निर्विवाद है कि उस मनुष्य की इच्छाओं की पूर्णरूप से तुष्टि हो जाने की बहुत अधिक संभावना है जो बहुत थोड़ी वस्तुओं को आनन्द समझता है। उच्च विकाश-प्राप्त मनुष्य समझेगा कि संसार की इस दशा में जितने आनन्द हैं अपूर्ण हैं। किन्तु ऐसा मनुष्य सह्य होने की दशा में सुखों की अपूर्णताओं को सहन करना सीख सकता है। ऐसा मनुष्य कभी ऐसे मनुष्य से ईर्षा नहीं करेगा जो वास्तव में इन अपूर्णताओं से अपरिचित है क्योंकि वह जानता है कि अपूर्णताओं से अपरिचित मनुष्य उस लाभ को अनुभव नहीं कर सकता जो अपूर्णताओं से परिचित होने की दशा में होता है। सन्तुष्ट सुवर से असन्तुष्ट मनुष्य होना अच्छा है तथा सन्तुष्ट मूर्ख से असन्तुष्ट सुक़रात (Socrates) होना अच्छा है। यदि मूर्खों और सुवरों का ऐसा विचार नहीं है तो इस का कारण यही है कि वे सवाल के एक पहलू ही को जानते हैं और विकाश-प्राप्त मनुष्य सवाल के दोनों पहलुओं से परिचित होता है।
यह आक्षेप किया जा सकता है कि बहुत से ऐसे मनुष्य भी हैं जो उच्चतर आनन्दों के उपभोग करने की योग्यता रखने पर भी कभी २ प्रलोभन के कारण उनसे नीच कोटि के आनन्दों का उपभोग करने में लग जाते हैं। किन्तु इस बात से हमारे कथन की पुष्टि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। बहुधा चरित्र की दुर्बलता के कारण मनुष्य शीघ्र प्राप्त होने वाले आनंद के मुक़ाबले में उससे देर में प्राप्त होने वाले किन्तु उच्चतर आनन्द को छोड़ देते हैं। जब दो शारीरिक आनन्दों में इस प्रकार का मुक़ाबला होता है तो भी ऐसा ही होता है। शारीरिक तथा मानसिक आनन्दों के मुक़ाबले में भी यही बात देखने में