इस पाठ को समझना तथा इसके अनुसार कार्य करना सब गुणों की आरम्भिक तथा आवश्यक शर्त है।
इनमें से पहिला आक्षेप यदि कुछ वास्तविकता लिये होता तो बड़ा वज़नदार होता। क्योंकि यदि सुख मनुष्यों के लिये अप्राप्य है तो सुख-प्राप्ति आचार या अन्य किसी सविवेक कार्य का लक्ष्य नहीं हो सकती। यद्यपि ऐसी दशा में भी उपयोगितावाद की पुष्टि में थोड़ा बहुत कहा जा सकता था, क्योंकि उपयोगिता सिद्धान्त केवल सुख-प्राप्ति की चेष्टा ही नहीं है वरन् कष्ट का कम करना भी है। इस कारण यदि सुख-प्राप्ति की आशा आकाश-कुसुम पाने की आशा ही के समान होती तो भी उस समय तक के लिये, जब तक कि मनुष्य जाति जीवित रहना चाहे और आत्म-हत्या की शरण न ले, उपयोगितावाद को बहुत कुछ काम करना रहता और इस सिद्धांत की बहुत कुछ आवश्यकता रहती। इस बात का ज़ोर से कहना-कि मानुषिक जीवन में सुखी होना असम्भव है, यदि मनमानी बात बकना नहीं है तो भी बात को बढ़ाकर कहना अवश्य है। यदि आनन्द से यह मतलब है कि निरन्तर सुखप्रद आवेश रहे तो यह प्रत्यक्ष ही है कि ऐसा होना असम्भव है। बहुत अधिक हर्ष की उमंग केवल कुछ क्षण रहती है या कुछ दशाओं में कुछ रुकावट के साथ कुछ घन्टे या कुछ दिन रहती है। इस बात से वे तत्वज्ञानी, जो आनन्द को जीवन का उद्देश्य बताते हैं, उतने ही परिचित थे जितने परिचित वे लोग हैं जो उनकी ख़ुश्की उड़ाते हैं। जिस आनन्द से उनका मतलब था वह उमङ्ग में अपने आप को भूल जाने का जीवन नहीं था। उन का मतलब ऐसे जीवन से था जिस में ऐसे अवसर आते