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दूसरा अध्याय

करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या कभी किसी ने दोनों प्रकार के आनन्दों का उपभोग करने में समर्थ होने पर भी निम्न कोटि के आनन्दों को उच्च कोटि के आनन्दों पर तरजीह दी है? हां यह तो देखा गया है कि बहुत से मनुष्यों ने दोनों प्रकार के आनन्दों को मिलाना चाहा है और वे अपने इस प्रयत्न में असफल रहे हैं।

एक मात्र अधिकारी पंडितों के इस निर्णय का मेरे विचार में कोई अपील नहीं हो सकता। इस विषय पर-कि दो आनंदों में या दो प्रकार के रहन सहन के ढंगों में, बिना किसी प्रकार की नैतिक दृष्टि से विचार किये हुवे, तथा उनके परिणामों की ओर कुछ ध्यान न देते हुवे कौनसा आनन्द अधिक अच्छा है या कौनसा ढंग अधिक आनन्दप्रद है-उन मनुष्यों के निर्णय ही को, जो दोनों प्रकार के आनन्दों तथा रहन सहन के ढंगों का पूर्ण ज्ञान रखते हों, अन्तिम निर्णय समझना चाहिये। मतभेद होने की दशा में बहुमत से निर्णय होना चाहिये। आनन्दों के गुणों के विषय में भी इस निर्णय को मानने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं चाहिये क्योंकि और कोई ऐसा दरबार नहीं है जहां परिमाण तक के विषय में निर्णय कराने के लिये जाया जाय। दो कष्टों में कौनसा कष्ट अधिक है या दो आनन्दों में कौनसा आनन्द अधिक अच्छा है-इस बात का निर्णय हम इस के अतिरिक्त और कैसे कर सकते हैं कि उन मनुष्यों की, जो दोनों प्रकार के दुःखों तथा सुखों से परिचित हों, सम्मति लें। न तो आनन्द ही समजातिक हैं और न कष्ट ही। आनन्द के मुकाबले में कष्ट सदैव विविध जातिक है। तजुरबेकार मनुष्यों के अनुभव तथा निर्णय की सहायता के बिना