चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ १७३ से – २०३ तक

 

निराले नगीने मन


है मनाना या मना करना कठिन।
मन सबों को छोड़ पाता छन नहीं॥
तब भला कैसे न मनमानी करे।
है किसी के मान का जब मन नही॥

काम के सब भले पथों को तज।
फँस गया बार बार भूलों मे॥
छोड़ फूले फले भले पौधे।
मन भटकता फिरा बबूलों में॥

दें नहीं पेट पीस औरों को।
जल रहें, बन न जाँय ओले हम॥
बात जितनी कहे मोलायम हो।
हो न मन की मुलायमीयत कम॥

खोलने पर नयन न खुल पाया।
सूझ पाया हमे न पावन थल॥
लोकहित जल मिला न मिल कर भी।
धुल न पाया मलीन मन का मल॥

है नही परवाह सुख दुख की उसे।
जो कि सचमुच जाय बे-परवाह बन॥
तब बलंदी और पस्ती क्या रही।
जब करे मस्ती किसी का मस्त मन॥

तो उसे प्रेमरंग मे रँग दो।
वह सदा रग है अगर लाता॥
लोकहित के लिये न क्यों मचले।
मन अगर है मचल मचल जाता॥

प्यास पैसों की उन्हें है जब लगी।
क्यों न तो पानी भरेंगे पनभरे॥
जग-विभव जब आँख में है भर रहा।
किस तरह तो मन भरे का मनभरे॥

दौड़ने मे ठोकरें जिस को लगीं।
वह भला कैसे न मुँह के बल गिरे॥
फेर की है बात इस में कौन सी।
जो किये मन फेर कोई मन फिरे॥

बैल में बैलपन मिलेगा ही।
क्यों करेगा न लैलपन छैला॥
क्यों न तन में हमें मिलेगा मल।
क्यों न होगा मलीन मन मैला॥

फूल किस को गूलरों से मिल सके।
फल सरों से है न कोई पा सका॥
मोतियों से मिल सका पानी किसे।
कौन मन के मोदकों को खा सका॥

है सराबोर सब रसो में वह।
सन सभी भाव में वही सनकी॥
खेल नित रग रग के दिखला।
रग लानी तरग है मन की॥

क्यों सकेगा न सुख-बसन जन बुन।
कान हित-सूत तन अगर न थके॥
तन सके क्यों न तो अमन ताना।
मन अगर बन अमन-पसद सके॥

बात हित की कब बताती है नहीं।
कब न समझाती बुझाती वह रही॥
मान कर बैठे मनाने से खिझे।
मति करे क्या, जो न मन, माने कही॥

पत्तियों तक को बहुत सुन्दर बना।
हैं उसी ने ही सजाये बाग बन॥
फल उसो से हैं फबीले हो रहे।
फुल फबता है मिले मन की फबन॥

हैं उसी मे भाव के फूले कमल।
जो सदा सिर पर सुजन सुर के चढ़े॥
हैं उपज लहरें उसी में सोहती।
सोत रस के मन सरोवर से कढ़े॥

हैं उसी के खेल जग के खेल सब।
लोक-कौतुक गोद में उस की पला॥
हैं उसी की कल सकल तन को कलें।
सब कलायें एक मन की है कला॥

मोल वाली मे बड़ा अनमोल है।
सामने उस के सकल धन धूल है॥
माल है वह सब तरह के माल का।
सब जगत के मूल का मन मूल है॥

क्या कही भूत का बसेरा है?
भूल है भय अगर कैंपाये तन॥
तो चढ़ेगा न भूत सिर पर क्यों।
भूत बन जाय जो किसी का मन॥

तो बनायेगा बड़ा हो औगुनी।
औगुनों से वह अगर होगा भरा॥
कौन इतनी है बुराई कर सका।
है बुरे मन सा न बैरी दूसरा॥

जायगा कैसे न वह दानव कहा।
जो कि दानवभाब लेकर अवतरा॥
देवता कैसे न देवेगा बना।
देवभावों से अगर है मन भरा॥

तो यहां ही हम नरक मे हे पड़े।
पाप का जी मे जमा है जो परा॥
स्वर्ग का सुख तो बेलसते है यही।
है भला मन जो भले भावों भरा॥

चाह बैकुंठ की नही रखते।
हैं नही स्वर्ग की रुची गहें।
है यही चाह चाह हरि की हो।
हों चुभी चित्त में भली चाहे॥

छोड़ खलपन अगर नही पाता।
पर-विभव क्यों न तो उसे खलता॥
डाह जब है जला रही उस को।
मन बिना आग क्यों न तो जलता॥

क्यों न बनतें सुहावना सोना।
लाग कर लौहपन अगर खोते॥
पर नही कर सके रसायन हम।
पास पारस समान मन होते॥

किस तरह जी में जगह देते उसे।
जी बहुत जिस से सदा ऊबा रहा॥
मान वालों से मिले तो मान क्यों।
मन अगर अभिमान मे डूबा रहा॥

बार घर बार को न तो समझे।
जो न जी मे बिकार हो थमता॥
तो न बैठें रमा रमा धूनी।
मन रहे जो न राम में रमता॥

तो तजा घर बना बनाया क्यों।
घर बनाया गया अगर बन में॥
आप को सत मान क्यों बैठे।
मान अपमान है अगर मन मे॥

तब लगाया भभूत क्या तन पर।
जो सके मोह-भूत को न भगा॥
तो किया क्या वसन रँगा कर के।
मन अगर राम-रग मे न रँगा॥

घर बसे और क्या बसे बन मे।
बासना जो बनी रहे बस मे॥
बेकसे और क्या कसे काया।
मन किसी का अगर रहे कस मे॥

ढोग है लोकसाधनायें सब।
जी हमारा अगर न हो सुलझा॥
उलझनें छोड़ और क्या हैं वे।
मन कही और हो अगर उलझा॥

एक को पूछता नही कोई।
एक आधार प्रेमधन का है॥
एक मन है न एक मन का भी।
एक मन एक लाख मन का है॥

फेन से भी है बहुत हलका वही।
मेरु से भारी वही है बन सका॥
मान किस मे है कि मन को तौल ले।
जब सका तब तौल मन को मन सका॥

मन न हो तो जहान है ही क्या।
मन रहे है जहान का नाता॥
मन सधे क्या सधा नहीं साधे।
मन बँधे है जहान बँध जाता॥

डूब कर के रगतों में प्यार को।
साथ ही दो फूल अलबेले खिले॥
मेल कर अनमोल दो तन बन गये।
मोल मन का बढ़ गया दो मन मिले॥

मन उबारे से उबरते हैं सभी।
कौन तारे से नही मन के तरा॥
मन सुधारे ही सुधरता है जगत।
मन उधारे ही उधरती है धरा॥

बार घर के बार जो हैं हो रहे।
तो न सूबे के लिये ऊबे रहें॥
क्यों पड़े तो मनसबों के मोह में।
पास मन के जो न मनसूबे रहें॥

जान है जानकार लोगों की।
और सिरमौर माहिरों का है॥
जौहरों का सदा रहा जौहर।
जौहरी मन जवाहिरों का है॥

एक मन है भरा हुआ मल से।
एक मन है बहुत धुला उजला॥
एक मन को कमाल है सिड़ में।
एक मन है कमाल का पुतला॥

लोथ पर लोथ तो नही गिरती।
लोभ होता उसे न जो धन का॥
लाखहा लोग तो न मर मिटते।
मन अगर जानता मरम मन का॥

एक मन है नरमियों से भी नरम।
एक मन की फूल जैसी है फबन॥
एक मन की रगतें है मातमी।
संग को है मात करता एक मन॥

मान ईमान तो करे कैसे।
जो समझ बूझ बेइमान बने॥
तो सके जान दुख दुखी कैसे।
मन अगर जान सब अजान बने॥

भेद है तो भेद क्यों होता नही।
भेद रख कर भेद पहचाने गये॥
जन न सनमाने गये सब एक से।
औ न सब मन एक से माने गये॥

बात लगती बोलियां औ विदअतें।
कब कहा किस ने सुखी बन कर सहीं॥
क्यों सताये एक मन को एक मन।
एक मन क्या दूसरे मन सा नही॥

निज दुखों सा गिने पराये दुख।
पीर को ठीक ठीक पहचाने॥
तो न मनमानियां कभी होगी।
जो मनों को समान मन माने॥

तो सितम पर सितम न हो पाते।
तो न होती बदी बड़े बद से॥
तो न दिल चूर चूर हो जाते।
चूर होता न मन अगर मद से॥

सुख मिले सुख किसे नहीं होता।
हैं सभी दुख मिले दुखी होते॥
मन सके मान या न मान सके।
हैं सफल मन समान ही होते॥

नाम सनमान सुन नहीं पाता।
देख मेहमान को सदा ऊबाना॥
मान का मान कर नही सकता।
मन गुमानी गुमान में डूबा॥

है उसी एक को कला सब में।
किस लिये नीच बार बार नुचा॥
काम लेवे न जो कमालों से।
तो कहा मन कमाल को पहचा॥

है जगत जगमगा रहा जिस से।
जो मिला वह रतन न नर-तन मे॥
कर बसर जो सके न सरबस पा।
तो भरी है बड़ी कसर मन में॥

जो न रॅग जाय प्यार रंगत में।
तो उमग क्यों उमग में आवे॥
किस लिये धन समान तो उमड़े।
मन दया-चारि जो न बरसावे॥

अनगिनत जग बिसात मोहरों का।
कौन मन के समान माहिर है॥
घह समझ बूझ सोत का सर है।
शान की जोत का जवाहिर है॥

चैन चौपाल चोज चौबारा।
चाव चौरा चबाव आँगन है॥
चाल का चौतरा चतुरता कल।
चाह थल चेतना महल मन है॥

है पुलकता लहू सगों का पी।
बाप को पीस मूस मा का धन॥
कब उठा कांप पाप करने से।
पाप को पाप मान पापी मन॥

है कतरब्योंत पेच पाच पगा।
छल उसे छोड़ता नही छन है॥
मौत का मुँह मुसीबतों का तन।
सांप का फन कपट भरा मन है॥

क्यों कड़े ऑख से न चिनगारी।
क्यों न उठने लगे लवर तन मे॥
क्यों बचन तब बने न अगारे।
कोप को भाग जब जली मन में॥

यम नही हैं भयावने वैसे।
है न रौरव नरक बुरा वैसा॥
है अधमता सभी भरी उस में।
है अधम कौन मन अधम जैसा॥

टूट पड़ती रहे मुसीबत सब।
खेलना सॉप से पड़े काले॥
काल डाले सकल बलाओं में।
पर पड़े मन न कोप के पाले॥

कुछ करेगे रंग बिरगे तन नहीं।
जायगी बहुरगियों में बात बन॥
रग में उस के सभी रॅग जायगा।
प्रेम रंगत मे अगर रँग जाय मन॥

छानते तो बड़े बड़े जगल।
और जो यह समुद्र बन जाता॥
डालते पीस पर्वतों को हम।
मन डिगाये अगर न डिग पाता॥

डालते किस लोक में डेरा नहीं।
डर गये कोई नही कुछ बोलता॥
धाक से तो डोल जाता सब जगत।
जो न डावाडोल हो मन डोलता॥

आँख में तो नये नये रस का।
बह न सकता सुहावना सोता॥
चहचहे तो न कान सुन पाता।
जो दिखाता न रग मन होता॥

रग जाता बिगड़ लताओं का।
पेड़ प्यारा हरा बसन खोता॥
फूल रंगीनियां न रह पातीं।
रग लाता अगर न मन होता॥

जीभ रस-स्वाद तो नही पाती।
तो पिरोती न लेखनी माती॥
मोहती नाक को महॅक कैसे।
जो न मन की कुमक मिली होती॥

रख सके आन बान जो अपना।
हैं हमे मिल सके नही वैसे॥
सामने झुक गये हठीले सब।
मन हठी ठान ले न हठ कैसे॥

चाँद सूरज चमक दमक खो कर।
जॉयगे बन बनाय बेचारे॥
जोत मन की न जो रहे जगती।
तो सकेंगे न जगमगा तारे॥

तो रुचिरता कहा रही उस मे।
रुचि हितों में रहे न जो पगती॥
तो भले का कहां भला मन है।
जो भलाई भली नहीं लगती॥

हो सकेगा कुछ नही काया कसे।
जो पराया बन नही पाया सगा॥
योग जप तप रगतों में क्या रँगे।
जो न परहित रग मे मन हो रँगा॥

मूल उस को कमाल का समझे।
छोड़ जंजाल जाप का जपना॥
सोच अपना बिकास अपना हित।
मन जगत को न मान ले सपना॥

है अगर घट मे नही गगा बही।
कौन तो गंगा नहा कर के तरा॥
तो न होवेंगे बिमल जल से धुले।
है अगर मन मे हमारे मल भरा॥

है बड़े, सुन्दर सुरों की संगिनी।
बज रही है भाव मे भर हर घड़ी॥
रस बरस कर है सुरत को माहती।
बांसुरी मन की सुरीली है बड़ी॥

बादलों मे हे अनूठी रगते।
इन्द्रधनु मे है निराली धारियां॥
है नगीना कौन सा तारा नही।
है कहा मन की न मीनाकारियां॥

चाह बिजली चमक अनूठी है।
श्याम रँग मे रॅगा हुआ तन है॥
है बरसता सुहावना रस वह।
मन बड़ा ही लुभावना घन है॥

है वही सुन्दर सराहे मन जिसे।
हैं जगत में सब तरह की सूरतें॥
मन अगर ले मान मन दे मान तो।
देवता है मन्दिरों की मूरतें॥

है अगर मानता नहीं मन तो।
कौन नाना व कौन मामा है॥
मन कहे और मान मन ले तो।
बाप है बाप और मा, मा, है॥

है जहाँ चाहता वही जाता।
कौन है दौड़ धूप मे ऐसा॥
बेग वाला बहुत बड़ा है वह।
है पवन बेग में न मन जैसा॥

है कपट काटछाट का पुतला।
छूट और छेड़छाड़ का घर है॥
छैलपन है छलक रहा उस मे।
मन छिछोरा छली छछू दर है॥

बात करता कभी हवा से है।
वह कभी मद मद चलता है॥
खूब भरता कभी छलांगे है।
मन कभी कूदता उछलता है॥

मंद ऑखे क्या अँधेरे में पड़े।
जो लगाये है समाधि न लग रही॥
खोल आंखें मन सजग कर देख लो।
हे जगतपति जोत जग मे जग रही॥

अनमने क्यों बने हुए मन हो।
नेक सन्देह है न सत्ता मे॥
कह रहे है हरे भरे पौधे।
हरि रमा है हरेक पत्ता मे॥

मतलबी पालिसी-पसन्द बड़ा।
बेकहा बेदहल जले तन है॥
है उसे मद मुसाहिबी प्यारी।
साहिबी से भरा मनुज-मन है॥

पाक पर-दुख-दुखी परम कोमल।
हित धुरा, प्यार-जोत-तारा है॥
है दया-भाव का दुलारा वह।
सत मन संतपन सहारा है॥

है सुधा में सना हलाहल है।
फूल का हार साँप काला है॥
है निरा प्यार है निरा अनबन।
नारि का मन बड़ा निराला है॥

है खिला फूल, लाल अगारा।
बाग सुन्दर बड़ा भयानक बन॥
काठ उकठा हरा भरा पौधा।
है गरम है बड़ा नरम नर-मन॥

है बड़ा ही सुभाषना सुन्दर।
है उसी का कमाल भोलापन॥
लोक के लाड़-प्यार-वालों का।
है बड़ा लाड़-प्यार-वाला मन॥

क्यों न उस पर वार में लाखों टके।
है जगत में दूसरा ऐसा न धन॥
है निराला लाल आला माल है।
गोदियों के लाल का अनमोल मन॥

है उसी से भलाइयाँ उपजी।
लोक का लाभ है उसी का धन॥
कब न जन-हित रहा सजन उस का।
है सुजनता भरा सुजन का मन॥

है बदी बीज बैर का पुतला।
पाप का बाप सॉप का है तन॥
हे छुरा धार है धुरा छल का।
है बहुत ही बुरा कुजन का मन॥

देख कर के और को फूला फला।
रह सका उस का नही मुखड़ा हरा॥
कीच तो उस ने उछाला ही किया।
नीच का मन नीचपन से है भरा॥

वह अनूठा बसत जैसा है।
है बड़ा ही सुहावना उपबन॥
चाँद जैसा चमक दमक मे है।
है खिले फूल सा सुखी का मन॥

भोर का चाँद सॉझ का सूरज।
है लगातार दग्ध होता बन॥
है कमलदल तुषार का मारा।
बहु दुखों से भरा दुखी का मन॥

पा समय मोम सा पिघलता है।
फूल है प्यार रग मे ढाला॥
है मुलायम समान माखन के।
है दयावान मन दयावाला॥

है सुफल भार से झुका पौधा।
है बिमल बारि से बिलसता घन॥
दीनहित के लिये दयानिधि का।
है बड़ा दान दानियों का मन॥

दिल उसे दे दें मगर उस से कभी।
एक मुठी मिल नहीं सकता चना॥
जान देगा पर न देगा दान वह।
सूमपन मे सूम का मन है सना॥

वह कभी काल से नही डरता।
वास यमराज का उसे कैसा॥
है बना सूर, सूर, मन से ही।
कौन है सूर सूर-मन जैसा॥

कर सकेगा और का कैसे भला।
जो भलाई में लगाया तन न हो॥
हो सकेगा तो न पूरा हित कभी।
जो भरा हित से पुरोहित मन न हो॥

है बल के लिये बड़ा बल वह।
धाक गढ़ आनबान देरा है॥
धीरता धाम धवरहर धुन का।
बीर-मन बीरता बसेरा है॥

है गगन तल मे हवा उस की बॅधी।
धाक उस की है धरातल में धँसी॥
कौन साहस कर सका इतना कभी।
साहसी मन ही बड़ा है साहसी॥

आँख मे सुरमा लगाया है गया।
है धड़ी की होंठ पर न्यारी फबन॥
भूलती हैं चितवने भोली नहीं।
तन हुआ बूढ़ा हुआ बूढ़ा न मन॥

तो भले भाव के लिये वह क्यों।
बारहा जाय जी लगा जाँचा॥
हो मगन देख लोक-हित-धन तन।
मन अगर मोर लौं नही नाचा॥

है बड़ी भूल भाव में डूबा।
पी कहा नाद जो नही भाया॥
जाति-उपकार-स्वाति के जल का।
मन पपीहा अगर न बन पाया॥

है बड़ा भाग जो बड़े हों हम।
सब भले रंग में रँगा हो तन॥
दुख दिखाये न दुखभरी सूरत।
सुख कमल मुख भँवर बना हो मन॥

तब भलाई भली लगे कैसे।
भूलता जब कि तोर मर नही॥
लोकहित चाव चन्द्रमा का जब।
मन चतुर बन सका चकोर नहीं॥

जो गया भूल देख भोलापन।
चोगुना चाव क्यो न तो करती॥
मुखकमल भावरस भरा पाकर।
मन-भँवर क्यों न भॉवरें भरता॥

हो गया है हवा, हवस मे फॅस।
वह गया बदहवास बन बौड़ा॥
हो सका दूर दुख नही उस का।
मन बहुत दूर दूर तक दौड़ा॥

आम वैसा कहाँ रसीला है।
चाँद कब रस बरस सका ऐसा॥
कर रसायन मिली जवानी कब।
रस कहाँ है जवान-मन जैसा॥

मानता हो न जब कही मेरी।
और करता सदा किनारा हो॥
अनमने तब न हम रहें कैसे।
मन हमारा न जब हमारा हो॥

कौन सा पद मिला नही उस से।
कौन सा मुख गया नहीं भोगा॥
फिर करे मोल जोल क्यों कोई।
मोल क्या मन अमोल का होगा॥

प्यार का प्यार जब न हो उस को।
जब न हित का उसे सहारा हो॥
तब हमे मान मिल सके कैसे।
मन न जब मानता हमारा हो॥

कब निछावर हुआ न वह उस पर।
धन बराबर कभी न तन के है॥
है रतन कौन इस रतन जैसा।
कौन सा मणि, समान मन के है॥

तब न कैसे और भी कस जायगा।
जब कि सन की गाँठ मे पानी पड़ा॥
तब कठिन से भी कठिन होगा न क्यों।
मन कठिन कठिनाइयों मे जब पड़ा॥

भर गई हैं खुटाइयॉ जिस में।
भाव उस मे भले भरोगे क्या॥
है बुरे कब बुराइयाँ तजते।
मन बुरा मान कर करोगे क्या॥

हे कराती काम वे बातें नही।
जो जमाये से नही जो मे जमे॥
मान करके जो न मन को ही चलें।
मिल सके ऐसे न मन वाले हमे॥

कम न अपमान हो चुका जिन का।
हित उन्हे मान क्यों नही लेते॥
बात यह मान की तुमारे है।
मन उन्हे मान क्यों नही देते॥

जो बनाये जॉय बिगड़े काम सब।
बात बिगड़ी जायगी कैसे न बन॥
माल मनमाना उसे मिल जाय तो।
क्यों न मालामाल हो पामाल मन॥

चाहते तंग है बहुत होती।
हैं बुढ़ापा तरंग ही तन मे॥
रग ही है न ढग हो है वह।
अब न है वह उमग ही मन मे॥

कुछ कलेजे

मोम-माखन सा मुलायम है वही।
प्यार में पाया उसी को सरगरम॥
है उसी मे सब तरह की नरमियॉ।
फल से भी मा-कलेजा है नरम॥

प्यार को आँच पा पिघलने में।
मा-कलेजा न मोम से कम है॥
वह निराली मुलायमीयत पा।
फेन से, फूल से, मोलायम है॥

एक मा को छोड़ ममता मोह में।
है किसी का मन न उस के माप का॥
सब हितों से उर उसी का है भरा।
प्यार से पुर है कलेजा बाप का॥