साहित्य का उद्देश्य/26
[इस शीर्षक के अन्तर्गत लेखक की चार महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं जिनसे साहित्य और भाषा के अनेक सवालों पर रोशनी पड़ती है। ये टिप्पणियाँ अलग-अलग मौकों पर लिखी गयीं, लेकिन इनके पीछे काम करनेवाला विचार एक ही है, इसलिए इन्हें एक स्थान पर दिया जा रहा है।
-संग्रहकर्ता]
१: एक सार्वदेशिक साहित्य-संस्था की आवश्यकता
भारत में विज्ञान और दर्शन की, इतिहास और गणित की, शिक्षा और राजनीति की आल इंडिया संस्थाएँ तो हैं लेकिन साहित्य की कोई ऐसी संस्था नहीं है। इसलिए, साधारण जनता को अन्य प्रान्तों की साहित्यिक प्रगति की कोई खबर नहीं होती और न साहित्य-सेवियों को ही आपस में मिलने का अवसर मिलता है।
बंगाल के दो-चार कलाकारों के नाम से तो हम परिचित हैं; लेकिन गुजराती, तामिल, तेलुगू और मलयालम आदि भाषाओं के निर्माताओं से हम बिल्कुल अपरिचित हैं। अंग्रेजी साहित्य का तो जिक्र ही क्या, फ्रांस, जर्मनी, रूस, पोलैंड, स्वेडेन, बेलजियम आदि देशों के साहित्य से भी अंग्रेजी अनुवादों द्वारा हम कुछ न कुछ परिचित हो गये हैं, लेकिन बँगला को छोड़कर भारत की अन्य भाषाओं की प्रगति का हमें बिल्कुल ज्ञान नहीं है। हरेक प्रान्तीय भाषा अपना सम्मेलन अलग-अलग करती
है, और करना ही चाहिए । हरेक प्रान्त मे लोकल कौंसिलें हैं पर
प्रान्तीय साहित्यो की केन्द्रीय संस्था कहाँ है ? हमारे खयाल मे ऐसी
एक सस्था की जरूरत है और यदि साहित्य सम्मेलन इसकी स्थापना
करे, तो वह राष्ट्र और हिन्दी की बड़ी सेवा करेगा।
अभी तक हिन्दी ने जो विस्तार प्राप्त किया है, वह एक प्रकार से अपनी शक्ति द्वारा किया है । हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जो भारत के सभी बड़े शहरो मे समझी जाती है, चाहे बोली न जाती हो । अगर अंग्रेजी बीच मे ना खडी होती, तो अन्य प्रान्तो के निवासी एक-दूसरे से हिन्दी ही मे बातें करते और अब भी करते हैं यद्यपि वही, जो अंग्रेजी से अनभिज्ञ है।
अब वह समय आ गया है कि प्रान्तीय भाषाओं का सम्बन्ध ज्यादा घनिष्ट किया जाय और हमारे सस्कारो का ऐसा समन्वय हो जाय कि हम राष्ट्रीय भाषा का ही नहीं, राष्ट्रीय साहित्य का निर्माण भी कर सके। हरेक प्रान्त के साहित्य की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। यह आवश्यक है कि हमारी राष्ट्र-भाषा मे उन सारी विशेषताओ का मामजस्य हो जाय और हमारा साहित्य प्रान्तीयता के दायरे से निकलकर राष्ट्रीयता के क्षेत्र मे पहुँच जाय । इस विषय मे हम अन्य भाषाओ के कर्णधारा की सहायता और सहयोग से जितना आगे बढ सकते है, उतना और किसी तरह नहीं बढ़ सकते । यो तो कई बॅगला और मराठी के विद्वान् हिन्दी मे बराबर लिख रहे है और अनुमान किया जा सकता है कि हिन्दी का क्षेत्र सदैव फैलता जायगा, लेकिन ऐसी राष्ट्रीय साहित्य-संस्था के द्वारा हम इस प्रगति को और तेज कर सकते हैं।
अभी हमे बम्बई जाने का अवसर मिला था। वहाँ गुजरात के
प्रमुख साहित्य-सेवियो से बातचीत करने का हमे सौभाग्य प्राप्त हुश्रा ।
हमे मालूम हुआ कि वे ऐसी सस्था के लिए कितने उत्सुक है, बल्कि मैं
तो कहूँगा कि यह प्रस्ताव उन्हीं महानुभावो का था और हिन्दी-साहित्य
सम्मेलन के माननीय अधिकारियो से अनुरोध करूँगा,कि वे इस प्रस्ताव
को कार्यरूप में परिणत करे । हिन्दी का प्रचार समस्त भारत मे बढ रहा
है। यदि साहित्य-सम्मेलन ऐसी सस्था का आयोजन करे, तो मुझे
विश्वास है कि अन्य भाषाओ के लेखक उसका स्वागत करेगे और
हिन्दी का गौरव भी बढेगा और विस्तार भी।
यह कौन नहीं जानता कि भारत मे प्रान्तीयता का भाव बढता जा
रहा है। इसका एक कारण यह भी है, कि हरेक प्रान्त का साहित्य
अलग है । यह आदान-प्रदान और विचार-विनिमय ही है, जिसके द्वारा
प्रान्तीयता के संघर्ष को रोका जा सकता है । राष्ट्रों का निर्माण उसके
साहित्य के हाथ मे है । यदि साहित्य प्रान्तीय है, तो उसके पढ़नेवालों
मे भी प्रान्तीयता अधिक होगी । अगर सभी भारतीय भाषाअो के साहित्य-
सेवियो का वार्षिक अधिवेशन होने लगे, तो सघर्ष की जगह सौम्य सह-
कारिता का भाव उत्पन्न होगा और यह निश्चय रूप से कहा जा सकता
है कि साहित्यो के सन्निकट हो जाने से प्रान्तो मे भी सामीप्य हा जायगा ।
जिन विद्वानो का अभी हमने नाम ही मुना है, उन्हे हम प्रत्यक्ष देखेंगे,
उनके विचार उनके श्रीमुख से सुनेगे और सत्सग से बहुत से भ्रम, बहुत सी
सकीर्णताएँ श्राप ही आप शान्त हो जायेंगी । अन्यत्र हम पी० ई० एन०
नामक विश्व-साहित्य-सस्था का सक्षिप्त विवरण प्रकाशित कर रहे है।
जब बड़ी बड़ी उन्नत भाषाप्रो को ऐसी एक सस्था की जरूरत मालूम
होती है, तो क्या भारत की प्रान्तीय भाषाओं का एक केन्द्रीय संस्था से
सम्बद्ध हो जाना आवश्यक नही है ? भारत की आत्मा, अभिव्यक्ति के
लिए अपने साहित्यकारो की ओर देख रही है । दार्शनिक उसके विचारो
को प्रकट कर सकता है, वैज्ञानिक उसके ज्ञान की वृद्धि कर सकता है,
उसका मर्म, उसकी वेदना, उसका आनन्द, उसकी अभिलाषा, उसकी
महत्वाकाक्षा तो साहित्य ही की वस्तु है और वह महान शक्ति प्रान्तीय
सीमाओं के अन्दर जकडी पड़ी है। बाहर की ताजा हवा और
प्रकाश से वह वचित है और यह बन्धन उसके विकास और वृद्धि मे
है। साहित्य भी उसी जलवायु मे पूरी तरह विकास पा सकता है, जब
उसमे आदान-प्रदान होता रहे, उसे चारो तरफ से हवा और रोशनी
शाजादो के साथ मिलती रहे । प्रान्तीय चारदीवारी के अन्दर साहित्य
का जीवन भी पीला, मुर्दा और बे-जान होकर रह जायगा । यही विचार
थे, जिन्होने हमे इस परिषद् की बुनियाद डालने को आमादा किया,
और यद्यपि अभी हमे वह कामयाबी नही हुई है जिसकी हमने कल्पना
की थी पर आशा है कि एक दिन यह परिषद् सच्चे अर्थों मे हिन्दुस्तान
का साहित्यिक परिषद् बन जायगा। इस साल तो प्रान्तीय परिषदो से
बहत कम लोग आये थे । इसका एक कारण यह हो सकता है कि हमे
जल्दी से काम लेना पड़ा । हम पहले से अपना कार्यक्रम निश्चित न
कर सके, प्रान्तीय साहित्यकारो को काफी समय पहले कोई सूचना न दी
जा सकी। महात्माजी की बीमारी के कारण दो बार तारीखें बदलनी
पड़ी। इतने थाडे समय मे जो कुछ हुआ, वहां गनीमत है । हमे गर्व है
कि परिषद की बुनियाद महात्माजी के हाथो पडी। अपने जीवन के अन्य
विभागो को भॉति साहित्य मे भी, जिसका जोवन से गहरा सम्बन्ध है,
उन्हाने लोकवाद का समावेश किया है और गुजराती-साहित्य मे एक खास
शैली और स्कूल के आविष्कारक है। आपने बहुत ठीक कहा कि-
'मेरी दृष्टि मे तो साहित्य की कुछ सीमा-मर्यादा होनी चाहिए। मुझे
पुस्तको की संख्या बढ़ाने का मोह कभी नही रहा है। प्रत्येक प्रान्त की
भाषा मे लिखी और छपी प्रत्येक पुस्तक का परिचय दूसरी सब भाषाओं
मे होना मै आवश्यक नहीं मानता । ऐसा प्रयत्न यदि सभव भी हो, तो
उसे मै हानिकर समझता हूँ । जो साहित्य एकता का, नीति का, शौर्यादि
गुणो का, विज्ञान का पोषक है उसका प्रचार प्रत्येक प्रान्त मे होना
आवश्यक और लाभदायक है । भारयीय परिषद् का यही उद्देश्य होना
चाहिए कि प्रान्तीय भाषाओ मे जो कुछ ऊँचा उठाने वाला, जीवन
देनेवाला, बुद्धि और आत्मा का परिष्कार करने वाला अश है-उसी
का हिन्दुस्तानी द्वारा दूसरी भाषाश्रो को परिचय कराया जाय ।'
कुछ लोगों को एतराज है कि महात्माजी ने अपने भाषण मे शृङ्गार-
रस का बहिष्कार कर दिया है और उसे निकृष्ट कहा है। यह भ्रम
इसलिए हुआ है कि 'शृङ्गार' का प्राशय समझने मे भेद है। शृङ्गार
अगर सौदर्य-बोध को दृढ करता है, हममे ऊँचे भावो को जाग्रत करता
है तो उसका बहिष्कार कौन करेगा। महात्माजी ने बहिष्कार तो उस
शृङ्गार साहित्य का किया है जो अश्लील है । एक दल साहित्यकारो का
ऐसा भी है, जो साहित्य को श्लील-अश्लील के बन्धन से मुक्त समझता
है। वह कालिदास और वाल्मीकि की रचनाओ से अश्लील शृङ्गार
की नजीरें देकर अश्लीलता की सफाई देता है। अगर कालिदास या
वाल्मीकि या और किसी नये या पुराने साहित्यकार ने अश्लील शृङ्गार
रचा है, तो उसने सुरुचि और सौदर्य-भावना की हत्या की है। जो
रचना हमे कुरुचि की ओर ले जाय, कामुकता को प्रोत्साहन दे, समाज
मे गदगो फैलाये, वह त्याज्य है, चाहे किसी की भी हो । साहित्य का
काम समाज और व्यक्ति को ऊँचा उठाना है, उसे नीचे गिराना नहीं।
महात्माजी ने खुद इन शब्दो मे उसका व्याख्या की है।
'अाजकल शृङ्गार-युक्त अश्लील साहित्य को बाढ़ सब प्रान्तों मे आ रही है । कोई तो यहाँ तक कहते है कि एक शृङ्गार को छोड़कर और कोई रस है ही नहीं। शृङ्गार-रस को बढ़ाने के कारण ऐसे सज्जन दूसरो को 'त्यागी' कहकर उनकी उपेक्षा और उपहास करते है । जो सब चीजो का त्याग कर बैठते हैं, वे भी रस का नो त्याग नही कर पाते । किसी-न- किसी प्रकार के रस से हम सब भरे है। दादाभाई ने देश के लिए सब कुछ छोड़ा था, वे तो बडे रसिक थे । देश-सेवा ही उन्होंने अपना रस बना रक्खा था।'
हर एक समाज की ज़रूरते अलग-अलग हुआ करती हैं, उसी तरह
जैसे हर एक मनुष्य को अलग-अलग भोजन की जरूरत होती है । एक
बलवान् , स्वस्थ आदमी का भाजन अगर आप एक जीर्ण रोगी को
खिला दे, तो वह संसार से प्रस्थान कर जायगा। उसी तरह एक रोगी
का भोजन आप एक स्वस्थ आदमी को खिला दें, तो शायद थोड़े दिनो
मे वह खुद रोगी हो जाय । इगलैड या फ्रास समृद्धि के ऊँचे शिखर पर
पहुँच गरे है वे अगर शराब और नाच और कामुकता मे मग्न हो
जाये, तो उनके लिए विशेप चिन्ता की बात नही। उनके राष्ट्र-देह मे
इन विपी को पचाने की ताकत है । हिन्दुस्तान जो गुलामी के जजीरों
मे जकडा हुआ एड़ियों रगड रहा है, उसके लिए वह सभी चीजे त्याज्य
और निषिद्ध है जिनसे जीवन-शक्ति क्षीण होती है, जिनसे सयम-शक्ति का
द्वास होता है । जो ऑख केवल नग्न चित्र ही मे सौदर्य देखती है, और
जो रुचि केवल रति-वर्णन या नग्न-विलास मे ही कवित्व का सबसे
ऊँचा विकास देखती है, उसके स्वस्थ होने में हमे सदेह है । यह 'सुन्दर'
का आशय न समझने की बरकत है । जो लोग दुनिया को अपनी मुट्ठी
मे बन्द किये हुए है, उन्हे दिमागी ऐयाशी का अधिकार हो सकता है ।
पर जहाँ फाका है और नग्नता है और पराधीनता है, वहाँ का साहित्य
अगर नगी कामुकता और निर्लज्ज रति वर्णन पर मुग्ध है, तो उसका
यही आशय है कि अभी उसका प्रायश्चित्त पूरा नही हुआ, और शायद
दो-चार सदियो तक उसे गुलामी मे और बसर करनी पडेगी।
भारतीय-परिषद् के स्वागताध्यक्ष प्राचार्य काका कालेलकर का भाषण विद्वत्ता-पूर्ण है और इस उद्योग के सभी पहलुओ पर आपने काफी विचार किया है । आपने साहित्य के द्वारा राष्ट्र के एकीकरण की चर्चा करते हुए साम्प्रदायिकता और प्रान्तीयता को देश का महारोग बतलाया, और साहित्य मे इन गलत प्रवृत्तियो को रोकने के लिए नियत्रण की जरूरत बतलाई । आपने इस प्रयास की कठिनाई का अनुमान करते हुए कहा--
'साहित्य को पकड़कर रखना मुश्किल है, बॉध रखना अशक्य
है। उसे कायदे के बन्धन में कम-से-कम बाँधना चाहिए । सदाचार
और सुरुचि के प्रणेता शिष्ट पुरुषों का अकुश साहित्य के लिए अच्छा
है।' लेकिन इसके साथ ही आप यह चेतावनी भी देते है
'धर्माचार्य तो जीवन की वास्तविकता से कोसो दूर है। वे तो भूतकाल
के आदों को भी नही समझते । प्राचीन आदर्श पर जो जग चढा है,
उसी को वे धर्म का रहस्य मान बैठे है।'
'यह नियत्रण तभी सफल हो सकेगा जब वह साहित्य की आत्मा से निकलेगा, जब भारतीय परिषद् पूर्ण रूप से विकसित होकर इस योग्य होगा कि संस्कृति के ऐसे महान् अग को कलुषित प्रवृत्तियो से बचाये। इसी तरह अनेक प्रश्नों पर परिषद् साहित्य-समाज की हित-साधना करता रहेगा।'
आपने भी महात्माजी के इस कथन का समर्थन किया कि हमारे साहित्य का आदर्श जन-सेवा होना चाहिए-
'जो साहित्य केवल विलासिता का ही आदर्श अपने सामने रखता है, उसके सगठन करने की आवश्यकता ही क्या ? हम तो जन-सेवा के लिए ही साहित्य की सेवा करने मे प्रवृत्त हुए है। भाषा जन-सेवा का कीमती साधन है। इसीलिए हम उसका महत्त्व मानते हैं। राष्ट्रीय एकता के बिना, सस्कृति-विनिमय के बिना, लोक-जीवन प्रसन्न, पुरुषार्थी और परिपूर्ण नही हो सकता है।'
परिषद् के स्वीकृत प्रस्तावो मे एक प्रस्ताव इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए रक्खा गया था-
अ) जो साहित्य जीवन के उच्च आदर्शों का विरोधी हो, सुरुचि को बिगाडता हो, अथवा साम्प्रदायिक सद्भावना मे बाधा डालता हो, ऐसे साहित्य को यह परिषद् हरगिज प्रोत्साहित न करेगा।
आ) लोक-जीवन के जीवित और प्रत्यक्ष सवालो को हल करने- वाले साहित्य के निर्माण को यह परिषद् प्रोत्साहन देगा।
परिषद् का अभी कोई विधान नहीं बन पाया है। उसके सचालन
के लिए एक कमेटी बन गई है, और वही उसका विधान भी बनायेगी,
और उसके कार्यक्रम का निश्चय भी करेगी। हमारी अभिलाषा है कि यह
संस्था शुद्ध साहित्यिक संस्था हो, ताकि वह हिन्दुस्तान की साहित्यिक
एकाडेमी का पद ले सके । उसमे किसी सम्मेलन या भाषा को प्रधानता
देना उसके लिए घातक होगा । उसे किसी भी प्रान्तीय-परिषद् के अतर्गत
न होकर पूर्ण स्वतन्त्र होना चाहिए । प्रान्तीय परिषदो को उसके लिए
मेम्बरों को चुनने का अधिकार हागा और उन्हे चाहिए कि ऐसे ही
महानुभावो को उसमे भेजे जिन्होने अपनी साहित्य-सेवा और लगन से
यह अधिकार प्राप्त कर लिया है। अगर वहाँ भी गिरोहबन्दी हुई, तो
परिषद् की उपयोगिता गायब हो जायगी । यहाँ सम्मान और अधिकार
बॉटने का प्रश्न नहीं है । यहाँ तो ऐसे साहित्य सेवियो की ज़रूरत है, जो
हमारे साहित्य को ऊँचा उठा सके, उसमे प्रगति ला सके, उसमे
सार्वजनिकता पैदा कर सके । महात्माजी ने इस विषय मे जो सलाह दी
है, वह हमे हृदयगम कर लेनी होगी-
'हमे अब सोच लेना है कि साहित्य सम्मेलन के कार्य और भारतीय- परिषद् के कार्य मे कुछ अतिव्याप्ति है या नही । साहित्य-सम्मेलन का कर्तव्य अन्य साहित्यो का सगठन करना नहीं है । उसका कर्तव्य तो हिन्दी- भाषा की सेवा करना है और हिन्दी का देश मे प्रचार बढ़ाना है। इस परिषद् का उद्देश्य हिन्दी-भाषा की सेवा करना नह है। इसका उद्देश्य तो अन्य साहित्यो के रत्न इकह करके उसे देश के आम बर्ग के सामने रखना है।'
इस वक्त भी कई प्रान्तो को परिषद् के नेक इरादो मे विश्वास नहीं है । उनका ख्याल है, कि हिन्दी वालो ने उन पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए यह नया स्वाग रचा है। उनके दिल से यह सन्देह मिटाना होगा और तभी वे उसमे शरीक होगे और परिषद् वास्तव मे हिन्दुस्तान के साहित्य परिषद् का गौरव पा सकेगा।
*
३ :भारतीय साहित्य परिषद् की अस्ल हकीकत
हैदराबाद के रिसाला 'उर्दू' मे मौलाना अब्दुल हक साहब ने
भारतीय साहित्य-परिषद् के जलसे का सक्षिप्त हाल लिखते हुए कुछ
ऐसी बातें लिखी है जो हमारे खयाल मे गलतफहमी के कारण पैदा हुई
है, और उन शंकाओं के रहते हुए हमे भय है कि कहीं परिषद् को उर्दू
के सहयोग से हाथ न धोना पड़े। इसलिए जरूरी मालूम होता है कि उस
विषय पर हम अपने विचार प्रकट करके उन शकाओं को मिटाने की
चेष्टा करे । भारतीय साहित्य-परिषद् ने जब हिन्दुस्तान के सभी माहित्यों के
प्रतिनिधियों को निमंत्रित किया, तो इसीलिए कि इस साहित्यिक उद्योग
मे हम सब राजनैतिक मतभेदो को भूलकर शरीक हों, और कम-से-कम
साहित्य के क्षेत्र मे तो एकता का अनुभव कर सकें। अगर परिषद के
बानियो का उद्देश्य इस बहाने से केवल हिन्दी का प्रचार करना होता,
तो उसे सभी साहित्यों को नेवता देने की कोई जरूरत न थी। हिन्दी-
प्रचार का काम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन और नागरी-प्रचारिणी सभा के
जरिये हो रहा है । उस काम के लिए एक नया परिषद् ही क्यों बनाया
जाता । हमारे सामने यही, और एक मात्र यहो उद्देश्य था कि हिन्दुस्तान
मे कोई ऐसी सस्था बनाई जाय, जिसमे सभी भाषाओ के साहित्यकार
श्रापस मे मिले, साहित्य और समाज के नये-नये जटिल प्रश्नों पर विचार
करें, साहित्य की नई विचारधाराओं की आलोचना करे, और इस तरह
उनमे एक विशाल बिरादरी के अङ्ग होने की भावना जागे, उनमें
आत्म-विश्वास पैदा हो, उन्हें दूसरे साहित्यों का ज्ञान हो और अपने
साहित्य में जो कमी नज़र आये, उसे पूरा कराने की प्रेरणा मिले। यह
सभी मानते हैं कि अगर हिन्दुस्तान का जिन्दा रहना है, तो वह एक राष्ट्र
के रूप मे ही ज़िन्दा रह सकता है, एक राष्ट्र बनकर ही वह संसार की
संस्कृति में अपने स्थान की रक्षा कर सकता है, अपने खोये हुए गौरव
को पा सकता है। अलग-अलग राष्ट्रो के रूप मे तो उसकी दशा फिर
वही हो जायगी, जो मुसलमानो अोर उसके बाद अंग्रेजो के आने के
समय थी। हममे से कोई भी यह नहीं चाहता कि हमारे प्रान्तीय भेद
भाव फिर वही रूप धारण करें कि जब एक प्रात शत्रु के पैरो के नीचे पड़
हो, तो दूसरा प्रान्त ईर्ष्यामिश्रित हर्ष के साथ दूर से बैठा तमाशा देखता
रहे । यह कहने मे हमे कोई सकोच नहीं है कि अंग्रेजो के आने के पहले
हममे राष्ट्रीय भावना का नाम भी न था । यह सच है कि उस वक्त
राष्ट्र-भावना इतनी प्रबल और विकसित न हुई थी, जितनी आज है,
फिर भी यूरोप मे इस भावना का उदय हो गया था । उदय ही नहीं हो
गया था, प्रखर भी हो गया था। अंग्रेजो की संगठित राष्ट्रीयता के सामने
हिन्दुस्तान की असगठित, बिखरी हुई जनता को परास्त होना पड़ा।
इसम सन्देह नहीं कि उस वक्त भी हिन्दुस्तान मे सास्कृतिक एकता किसी
हद तक मौजूद थी, मगर वह एकता कुछ उसी तरह की थी, जैसी आज
यूरोप के राष्ट्रो मे पाई जाती है । वेदा और शास्त्रों को सभी मानते थे,
जैसे आज बाइबल को सारा यूरोप मानता है । राम और कृष्ण और
शिव के सभी उपासक थे, जैसे सारा यूरोप ईसा और अनेक महात्माओं
का उपासक है । कालिदास, वाल्मीकि, भवभूति आदि का आनन्द
सभी उठाते थे, जैसे सारा यूरोप हामर और वर्जिल या प्लेटो और
अरस्तू का आनन्द उठाता है । फिर भी उनमे राष्ट्रीय एकता न थी।
यह एकता अंग्रेजी राज्य का दान है और जहाँ अंग्रेजी राज्य ने
देश का बहुत कुछ अहित किया है, वहाँ एक बहुत बड़ा हित भी
किया है, यानी हममे राष्ट्रीय भावना पैदा कर दी। अब यह हमारा काम
है कि इस मोके से फायदा उठायें और उस भावना को इतना सजीव,
इतना घनिष्ठ बना दें कि वह किसी आघात से भी हिल न सके।
प्रान्तीयता का मर्ज फिर ज़ोर पकड़न लगा है। उसके साफ-साफ लक्षण
दिखाई देने लगे है। इन दो सदियो की गुलामी मे हमने जो सबक
सीखा था, वह हम अभी से भूलने लगे है, हालाकि गुलामी अभी ज्यों,
की-त्यो कायम है । अनुमान कह रहा है कि प्राविशत आटोनोमो मिलते
ही प्रान्तीयता और भी ज़ोर पकड़ेगी, प्रान्तो मे द्वेष बढेगा, और यह
राष्ट्र-भावना कमजोर पड जायगी। भारतीय परिषद् का उद्देश्य जहाँ
साहित्यिक सगठन, सच्चे साहित्यिक आदर्शों का प्रचार और साहित्यिक
सहयोग था, वहाँ एक उद्देश्य यह भी था कि उस सगठन और सहयोग के
द्वारा हमारी राष्ट्र-भावना भी बलवान् हो । हमारा यह मनोभाव कभी न था
कि इस उद्योग से हम प्रान्तीय साहित्यो की उन्नति और विकास मे बाधा
डाले । जब हमारी मातृभषाएँ अलग हैं, तो साहित्य भी अलग रहेगे।
अगर एक-एक प्रान्त रहकर हम अपना अस्तित्व बनाये रह सकते, तो हमे
इस तरह के उद्योग की जरूरत ही न होती, लेकिन हम यह अनुभव करते
है कि हमारा भविष्य, राष्ट्रीय एकता के हाथ है। उसी पर हमारी जिंदगी
और मौत का दारमदार है । और राष्ट्रीय एकता के कई अंगो मे भाषा
और साहित्य की एकता भी है । इसलिए साहित्यिक एकता के विचार के
साथ एक भाषा का प्रश्न भी अनायास ही बिना बुलाये मेहमान की तरह
आ खड़ा होता है। भाषा के साथ लिपि का प्रश्न भी आ ही जाता
हे । और परिषद् के इस जलसे मे भी ये दोनो प्रश्न आ गये ।
झगड़ा हुआ भाषा पर, यानी साहित्य-परिषद् भाषा के किस रूप का
आश्रय ले । 'हिन्दी' शब्द से उर्दू को उतनी ही चिढ़ है जितनी 'उर्दू' से
हिन्दी को है । और यह भेद केवल नाम का नहीं है । हिन्दी जिस रूप
मे लिखी जा रही है, उसमे संस्कृत के शब्द बेतकल्लुफ आते है। उर्दू
जिस रूप मे लिखी जाती है उसमे फारसी और अरबी के शब्द बेतकल्लुफ
आते है। इन दोनो का बिचला रूप हिन्दुस्तानी है, जिसका दावा है
कि वह साधारण बोल-चाल की ज़बान है, जिसमे किसी भाषा के शब्दों
का त्याग नहीं किया जाता, अगर वह बोल-चाल मे आते हैं । हिन्दी को
'हिन्दुस्तानी' चाहे उतना प्रिय न हो, पर उर्दू को 'हिन्दुस्तानी' के
स्वीकार करने मे कोई बाधा नहीं है क्योकि उसे वह अपनी परिचित-सी
लगती है। मगर परिषद् ने 'हिन्दुस्तानी' को अपना माध्यम बनाना न
स्वीकार करके 'हिन्दी हिन्दुस्तानी' को स्वीकार किया। उर्दू वालों को
'हिन्दी हिन्दुस्तानी' का मतलब समझ ने न आया, शायद वह समझे
कि हिन्दी हिन्दुस्तानी केवल हिन्दी का हो दूसरा नाम है । यही उन्हे
भ्रम हुआ कि शायद हिन्दुस्तानी के साथ हिन्दी को जोडकर उर्दू के
साथ अन्याय हो रहा है । इसी बदगुमानी मे पड़कर मौलाना अब्दुल
हक साहब क कलम से ये शब्द निकले है-
'एक दिन वह था कि महात्मा गान्धी ने हिन्दुस्तानी यानी उर्दू
जबान और फारसी हरूफ मे अपने दस्तेखास से हकीम अजमलखों का
खत लिखा था और आज वह वक्त आ गया है कि उदू तो उर्दू, वह
तनहा 'हिन्दुस्तानी' का लफ्ज भी लिखना और सुनना पसन्द नहीं
करते। उन्होने अपनी गुफतगू मे एक बार नहीं कई बार फरमाया कि
अगर रेजोल्यूशन मे तनहा 'हिन्दुस्तानी' का लफ्ज रक्खा गया तो
उसका मतलब उर्दू समझा जायगा लेकिन उनको नेशनल काग्रेस के
रेजोल्यूशन मे तनहा हिन्दुस्तानी का लफ्ज़ रखते हुए यह खयाल न
आया। आखिर इसकी क्या वजह है ? कौन से ऐसे अस्वाब पैदा हो
गये हैं जो इस हैरतअंगेज इन्कलाब के बाइस हुए । गोर करने के बाद
मालूम हुआ कि इस तमाम तगैयुर व तबद्दुल, जोड़ तोड़, दॉव-पेंच का
बाइस हमारे मुल्क का बदनसीब पालिटिक्स है। जब तक महात्मा गाधी
और उनके रफका (सहकारियों) को यह तवक्का (आशा) थी कि मुसल
मानों से कोई सियासी (राजनैतिक) समझौता हो जायगा, उस वक्त तक
वह हिन्दुस्तानी-हिन्दुस्तानी पुकारते रहे, जो थपककर सुलाने के लिये
अच्छी खासी लोरी थी, लेकिन जब उन्हे इसकी तवक्का न रही, या
उन्होने ऐसे समझौते की जरूरत न समझो, तो रिया ( फरेब ) की चादर
उतार फेकी और असली रग मे नजर आने लगे। वह शौक से हिन्दी
का प्रचार करें । वह हिन्दो नहीं छोड़ सकते ता हम भी उर्दू नहीं छोड़
सकते । उनको अगर अपने वसीअ जराए और वसायल (विशाल
साधनों) पर घमंड है, तो हम भी कुछ ऐसे हेठे नहीं है।'
हमे मौलाना अबदुल हक-जैसे वयोवृद्ध, विचारशील और नीति-
चतुर बुजुर्ग के कलम से ये शब्द देखकर दुःख हुआ । जिस सभा में
वह बैठे हुए थे, उसमे हिन्दीवालो की कसरत थी । उर्दू के प्रतिनिधि
तीन से ज्यादा न थे। फिर भी जब 'हिन्दी हिन्दुस्तानी' और अकेले
हिन्दुस्तानी पर वोट लिये गये तो 'हिन्दुस्तानी' के पक्ष में आधी से कुछ
ही कम राये आई । अगर मेरी याद गलती नहीं कर रही है तो शायद
पन्द्रह और पचीस का बटवारा था । एक हिन्दी-प्रधान जलसे मे जहाँ
उद् के प्रतिनिधि कुल तीन हो; पन्द्रह रायो का हिन्दुस्तानी के पक्ष मे
मिल जाना हार होने पर भी जीत ही है । बहुत सभव है कि दूसरे जलसे
मे हिन्दुस्तानी का पक्ष और मज़बूत हो जाता । और जो हिन्दुस्तानी अभी
व्यवहार मे नहीं आई, उसके और ज्यादा हिमायती नहीं निकले तो कोई
ताज्जुब नही । जो लोग 'हिन्दुस्तानी' का वकालतनामा लिये हुए हैं,
और उनमे एक इन पक्तियो का लेखक भी है, वह भी अभी तक
'हिन्दुस्तानी' का कोई रूप नहीं खड़ा कर सके । केवल उसकी कल्पना-
मात्र कर सके हैं, यानी वह ऐसी भाषा हो, जो उर्दू और हिन्दी दोनों
ही के सगम की सूरत मे हो, जो सुबोध हो और श्राम बोल-चाल की
हो । यह हम हिन्दुस्तानी-हिमायतियो का कर्तव्य है कि मिलकर उसका
प्रचार करें, उसे ऐसा रूप दें कि उर्दू और हिन्दी दोनो ही पक्षवाले
उसे अपना लें । दिल्ली और लाहौर मे हिन्दुस्तानी सभाएँ खुली हुई हैं।
दूसरे शहरों मे भी खोली जा सकती हैं। यह उनका कर्तव्य होना
चाहिए कि हिन्दुस्तानी के विकास और प्रचार का उद्योग करें। और
अभी जो चीज सिर्फ कल्पना है, वह सत्य बनकर खड़ी हो जाय । हम
मौलाना साहब से प्रार्थना करेंगे कि परिषद् से इतनी जल्द बड़ी-बड़ी
आशाएँ न रक्खें और नीयतो पर शुबहा न करें। मुमकिन है आज जो
बात मुश्किल नज़र आ रही है, वह साल-दो-साल मे आसान हो जाय ।
केवल तीन उर्दू पक्षवालों की मौजूदगी का ही यह नतीजा था कि परिषद्
ने अपने रेजोल्यूशनो की भाषा में तरमीम स्वीकार की। अभी से निराश
होकर वह परिषद् का जीवन खतरे मे न डाले ।
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४:प्रान्तीय साहित्य की एकता
अाज 'हंस' भारत के समस्त साहित्यों का मुखपत्र बनने की इच्छा से एक नई विशाल भावना को लेकर अवतार्ण हो रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य है भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तो की साहित्य समृद्धि को राष्ट्रवाणी हिन्दी के द्वारा सारे भारत के आगे उपस्थित करना।
राष्ट्र, वस्तु नहीं...वह एक भावना है । करोड़ों स्त्री पुरुषो की संकल्पयुक्त इच्छा पर इस भावना को रचना हुई है। आज अगणित भारतवासी अपने आचार और विचार मे इसी भावना को व्यक्त कर रहे हैं। सारा हिन्द एक और अविभाज्य है।
यह भावना, कई तरह से, कई रूपा मे प्रकट है । अग्रेजी पढ़े लिखे लोग अग्रेजी भाषा के द्वारा इस भावना को जाहिर करते है; दूसरे अनेक अपनी अपनी मातृभाषा मे । प्रयत्न एक ही दिशा मे अनेकों हो रहे हैं। वे राष्ट्रभाषा और साहित्य के बिना एकरूप नहीं हो सकते।
अब हिन्दी, राष्ट्रभाषा के रूप मे सर्वजनमान्य हो चुकी है। महात्मा गान्धी जैसे राष्ट्र विधाता इसे जीवित राष्ट्रभाषा बनाने का व्रत ले चुके हैं । परन्तु यह भाषा सिर्फ व्यवहार की, आपस के बोलचाल की ही नहीं, साहित्य की भी होनी चाहिए । सास्कारिक विनिमय तथा सौन्दर्य दर्शन में भी उसका उपयोग होना चाहिए । यदि भारत एक और अवि. भाज्य हो, तो इसका संस्कार-विनिमय और सौन्दर्य-दर्शन एक ही भाषा मे और परस्परावलम्बी साहित्य-प्रवाह द्वारा करना चाहिए।
भारतीय राष्ट्रभाषा कोई भी हो, उसमे हमें प्रत्येक देश भाषा के
तत्वों का बल पहुंचाना होगा । भारतीय साहित्य वही है, जिसमें प्रान्तः
प्रान्त की साहित्य-समृद्धि का सर्वाग सुन्दर सार-तत्व हो। अपने राष्ट्र
की आत्मा का साहित्य द्वारा सबको दर्शन होना चाहिए। ये ही विचार
हमारे इस प्रयत्न के प्रेरणा रूप है।
देश के सभी प्रान्तों के साहित्य मे आन्तरिक एकता भरी हुई है। साहित्यिक रचनाएँ चाहे जिस भाषा मे लिखी गई हों, बे एक सूत्र मे पिरोई हुई हैं। यह सूत्र कोई नया नहीं, परम्परा से चला आ रहा है। हर एक साहित्य मे भगवान व्यास कृष्ण द्वैपायन की प्रेरणा है । रामायण के अप्रतिम सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब उसमे झलकता है । पुराणों की प्रति- ध्वनियाँ युग-युग के साहित्य मे गूंजती है । संस्कृत साहित्य के निर्माताओं की ज्योति ने प्रत्येक प्रान्त के साहित्यकारो को प्रोत्साहन दिया है । अपने कथा साहित्य ने भी एकसूत्र-रूप हो हरेक प्रान्त के साहित्य को एक श्रखला मे बाँध लिया है । जातक की कथाएँ किसी न किसी रूप मे प्रत्येक प्रान्तीय साहित्य में मिलती है । गुणाढ्य की बृहत्कथा और पचतन्त्र के अनुवाद सभी प्रान्तो मे प्रेम से अपनाये गये है। यह अपनी लोक कथायें इस देश की स्वयभू और जीवन साहित्य हैं और इसका मूल तत्व इस देश की, यहाँ की प्रजा की समान संस्कारी कल्पना मे है ।
पिछले काल मे भगवत् धर्म और भगवद्भक्ति ने हर एक प्रान्त के साहित्य को पुनर्जन्म दिया है । विद्यापति और चंडीदास, सूर और तुलसी, नरसी, मीरा और कबीर, ज्ञानदेव और साधु तुकाराम, आलवार और और प्राचार्यों के पद शकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ और चैतन्य के प्रभावशाली सिद्धान्त एक अोर से भारत की सास्कारिक एकता का ख्याल कराते है और दूसरी तरफ समस्त भारत के संस्कारों को एक रूप बनाते हैं।
और मुस्लिम राज्य काल मे हिन्दू मुस्लिम सस्कारों के विनिमय का
असर किस प्रान्त पर नहीं पड़ा ? अगर संगीत मे मुसलमानों ने हिन्दुओं
की शब्दावली और रस को अपनाया, तो नीति और राजकीय विषयो मे
मुसलमानो की शब्दावली का यहाँ प्रचार हुआ। दोनो ने मिलकर
हिन्दुस्तानी भाषा की सृष्टि की, जो आज हमारी राष्ट्रभाषा है और
हिन्दुस्तानी का आदि कवि खुसरो था, जो बलबन का समकालोन था।
उसकी पहेलियाँ और मुकरियों और पद आज तक हिन्दी भाषा की
सम्पत्ति हैं और इस क्षेत्र मे अब तक कोई उसका जोड़ पैदा नहीं हुआ।
सदियो तक सास्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा । हिन्दू कवि फारसी
और उसके बाद उर्दू मे कविता करते थे और मुसलमान कवि हिन्दी मे ।
जिन मुसलमान कवियो ने हिन्दी मे पद्य रचे, और हिन्दी पद्य ग्रन्थों की
टीकाएँ की, उन पर आज भी हिन्दी को गर्व है। जायसी की पद्मावत
तो हिन्दी भाषा का आज भी गौरव है.और सूफी कवियो ने तो मतों
और पन्थो के बन्धन को तोडकर प्रेम और एकता की जो धारा चलाई
उससे कौन सी भाषा प्रभावित नहीं हुई ? कई सदियो के ससर्ग से हमारी
संस्कृति ने जो रूप धारण कर लिया है, उसमे किन जन समूहो का क्या
अश है, उसका निर्णय करना आज असम्भव है।
अग्रेजो के आने के बाद साहित्य के आदर्श अंग्रेजी साहित्य के आधार पर नये साचे मे ढले । निबन्ध, उपन्यास, गल्प, नाटक और कविता की समृद्धि संस्कृत साहित्य के बाण, माघ और कालिदास से आई है, पर उनका स्वरूप, सूक्ष्मता और सरसता, इंगलैंड में प्रचलित रोमान्टिसिज्म द्वारा निर्मित लेखक के हृदय से निकली हैं । और यह सब शेली, वर्डस्वर्थ, स्काट और लिटन की प्रेरणा से मिली है।
१९०४ ई० में बग भग के बाद जो ज्वलत राष्ट्रीयता का संचार हमारे जीवन में हुआ, उसका प्रतिबिम्ब प्रत्येक साहित्य मे मिलता है। आज महात्मा गान्धी के लेखों और भाषणों की और उसी तरह कवीन्द्र रवीन्द्र की कृतियों की प्रेरणा हर एक एक साहित्य को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर रही है।
भारतीय साहित्य मे मौलिक एकता पहले भी थी और अब भी है,
सिर्फ भाषा का परिधान हर प्रान्त मे पृथक्-पृथक् रहा । सारा साहित्य
एक ही स्थल पर एक ही भाषा द्वारा भारतीयो को मिलने लगे,तो
जरूर यह एकता स्वरूप पाकर दृढ़ बनेगी। एक ही जगह मे और एक
ही भाषा मे समस्त प्रान्तों का साहित्य संगृहीत होने से प्रत्येक साहित्य को
स्फूर्ति और वेग मिले बिना न रहेगे । कुछ लोगो को यह खौफ है कि
इससे प्रान्तीय साहित्यों की खूब या सरसता चली जायगी । कई भाइयों
को इस प्रयत्न मे प्रान्तीय गौरव के भंग होने के लक्षण दीखते हैं, पर
गहराई के साथ सोचें, तो यह भय बिना आधार का लगता है । प्रान्तीय
साहित्य एक दूसरे के साथ बराबर की कतार में खड़े हुए एक दूसरे का
माप करते रहे, और एक दूसरे के सम्पर्क से नये आदेश, नई प्रेरणा,
नई स्फूर्ति पाते रहे, क्या इससे किसी भी साहित्य को कोई आधात पहुँच
सकता है ? अाज जो कई जगह हमारा साहित्य संकुचित होता हुआ
दीख रहा है, वह प्रवाहित हो उठेगा । कालिदास, होमर, गेटे या
शेली, ये मनुष्य मात्र को सरसता का पाठ सिखाते है। और जब तक
हमारा प्रान्तीय साहित्य विशाल क्षेत्र मे न विचरण करे, तब तक विश्व
साहित्य मे स्थान प्राप्त करने के लायक नहीं होगा । अतः इसमे सन्देह
नहीं, इन प्रयत्नो के परिणामस्वरूप साहित्य सकुचित होने के बदले और
भी अधिक रमणीयता तथा विशालता प्राप्त करेगा।
कुछ साहित्यकार कहते है, कि ये प्रयत्न हिन्दी मे किसलिए ? अंग्रेजी मे क्यो नहीं ?
यह पूर्वोक्त प्रश्न, यह बेढंगा सवाल, आज ई० स० १९३५ मे भी
पूछा जा सकता है, इससे हमे आश्चर्य और दुःख होता है । इस देश में
क्या इतनी शक्ति नहीं रही, और राष्ट्रभक्ति इतनी निस्सत्व हो गई है कि
भारत को विदेशियो की भाषा द्वाग अपने प्राण व्यक्त करने के लिए
मजबूर होना पड़े। और अगर यह बात ठीक है, तो हमे लज्जा के मारे
डूब मरना चाहिए । अग्रेजी सुन्दर भाषा है, उसके साहित्य मे अमर
सरसता समाई हुई है, उसकी प्रेरणा के सहारे हमारा बहुत सा आधुनिक
साहित्य तिर्मित हुअा है; परन्तु यह भाषा कितने लोगों की समझ मे
आती है इस भाषा मे हम अपने भारतीय संस्कारो को किस रीति से
दिखला सकते है ? अपनी देश भाषा से बधे हुए अपने सस्कारी को पर-
भाषा के बेढंगे स्वरूप मे किस प्रकार व्यक्त करे ?
हिन्दी कई प्रान्तीय भाषाओ की बड़ी बहन है । उर्दू के साथ इसका बहत निकट सम्बन्ध । है । कई करोड़ प्रजा हिन्दी मे बोलती है, और उससे भी अधिक सख्या इसे समझ सकती है । आज इसे राष्ट्र सिंहासन पर राष्ट्र विधाताओं ने बिठाया है। इसे छोड़ हम क्या परभाषा मे साहित्य का विनिमय करें।
हिन्दी को छोड़कर दूसरी भाषा इस देश की हो नहीं सकती है । हमे इस वस्तु का भान, इस बात का विश्वास, जितनी जल्दी हो जाय, उतना ही इस देश का भाग्योदय जल्दी नजदीक आ पहुँचेगा।
हिन्दी मे हर एक प्रान्त का साहित्य अवतीर्ण हो तो यह प्रयाग या काशी की हिन्दी न होगी, इस हिन्दी मे हर एक प्रान्त की विशेषताएँ अवश्य होगी । इसकी वाक्य रचना मे विविधता पायेगी । इसके कोष मे अन्य अपरिचित भाषाओ के शब्द भी आकर जमा होगे। ऐसी अनेक सामग्रियों मे से नई राष्ट्रभाषा प्रकट होगी।
ऐसी एक सर्वसामान्य भाषा के लिए मौलिक हिन्दी का ही उपयोग
करना जरूरी है । थोड़े सरल शब्दो की यह एक भाषा बने, यह सर्वथा
बाछनीय है; परन्तु यह काम साहित्यिक दृष्टि से उतना सहल नहीं, यह
हम अच्छी तरह समझते हैं । अाज हिन्दी मे, बंगला मे, मराठी और
'गुजराती में, तेलुगू और मलयालम मे, सस्कृत के अश प्रति दिन बढते
जा रहे हैं । संस्कृत की समृद्धि और उसके माधुर्य की सहायता न होती,
तो इन भाषाओ का विकास सम्भव नहीं था, अर्थात् उसकी समृद्धि और
माधुर्य रखने और सरलता को सुरक्षित रखने के लिए ये प्रश्न बहुत से
साहित्यकारो के सामने उपस्थित हैं । वे इन कठिनाइयो को खूब जानते
हैं, कि ये आसानी से हल होने वाली नहीं हैं। इससे भी बड़ा और महत्व
का एक प्रश्न है। हिन्दू और मुसलमान...दोनों को समझ में आये, ऐसी
साहित्य की कौन सी भाषा है ? बाजार मे, लश्कर में, सामान्य व्यवहार
मे सरल हिन्दी, सरल उर्दू के नजदीक आ सकती है; परन्तु जहाँ
साहित्यिक वाक्पटुता, कविता, अर्थ सूचकता या अर्थ गम्भीरता का सवाल
आयेगा, वहाँ यह भाषा निकम्मी हो जाती है। वहाँ प्रत्येक लेखक अपनी
प्यारी मे से आवश्यक और अपेक्षित समृद्धि ले लेता है । इसमे निराशा
के लिए जगह नहीं । हिन्दू मुसलमानो को एक साहित्य की भाषा पैदा
कर छटकारा पाना होगा । प्रत्येक पक्ष अपनी विशेषता खोकर या छोड़.
कर आगे न बढ़े, दोनो पक्ष एक दूसरे की खूबियाँ अपना कर नई भाषा
की सृष्टि कगसकेगे।
इसके लिए जितना धीरज चाहिए, उतनी ही उदारता' भी। संसार की बडी बड़ी वस्तुये लम्बी मुद्दत और भगीरथ प्रयत्नो के बाद हो बनती है।
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हिन्दी-साहित्य सम्मेलन
नागपुर मे हिन्दी-साहित्य सम्मेलन की काफी धूम-धाम रही । मेहमानों के ठहरने का इन्तजाम ऐग्रिकल्चर-कालेज के होस्टल मे किया गया था। आराम की सभी चीजें मौजूद थीं। भोजन भी किफायत से और मुनासिब दामो मिलता था । सम्मेलन का पंडाल भी वहाँ से थोड़ी ही दूर पर था। मच पर तो शामियाना तना हुआ था पर श्रोताओ के लिए खुले मे फर्श का प्रबन्ध था । लाउड स्पीकर भी लगा हुआ था। फाटक पर और रास्ते के दोनो तरफ़ बिजली के रंगीन बल्ब लगा दिये गये थे। नेताओं का ऐसा जमघट सम्मेलन के किसी जलसे मे शायद ही हुआ हो। महात्माजी, पंडित जवाहरलालजी नेहरू, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, सरदार साहब श्रीराजगोपालाचार्य आदि प्रतिष्ठित नेताओं ने सम्मेलन को गौरव प्रदान कर दिया था। चौबीस अप्रेल की शाम को पडाल में स्वागता- ध्यक्षजी का मुख्तसर पर समयानुकूल भाषण हुआ। पश्चात् सभापति ने अपना सदारती भाषण सुनाया । अब तक हमने सम्मेलन के जितने सदारती भाषण पढे, हमे अपने कानो से सुनने का केवल एक बार दिल्ली मे अवसर मिला। उसमे दो-एक को छोड़कर सभी भापणो का एक ढर्रा-सा निकला हुआ जान पड़ा। जो आया उसने हिन्दी-भाषा की उत्पत्ति से प्रारम्भ किया और उसके ही विकास की लम्बी कथा पढ़ सुनाई । साहित्य की समस्याओ और धाराओ से उसे कोई मतलब नहीं । बाबू राजेन्द्र प्रसाद का भाषण विद्वत्तापूर्ण भी था, अालोचनात्मक भी और व्यावहारिक भी । भाषा और साहित्य का ऐसा कोई पहलू नहों, जिस पर आपने प्रकाश न डाला हा और मोलिक आदेश न दिया हो। भाषा के भडार को बढ़ाने के विषय मे आपने जो सलाह दी, उससे किसी भी प्रगतिशील आदमी को आपत्ति नहीं हो सकती । आपने बतलाया कि हिन्दी मे अरबी और फ़ारसी के जो शब्द आकर मिल गये हैं, उन्हे व्यवहार मे लाना चाहिए । पारिभाषिक शब्दो के विषय में श्रापका प्रस्ताव है कि यथासाध्य सभी प्रान्तीय भाषाओ मे एक ही शब्द रखा जाय । प्रत्येक भाषा मे अलग-अलग शब्द गढने मे समय और श्रम लगाना बेकार है । आपने यह भी बताया कि गॉव मे ऐसे हजारो शब्द हैं, जिनको हमने साहित्यिक हिन्दी से बाद कर दिया है, हालाकि वे अपने आशय को जितनी सफाई और निश्चयता से बताते हैं, वह सस्कृत से लिए हुये शब्दों में नहीं पाई जाती।
साहित्य के मर्म के विषय मे भी आपके विचार इतने ऊँचे और मान्य है। आपने सच्चे-साहित्य की बात यो बताई-
'सच्चे साहित्य का एक ही माप है। चाहे उसमे रस कोई भी हो पर यदि वह मानव जाति को ऊपर ले जाता हो, तो सच्चा साहित्य है, और यदि उसका प्रभाव इससे उल्टा पड़ता हो, तो चाहे जैसी भी सुन्दर और ललित भाषा में क्यो न हो, वह ग्राह्य नहीं हो सकता। इससे स्पष्ट है कि सच्चे साहित्य के निर्माण मे वही सफल हो सकता है जिसने तपस्या और सयम से अपने को इस योग्य बनाया हो । इसके लिए एक प्रकार की दैवी शक्ति चाहिए, जो पूर्व सस्कार और इस जन्म की तपस्या और सयम का ही फल हो सकती है।'
साहित्य मे संयम, साधना और अनुभूति का कितना महत्त्व है, इस पर जोर देते हुए आपने आगे चलकर कहा-
'अनुभूति और मस्तिष्क-चमत्कार में उतना ही भेद है, जितना मधु के सुन्दर वर्णन मे और उसके चखने मे । इसलिए चाहे जिस प्रकार के ग्रथ क्यो न लिखे जायें, यदि वह अनुभूति और जीवन से निकले है, तो उनकी कीमत है और उनमे ओज और प्रभाव है । यदि वह केवल चमत्कार मात्र है, तो उन्हे केवल वागाडम्बर ही मानना चाहिए । इस कसौटी पर अपने अाधुनिक साहित्य को कसा जाय, तो थोड़े ही ग्रन्थ खरे निकलेंगे। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास और सूरदास आज भी प्रिय है और करोड़ों के जीवन सुधार मे प्रेरक होते हैं। उनके पदो मे एक प्रकार का आनन्द है, जो दूसरो की रचनाओ मे शीघ्र ही नहीं मिलता । इसलिए कविता और दूसरे साहित्य-निर्माण करनेवालों से यही सविनय निवेदन है कि यह उनका धर्म है कि युग और समय के अनुसार सच्चे साहित्य का निर्माण करे । जातीय जीवन की झलक साहित्य मे पानी चाहिए । हमारा भावनाश्रो और उमंगों को साहित्य मे प्रतिबिम्बित होना चाहिए । हमारी उम्मीदे, अभिलाषाएँ और उच्चा- काक्षाएँ साहित्य मे प्रदर्शित होनी चाहिए और उनको साहित्य से पुष्टि भी मिलनी चाहिए।'
इस भाषण का एक एक शब्द विचार और अनुकरण करने योग्य
है । यही बाते हम भी बराबर कहते आये है; पर कही-कहीं उसका जवाब
यही मिला है कि कला कला के लिए है, उसमे किसी प्रकार का उद्देश्य
न होना चाहिए । अाशा है वह सज्जन अब इस उत्तरदायित्वपूर्ण कथन
को पढ़कर अपने विचारों मे तरम में करेंगे।
सम्मेलन मे इतिहास-परिषद् , दर्शन-परिषद् और विज्ञान परिषद्
की भी आयोजना की गई थी, पर हमे एक ख़ास जरूरत से २५ की
शाम ही को चला थाना पड़ा, और उन परिपदो को कोई रिपोर्ट भी
नहीं मिल सकी । यह सम्मेलन का काम था कि कम से-कम पत्रो-पत्रिकाओं
के पास तो उनकी रिपार्ट भेज देता ।हमे साहित्य-परिषद् के सभापति
श्री बालकृष्णजी 'नवीन' का भाषण पढ़ने को मिला। उसमे जोर हे,
प्रवाह हे, जोश है । कवि सम्मेलना की मौजूदा हालत और उसके सुधार
के विषय मे आपने जो कुछ कहा, वह सर्वथा मानने योग्य है; पर जहाँ
आपने कला को उपयोगिता के बन्धन से आजाद कर दिया, वहीं अापसे
हमारा मतभेद है । आखिर कवि किस लिए कविता करता है ? क्या
कवि भी श्यामा चिड़िया है, जो प्रकृतिदत्त उल्लास मे अपना मीठा राग
सुनाने लगता है ? ऐसा तो नहीं है । श्यामा जगल मे भी गायेगी, कोई
सुननेवाला है या नहीं, इसकी उसे परवा नहीं, बल्कि जमघट मे तो
उसकी जबान बन्द हो जाती है । उसके पिंजरे पर कपड़े की मोटी तह
लपेटकर जब उसे एकान्त के भ्रम मे डाला जाता है, तभी वह जमघट
मे चहकती है। कवि तो इसीलिए कविता करता है कि उसने जो
अनुभूति पाई है, वह दूसरो का दे, उन्हे अपने दुःख-सुख मे शरीक
करे। ऐसा शायद ही कोई पागल कवि होगा, जो निर्जनता मे बैठकर
अपनी कविता का आनन्द ले । कभी-कभी वह निर्जनता मे भी अपनी
कविता का आनन्द लेता है, इममे सन्देह नहीं; पर इससे उसकी तृप्ति
नहीं होती । वह तो अपनो अनुभूतियों को, अपनी व्यथो को लिखेगा,
छपायेगा और सुनायेगा । दूसरो को उससे प्रभावित होते देखकर ही उसे
उसकी सत्यता का विश्वास होता है । जब तक वह अपने रोने पर दूसरों
को रुला न ले, उसे इसका सन्ताष ही कैसे होगा कि वह वहीं रोया, जहाँ
उसे रोना चाहिए था । दूसरो का सुन कर अपनी भावनाओ और व्यथाओं
की सत्यता जाँचने का यह नशा इतना जबरदस्त होता है कि वह अपनी
अनुभूतियों को मुबालगे के साथ बगान करता है, ताकि सुननेवालों पर
गहरा असर पडे । इसलिए यह कहना कि कविता का कुछ उद्देश्य ही
नहीं होता और उसको उपयोगिता के बन्धन मे बाँधना गलती है, एक
सारहीन बात है । कवि को देखना होगा कि वह जो दूसरो को रुला रहा
है, या हँसा रहा है तो क्यो ? मेरी पत्नी का स्वर्गवास हो गया है, तो मैं
क्यो दूसरों के सामने रोता और उनको रुलाता फिरूं इसीलिए कि
बिना दूसरो के सामने रोये दिल का बोझ हलका नहीं होता ? नहीं।
उसका उद्देश्य है, हमारी करुण भावनाओ को उत्तेजित करना, हमारी
मानवता को जगाना और यही उसकी उपयोगिता है । मगर हम तो कवि
की सभी अनुभूतियो के कायल नहीं। अगर उसने अपनी प्रेयसी के
नखशिख के बखान मे वाणी का चमत्कार दिखाया है, तो हम देखेंगे
कि उसने किन भावो से प्रेरित होकर यह रचना की है । अगर उससे
हमारे मनोभावो का परिष्कार होता है, हममे सौन्दर्य की भावना सजग
होती है, तो उसकी रचना ठीक, वरना ग़लत ।
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