महापुरुष या शहीद का इस बात में विश्वास न रखते हुवे भी, कि हमारे इस आत्म-त्याग से दूसरों को इस प्रकार का आत्म-त्याग न करना पड़ेगा, आत्म-त्याग करते? क्या महापुरुष या शहीद यह जानता हुआ आत्म-त्याग करता है कि उसके ऐसा करने से उसके भाइयों को कुछ फल न मिलेगा और उनका जीवन भी सुख का त्याग कर देने वालों के समान ही हो जायगा। उन मनुष्यों का यथासम्भव सम्मान किया जाना चाहिये या जो संसारके उपकार या संसार का सुख बढ़ाने के लिये अपने सुख को लात मार देते हैं। किन्तु जो मनुष्य इसके अतिरिक्त और किसी उद्देश्य के लिये आत्म-त्याग करता है वह उस योगी से अधिक सम्मान का पात्र नहीं है जो अकारण अपने शरीर को नाना प्रकार के कष्ट देता रहता है। ऐसा मनुष्य इस बात का ज्वलन्त उदाहरण हो सकता है कि मनुष्य क्या कर सकता है किन्तु इस बात का नहीं कि मनुष्य को क्या करना चाहिये।
यद्यपि संसार की अत्यन्त अपूर्ण या अव्यवस्थित दशा ही में मनुष्य सुख को बिल्कुल तिलाञ्जलि देकर दूसरों के सुख को बढ़ा सकता है; किन्तु जब तक भी संसार इस अपूर्ण या अव्यवस्थित दशा में है इस प्रकार के आत्म-त्याग के लिये तैयार रहना मनुष्य का सब से बड़ा गुण है जो कि उस में हो सकता है।
मैं इतना और कहूँगा कि--चाहे यह बात परस्पर विरोधात्मक प्रतीत हो--कि संसार की इस दशा में जान बूझ कर सुख को तिलाञ्जलि दे देने की क्षमता से ऐसे सुख को पाने की, जो कि पाया जा सकता है, बहुत अधिक आशा बंधती है। क्योंकि जान बूझ कर ऐसा कर सकने के अतिरिक्त और