बात तो यह है कि अन्य सम्प्रदायों के अनुगामियों के समान उपयोगितावादियों में भी ठीक गलत की कसौटी को काम में लाने में बहुत से बहुत अधिक सख्त हैं तथा बहुत से बहुत अधिक नर्म हैं।
उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र पर किये गये दो चार अन्य छोटे मोटे आक्षेपों की भी इस स्थान पर विवेचना करना अनुचितन होगा। इस प्रकार के प्राक्षेप करनेवाले उपयोगितावाद के ठीक अर्थ बिल्कुल नहीं समझे हैं। बहुधा सुनने में आता है कि उपयोगितावाद का सिद्धान्त नास्तिकता को लिये हुवे है। यदि इस प्रकार की कल्पना के विरुद्ध कुछ कहना आवश्यक है तो हम कहेंगे कि प्रश्न का उत्तर इस बात पर मुनहंसिर है कि ईश्वर के गुणों के विषय में हमारा क्या विचार है। यदि यह विश्वास ठीक है कि ईश्वर की सबसे बड़ी इच्छा यह है कि उसके बनाये प्राणी सुखी रहें तथा इसी प्रयोजन से उसने सृष्टि की रचना की है तो उपयोगितावाद का सिद्धान्त केवल नास्तिकता को लिये हुवे ही नही हैं वरन्स ब सिद्धान्तों से अधिक धार्मिक है। यदि आक्षेप का यह मतलब हो कि उपयोगितावाद ईश्वरादिष्ट धर्म या श्रौत-धर्म को प्राचारों का सबसे बड़ा नियम नहीं मानता तो मैं इसका उत्तर दूंगा कि जो उपयोगितावादी ईश्वर की नेकी और बुद्धिमता में विश्वास रखता है इस बात में भी अवश्य विश्वास रखता है कि ईश्वर ने प्राचारों के संबन्ध जो कुछ बताना उचित समझा है वह बहुत अंश में उपयोगिता की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला होना चाहिये। किन्तु उपपोगितावादियों के अतिरिक्त अन्य बहुत से मनुष्यों को सम्मति है कि ईमाई धर्म भेजने से ईश्वर का प्राशय था कि मनुष्यों के हृदय और मस्तिष्क में