल्कुल इन्कार कर देते हैं जिसकी मानसिक वृत्ति अधिकतर बुरे कामों की ओर है। इस कारण बहुत से मनुष्य उपयोगितावादियों से रुष्ट हो जाते हैं। किन्तु जो कोई भी ठीक और गलत जांचने की कड़ी कसौटी रक्खेगा उसे बहुत से मनुष्यों की रुष्टता को सहन करना ही पड़ेगा। इसलिये उपयोगितावादी को इस प्रकार बुरे भले कहे जाने की परवा भी नहीं करनी चाहिये।

यदि आक्षेप का केवल यही प्राशय हो कि बहुत से उपयोगितावादी एकमात्र उपयोगिता की कसौटी पर कस कर ही किसी कार्य की प्राचार युक्तता का निर्णय करते हैं तथा चरित्र की दूसरी खूबियों पर जिनके कारण मनुष्य प्रेम किया जाता है या प्रशंसा पाता है काफ़ी ज़ोर नहीं देते तो यह बात मानी जा सकती है। वे उपयोगितावादी, जिनकी नैतिक भावनाओं का विकाश हो गया है किन्तु सहानुभूति तथा सौन्दर्य-विवेकशक्ति (Artistic Perceptions) अपरिपक्कावस्था में हैं, इस प्रकारकी भूल करते हैं। ऐसी परिस्थिति में अन्य प्राचार-शास्त्री भी ऐसी ही भूल का शिकार होते हैं। जो बातें अन्य प्राचार शास्त्रियों के बचाव में कही जा सकती हैं वे ही बातें इस प्रकार के उपयोगितावादियों के बचाव में भी कही जा सकती हैं। यदि भूल है तो प्राचार शास्त्र के सब ही सम्प्रदायों में है। वास्तविक बात तो यह है कि अन्य सम्प्रदायों के अनुगामियों के समान उपयोगितावादियों में भी ठीक गलत की कसौटी को काम में लाने में बहुत से बहुत अधिक सख्त हैं तथा बहुत से बहुत अधिक नर्म हैं।

उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र पर किये गये दो चार अन्य छोटे मोटे आक्षेपों की भी इस स्थान पर विवेचना करना अनुचितन होगा। इस प्रकार के प्राक्षेप करनेवाले उपयोगितावाद के ठीक अर्थ बिल्कुल नहीं समझे हैं। बहुधा सुनने में आता है कि उपयोगितावाद का सिद्धान्त नास्तिकता को लिये हुवे है। यदि इस प्रकार की कल्पना के विरुद्ध कुछ कहना आवश्यक है तो हम कहेंगे कि प्रश्न का उत्तर इस बात पर मुनहंसिर है कि ईश्वर के गुणों के विषय में हमारा क्या विचार है। यदि यह विश्वास ठीक है कि ईश्वर की सबसे बड़ी इच्छा यह है कि उसके बनाये प्राणी सुखी रहें तथा इसी प्रयोजन से उसने सृष्टि की रचना की है तो उपयोगितावाद का सिद्धान्त केवल नास्तिकता को लिये हुवे ही नही हैं वरन्स ब सिद्धान्तों से अधिक धार्मिक है। यदि आक्षेप का यह मतलब हो कि उपयोगितावाद ईश्वरादिष्ट धर्म या श्रौत-धर्म को प्राचारों का सबसे बड़ा नियम नहीं मानता तो मैं इसका उत्तर दूंगा कि जो उपयोगितावादी ईश्वर की नेकी और बुद्धिमता में विश्वास रखता है इस बात में भी अवश्य विश्वास रखता है कि ईश्वर ने प्राचारों के संबन्ध जो कुछ बताना उचित समझा है वह बहुत अंश में उपयोगिता की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला होना चाहिये। किन्तु उपपोगितावादियों के अतिरिक्त अन्य बहुत से मनुष्यों को सम्मति है कि ईमाई धर्म भेजने से ईश्वर का प्राशय था कि मनुष्यों के हृदय और मस्तिष्क में ऐसे भाव पैदा हो जायें कि स्वयं सत्य को मालूम करने तथा तदुपरान्त उसके अनुसार कार्य करने का प्रयत्न करें। साधारणातया बता देने के अतिरिक्त ईश्वर ने पूर्ण रूप से यह बताना उचित नहीं समझा है कि क्या २ ठीक है। इस कारण हमको एक ऐसे सिद्धान्त की प्रावश्यकता है जो हमको बतलावे कि ईश्वर की इच्छा यह है। इस सम्मति पर चाहे ठीक हो या गलत-यहां विचार करना व्यर्थ है क्योंकि यह समस्या कि प्राचार-शास्त्र के नियम निर्धारित करने में प्राकृतिक अथवा श्रोत-धर्म से कहां तक सहायता लेनी चाहिये-आचार-शास्त्र के सब ही सम्प्रदाय वालों के लिये है।

बहुत से आदमी उपयोगितावाद को सुसाधकता या मस्लहन (Expediency) का नाम देकर ही दुराचारी सिद्धान्त होने का लाञ्छन लगा देते हैं। साधारणतया मस्लहत शब्द सिद्धान्त के विपरीत' अर्थ में व्यवहृत होता है। ये लोग इस साधारण अर्थ से लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु जब मस्लहत शब्द उचित या ठीक (Right) के विपरीत अर्थ में प्रयुक्त होता है तो साधारणतया मस्लहत शब्द से उस कार्य का मतलब होता है जो कर्ता ही के लिये विशेष लाभकारी हो। किन्तु जब मस्लहत शब्द इससे अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होता है तो मस्लहत शब्द से मतलब होता है कि वह काम जो तत्कालिक उद्देश्य या क्षणिक प्रयोजन के लिये अच्छा हो किन्तु उसके करने से किसी ऐसे नियम का उल्लंघन होता है जिसका उल्लंघन न करना ही अधिक मस्लहत की बात है। इस अर्थ में मस्लहत शब्द उपयोगी शब्द का समानार्थी होने के स्थान में हानिकारक होने के माने रखता है। उदाहरणतः कभी २ झूठ बोलने से हम किसी क्षणिक झंझट से बच सकते हैं या किसी ऐसे उद्देश्य की सिद्धि कर सकते हैं जो हमारे लिये या दूसरों के लिये लाभकारी हो। किन्तु सत्यवादिता की बान डालना हमारे लिये बहुत उपयोगी है तथा सत्यशीलता की आदत को कमज़ोर करना हमारे लिये बहुत हानिप्रद है क्योंकि सत्य के पथ से डिगना चाहे भूल से ही हो मनुष्यों के बचन की विश्वसनीयता को बहुत कुछ कम करता है और मनुष्यों के बचन की विश्वसनीयता पर ही सारी आधुनिक सामाजिक सुव्यवस्था का आधार है तथा मनुष्यों के कथन की विश्वसनीयता पर विश्वास न रहने से सभ्यता की बढ़ती या प्रसार में सबसे अधिक रुकावट पड़ती है। इस कारण क्षणिक लाभ के लिये इस सर्वातीत या बहुत अधिक मस्लहत के नियम को तोड़ना मस्लहत नहीं है। जो मनुष्य अपने या किसी दूसरे मनुष्य की सुविधा के लिये ऐसा करता है समाज को हानि पहुंचाता है क्योंकि सामाजिक कार व्यवहार एक दूसरे के बचन को विश्वसनीय मानकर ही चलते हैं। इस कारण ऐसे मनुष्य की गणना समाज के सबसे बड़े दुश्मनों में होनी चाहिये। किन्तु सत्य पर आरुढ़ रहने के इतने महत्वपूर्ण तथा पवित्र नियम का कहीं२ अपवाद (Exception) भी होता है। इस बात को सब सम्प्रदाय के प्राचार शास्त्रियों ने माना है। विशेष अपवाद उस समय के लिये है जब कि किसी बात को छिपाने से (जैसे किसी ज्ञात सूचना को मुजरिम से छिपाने से या किसी बुरी सूचना को किसी बहुत ज्यादा बीमार आदमी के छिपाने से) किसी मनुष्य की (विशेषतया अपने से अतिरिक्त किसी और व्यक्ति की) बहुत बड़ी बला टल जाय। ऐसी दशा में यदि सत्य को छिपाने अर्थात् झूठ बोलने से ही काम चल सकता हो तो ऐसा किया जा सकता है। किन्तु फिर भी ऐसे अपवाद की सीमायें निर्धारित कर देना चाहिये जिससे बिना आवश्यकता के ही लोग अपवाद की शरण न लेने लगे और एक दूसरे के कथन को अविश्वसनीय न समझने लगे। यदि उपयोगितावाद का सिद्धान्त कुछ भी उपयोगी है तो यह सिद्धान्त इस काम के लिये उपयोगी होना चाहिये कि दो उपयोगिताओं में संघर्ष उपस्थित होने पर दोनों की तुलना करके इस बात का निर्णय कर सकें कि अमुक स्थान पर अमुक उपयोगिता उच्च स्थान की अधिकारी है तथा अमुक स्थान पर अमुक।

उपयोगितावादियों को बहुधा इस प्रकार के प्राक्षेपों का भी उत्तर देना पड़ता है कि काम करने से पहिले हमको इतना समय नहीं मिलता कि हम इस बात को सोच सकें कि इस कार्य का जनसाधारण के सुख पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यह आक्षेप तो ऐसा है कि जैसे कोई कहे कि ईसाई मत के अनुसार कार्य करना असम्भव है क्योंकि प्रत्येक अवसर पर जब कुछ काम करना हो पुराने तथा नये टैस्टैमैन्ट (Testament) को पढ़ने का समय नहीं मिल सकता। इस आक्षेप का उत्तर यह है कि यथेष्ट समय मिल चुका है। मनुष्य जाति अब सक इस विषय पर विचार करती आई है। बहुत दिनों से मनुष्य जाति इस बात का तजुरबा करती आई है कि कौन २ से कार्य का कैसा २ परिणाम होता है तथा क्या प्रभाव पड़ता है। गत समय के तजुरबे के आधार पर ही कार्यों की प्राचारयुक्तता निर्धारित की गई है। आक्षेप करने वाले इस प्रकार की बातें  कहते हैं जिन से सूचित होता है कि मानो अभी मनुष्य को पहले अनुभवों का कुछ पता ही नहीं है और जब किसी मनुष्य का जी हत्या या चोरी करने के लिये ललचाता है तो वह पहिले पहिल सोचना प्रारम्भ करता है कि क्या हत्या तथा चोरी सामाजिक सुख में बाधा डालने वाली हैं। यह बात तो शेखचिल्लियों की सी कल्पना मालूम पड़ती है कि यदि मनुष्य जाति उपयोगिता को प्राचारयुक्तता निर्धारित करने की कसौटी मान भी ले तो भी इस बात का कोई निश्चय नहीं हो सकेगा कि कौनसा काम उपयोगी है और इस कारण समाज युवकों को इस विषय पर निर्धारित विचारों की शिक्षा देने तथा कानून द्वारा नियमों का पालन कराने की चेष्ठा नहीं करेगी। मनुष्य जाति को विवेकहीन मान लेने की दशा में तो हम आसानी से प्रमाणित कर सकते हैं कि किसी भी प्राचारयुक्तता परखने की कसौटी से काम नहीं चलेगा। किन्तु मनुष्य आति को कुछ भी विवेकशील मानने की दशा में हमको यह बात माननी पड़ेगी कि मनुष्य जाति ने अब तक के अनुभव से जान लिया है कि कौन २ से कार्य का क्या २ परिणाम तथा प्रभाव होता गत अनभवों के आधार पर जो विश्वास चले आते हैं वे ही सर्व साधारण के लिये प्राचार शास्त्र के नियम हैं। तत्त्वज्ञानियों को भी, जब तक कि वे कोई अधिक अच्छे नियम उपस्थित न कर सकें, इन विश्वासों को आचार-शास्त्र के नियम मामना पड़ेगा। मैं इस बात को मानता हूँ या यों कहना चाहिये कि मेरा हार्दिक विश्वास है कि तत्वज्ञानी लोग बहुत से विषयों के संबन्ध में आसानी से अधिक अच्छे नियम उपस्थित कर सकते हैं। माधुनिक प्राचार-शास्त्र के नियम ईश्वर-प्रणीत नहीं हैं। अभी मनुष्य जाति को इस सम्बन्ध में बहुत कुछ सीखना है कि हमारे कामों का सामाजिक सुख पर क्या प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक प्रक्रियात्मक कला के समान उपयोगितावाद के उपसिद्धान्तों में अभी बहुत कुछ सुधार हो सकता है और ज्यूँ २ मनुष्य उन्नति करता जारहा है बराबर सुधार हो रहा है। किन्तु प्राचार शास्त्र के नियमों में सुधार के लिये स्थान मानना और बात है तथा पिछले अनुभव को बिल्कुल विस्मरण कर देना तथा प्रत्येक व्यक्तिगत कार्य को मूल सिद्धान्त की कसौटी पर कसना दूसरी बात है। किसी बटोही को उसके निर्दिष्ट स्थान की सूचना देने के यह माने नहीं हैं कि उस को मार्ग में पड़ने वाले दूरी तथा स्थान सुचक खम्भों से सहायता लेने के लिये निषेध कर दिया है। प्रसन्नता आचार शास्त्र का अन्तिम लक्ष्य तथा उद्देश्य है इस सिद्धान्त को उपस्थित करने के यह अर्थ नहीं हैं कि उस लक्ष्य पर पहुंचने के लिये कोई मार्ग निर्धारित नहीं करना चाहिये तथा उस लक्ष्य की ओर जाने वाले मनुष्यों को यह न बताया जाय कि अमुक दशा के स्थान में अमुक दशा से जाना उचित है। इस विषय पर लोगों को ऊपपटांग बातें कहना या सुनना नहीं चाहिये। कोई आदमी यह नहीं कहता कि मल्लाह लोग नाविक पञ्चाङ्ग (Nautical Alamanak) की गणना करने के लिये नहीं ठहर सकते, इस कारण सामुद्रिक विद्या का प्राधार गणित ज्योतिष (Astronomy) नहीं है। विवेकशील प्राणी होने के कारण मल्लाह लोग पहिले ही से सामुद्रिक पञ्चाङ्ग की गणना करके समुद्र पर जाते हैं। सारे विवेकशील प्राणी ठीक या बे ठीक सम्बन्धी साधारण प्रश्नों पर अपने विचार निश्चित करके जीवनरूपी समुद्र में उतरते हैं। जब तक दूरदर्शिता प्रशंसनीय मानी जाती रहेगी, ऐसा ही होता रहेगा । हम आचार शास्त्र का चाहे कोई मूल सिद्धान्त मान लें हमें उसके अनुसार कार्य करने के लिये गौण सिद्धान्तों की भी आवश्यकता पड़ेगी। किसी विशेष सम्प्रदाय पर गौण सिद्धान्त मानने के लिये विवश होने का इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता क्योंकि सब सम्प्रदायवालों ही को ऐसा करना पड़ता है। किन्तु यह कहना कि ऐसे गौण सिद्धान्त स्थिर नहीं किये जा सकते तथा मनुष्य जाति मानुषिक जीवन के अनुभव से अब तक कतिपय साधारण परिणामों पर नहीं पहुंची है और न कभी पहुंचेगी नितान्त मूर्खता है।

उपयोगितावाद के विरुद्ध शेष आक्षेपों में जो बहुधा किये जाते हैं अधिकतर मानुषिक प्रकृति की कमजोरियों का इल्ज़ाम उपयोगितावाद के माथे थोपा जाता है तथा कहा जाता है कि विवेकशील मनुष्यों को अपने जीवन का मार्ग स्थिर करने में बड़ी कठिनाइयां पड़ेगी। आक्षेप किया जाता है कि उपयोगितावादी मनुष्य अपने आप को नैतिक नियमों का अपवाद मान लेगा तथा प्रलोभन मिलने पर नियम को मानने की अपेक्षा उसका उल्लङ्घन करना उपयोगी समझेगा। किन्तु क्या उपयोगितावाद ही ऐसा मत है जिसका अनुयायी होने से हमको दूषित कार्य करने का बहाना मिल सकता है और हम अपने अन्तःकरण को धोखा दे सकते हैं? सब सिद्धान्त इस बात को मानते हैं कि आचार शास्त्र में परस्पर विरोधात्मक परिभावनाएं (Considerations) उपस्थित होती हैं अर्थात् यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि कौनसी बात आचारयुक्त है। यह किसी मत विशेष की त्रुटि नहीं है। इसका कारण मानुषिक कार्यों की जटिलता है जिसके कारण आचार के अपवाद रहित नियम नहीं बनाये जा सकते। किसी भी कार्य को सदैव के लिये अच्छा या बुरा बताना कठिन है। प्राचारशास्त्रियों का कोई सा भी ऐसा सम्प्रदाय नहीं है जो कर्ता की नैतिक उत्तरदातृता या ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखते हुवे असाधारण परिस्थितियों के लिये अपने नियमों को ढीला नहीं कर देता है। इस कारण नियमों को ढीला करने की वजह से प्रत्येक मत में आत्म-वञ्चना तथा बेईमानी की तर्कप्रणवता घुस बैठती है। ये वास्तविक कठिनाइयां हैं। प्राचार शास्त्र की कल्पना में तथा अन्त:करण के आदेशानुसार अपने चरित्र को बनाने के मार्ग में ये कठिन समस्यायें हैं। व्यवहार में कर्ता अपनी बुद्धि तथा दृढ़चरित्रता की न्यूनाधिकता के कारण इन कठिनाइयों को थोड़ा या बहुत दूर कर सकता है। किन्तु विरोधात्मक अधिकारों तथा कर्तव्यों का निर्णय करने के लिये अन्तिम कसौटी उपस्थित करने की दशा में उपयोगितावाद को कम उपयोगी किस प्रकार ठहराया जा सकता है? यदि किसी कार्य की प्राचाग्युक्तता का अन्तिम प्रमाण उस कार्य की उपयोगिता है तो दो कर्तव्यों में परस्पर-विरोधात्मक होने की दशा में उपयोगिता की कसौटी पर कस कर ही इस झगड़े को निपटाना चाहिये। यद्यपि इस आदर्श या कसौटी को काम में लाना कठिन है, फिर भी कोई भी आदर्श या कसौटी न होने से तो किसी आदर्श या कसौटी का होना ही अधिक अच्छा है। अन्य सम्प्रदायों में प्राचार-शास्त्र के नियम स्वत: प्रमाण हैं। इस कारण विवाद उपस्थित होजाने की दशा में कोई मध्यस्थ नहीं है। वाक्चतुरता (Sophistry) ही से झगड़ा निपटाया जाता है। हमको याद रखना चाहिये कि गौण सिद्धान्तों में विरोध उपस्थित होने पर मूल सिद्धान्तों के अनुसार निर्णय करना ही आवश्यक है।