परोपकारी दृष्टा के समान न्यायशील ( Impartial ) होना चाहिये। यशूमसीह के सुवर्ण नियम में उपयोगितात्मक आचार शास्त्र का पूर्ण भाव मिलता है। दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करो जैसा कि तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें तथा अपने पड़ौसी को अपने ही समान प्यार करो--इस सिद्धान्त को मानने से उपयोगितात्मक आचार का आदर्श पूर्णता को पहुंच जाता है। इस भादर्श के यथा संभव निकट पहुंचने के लिये उपयोगितावाद के अनुसार प्रथम तो नियम ( कानून ) तथा सामाजिक व्यवस्था ( Arrangement ) इस प्रकार की होनी चाहिये कि यथा संभव व्यक्तिगत प्रसन्नता या लाभ तथा सामाजिक प्रसन्नता या लाभ में परस्पर विरोध न हो वरन् प्रत्येक का एक दूसरे के साथ सन्निकट संबन्ध हो जाय। दूसरी बात यह है कि शिक्षा और जन सम्मति, जिन का मनुष्य के आचरण पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में इस बात को जमादें कि उस के निजी सुख तथा सामाजिक सुख का प्रथक् न हो सकने वाला ( Indissoluble ) संबन्ध है। विशेषतया यह बात सुझा देनी चाहिये कि किसी व्यक्ति को उन्हीं कामों को करने से वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है जो सामाजिक सुख को दृष्टि में रखकर ठीक या गलत निर्धारित किये गये हैं। ऐसा होने पर उस मनुष्य को यह विचार भी नहीं आयगा कि समाज के हित के विरोधी कार्य करने से मैं सुखी हो सकुंगा। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस प्रकार के भाव छठने लगेंगे कि मैं ऐसे काम करूं जिन से समाज की भलाई हो। प्रत्येक काम में, जो वह करेगा, उमका यही उद्देश्य रहेगा। यदि उपयोगितावाद के विरोधी उपयोगितावाद के इस असली
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उपयोगितावाद का अर्थ