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निराले नगीने

है सराबोर सब रसो में वह।
सन सभी भाव में वही सनकी॥
खेल नित रग रग के दिखला।
रग लानी तरग है मन की॥

क्यों सकेगा न सुख-बसन जन बुन।
कान हित-सूत तन अगर न थके॥
तन सके क्यों न तो अमन ताना।
मन अगर बन अमन-पसद सके॥

बात हित की कब बताती है नहीं।
कब न समझाती बुझाती वह रही॥
मान कर बैठे मनाने से खिझे।
मति करे क्या, जो न मन, माने कही॥

पत्तियों तक को बहुत सुन्दर बना।
हैं उसी ने ही सजाये बाग बन॥
फल उसो से हैं फबीले हो रहे।
फुल फबता है मिले मन की फबन॥