चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ २०३ से – २१६ तक

 

भेद है बाप-मा-कलेजे मे।
तर बतर एक दूसरा तर है॥
एक में कुछ कसर असर भी है।
दूसरा बेकसर सरासर है॥

काम का बाप का कलेजा है।
मा कलेजा मयाधरोहर है॥
एक है प्यार का बड़ा झरना।
दूसरा प्यार का सरोवर है॥

प्यारवाला है कलेजा बाप का।
मा कलेजा प्यार से भरपूर है॥
जो रसीला आम मानें एक को।
दूसरा तो रसभरा अगूर है॥

मा कलेजा दूध से है तरबतर।
है कलेजा बाप का हित से हरा॥
है निछावर एक होता प्यार पर।
दूसरा है प्यार से पूरा भरा॥

एक से मा बाप के है उर नहा।
एक सी उन मे न है हित की तहे॥
है अगर वह फल तो यह फेन है।
मोम उस को औ इसे माखन कहे॥

जनमने का एक ही रज-बीज से।
कौन से सिर पर गया सेहरा धरा॥
एक भाई का कलेजा छोड़ कर।
है कलेजा कौन सा भायप भरा॥

प्यार की जिस मे न प्यारी गध है।
वह कमल जैसा खिला तो क्या खिला॥
चाहना उस से भलाई भूल है।
जिस कलेजे में न भाईपन मिला॥

प्यार का दिल क्यों न तो हिल जायगा।
भाइयों से जो न भाई हो हिले॥
तो मिलाने से मिलें क्यों दूसरे।
जो न टुकड़े हों कलेजे के मिले॥

वह कलेजा नही सगे का है।
चूकता जो रहा भलाई में॥
भूल से भूल है बड़ी कोई।
हों भले भाव जो न भाई मे॥

है किसी काम की न वह भायप।
है गया भूल जो कमाई में॥
क्यों भरा भेद तो कलेजे मे।
हो अगर भेद-भाव भाई मे॥

चुहचुहाते हुए सहज हित का।
है लबालब भरा हुआ प्याला॥
है कलेजा किसी बहिन का क्या।
है खिली प्यार-बेलि का थाला॥

मा कलेजे से निकल हित-रंग में।
जो निराले ढंग से ढलती रही॥
वह बड़ी नायाब धारा नेह की।
है बहिन के ही कलेजे में बही॥

लग गये जिस के लगी ही लौ रहे।
वह लगन सच्ची, वहो दिखला सका॥
एक जिस से दो कलेजे हो सके।
प्यार वह, प्याई-कलेजा पा सका॥

डूब करके चाहतों के रग मे।
प्रोति-धारा में परायापन बहा॥
हित उसी मे घर हमे करते मिला।
प्यार-घर घरनी कलेजा ही रहा॥

हित-महॅक जिस की बहुत है मोहती।
जो रहा जनचित-भँवर को चावथल॥
पासका जिस से बड़ी छबि प्यार-सर।
है कलेजा बेटियों का वह कमल॥

जा रहा हे जगमगा हित-जोत से।
चोप कगूरा सका जिस से बिलस॥
प्यार का जिस पर मिला पानिप चढ़ा।
है कलेजा बेटियों का वह कलस॥

लाभ-पुट से लुभावनापन ले।
रग है लाल प्यार लोहू का॥
लालसा से लसे हितों का थल।
है कलेजा किसी पतोहू का॥

है उसी मे पूतपन को रगतें।
हित रसों का है वही सुन्दर घड़ा॥
प्यार उस का ही दुलारा है बहुत।
है कलेजा पूत का प्यारा बड़ा॥

बाप-मा-मान का हुआ अनमल।
हित हुआ चूर, सुख गया दलमल॥
पा सका प्यार पल न कल जिस से।
है कलेजा कपूत का वह कल॥

अब लोहा हुआ हुनर सोना।
छू जिसे रिस हुआ अछूता रस॥
पाक है लोक-प्यार से पुर है।
है कलेजा सपूत का पारस॥

कलेजा कमाल

है, लबालब भरा भलाई जल।
सोहती है सहज सनेह लहर॥
है खिला लोक-हित-कमल जिस में।
है कलेजा सुहावनी वह सर॥

है सुरुचि के जहाँ बहे सोते।
है दिखाती जहाँ दया-धारा॥
पा सके प्यार सा जहाँ पारस।
है कलेजा-पहाड़ वह प्यारा॥

सब रसों की कहाँ बही धारा।
है कहाँ बेलि रीझ की ऐसी॥
है कहाँ भाव से भले पौधे।
कौन सी कुंज है कलेजे सी॥

हैं जहाँ चोप से अनूठे पेड़।
गा रहा है जहाँ उमग खग राग॥
है जहाँ लहलही ललक सी बेलि।
है कलेजा लुभावना वह बाग॥

मनचलापन मकान आला है।
चोचला चौक चाववाला है॥
है चुहल से चहल पहल पूरी।
नर-कलेजा नगर निराला है॥

है भले भाव देवते जैसे।
है कही देवते नही वैसे॥
है कहीं भक्ति सी नही देवी।
हैं न मंदिर कहीं कलेजे से॥

चेरियॉ है चुनी हुई चाहें।
चाव सा है बड़ा चतुर चेरा॥
मन महाराज मति महारानी।
है कलेजा महल सरा मेरा॥

है समझ को जहाँ समझ मिलती।
है जहाँ ज्ञानमान मन जैसा॥
पढ़ जहाँ पढ़ गये अपढ़ कितने।
है न कालिज कही कलेजे सा॥

हैं भरे दुख भयावने जिस में।
है जहाँ आप पाप जैसा थम॥
है जलन आग जिस जगह जलती।
है नरक से न नर-कलेजा कम॥

ठोसपन से ठसक गठन से हठ।
ऐंठ भी है उठान से बढ़ चढ़॥
हैं गढ़ी बात की चढ़ी तोपें।
नर-कलेजा गुमान का है गढ़॥

बुद्धि को कामधेनु करतब को--
जो कहें कल्पतरु, न बेजा है॥
है मगन मन उमंग नन्दनबन।
स्वर्ग जैसा मनुज कलेजा है॥

कसौटी

पास खुटचाल पेचपाच कसर।
कुढ़ कपट काटछॉट कीना है॥
क्यों करेगा नही कमीनापन।
कम कलेजा नही कमीना है॥

हो भरा सब कठोरपन जिस में।
संग कहना उसे न बेजा है॥
है ठसक, गाँठ, काठपन जिस में।
वह बड़ा ही कठिन कलेजा है॥

कर खुटाई बढ़ा बढ़ा खटपट।
प्यार को बेतरह पटकता है॥
है खटक खोट नटखटी जिस में।
वह कलेजा बहुत खटकता है॥

काहिली, कलकान, कायरपन, कलह।
क्यों न बेबस कर बढ़ा दें बेबसी॥
क्यों बचाई जा सकेगी पत बची।
जब कचाई है कलेजे में कसी॥

मोह लेते मिला वही मन को।
जो गया है न मोह मद से भर॥
काम के काम कर सका कुछ वह।
जो कलेजा सका मकर कम कर॥

दूर अनबन वही सकेगा कर।
जो बना रज का न प्याला है॥
क्यों पड़ेगा न मेल का लाला।
जब कलेजा मलालवाला है॥

लोभ है तो झली ललक भी है।
मान के साथ मन मगन भी है॥
है कसर ही नही कलेजे में।
है अगर लाग तो लगन भी है॥

मोम है, है समान माखन के।
जोंक है, और नोक नेजा है॥
फूल से भी कही मुलायम है।
काठ से भी कठिन कलेजा है॥

दुख बड़े से बड़े उसी में हैं।
है बड़ा दुख जिन्हें अँगेजे में॥
एक से एक हैं कड़े पचड़े।
हैं बखेड़े बड़े कलेजे में॥

वही चलता उसी की चल सकी।
जो बना चौचंद, चोखा, चरपरा॥
चालवाले को कलेजा चाहिये।
चापलुसी, चाल, चालाकी भरा॥

क्यों रहे चैन उस कलेजे में।
क्यों लटे वह न देख गत वाँ की॥
भूत-भय का जहाँ बसेरा है।
है जहाँ पर चुडैल चिन्ता की॥

है भरा चेटकों चपेटों से।
यह कलेजा उचाटवाला है॥
चुस्त है चिड़चिड़ा चटोरा है।
चटपटी चाव चाटवाला है॥

क्या नहीं है भला कलेजे में।
ढील है ढीठपन ढला रस है॥
है ढचर, हैं ढकोसले उस में।
ढोंग है ढन ढूँढ ढाढ़स है॥

है बही जिस ठौर बेतरनी नदी।
गंग की धारा वहाँ कैसे बहें॥
क्या बुरा है जो कलेजे में बुरे।
बैर बदकारी बुराई बू रहे॥

है भरा बेहिसाब भोलापन।
है भटक, भेद-भाव दावा है॥
और क्या है लचर कलेजे में।
भूल है भय भरम भुलावा है॥

जो कलेजे कहे गये छोटे।
क्यों न उन मे रहे छोटाई छल॥
बीर के ही बड़े कलेजे में।
है बिनय बीरता बड़ाई बल॥

सुख सदा पास रह सका जिस के॥
है उसी एक को मिला सरबस।
है कलेजा वही बसे जिस में॥
सुरता सादगी सुरुचि साहस।