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निराले नगीने
दें नहीं पेट पीस औरों को।
जल रहें, बन न जाँय ओले हम॥
बात जितनी कहे मोलायम हो।
हो न मन की मुलायमीयत कम॥
खोलने पर नयन न खुल पाया।
सूझ पाया हमे न पावन थल॥
लोकहित जल मिला न मिल कर भी।
धुल न पाया मलीन मन का मल॥
है नही परवाह सुख दुख की उसे।
जो कि सचमुच जाय बे-परवाह बन॥
तब बलंदी और पस्ती क्या रही।
जब करे मस्ती किसी का मस्त मन॥
तो उसे प्रेमरंग मे रँग दो।
वह सदा रग है अगर लाता॥
लोकहित के लिये न क्यों मचले।
मन अगर है मचल मचल जाता॥