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दूसरा अध्याय


कार्य को सदैव के लिये अच्छा या बुरा बताना कठिन है। प्राचारशास्त्रियों का कोई सा भी ऐसा सम्प्रदाय नहीं है जो कर्ता की नैतिक उत्तरदातृता या ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखते हुवे असाधारण परिस्थितियों के लिये अपने नियमों को ढीला नहीं कर देता है। इस कारण नियमों को ढीला करने की वजह से प्रत्येक मत में आत्म-वञ्चना तथा बेईमानी की तर्कप्रणवता घुस बैठती है। ये वास्तविक कठिनाइयां हैं। प्राचार शास्त्र की कल्पना में तथा अन्त:करण के आदेशानुसार अपने चरित्र को बनाने के मार्ग में ये कठिन समस्यायें हैं। व्यवहार में कर्ता अपनी बुद्धि तथा दृढ़चरित्रता की न्यूनाधिकता के कारण इन कठिनाइयों को थोड़ा या बहुत दूर कर सकता है। किन्तु विरोधात्मक अधिकारों तथा कर्तव्यों का निर्णय करने के लिये अन्तिम कसौटी उपस्थित करने की दशा में उपयोगितावाद को कम उपयोगी किस प्रकार ठहराया जा सकता है? यदि किसी कार्य की प्राचाग्युक्तता का अन्तिम प्रमाण उस कार्य की उपयोगिता है तो दो कर्तव्यों में परस्पर-विरोधात्मक होने की दशा में उपयोगिता की कसौटी पर कस कर ही इस झगड़े को निपटाना चाहिये। यद्यपि इस आदर्श या कसौटी को काम में लाना कठिन है, फिर भी कोई भी आदर्श या कसौटी न होने से तो किसी आदर्श या कसौटी का होना ही अधिक अच्छा है। अन्य सम्प्रदायों में प्राचार-शास्त्र के नियम स्वत: प्रमाण हैं। इस कारण विवाद उपस्थित होजाने की दशा में कोई मध्यस्थ नहीं है। वाक्चतुरता (Sophistry) ही से झगड़ा निपटाया जाता है। हमको याद रखना चाहिये कि गौण सिद्धान्तों में विरोध उपस्थित होने पर मूल सिद्धान्तों के अनुसार निर्णय करना ही आवश्यक है।