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उपयोगितावाद का अर्थ

पर अधिक जोर दिया है कि कार्य के अच्छे या आचारयुक्त होने का उस कार्य करने के प्रयोजन ( Motive ) से कुछ सम्बन्ध नहीं है। प्रयोजन से तो कर्त्ता की उच्चता या नीचता का पता चलना है। यदि कोई मनुष्य किसी डूबते हुवे मनुष्य को डूबने से बचाता है तो आचार-नीति की दृष्टि से उसका काम ठीक है, चाहे उसने अपना धर्म समझ कर ऐसा किया हो या इस कष्ट के बदले किसी प्रकार का पुरस्कार पाने की नियत से। जो ऐसे मित्र के साथ, जो उस में विश्वास करता है, विश्वासघात करता है वह बुरे काम का दोषी है, चाहे उसने यह काम किसी ऐसे मित्र की ख़ातिर किया हो जिस का वह अधिक ऋणी है। किन्तु यह समझ लेना, कि उपयोगितावाद का मतलब यह है कि मनुष्य सदैव संसार या सारे समाज को दृष्टि में रक्खे, ठीक नहीं है। अधिकतर काम संसार के लाभ की दृष्टि से नहीं वरन् मनुष्यों के फ़ायदे की नियत से किये जाते हैं। संसार का लाभ भी मनुष्यों के लाभ के मिलने से ही होता है। इस कारण यह आवश्यक नहीं है कि उच्च कोटि का पुण्यात्मा मनुष्य ऐसे अवसरों पर अपना ध्यान, उन विशेष मनुष्यों से जिन से उस के कार्य का सम्बन्ध है, हटाले। हां! इस बात का दृढ़ निश्चय करलेना अत्यावश्यक है कि कहीं वह उन विशेष व्यक्तियों को लाभ पहुंचाने में किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार पर तो आघात नहीं कर रहा है। उपयोगितावाद के अनुसार सुख का बढ़ाना ही नेकी का प्रयोजन है। ऐसे अवसर जब कोई मनुष्य--हज़ार में किसी एक व्यक्ति की बात दूसरी है--बहुत आदमियों को लाभ पहुंचा सकता है बहुत कम होते हैं! ऐसे अवसरों ही पर उस को एक मात्र सार्वजनिक हित का ख्याल रखना चाहिये।