[इस शीर्षक के अन्तर्गत लेखक की चार महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं जिनसे साहित्य और भाषा के अनेक सवालों पर रोशनी पड़ती है। ये टिप्पणियाँ अलग-अलग मौकों पर लिखी गयीं, लेकिन इनके पीछे काम करनेवाला विचार एक ही है, इसलिए इन्हें एक स्थान पर दिया जा रहा है।
-संग्रहकर्ता]
१: एक सार्वदेशिक साहित्य-संस्था की आवश्यकता
भारत में विज्ञान और दर्शन की, इतिहास और गणित की, शिक्षा और राजनीति की आल इंडिया संस्थाएँ तो हैं लेकिन साहित्य की कोई ऐसी संस्था नहीं है। इसलिए, साधारण जनता को अन्य प्रान्तों की साहित्यिक प्रगति की कोई खबर नहीं होती और न साहित्य-सेवियों को ही आपस में मिलने का अवसर मिलता है।
बंगाल के दो-चार कलाकारों के नाम से तो हम परिचित हैं; लेकिन गुजराती, तामिल, तेलुगू और मलयालम आदि भाषाओं के निर्माताओं से हम बिल्कुल अपरिचित हैं। अंग्रेजी साहित्य का तो जिक्र ही क्या, फ्रांस, जर्मनी, रूस, पोलैंड, स्वेडेन, बेलजियम आदि देशों के साहित्य से भी अंग्रेजी अनुवादों द्वारा हम कुछ न कुछ परिचित हो गये हैं, लेकिन बँगला को छोड़कर भारत की अन्य भाषाओं की प्रगति का हमें बिल्कुल ज्ञान नहीं है। हरेक प्रान्तीय भाषा अपना सम्मेलन अलग-अलग करती
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