साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ २०५ से – २१६ तक

 

उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी

 

यह बात सभी लोग मानते हैं कि राष्ट्र को दृढ और बलवान बनाने के लिए देश में सांस्कृतिक एकता का होना बहुत आवश्यक है। और किसी राष्ट्र की भाषा तथा लिपि इस सांस्कृतिक एकता का एक विशेष अंग है। श्रीमती खलीदा अदीब खानम ने अपने एक भाषण में कहा था कि तुर्की जाति और राष्ट्र की एकता तुर्की भाषा के कारण ही हुई है। और यह निश्चित बात है कि राष्ट्रीय भाषा के बिना किसी राष्ट्र के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं हो सकती। जब तक भारतवर्ष की कोई राष्ट्रीय भाषा न हो, तब तक वह राष्ट्रीयता का दावा नहीं कर सकता। सम्भव है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष एक राष्ट्र रहा हो; परन्तु बौद्धों के पतन के उपरान्त उसकी राष्ट्रीयता का भी अन्त हो गया था। यद्यपि देश में सांस्कृतिक एकता वर्त्तमान थी, तो भी भाषाओं के भेद ने देश को खण्ड खण्ड करने का काम और भी सुगम कर दिया था। मुसलमानों के शासनकाल में भी जो कुछ हुआ था, उसमें भिन्न-भिन्न प्रान्तों का राजनीतिक एकीकरण तो हो गया था, परन्तु उस समय भी देश मे राष्ट्रीयता का अस्तित्व नहीं था। और सच बात तो यह है कि राष्ट्रीयता की भावना अपेक्षाकृत बहुत देर से संसार में उत्पन्न हुई है और इसे उत्पन्न हुए लगभग दो सौ वर्षों से अधिक नहीं हुए। भारतवर्ष में राष्ट्रीयता का आरम्भ अंगरेजी राज्य की स्थापना के साथ-साथ हुआ। और उसी की दृढ़ता के साथ साथ इसकी भी वृद्धि हो रही है। लेकिन इस समय राजनीतिक पराधीनता के अतिरिक्त देश के भिन्न-भिन्न अंगों और तत्वों मे कोई ऐसा पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है जो उन्हे सघटित करके एक राष्ट्र का स्वरूप दे सके । यदि आज भारतवर्ष से अगरेजी राज्य उठ जाय तो इन तत्वो मे जो एकता इस समय दिखायी दे रही है, बहुत सम्भव है कि वह विभेद और विरोध का रूप धारण कर ले और भिन्न-भिन्न भाषाओ के आधार पर एक ऐसा नया सघटन उत्पन्न हो जाय जिसका एक दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध ही न हो। और फिर वही खींचातानी शुरू हो जाय जो अंगरेजो के यहाँ आने से पहले थी। अतः राष्ट्र के जीवन के लिए यह बात आवश्यक है कि देश मे सास्कृतिक एकता हो। और भाषा की एकता उस सास्कृतिक एकता का प्रधान स्तम्भ है; इसलिये यह बात भी आवश्यक है कि भारत- वर्ष की एक ऐसी राष्ट्रीय भाषा हो जो देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक बोली और समझी जाय । इसी बात का आवश्यक परिणाम यह होगा कि कुछ दिनों मे राष्ट्रीय साहित्य की सृष्टि भी आरम्भ हो जायगी और एक एसा समय पायेगा, जब कि भिन्न-भिन्न जातिगे और राष्ट्रो के साहित्यिक मण्डल मे हिन्दुस्तानी भाषा भी बराबरी की हैसियत से शामिल होने के काबिल हो जायगी।

परन्तु प्रश्न तो यह है कि इस राष्ट्रीय भाषा का स्वरूप क्या हो ? अाजकल भिन्न-भिन्न प्रान्तों मे जो भाषाएँ प्रचलित हैं, उसमे तो राष्ट्रीय भाषा बनने की योग्यता नहीं, क्योकि उनके कार्य अोर प्रचार का क्षेत्र परिमित है । केवल एक ही भाषा ऐसी है जो देश के एक बहुत बडे भाग मे बोलो जाती है और उससे भी कहीं बडे भाग मे समझी जाती है। और उसी को राष्ट्रीय भाषा का पद दिया जा मकता है। परन्तु इस समय उस भाषा के तीन स्वरूप है-उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी । और अभी तक यह बात राष्ट्रीय रूप से निश्चित नही की जा सकी है कि इनमे से कौन-सा स्वरूप ऐसा है जो देश में सबसे अधिक मान्य हो सकता है और जिसका प्रचार भी ज्यादा आसानी से हो सकता है । तीनो ही स्वरूपो के पक्षपाती और समर्थक मौजूद है और उनमे खींचातानी हो रही है।
यहाँ तक कि इस मतभेद को राजनीतिक स्वरूप दे दिया गया है और हम इस प्रश्न पर शान्त चित्त और शान्त मस्तिष्क से विचार करने के अयोग्य हो गये है।

लेकिन इन सब रुकावटो के होते हुए भी यदि हम भारतीय राष्ट्रीयता के लक्ष्य तक पहुँचना और उसकी सिद्धि करना असम्भव समझकर हिम्मत न हार बैठे तो फिर हमारे लिए इस प्रश्न की किसी न किसी प्रकार मीमासा करना आवश्यक हो जाता है।

देश मे ऐसे आदमियो की संख्या कम नहीं है जो उर्दू और हिन्दी की अलग-अलग और स्वतन्त्र उन्नति और विकास के मार्ग मे बाधक नही होना चाहते । उन्होने यह मान लिया है कि प्रारम्भ मे इन दोनो के स्वरूपो मे चाहे जो कुछ एकता और समानता रही हो, लेकिन फिर भी इस समय दोनो को दोनो जिस रास्ते पर जा रही है, उसे देखते हुए इन दोनो मे मेल और एकता होना असम्भव ही है। प्रत्येक भाषा की एक प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है । उर्दू का फारसी और अरबी के साथ स्वाभाविक सम्पन्ध है । और हिन्दी का सस्कृत तथा प्राकृत के साथ उसी प्रकार का सम्बन्ध है । उनको यह प्रवृत्ति हम किसी शक्ति से रोक नही सकते । फिर इन दोनों को आपस मे मिलाने का प्रयत्न करके हम क्यो व्यर्थ इन दोनो को हानि पहुँचावे ?

यदि उर्दू और हिन्दी दोनो अपने-आपको अपने जन्म स्थान और प्रचार-क्षेत्र तक ही परिमित रखे तो हमे इनकी प्राकृतिक वृद्धि और विकास के सम्बन्ध मे कोई आपत्ति न हो । बॅगला, मराठी, गुजरात, तामिल, तेलगू और कन्नडी आदि प्रान्तीय भाषाओ के सम्बन्ध मे हमे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है । उन्हे अधिकार है कि वे अपने अन्दर चाहे जितनी सस्कृत, अरबी या लैटिन आदि भरती चले । उन भाषाओ के लेखक आदि स्वयं ही इस बात का निर्णय कर सकते है; परन्तु उर्दू और हिन्दी की बात इन सबसे अलग है । यहाँ तो दोनो ही भारतवर्ष की राष्ट्रीय भाषा कहलाने का दावा करती है । परन्तु वे अपने व्यक्तिगत

रूप मे राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकी और इसीलिए संयुक्त रूप मे स्वय ही उनका सयोग और मेल प्रारम्भ हो गया और दोनो का यह सम्मिलित स्वरूप उत्पन्न हो गया जिसे हम बहुत ठीक तौर पर हिन्दुस्तानी जबान कहते है। वास्तविक बात तो यह है कि भारतवर्ष की राष्ट्रीय-भाषा न तो वह उर्दू ही हो सकती है जो अरबी और फारसी के अप्रचलित तथा अपरिचित शब्दो के भार से लदी रहती है और न वह हिन्दी ही हो सकती है जो सस्कृत के कठिन शब्दो से लदी हुई होती है। यदि इन दोनो भाषाप्रो के पक्षपाती और समर्थक आमने- सामने खड़े होकर अपनी साहित्यिक भाषाओ मे बात करे तो शायद एक दूसरे का कुछ भी मतलब न समझ सके । हमारी राष्ट्रीय भाषा तो वही हो सकती है जिसका आधार सर्व-सामान्य बोधगम्यता हा--जिसे सब लोग सहज मे समझ सके । वह इस बात की क्यो परवाह करने लगी कि अमुक शब्द इसलिए छोड दिया जाना चाहिए कि वह फारसी, अरबी अथवा सस्कृत का है ? वह तो केवल यह मान-दण्ड' अपने सामने रखती है कि जन-साधारण यह शब्द समझ सकते है या नहीं । और जन-साधारण मे हिन्दू, मुसलमान, पंजाबी, बगाली, महाराष्ट्र और गुजराती सभी सम्मि- लित है। यदि कोई शब्द या मुहावरा या पारिभाषिक शब्द जन साधारण में प्रचलित है तो फिर वह इस बात की परवाह नहीं करती कि वह कहाँ से निकला है और कहाँ से आया है। और यही हिन्दुस्तानी है। और जिस प्रकार अंगरेजो की भाषा अगरेजी, जापान की जापानी, ईरान की ईरानी और चीन की चीनी है, उसी प्रकार हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय भाषा को इसी तौर पर हिन्दुस्तानी कहना केवल उचित ही नहीं, बल्कि आवश्यक भी है। और अगर इस देश को हिन्दुस्तान न कहकर केवल हिन्द कहे तो इसकी भाषा को हिन्दी कह सकते है । लेकिन यहाँ की भाषा को उर्दू तो किसी प्रकार कहा ही नहीं जा सकता, जब तक हम हिन्दुस्तान को उर्दूस्तान न कहने लगें, जो अब किसी प्रकार सम्भव ही नही है। प्राचीन काल के लोग यहाँ की भाषा को हिन्दी ही कहते

थे और खुसरो ने खालिकबारी की रचना करके हिन्दुस्तानी की नींवरखी थी । इस ग्रन्थ की रचना मे कदाचित् उसका यही अभिप्राय होगा कि जनसाधारण की आवश्यकता के शब्द उन्हे दोनो ही रूपो मे मिखलाये जाये, जिसमे उन्हे अपने रोजमर्रा के कामा मे सहूलियत हो जाय । अभी तक इस बात का निर्णय नही हो सका है कि उर्दू की सृष्टि कब और कहाँ हुई थी । जो हो, परन्तु भारतवर्ष की राष्ट्रीय भाषा न तो उर्दू ही है और न हिन्दी, बल्कि वह हिन्दुस्तानी है जो सारे हिन्दुस्तान मे समझी जाती है और उसके बहुत बडे भाग मे बोली जाती है लेकिन फिर भी लिखी कहीं नही जाती । और यदि कोई लिखने का प्रयत्न करता है तो उर्दू और हिन्दी के साहित्यिक उसे टाट बाहर कर देते है। वास्तव मे उर्दू और हिन्दी की उन्नति मे जो बात बाधक है, वह उनका वैशिष्ट्य प्रेम है । हम चाहे उर्दू लिखे और चाहे हिन्दी, जन-साधारण के लिए नही लिखते बल्कि एक परिमित वर्ग के लिए लिखते है। और यही कारण है कि हमारी साहित्यिक रचनाएँ जन-साधारण को प्रिय नहीं होती । यह बात बिलकुल ठीक है कि किसी देश मे भी लिखने और बोलने की भाषाएँ एक नही हुआ करतीं । जो अग्रेजी हम किताबो और अखबारो मे पढते है, वह कही बोली नहीं जाती । पढे लिखे लोग भी उस भाषा मे बातचीत नही करते, जिस भाषा मे ग्रन्थ और समाचार- पत्र आदि लिखे जाते है। और जन साधारण की भाषा तो बिलकुल अलग ही होती है । इग्लैण्ड के हरएक पढे-लिखे आदमी से यह अाशा अवश्य की जाती है कि वह लिखो जानेवाली भाषा समझे और अवसर पडने पर उसका प्रयोग भी कर सके । यही बात हम हिन्दुस्तान मे भी चाहते है।

परन्तु आज क्या परिस्थिति है ? हमारे हिन्दीवाले इस बात पर तुले हुए है कि हम हिन्दी से भिन्न भाषाओं के शब्दो को हिन्दी मे किसी तरह घुसने ही न देगे । उन्हे 'मनुष्य' से तो प्रेम है परन्तु 'आदमी' से पूरी-पूरी घृणा है। यद्यपि 'दरख्वास्त' जन-साधारण मे भली-भाति

प्रचलित है परन्तु फिर भी उनके यहा इसका प्रयोग वर्जित है। इसके स्थान पर वे 'प्रार्थना पत्र' ही लिखना चाहते है, यद्यपि जन-साधारण इसका मतलब बिल्कुल ही नही समझता । 'इस्तीफा' को वे किसी तरह मंजूर नहीं कर सकते और इसके स्थान पर 'त्याग-पत्र' रखना चाहते हैं। 'हवाई जहाज' चाहे कितना ही सुबोध क्यो न हो, परन्तु उन्हे 'वायुयान' की सैर ही पसन्द है। उर्दूवाले तो इस बात पर और भी अधिक लटू है । वे 'खुदा' को तो मानते है, परन्तु 'ईश्वर' को नहीं मानते । 'कुसूर' तो वे बहुत-से कर सकते है, परन्तु 'अपराध' कभी नहीं कर सकते। 'खिदमत' तो उन्हे बहुत पसन्द है, परन्तु 'सेवा' उन्हे एक श्राख भी नही भाती । इसी तरह हम लोगो ने उर्दू और हिन्दी के दो अलग- अलग कैम्प बना लिये है । और मजाल नहीं कि एक कैम्प का आदमी दूसरे कैम्प मे पैर भी रख सके । इस दृष्टि से हिन्दी के मुकाबले मे उर्दू मे कहीं अधिक कड़ाई है । हिन्दुस्तानी इस चारदीवारी को तोड़कर दोनों मे मेल-जोल पैदा कर देना चाहती है, जिसमे दोनो एक दूसरे के घर बिना किसी प्रकार के संकोच के आ-जा सकें और वह भी सिर्फ मेहमान की हैसियत से नहीं, बल्कि घर के आदमी की तरह । गारसन डि टासी के शब्दो मे उर्दू और हिन्दी के बीच मे कोई ऐसी विभाजक रेखा नहीं खीची जा सक्ती, जहाँ एक को विशेष रूप से हिन्दी और दूसरी को उर्दू कहा जा सके। अंग्रेजी भाषा के भी अनेक रग है। कही लैटिन और यूनानी शब्दो की अधिकता होती है, कहीं ऐग्लोसैक्सन शब्दो की । परन्तु हैं दोनो ही अंग्रेजी । इसी प्रकार हिन्दी या उर्दू शब्दो के विभेद के कारण दो भिन्न भिन्न भाषाएँ नही हो सकतीं । जो लोग भारतीय राष्ट्रीयता का स्वप्न देखते हैं और जो इस सास्कृतिक एकता को दृढ़ करना चाहते हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे लोग हिन्दुस्तानी का निमन्त्रण ग्रहण करें, जो कोई 'नयी भाषा नहीं है बल्कि उर्दू और हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरूप है।

संयुक्त प्रान्त के अपर प्राइमरी स्कूलों मे चौथे दरजे तक इसी मिश्रित
भाषा अर्थात् हिन्दुस्तानी की रीडरे पढाई जाती है। केवल उनकी लिपि अलग हाती है। उनकी भाषा मे कोई अन्तर ही नही हाता । इसमे शिक्षा-विभाग का उद्देश्य यह होगा कि इस प्रकार विद्यार्थियो मे बचपन मे ही हिन्दुस्तानी की नींव पड जायगी और वे उर्दू तथा हिन्दी के विशेष प्रचलित शब्दो से भली-भाति परिचित हो जायेगे और उन्हीं का प्रयोग करने लगेगे । इसमे दूसरा लाभ यह भी है कि एक ही शिक्षक शिक्षा दे सकता है । इस समय भी यही व्यवस्था प्रचलित है । लेकिन हिन्दी और उद के पक्षपातियो की ओर से इसकी शिकायते शुरू हो गयी है कि इस मिश्रित भाषा की शिक्षा से विद्यार्थियो को कुछ भी साहित्यिक ज्ञान नही होने पाता और वे अपर प्राइमरी के बाद भी साधारण पुस्तके तक नहीं समझते। इसी शिकायत को दूर करने के लिए इन रीडरो के अतिरिक्त अपर प्राइमरी दरजों के लिए एक साहित्यिक रीडर भी नियत हुई है। हमारे मासिक-पत्र, समाचार-पत्र अोर पुस्तके आदि विशुद्ध हिन्दी मे प्रकाशित होती है । इसलिए जब तक उर्दू पढ़नेवाले लड़को के पास पारसी और अरबी शब्दो का और हिन्दी पढ़नेवाले लड़को के पास सस्कृत शब्दों का यथेष्ट भण्डार न हो, तब तक वे उर्दू या हिन्दी की कोई पुस्तक नहीं समझ सकते । इस प्रकार बाल्यावस्था से ही हमारे यहा उर्दू और हिन्दी का विभेद आरम्भ हो जाता है। क्या इस विभेद को मिटाने का कोई उपाय नहीं है ?

जा लोग इस विभेद के पक्षपाती हैं, उनके पास अपने-अपने दावे की दलीले और तर्क भी मौजूद है । उदाहरण के लिए विशुद्ध हिन्दी के पक्षपाती कहते हैं कि संस्कृत की ओर मुकने से हिन्दी भाषा हिन्दुस्तान की दूसरी भाषाओ के पास पहुँच जाती है, अपने विचार प्रकट करने के लिए उसे बने-बनाये शब्द मिल जाते हैं, लिखावट मे साहित्यिक रूप आ जाता है, आदि आदि । इसी तरह उर्दू का झण्डा लेकर चलने- बाले कहते हैं कि फारसी और अरबी की ओर झुकने से एशिया की दूसरी भाषाएँ, जैसे फारसी और अरबी, उर्दू के पास आ जाती हैं। अपने विचार प्रकट करने के लिए उसे अरबी का विद्या-सम्बन्धी भडार मिल जाता है, जिससे बढ़कर विद्या की भाषा और कोई नहीं है, और लेखन-शैली मे गम्भीरता और शान आ जाती है, आदि, आदि । इस- लिए क्यो न इन दोनो को अपने-अपने ढग पर चलने दिया जाय और उन्हे अापस मे मिलाकर क्यों दोनो के रास्तों मे रुकावटे पैदा की जाये ? यदि सभी लोग इन तकों से सहमत हो जाये, तो इसका अभिप्राय वही होगा कि हिन्दुस्तान मे कभी राष्ट्रीय भाषा की सृष्टि न हो सकेगी। इसलिए हमे आवश्यक है कि जहाँ तक हो सके, हम इस प्रकार की धारणाओ को दूर करके ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करे जिससे हम दिन पर दिन राष्ट्रीय भाषा के और भी अधिक समीप पहुँचते जायें, और सम्भव है कि दस-बीस वर्षों में हमारा स्वप्न यथार्थता मे परिणत हो जाय। हिन्दुस्तान के हरएक सूबे मे मुसलमानो की थोड़ी-बहुत संख्या मौजूद ही है । सयुक्तप्रान्त के सिवा और-और सूबो मे मुसलमानो ने अपने- अपने सूबे की भाषा अपना ली है । बंगाल का मुसलमान बगला बोलता और लिखता है, गुजरात का गुजराती, मैसूर का कन्नड़ी, मदरास का तामिल और पंजाब का पजाबी आदि । यहाँ तक कि उसने अपने-अपने सूबे की लिपि भी ग्रहण कर ली है । उर्दू लिपि और भाषा से यद्यपि उसका धार्मिक और सास्कृतिक अनुराग हो सकता है, लेकिन नित्यप्रति के जीवन मे उसे उर्दू की बिलकुल आवश्यकता नही पडती । यदि दूसरे- दूसरे सूबो के मुसलमान अपने-अपने सूबे की भाषा निस्सकोच भाव से सीख सकते है और उसे यहाँ तक अपनी भी बना सकते है कि हिन्दुओं और मुसलमानो की भाषा मे नाम को भी कोई भेद नहीं रह जाता, तो फिर संयुक्तप्रान्त पार पजाब के मुसलमान क्यो हिन्दी से इतनी घृणा करते है ?

हमारे सूबे के देहातो मे रहनेवाले मुसलमान प्रायः देहातियो की भाषा ही बोलते हैं । जो बहुत से मुसलमान देहातो से आकर शहर में आबाद हो गये हैं, वे भी अपने घरों मे देहाती जबान ही बोलते है।
बोल-चाल की हिन्दी समझने मे न ता साधारण मुसलमानो को ही कोई कठिनता होती है और न बोल चाल की उर्दू समझने मे माधारण हिन्दुओ को ही । बोल-चाल की हिन्दी और उर्दू प्राय, एक-सी ह' हैं। हिन्दी के जो शब्द साधारण पुस्तको और समाचार पत्रों मे व्यवहृत होते है और कभी-कभी पण्डितो के भाषणो मे भी आ जाते है, उनकी संख्या दो हजार से अधिक न हागी । इसी प्रकार फारसी के साधारण शब्द भी इससे अधिक न होगे । क्या उर्दू के वर्तमान कोषो मे दा हजार हिन्दी शब्द और हिन्दी के कोषो मे दो हजार उर्दू शब्द नहीं बढाये जा सकते और इस प्रकार हम एक मिश्रित कोष की सृष्टि नहीं कर सकते क्या हमारी स्मरण-शक्ति पर यह भार असह्य होगा ? हम अंग्रेजी के असंख्य शब्द याद कर सकते है भार वह भी केवल एक अस्थायी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए। तो फिर क्या हम एक स्थायी उद्देश्य की सिद्धि के लिए थोड़े से शब्द भो याद नहीं कर सकते ? उद और हिन्दी भाषामो मे न तो अभी विस्तार ही है और न दृढ़ता। उनके शब्दो की संख्या परिमित है । प्रायः साधारण अभिप्राय प्रकट करने के लिए भी उपयुक्त शब्द नहीं मिलते । शब्दा की इस वृद्धि से यह शिका- यत दूर हो सकतो है।

भारतवर्ष की सभी भाषाएँ या तो प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से सस्कृत से निकली हैं। गुजराती, मराठो भार बॅगला की तो लिपियाँ भी देवनागरी से मिलती-जुलती है। यद्यपि दक्षिणी भारत की भाषाओ की लिपियों बिलकुल भिन्न है; परन्तु फिर भी उनमे सस्कृत शब्दों की बहुत अधिकता है । अरबी और फारसी के शब्द भी सभी प्रान्तीय भाषाओ मे कुछ न-कुछ मिलते है । परन्तु उनमे संस्कृत शब्दो की उतनी अधिकता नही होतो, जितनी हिन्दी मे होती है। इसलिए यह बात बिलकुल ठीक है कि भारतवर्ष मे ऐसी हिन्दी बहुत सहज में स्वीकृत और प्रचलित हो सकती है जिसमे संस्कृत के शब्द अधिक हो। दूसरे प्रान्तो के मुसलमान भी ऐसी हिन्दी सहज मे समझ सकते हैं परन्तु

फारसी और अरबी के शब्दो से लदी हुई उर्दू भाषा के लिए संयुक्त प्रान्त और पंजाब के नगरों और कस्बो तथा हैदराबाद के बड़े-बडे शहरो के सिवा और कोई क्षेत्र नहीं । मुसलमान संख्या मे अवश्य आठ करोड़ हैं, लेकिन उर्दू बोलनेवाले मुसलमान इसके एक चौथाई से अधिक न होगे । ऐसी अवस्था मे क्या उच्चकोटि की राष्ट्रीयता के विचार से इसकी आवश्यकता नहीं है कि उर्दू मे कुछ आवश्यक सुधार और वृद्धि करके उसे हिन्दी के साथ मिला लिया जाय ? और हिन्दी मे भी इसी प्रकार की वृद्धि करके उसे उर्दू से मिला दिया जाय ? और इस मिश्रित भाषा को इतना दृढ कर दिया जाय कि वह सारे भारतवर्ष मे बोली-समझी जा सके ? और हमारे लेखक जो कुछ लिखे, वह एक विशेष क्षेत्र के लिए न हो बल्कि सारे भारतवर्ष के लिए हो ? सिन्धी भाषा इस प्रकार के मिश्रण का बहुत अच्छा उदाहरण है । सिन्धी भाषा की केवल लिपि अरबी है, परन्तु उसमे हिन्दी के सभी तत्त्व सम्मिलित कर लिये गये है। और शब्दो की दृष्टि से भी उसमे सस्कृत, अरबी और फारसी का कुछ ऐसा सम्मिश्रण हो गया है कि कहीं खटक नही मालूम होती । हिन्दुस्तानी के लिए भी कुछ इसी प्रकार के सम्मिश्रण की आवश्यकता है ।

जो लोग उर्दू और हिन्दी को बिलकुल अलग-अलग रखना चाहते हैं, उनका यह कहना एक बहुत बड़ी सीमा तक ठीक है कि मिश्रित भाषा मे किस्से-कहानियाँ और नाटक आदि तो लिखे जा सकते हैं, परन्तु विज्ञान और साहित्य के उच्च विषय उसमे नहीं लिखे जा सकते । वहाँ तो विवश होकर फारसी और अरबी के शब्दो से भरी हुई उर्दू और सस्कृत के शब्दो से भरी हुई हिन्दी का व्यवहार आवश्यक हो जायगा । विज्ञान और विद्या-सम्बन्धी विषय लिखने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उप- युक्त पारिभाषिक शब्दों की होती है । और पारिभाषिक शब्दो के लिए हमे विवश होकर अरबी और संस्कृत के असीम शब्द-भण्डारो से सहा- यता लेनी पड़ेगी । इस समय प्रत्येक प्रान्तीय भाषा अपने लिए अलग- अलग पारिभाषिक शब्द तैयार कर रही है । उर्दू मे भी विज्ञान-सम्बन्धी
पारिभाषिक शब्द बनाये गये है और अभी यह क्रम चल रहा है। क्या यह गत कहीं अधिक उत्तम न होगी कि भिन्न भिन्न प्रान्तीय सभाएँ और सस्थाएँ आपस मे मिलकर परामर्श करें और एक दूसरी की सहायता से यह कठिन कार्य पूरा करे ? इस समय सभी लोगो को अलग अलग बहुत कुछ परिश्रम, माथापच्ची और व्यय करना पड़ रहा है और उसमे बहुत कुछ बचत हो सकती है । हमारी समझ मे तो यह आता है कि नये सिरे से पारिभाषिक शब्द बनाने की जगह कहीं अच्छा यह होगा कि अंग्रेजी के प्रचलित पारिभाषिक शब्दो मे कुछ आवश्यक परिवर्तन करके उन्हीं को ग्रहण कर लिया जाय । ये पारिभाषिक शब्द केवल अंग्रेजी मे ही प्रचलित नही है बल्कि प्रायः सभी उन्नत भाषात्रो में उनसे मिलते जुलते पारिभाषिक शब्द पाये जाते हैं। कहते हैं कि जापानियों ने भी इसी मार्ग का अवलम्बन किया है और मिस्र मे भी थोडे बहुत सुधार और परिवर्तन के साथ उन्ही को ग्रहण किया गया है । यदि हमारी भाषा में बटन, लालटेन और बाइसिकिल सरीखे सैकडो विदेशी शब्द खप सकते है तो फिर पारिभाषिक शब्दो को लेने में कौन-सी बात बाधक हो सकती है ? यदि प्रत्येक प्रान्त ने अपने अलग-अलग पारिभाषिक शब्द बना लिये तो फिर भारतवर्ष की कोई राष्ट्रीय विद्या और विज्ञान-सम्बन्धी भाषा न बन सकेगी। बॅगला, मराठी, गुजराती और कन्नडी आदि भाषाएँ सस्कृत की सहायता से यह कठिनता दूर कर सकती है । उर्दू भी अरबी और फारसी की सहायता से अपनी पारिभाषिक आवश्यकताएँ पूरी कर सकती है। परन्तु हमारे लिए ऐसे शब्द प्रचलित अँग्रेजी पारिभाषिक शब्दों से भी कही अधिक अपरिचित होगे । 'आईन अकबरी' ने हिन्दू दर्शन, सगीत और गणित के लिए सस्कृत के प्रचलित पारिभाषिक शब्द ग्रहण करके एक अच्छा उदाहरण उपस्थित कर दिया है । इस्लामी दर्शन, धर्म-शास्त्र आदि में से हम प्रचलित अरबी पारिभाषिक शब्द ग्रहण कर सकते है । जो विद्याएँ पाश्चात्य देशो से अपने-अपने पारि- भाषिक शब्द लेकर आयी हैं, यदि उन्हें भी हम उन शब्दों के सहित ग्रहण कर लें तो यह बात हमारी ऐतिहासिक परम्परा से भिन्न न होगी। यह कहा जा सकता है कि मिश्रित हिन्दुस्तानी उतनी सरस और कोमल न हागी । परन्तु सरसता और कोमलता का मान दण्ड सदा बदलता रहता है । कई साल पहले अचकन पर अंग्रेजी टोपी बेजोड और हास्यास्पद मालूम होती थ। । लेकिन अब वह साधारणतः सभी जगह दिखायी देती है । स्त्रियो के लिए लम्बे-लम्बे सिर के बाल सौन्दर्य का एक विशेष स्तम्भ है, परन्तु आजकल तराशे हुए बाल प्रायः पसन्द किये जाते है। फिर किसी भाषा का मुख्य गुण उसकी सरसता नहीं है, बल्कि मुख्य गुण तो अभिप्राय प्रकट करने की शक्ति है। यदि हम सरसता और कोमलता की कुरबानी करके भी अपनी राष्ट्रीय भाषा का क्षेत्र विस्तृत कर सके तो हमे इसमे सकोच नही होना चाहिए । जब कि हमारे राज- नीतिक ससार मे एक फेडरेशन या सघ की नींव डाली जा रही है. तब क्यों न हम साहित्यिक ससार मे भी एक फेडरेशन या संघ की स्थापना करे, जिसमे हरएक प्रान्तीय भाषा के प्रतिनिधि साल मे एक बार एक सप्ताह के लिए किसी केन्द्र मे एकत्र होकर राष्ट्रीय भाषा के प्रश्न पर विचार-विनिमय करे और अनुभव के प्रकाश में सामने आनेवाली समस्याओं की मीमासा करे ? जब हमारे जीवन की प्रत्येक बात और प्रत्येक अग मे परिवर्तन हो रहे हैं और प्रायः हमारी इच्छा के विरुद्ध भी परिवर्तन हो रहे हैं, तो फिर भाषा के विषय मे हम क्यो सौ वर्ष पहले के विचारो और दृष्टिकोणो पर अडे रहे १ अब वह अवसर आ गया है कि अखिल भारतीय हिन्दुस्तानी भाषा और साहित्य की एक सभा या संस्था स्थापित की जाय जिसका काम ऐसी हिन्दुस्तानी भाषा की सृष्टि करना हो जो प्रत्येक प्रान्त में प्रचलित हो सके । यहाँ यह बताने की आवश्य- कता नहीं कि इस सभा या संस्था के कर्त्तव्य और उद्देश्य क्या होगे । इसी सभा या संस्था का यह काम होगा कि वह अपना कार्य-क्रम तैयार करे। हमारा तो यही निवेदन है कि अब इस काम मे ज्यादा देर करने की गुञ्जाइश नहीं है ।

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